हिंदी दलित कविता का स्वरुप
भारत
एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ विभिन्न संस्कृतियों, कलाओं, धर्मों एवं भाषाओं का संगम है जिसमें
विविध समुदायों,
वर्गों के लोग जीवन यापन करते हैं।
सबका जीवन समान और सुचारू रूप से चल सके इसलिये एक संविधान का निर्माण किया गया है; जिसमें सम्पूर्ण देशवाशियों के लिए एक
सामान व्यवस्था है एवं दलित, शोषित, उपेक्षित, गरीब, असहाय और पीड़ित वर्ग के हितो के रक्षा
के लिए बहुत से कानून है। परन्तु आश्चर्य होता है कि ये लोग शोषण मुक्त नहीं है।
जिसकी लड़ाई आजाद भारत में भी चल रही है। बहुत से संगठनिक, राजनीतिक, साहित्यिक आन्दोलन देश के कोनें-कोनें
चल रहे हैं। अपने हक़ के लिए हर कोई आवाज उठा रहा है। मानव-मानव में समानता के लिए
जद्दोजहद चल रही है। सभी यह चाहते हैं कि सामान अधिकार और सम्मान मिले। इसी लड़ाई
को समाज में सदियों से बेबस और बदतर जिन्दगी जी रहे दलित वर्ग लड़ रहे हैं।
उन्होंने
अपनी आवाज साहित्य के विभिन्न विधाओं के माध्यम से उठाया है। कविता उसी सबमें एक
सशक्त विधा है। जिसने दलित समाज के लोगों के अंदर चेतना का संचार किया है। इन
शोषित लोगों ने अपने दुःख दर्द को कहने के लिए स्वयं की भाषा, सौन्दर्य का निर्माण किया। तब हिन्दी
साहित्य के प्रबल समर्थकों ने दावा किया कि दलित हित में हिन्दी साहित्य में बहुत
कुछ लिखा गया है। परन्तु कितने भी दावे किये जाय, नारे लगाये जाय, सब व्यर्थ है। क्योंकि दलित रचनाकारों
ने सिद्ध कर दिया है कि उसमें वह संवेदना नहीं है जो दलित साहित्य में है। इस विषय
में संदीप जायसवाल द्वारा लिखित विचार उपयुक्त है “कि इसी के साथ यह बात भी ढींगर है कि
नवजागरण काल में दलित चेतना को विशिष्ट
रुप में नहीं व्याख्यायित किया गया, बल्कि
गाँधी, आचार्य शुक्ल, प्रेमचंद निराला आदि की दृष्टि में
सम्पूर्ण शोषित समाज था एक संवेदनशील रचनाकार अपनी संवेदना को जातीय नहीं वैश्विक
और सार्वजनीन पृष्ठभूमि में देखता है। निराला जब प्रभु से प्रार्थना करते हैं –
‘दलित जन पर करो करूणा
दीनता
पर उतर आये प्रभु तुम्हारी शक्ति अरूणा”1
इस
प्रकार दलित साहित्य में प्रभु करूणा और दया नहीं है। वल्कि शोषण के लिए निर्मित
सारे जड़ों को उखाड़ फेकने की प्रतिबद्धता है। दलित कविता के स्वरुप की निर्मिती से
पहले दलित कविता को समझना आवश्यक है। दलित कविता दलित जीवन की यथार्थ कथा कहती है।
यह कविता हवा में बात न कर जीवन के सच्चाईयों से रूबरू कराती है।यह न तो कल्पना
में डूबती है और न हि सौन्दर्य खोजती है। इसके माध्यम से दलित कवि अपनी बात करते
हैं। जिसमें उनके जीवन के अनुभव और दलित समाज के अनुभव व्यक्त होते हैं।
दलित कवियों की कविता पढ़ते समय संवेदनशील
व्यक्ति के सामने विभिन्न प्रकार के चित्र उभरकर सामने आ सकते हैं। कभी वह क्रोधित
हो जाता है तो कभी गहन विचार धारा में डूब जाता है। या कह सकते हैं जो भुक्तभोगी
रहता है उसकी आँखे नम हों जाती है।जिसका वर्णन दलित कवि कविता के माध्यम से
करतेहैं। यह दलित जीवन के दमित, शोषित, पीड़ित लोगों के अन्दर पूर्व परम्परागत
व्यवस्था के प्रति नकार और विद्रोह का रूप जागृत करती है। यह कविता लोगों के बंद
आँखों को खोलती है। उनके अधिकारों और आत्मसम्मान के प्रति सचेत करती है। हरपाल
सिंह ‘अरुष’ दलित कविता के विषय में लिखते हैं कि “कविता पर पर्याप्त विचार किया जाना
चाहिए इस लिए जरूरी है क्योंकि कविता ग्राहता,स्वीकार्यता और प्रभावशीलता के नाजुक
स्वभाव के कारण संवेदात्मक अभिव्यक्ति का सशक्त कलात्मक माध्यम है। यहाँ पर यह जान
लेना बहुत जरूरी है कि दलित काव्य पारम्परिक काव्य की अपेक्षा आगे के स्तर पर जाकर
क्रिया शील हो रहा है।”2
दलित कविता आज ऐसे विमर्श के रूप में उभरकर आयी
है जिसने पूर्व परम्परा का खंडन किया है, साथ ही अपनी अलग पहचान बनाई है। इसके अलावा हिन्दी साहित्य के विकास
में सहायक भी सिद्ध हो चुकी है। अब यह भी कहा जाने लगा है कि हिंदी साहित्य को एक
नया विमर्श मिला, जिसने
समाज की सच्चाइयों को उजागर किया। जिसको परम्परागत साहित्यकार छोड़ते रहे है।
हलाकि
दलित साहित्य की झलक हमे संत साहित्य में दिखाई देती है। जिनमें से कबीर,रैदास आदि संतो का नाम उल्लेखनीय है, जिसको भुलाया नहीं जा सकता है। परन्तु
दलित कविता का जो वास्तविक रूप मिला है। वह हीराडोम की कविता से मिलता है। क्योंकि
उसके पहले ऐसी वेदना कहीं नहीं मिलती, जितनी इस कविता में मिलती है। संत साहित्य भी उतना विस्तार दलित
कविता का नहीं कर पाया। जितना हीरा डोम की कविता में दिखाई देता है। उन्होंने
कविता के माध्यम से अनेक सवाल उठाया है। जो तार्किक और यथार्थ है, जिसका असर तात्कलिक समाज पर पड़ा।
क्योंकि उन्होंने भगवान को भी कटघरे में खड़ा किया है। कँवल भारती ने लिखा है “अछूतानन्द की परम्परा के दलित कवि
केवलानंद ने वर्णव्यवस्था का बहुत ही वैज्ञानिक खंडन करते हुए यह कविता लिखा है -
“ब्राह्राण कहते मुख से पैदा मुख फार
फिर आये क्यों ना ?
क्षत्री
कहते भुजा से पैदा भुजा फार फिर आयें क्यों ना।
बनिया
कहते उदर से पैदा टूंडी में बिल बनायें क्यों ना।
चारो
वरण भाग द्वारे ही आये कहने में शर्मायें क्यों ना।”3
इस
प्रकार के वैज्ञानिक और तार्किक सवाल का जवाब किसी के पास नहीं रहा। यह वर्ण
व्यवस्था पर जबरदस्त प्रहार है।
हमारे समाज में धारणा तो ऐसी रही कि मानव का
जन्म पुरूष के मुख से हुआ है,जिसका
उल्लेख वेदों में मिलता है। इसलिए जो निचले क्रम यानी पैर से उत्पन्न हुआ है, वह सबकी सेवा करेगा। परन्तु यह
अतार्किक सिद्ध हो चुका है, क्योंकि
इसका खंडन केवलानन्द ने पहले ही कर दिया
था। साथ ही चेतावनी भी,दी
कि सभी एक ही रास्ते से आये हैं, यह
कहने से तुम क्यों भाग रहे हो। दलित साहित्य के विषय में सी. बी. भारती ने लिखा है
कि “दलित साहित्य काव्यशास्त्रीय पद्धतियों,काव्य चेतनाओं वर्जनाओं का कोई बंधन
नहीं स्वीकार करता। वह प्राच्य व पाश्चात्य सौन्दर्य निरूपण पद्धतियों को नकारता
है। दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र महान यूनानी विचारक सुकरात के इन विचारों का
अनुगामी है कि ‘गोबर से भरी टोकरी भी सुन्दर बन जाती
है,या वह अपना सब कुछ उपयोग रखती है। जबकि
सुवर्णढाल भी असुन्दर है,यदि
वह उपयोग की दृष्टि से अपूर्ण है’ सुकरात
के इस विचारधारा के अनुसार अधिकतम हिन्दी साहित्य निरर्थक व अनुपयोगी सिद्ध होता
है।”4दलित कविता में परम्परागत सौन्दर्य को
खोजना बेईमानी है। क्योंकि इस कविता के केंद्र में दमित, शोषित, पिछड़ा, लाचार है। इनका सौन्दर्य भूखे पेट को
भरने के लिए साधन जुटाने में समाहित हो जाता है। वह अपने उपयोग की वस्तुओं में
अपना सौन्दर्य देखता है। मजदूरी करते समय प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं रापी, कुदाल, फावड़ा,हसियां आदि उसके लिए सौन्दर्य है।
प्रो. टी कट्टीमनी ने इसका उल्लेख दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र का समाज
विज्ञान नामक लेख में लिखा है कि “दलित
साहित्य के कथावस्तु में न ताजमहल की सुन्दरता है न लाल किये की भव्यता है। मामूली
से मामूली गरीब,
लाचार, अशिक्षित फटीचर, घर बार हीन, मूक दलित इस साहित्य का नायक है तथा
केन्द्र विंदु है।”5
इस
प्रकार जब वे देखते हैं कि पूर्व विद्धानों ने उन्हें सदैव हाशिए पर रखा तब अपनी
बात को अपने भाषा में कहना शुरू किया। जिससे कविता के नयें स्वरूप का जन्म हुआ
जिसका उल्लेख संदीप जयसवाल ने ‘भारतीय
दलित काव्य की वास्तविकताएँ नामक लेख’ में लिखा है कि “कविता
का स्वभाव ही वेदना और पीड़ा में ढला होता है। अत: दलित लेखक कविता जैसी सशक्त विधा
से दूरी बनाकर अपनी भावनाओं को कैसे अभिव्यंजित कर पाते। आधुनिक काल में छपाई की
सुविधाओं और दलित आन्दोलन के 1960 के आस-पास उभार ने आधुनिक दलित कविता का नया रूप
गढ़ा।”6
दलित कविता के स्वरुप का निर्धारण अचानक
असमान से नहीं टपका बल्कि सदियों से हुए अन्याय का परिणाम है जिसने उन लोगों की
चेतना को झकझोरा जो सदियों से मूक बने
रहे। चारों तरफ चौखटों में जकडे हुए थे। महान समाजशास्त्री राजनीतिज्ञ और चिंतक
रूसो का यह कथन सवर्था सत्य सिद्ध हुआ। जिसने कहा था कि ‘मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, परन्तु चारों तरफ जंजीरों में जकड़ा हुआ
है’। दलितों का जीवन तो ऐसा ही रहा, जब वह पैदा होता है और बड़ा होने पर
दुनिया को देखता है। फिर अपने आप को उस सामाजिक समानता के तराजू में तौलता है। तब
दुनिया के सातों अजूबे कमजोर पड़ जाते हैं। उसके अपमान, तिरस्कार और शोषण के आगे, क्योंकि जानवरों की हालत तो ठीक थी पर
इनकी नहीं। लेकिन अब वर्तमान में उनकी आँखें खुली, तब कुछ सामाजिक परिवर्तन दिखा।
स्वतंत्रा पूर्व की स्थिति दलित कविता के लिए बहुत अच्छी नहीं रही। उसमें वह तेवर
नहीं था जो स्वतंत्रा के बाद की कविता में दिखाई पड़ता है। कँवल भारती ने लिखा है कि “जिस समय हिन्दी में ‘नया क्या है’ और कविता क्या है? कि बहस चल रही थी, उस समय दलित कवियों की दूसरी ओर नई
पीढ़ी तैयार हो रही थी।अभिप्राय यह है कि हिन्दी में दलित कविता अपने सामाजिक
सरोकारों के साथ तब भी थी,जब
भद्र कवि बसंत,
सामंतो की प्रशस्तियाँ और हिंदुत्व लिख
रहे थे।यदि हम 1950 तक की हिन्दी कविता को देखे तो वह इसी रास रंग की कविता है।
उसमें वसंत की बहार है।
देस देस मैं मचति मंजू मन मादक
होरी
उड़त अबीर गुलाल चोच सो झोरी
चारहु ओर घमार चारू चैती धुनी गावत
उफ़ मृदंग कर ताल ताल मुह चंग
बजावत।”7
उस समय कविता में रास रंग की बातें ज्यादा चल
रही थी। लग रहा था समाज में कोई समस्या ही न रही हो। उस समय बाबू जगन्नाथ [1900]
महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथली
शरण गुप्त 1908,
सियाराम शरण गुप्त 1912, जयशकर प्रसाद 1936, की कविताओं को को देखकर लगता है कि तात्कालिक समाज में कोई
समस्या ही नहीं थी। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। जनता खुश थी, कोई सामाजिक समस्या नहीं थी, न ही आर्थिक समस्या थी। लेकिन दलित
कविता इससे अलग स्वरुप लिए हुए है। इसमें रास, रंग, गीत-संगीत का अभाव है। प्रो. टी.
कट्टीमणि द्वारा वर्णित इन पंक्तियों से समझा जा सकता हैं जिसमें उन्होंने ने कहा
है कि “यह समझने के लिए एवं दलित साहित्य की
मूल संवेदना का विश्लेष्ण करने के लिए हमें भारतीय समाज विज्ञान का विश्लेष्ण करना
अनिवार्य बन जाता है –
ओ
रास्ते में जाने वाले
मुझे
गाने को मत कह देना
यह
नहीं गाना
है
अंतड़ियों की धड़कती आग
जैसी
कविता में रचना का यहीं संकेत अभिव्यक्त होता है। रास्ते में जाने वाले कवि से
अनुरोध करते हैं कि गाओ, तुम्हारा
गाना सुन्दर है लेकिन कलाकार कहता है यह गाना नहीं है और मैं गा भी नहीं सकता, क्योंकि यह मेरे अताडियों की अग्नि है, इसलिए मैं गा नहीं पाता, इस तरह गाने के लिए अनुरोध करने वालों
को विनयपूर्वक नकार देता है।”8
दलित कविता में दुःख- दर्द मिलता है न कि आनंद और संगीत। दलित लेखक मुक्ति के लिए
लिखते हैं। भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति करते
हैं। सूखे पड़ चुके वृक्षों में जान डालते हैं और काठ बन चुके जड़ बुद्धि
वालों को फटकारते हैं।
यह
सब वह समाज में भाईचारा बनायें रखने के लिए करते हैं। पराधीनता को त्यागकर
स्वाधीनता के लिए तत्पर दिखाई देते हैं। ‘भारतीय दलित साहित्य के विद्रोही स्वर’ की प्रस्तावना में विमल थोराट ने लिखा
है कि “दलित कवि का यह तेवर संघर्ष के अलाव
में पककर आता है, वह
जानता है कि अब तक की सहनशीलता और कर्म सिंद्धांत के झूठ से भयभीत दलित वर्ग को
दास्यत्व से मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती जब तक वह स्थापित मूल्यों से सीधे नहीं
टकराता। बाबा साहब ने कहा था ‘गुलाम
को जब यह अहसास होगा कि वह गुलाम हैं तो उन बेड़ियों को खुद ही काटकर फेकेंगा'। पंजाबी के सशक्त हस्ताक्षर मदनवीरा
ने गुलामी का वह दर्दनाक अहसास और मुक्ति की आकांक्षा की ताकत को घोड़े की
प्रतिकात्मक शक्ति के रूप दर्शायी है –
घोड़े
के पास। सिर्फ हां में हिलाने के लिए सिर है
नर्म
पीठ है
और
दिशाहीन वह दौड के लिए चार टागें हैं
वह
दौड़ता है सवार के हुक्म पर.....
घोड़ा
नहीं जानता है कि वह पैरों से खोद सकता है धरा
दुलतित्यों
से तोड़ सकता स्वर चेहरा...।”9
एक
बात सर्वथा सत्य है कि जुल्म करने वाले से ज्यादा गुनाहगार जुल्म सहने वाला होता
है। अगर लगातार किसी ने गुलाम बनाने की साजिश की तो इसमें कुछ दोष उन लोगों का है
जो जानबूझकर अनजान बने रहे। लेकिन यहाँ तो दुनियां रोज बनती और बिगड़ती है। कल जो सो रहा था वह आज जाग रहा है। दलित
कविताओं ने दलित चेतना को, न
केवल जगाया बल्कि सीधे-सीधे बुत हो चुके मस्तिष्क पर जबरजस्त प्रहार किया।
तब-लोगों की आँखें खुल गयी, वीभत्स
जीवन को देखकर रूह काप गयी, कलेजे
हाथ में अ गए।
दलित
कविता पर आरोप-प्रत्यारोप भी लगनें लगे,अनगढ़पन, खुदरापन, विद्रोहीपन,असभ्य आदि। लेकिन जितने भी आरोप लगे
उसे निराधार करते हुए। दलित रचनाकार बेपरवाह होकर अपनी बात कह रहे हैं। क्योंकि अब
उनके समझ में स्वत्रंता और समानता का मार्ग आ गया है। वह अब सपाटबयानी से नहीं
बल्कि अपनी अनुभूतियों के आधार पर रचना कर रहे हैं।
प्रेम और सौन्दर्य की प्रशंसा करने वालों को
क्या समाज के इस वर्ग को नहीं देखना चाहिए? हिंदी साहित्य की दृष्टि से 1900 से
1918 तक का समय जागरण सुधार काल माना जाता है। पर इस काल के कवि भी न दलित
रचनाशीलता से परिचित नजर आते हैं,न
ही उनकी कविता में दलित प्रश्न दिखाई पड़ता है। इस प्रकार देखा गया है कि आज दलित
अपने बनाये मार्ग के अनुसार उच्चतम शिखर पर पहुँच रहा है। तब सब लेखन की समस्या को
लेकर चल रहे हैं। आखिर इनको पहले ये समस्या क्यों नहीं दिखी? आज जब इन्होंने अपनी शक्ति पहचानी और
अपनी शक्ति का अहसास हुआ तब इन्होंने शोषण के खिलाफ आवाज उठाया है। जिससे हमारा
साहित्य एक लम्बे समय तक अछूता रहा है। उसको दलित कवियों ने जोड़ने का प्रयास किया।
दलित कविता केवल नकार और विद्रोह तक सीमित नहीं है। बल्कि यह समाज के सबसे निचले
से निचले व्यक्ति की पहचान कराती है। उनको अधिकार और सम्मान दिलाने के लिए लड़ती
नजर आती है। जब जागरण सुधार काल चल रहा था उसी समय हीरा डोम ने अपनी आवाज उठाई थी।
जिनके बारे में कँवल भारती ने लिखा है कि “हीरा डोम उसी काल खंड में ईश्वर को
कटघरे में खड़ा कर रहे थे। वह पूँछ रहे थे की खम्भा फाड़कर प्रह्लाद को बचाने वाला
और कनकी अंगुली पर पर्वत उठाने वाला भगवान अछूतों की क्यों नहीं सुनता? क्या वह भी डोम जान उन्हें छूने से
डरता है? यथा
खम्भवा के फारी प्रह्लाद के
बचवले जो
ग्राह
के मुहें से गजराज के बचवले
धोती
जुरजोधना कई भैया छोरत रहै
परगट
होके तहां कपडा बढ़वले।
मरले
रवानवाँ के पलले भभिखना के,
कानी
अंगुरी पै धैके पथरा उठवले।
कहंवा
सुतल वाटे अब,डोमा जानि हमनी के छुए से देरइले।।”10
हीरा
डोम ने इस प्रकार के सवाल उठाकर उस समय के कवियों को निरुत्तर कर दिया था। क्योंकि
उन्होंने अपनी कविता में जो प्रखर दलित चेतना को उभारा वह तार्किक है। जिसमें
उन्होंने भगवान को केंद्र बिन्दु में रखा है। सीधा-सीधा उन्हीं से पूछना की जाति
के नाम पर तू भी भेदभाव करता है। क्योंकि जब भी सवर्णों पर मुसीबत आयी है। तेरा
अवतार हुआ है,
तुझे हमारे मुसीबतो का एहसास नहीं हुआ
है। जब सब तेरे ही संतान हैं तो ये कैसा भेदभाव। तभी उस परम्परागत व्यवस्था के
सम्मुख सवाल खड़ा होता है कि अगर मेरा नहीं सुनता तो मै विश्वाश कैसे करू तुझ पर? दलित कवि सब का विरोध करते हैं। धर्म
का ईश्वर का,सौन्दर्य का शिल्प का आदि। इन कवियों
की मान्यता है कि समाज में सबको सामान दृष्टि से देखा जाना चाहिए। दलित कविता की
जो धारा संत साहित्य से होकर चली थी। वह अब धीरे-धीरे वास्तविक रूप में पहुँच चुकी
है। अर्थात आजादी के बाद इस कविता का काफी विकास हुआ।जिसमें यह मुख्य धारा में जा
मिली है। इस प्रकार अब जो कवि आये हैं वे तेवर के साथ उपस्थित होते हैं। वह सीधा
जवाब देना सीख गये हैं। वे अब किसी भी तरह की गफलत में नहीं पड़ना चाहते हैं। बल्कि
अपने अभिव्यक्ति को बड़े तेवर के साथ प्रस्तुत करते हैं। कविता के विषय में कहा
जाता है।“अभिव्यक्ति में सहज होने पर भी तासीर
उत्तेजक है।ये आवेग और आवेश की कवितायें हैं। ज्वलनशीलता इन कविताओं का गुण धर्म
है। ये तेजाब में भिगोयी कवितायें है। इन कविताओं को पढ़ते समय जबान जलती है, आँखे सुर्ख हो जाती है, मन संताप से भर आता है, सब कुछ नोच-चोट देने की तबियत होती है।
मनुष्य को हजारों हजार सालों से जिस तरह कीलित रहना पड़ा, उसके अतीत वर्तमान और आगामी काल को
अंधकार से भर दिया गया था।सारी भावनाएं छीन ली गयी थी। उन्हें खोज लाने वाले ये
अग्नि धर्मी कविहै।11 दलित कविता में कवि उस घटना की ओर ध्यान देते हैं, कि उनके पुरखों को किस प्रकार से
अपमानित किया गया। वह अपने आप को लिखने से रोक नहीं पाते हैं। उसके स्मृतियों में
घोर अपमान के खिलाफ आवाज उठाना उनका दायित्त्व हो जाता है। ये इन सब पाखंडो
अंधविश्वास के तहस- नहस कर देना चाहते हैं जो उन्हें जीवन जीने का अधिकार तक नहीं
देना चाहते थे।इसलिए इन्होंने अपनी एक नई दृष्टि विकसित की। वर्चस्वशाली सभ्यता एवं संस्कृति के हजारों
वर्ष के इतिहास को प्रश्नांकित कर नए स्वरुप का निर्माण किया।
यह कोई शून्य में विकसित नहीं हुई। इसके पीछे
इनका लम्बे समय का इतिहास बोध रहा है जिसका इतिहास गवाह है। इनकी दशा क्या रही है? ये क्यों नहीं ऊपर उठ पायें हैं ? इन्हें निरंतर यातना,समय का ताप सहना पड़ा है। समाज में
शास्त्र निर्माताओं ने किस प्रकार से समाज को दूषित किया है? यह बड़े ही आश्चर्य की बात है। ये लोग
सामंतवर्ग के हितो के पोषक रहे हैं। उसकी सुरक्षा के लिए ये व्यवस्थाएं देते रहे
हैं। उनके लिए फर्जी इतिहास लिखते रहे हैं। इसी फर्जी इतिहास के विरोध में दलित
साहित्य का जन्म हुआ है। जिसने अपना स्थान साहित्य में बना लिया है। सामंतवादियों
द्वारा जिन्हें छोड़ा गया। उन्होंने अपने पीड़ा को कविता के रूप व्यक्त किया। यह डॉ
अम्बेडकर की देन है की दलित कविता अपनी गति में तेजी ला सकी है। जिनकी चर्चा आजादी
के पूर्व न के बराबर थी। वह आजादी के बाद डॉ आंबेडकर के संघर्षो के चलतें दलित
चेतना से लैस हो रही थी। बीसवीं शताब्दी में डॉ अम्बेडकर ऐसा मसीहा बनकर आये, जिन्होंने उन्हें मनुष्यता की पहचान
कराई। मानवीय अधिकार शासन प्रसाशन में भगीदारी दिलाई। जिसका परिणाम यह हुआ कि दलित
कवितायें अपने तेवर के साथ आने लगी। कँवल भारती लिखते हैं कि “ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं का
संग्रह ‘सदियों का संताप’ पूर्ण रूप से दलित चेतना की कविताओं का
संग्रह है, जिसने मुख्य धारा की साहित्य में सबसे
ज्यादा हलचल मचायी। ये कवितायें भावुकता से मुक्त है। उसमें गंभीर दलित चिंतन और
विमर्श है। भाषा और शिल्प के स्तर पर हथौड़ा बजा दिये। संकलन की पहली कविता ‘ठाकुर का कुआँ’ में ओम प्रकाश वाल्मीकि ने यह सवाल
उठाकर सवर्ण चेतना को झकझोर दिया
चूल्हा
मिट्टी का
मिट्टी
तालाब की
तालाब
ठाकुर का
- - -
फिर
अपना क्या ?
गाँव
? शहर ? देश ? ”12
सत्ता
से लेकर संस्कृति तक,खेत
से लेकर खलियान तक, हर
जगह सामंतवादी का कब्ज़ा है। तो फिर अपना क्या है ? यह बहुत महत्त्वपूर्ण सवाल है जिसे
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने उठाया है। इस प्रकार का सवाल 1989 में जब देश आजाद हो चुका
था। तब यही कहा जा सकता है कि समाज में उन्हें अपना अधिकार नहीं मिला। तब यह आजादी
बेमानी ही है। लेकिन अब दलित साहित्य ने अपनी पहचान बना लिया है। यह एक विमर्श के
रूप में बहुत चर्चित हो चुका है। यह साहित्य स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, के लिए लड़ने की ठान चुका है। इसीलिए वह
यथास्थितिवादी बुद्धिवादियों को फटकारता है। अभिजनवादी कला सौन्दर्य त्यागकर
पसीनें से लथपथ श्रमिक, मजदूर
को केंद्र में रखता है। दलित रचनाकार क्रांति का वास्तविक योद्धा उसे मानता है जो
दिन-रात खेतों खलियानों में खपता है। इस सन्दर्भ में मोहनदास नैमिशराय की यह कविता
उल्लेखनीय है –
“क्रांति का हथौड़ा
महलों
की पुख्ता दीवारों को
भले
ही न तोड़ पाए
पर
क्रांति की गूंज अभी जिन्दा है
यह
सब सुनने के लिए ही
क्रांति
का हथौड़ा रूकने न पाए
क्रान्ति
मरघटों से नहीं आती
क्रांति
मजदूर के बदन के पसीने से फूटती है।”13
मजदूर
जो दिन-रात बैलों की तरह काम में जुटा रहता है। वह वास्तव में सबसे बड़ा
क्रांतिकारी है। लेकिन पेट भरे लोगों को उनके पसीनें से भी बु आती है। क्योंकि उन्हें मुक्त में हमेशा भरपेट भोजन
मिलता रहा है। परन्तु अब उस गंध में साथ चलने की चुनौती ये कवि दे रहे हैं। मलखान
सिंह की यह कविता चुनौती पेश कर रही है कि एक बार चलकर देख लो-
“सुनों ब्राह्मण
हमारे
पसीने से
बू
आती है तुम्हें
फिर
एक दिन अपनी जनानी को
हमारी
जनानी के साथ
मैला
कमाने भेजो”14
इतना
ही नहीं दलित लेखक अब समझ चुके हैं कि गुलामी से मुक्ति और समाज में समानता तभी
आयेगी। जब ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद पूरी तरह से मिट जायेगा। मलखान सिंह की ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता यही सन्देश से रही है-
“हमारी दासता का सफर
तुम्हारे
जन्म से शुरू होता है
और
इसका अंत भी
तुम्हारे
अंत के साथ होगा।”15
सन्दीप कुमार
शोधार्थी
हिन्दी विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालय हैदराबाद
सम्पर्क
9369485212,8074425417
|
सन्दर्भ ग्रन्थ-
1 डॉ लाल चन्द्रराम, डॉ सर्वेश कुमार मौर्य, दलित साहित्य चिंतन, भारतीय दलित काव्य की वास्तविकताएं , संदीप जायसवाल : 31
2 हरपालसिंह‘अरुष’ दलित कविता कर्म ,प्रो कालीचरण सनेही
3कँवल भारती दलित कि भूमिका, काली चरण सनेही :
4 लाल चन्द्रराम, डॉ सर्वेश कुमार मौर्य, दलित साहित्य चिंतन, दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, सी. वी भारती : 240
5 अपेक्षा, दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, प्रो. टी कट्टीमनी, जुलाई 2009, पृ. सं : 10
6 लाल चन्द्रराम, डॉ सर्वेश कुमार मौर्य, दलित साहित्य चिंतन, दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, सी. वी भारती : 28
7 कँवलभारती, दलित कविता कि भूमिका, कालीचरण: 40
8 अपेक्षा, दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, प्रो. टी कट्टीमनी, जुलाई 2009, पृ. सं : 10
9 विमल थोराट-सूरज बडत्या, भारतीय दलित साहित्य का विद्रोही स्वर
: xix
10 कँवल भारती, दलित कविता की भूमिका, कालीचरण: 13
11 रमणिकागुप्ता, दलित चेतना की कविता:।।।
12 ओम प्रकाश वाल्मीकि, सदियों के संताप
13 दलित साहित्य वार्षिकी, जयप्रकाश कर्दम : 123
14 मलखान सिंह, सुनो ब्राह्मण :45
15 मलखान सिंह, सुनो ब्राह्मण :45
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