हिंदी साहित्य पर बौद्ध धर्म-दर्शन का प्रभाव
आधुनिक हिंदी साहित्य की विधिवत शुरूआत 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से हुई है और लगभग यही समय भारत में लुप्तप्राय बौद्ध धर्म के पुनर्जागरण-काल का भी है। इस समय जेम्स प्रिंसेप और अलेक्जेन्डर कनिंघम जैसे पुरातत्वविदों और मैक्समूलर जैसे उदभट संस्कृत विद्वानों के सत्प्रयास से बौद्ध धर्म के तीर्थस्थलों, स्मारकों व पाली एवं संस्कृत बौद्ध साहित्य का पुनरुद्धार हुआ।
भारत में भी
बौद्ध धर्म के इस पुनर्जागरण का श्रेय कुछ हद तक पाश्चात्य-जगत को जाता है जिसने
इसमें रूचि ली और बौद्ध धर्म से सम्बन्धित स्थलों व साहित्य का परिष्कार किया। एक
ओर ईसाई धर्म के प्रोटेस्टेंट मत वाले ब्रिटेन ने बौद्ध धर्म के ‘सुधारवादी रूप’, स्थाविरवाद (थेरवाद) में अपनी रूची दिखाते हुए अपने अधीनस्थ
श्रीलंका के स्थविरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रंथों को प्रकाशित किया तो दूसरी ओर
कैथोलिक मतानुयायी फ्रांस एवं इटली के विद्वानों ने चीन, जापान एवं तिब्बत में उपलब्ध महायान सूत्रों और भाष्यों में
अपनी रूचि दिखायी। ओल्डेन बर्ग, रिज़ डेविड्स,
स्त्चेरबातस्की जैसे बौद्ध विद्वानों के
प्रयत्नों संस्कृत एवं पाली ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुए तथा बौद्ध
धर्म के महत्वपूर्ण तथ्यों और साहित्य से बाह्य जगत को अवगत कराया। एडविन आर्नाल्ड,
सोपेनहावर तथा हर्मन हेसे जैसे दार्शनिकों और
साहित्यकारों अपनी रचनाओं के विषय वस्तु के रूप में बुद्ध और बौद्ध दर्शन को ग्रहण
कर उसकी मुक्तकंठ प्रशंसा की।
बौद्ध धर्म के इस
पुनर्जागरण ने हिंदी जान-मानस को भी प्रभावित किया। ईश्वरवाद और आत्मवाद के
अनिच्छुक इस धर्म दर्शन के समन्वयवादी रूप ने आधुनिक हिंदी साहित्य को एक नयी
स्फूर्ति और चेतना दी लेकिन फिर भी एक बात स्पष्ट है कि आरंभिक दौर के आधुनिक
हिंदी युग के कवि और रचनाकार भले ही अपनी रचनाओं की पृष्ठभूमि के रूप में कुछ
प्रेरणा ली हो पर उनकी रचनाओं पर बौद्ध दर्शन के मूलभूत दार्शनिक सिद्धान्तों का
प्रभाव अत्यंत अल्प था और जो कुछ भी दार्शनिक पृष्ठभूमि इनके रचनाओं में परिलक्षित
हुई वह बौद्ध धर्म के तुलना में बौद्ध दर्शन से कुछ हद तक साम्यता रखने वाले
औपनिषदिक दर्शन के अधिक निकट थी। इसका एक प्रत्यक्ष कारण तो यह था कि उस समय में
बौद्ध दर्शन के मूलभूत ग्रंथों की अनुपलब्धता थी। वस्तुतः बौद्ध धर्म और दर्शन से
संबंधित अधिकांश प्रामाणिक साहित्य व शोध ग्रंथों का प्रकाशन पिछले चार-पांच दशकों
में ही संभव हो सका है और यही कारण है कि प्रस्तुत लेख मेंजिन रचनाकारों या रचनाओं
में बौद्ध धर्म-दर्शन के प्रभाव का अध्ययन किया है, संभवतः उनमें से अधिकांश बौद्ध धर्म के सैद्धांतिक स्वरूप
से उस स्तर पर परिचित नहीं हो पाये थे जिस स्तर पर आज हुआ जा सकता है। कुछ अपवादों
को छोडकर, इन रचनाकारों की कृतियां
मुख्यतः बौद्ध धर्म के उस स्वरूप से अनुप्राणित हैं जो बौद्ध धर्म को औपनिषदिक
दर्शन से विरासत में मिली हैं।
आधुनिक हिंदी
साहित्यकारों में मैथिलीशरण गुप्त, रामचंद्र शुक्ल,
जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रा नंदन
पंत, महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, चतुरसेन शास्त्री, राहुल सांकृत्यायन, ‘अज्ञेय’, यशपाल, रांगेय राघव और मोहन राकेश की कुछरचनायें बौद्ध दर्शन से प्रत्यक्षतः संबंध
रखती हैं।
वरिष्ठ आलोचक
रामचंद्र शुक्ल ने एडविन आर्नाल्ड द्वारा रचित ‘द लाईट आफ एशिया’ का अनुवाद ‘बुद्धचरित’
नाम से किया है जो मूलतः बुद्ध के जीवन की एक
रूप-रेखा प्रस्तुत करती है। बौद्ध धर्म से संबंधित प्रारंभिक रचनाओं में गुप्त जी
की ‘यशोधरा’ एक प्रमुख कृति है जो बुद्ध की पत्नी यशोधरा के
नारी मन की सविस्तार करूण-गाथा है।
छायावादी
चिंतनधारा के प्रमुख स्तंभ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक – राजश्री, विशाखा, अजातशत्रु,
स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त तथा सम्राट कनिष्क के घटनाक्रम उन सम्राटों से
संबंधित है जिन्होंने बौद्ध धर्म को राज्याश्रय दिया। इनके साहित्य में बौद्ध धर्म
के सिद्धान्त यत्र-तत्र मिलते हैं। व्यक्ति निर्वाण की अपेक्षा समष्टि हित पर अधिक
बल देकर इन्होंने बौद्ध धर्म के महायान परंपरा वाले दर्शन को अपनाया है। इनकी
रचनाओं में संसार के संघर्षों से विरक्त होकर संसार त्याग का उपदेश न होकर निष्काम
भाव से कर्मरत रहने की प्रेरणा है। महादेवी वर्मा की रचनाओं में बौद्ध धर्म के
दुखवाद और करुणा के सिद्धांत का प्रभाव स्पष्टत रूप में देखा जा सकता है। इसी तरह
छायावाद के एक अन्य स्तंभ निराला की रचनाओं में बौद्ध धर्म के पारिभाषिक शब्दावली
का प्रयोग दिखता है। यद्यपि निराला बुद्ध की कठिन साधना व उनके आध्यात्मिक
सिद्धान्तों से प्रभावित तो लगते हैं पर वे उनके मध्यम मार्ग के दर्शन की चर्चा
नहीं करते। सुमित्रा नंदन पंत ने भी अपने विपुल वांग्मय में ‘बुद्ध के प्रति’ एक छोटी कविता लिखकर अपनी श्रद्धा व्यक्त की है।
चिंतन और सृजन के
विलक्षण प्रतिभा वाले हजारी प्रसाद द्विवेदी के दो उपन्यासों, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘चारु चंद्रलेखा’
की कथा-वस्तु बौद्ध धर्म के तांत्रिक रूप से
संबंधित है। बाणभट्ट की आत्मकथा के अंतिम भाग में द्विवेदी जी ने बौद्ध आचार्य
सुगतभद्र के वार्तालाप के माध्यम से तत्कालीन बौद्ध धर्म का तंत्रोन्नमुखी रूप
दिखलाया है। चारू चंद्रलेख की कथा-वस्तु का काल ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के परवर्ती युग का है जब बौद्ध धर्म का तांत्रिक संप्रदाय
चर्मोत्कर्ष पर था, जो इस उपन्यास की
कथा-वस्तु का एक बडा भाग है। तांत्रिक बौद्ध दर्शन के साथ किंवदंतियों को मिलाकर
द्विवेदी जी ने बौद्ध धर्म में आई विकृतियों को भी दिखाया है। ‘भदंत अमोघवज्र’ के माध्यम से द्विवेदी जी ने बौद्ध दर्शन के महायान
संप्रदाय की प्रासंगिकता को उजागर किया है जिसमें व्यक्तिगत मुक्ति की जगह समष्टि
के चित्त के परिष्कार की श्रेष्ठता स्थापित की गयी है।
अज्ञेय आधुनिक
हिंदी साहित्य के उन चंद रचनाकारों में से हैं जिन्होंने बौद्ध धर्म के दार्शनिक
सिद्धान्तों को गहराई से समझा है। ‘असाध्य वीणा’
और ‘आंगन के पार-द्वार’ की रचनाओं पर
बौद्ध दर्शन का स्पष्ट प्रभाव है। इन्होंने ‘उत्तरप्रियदर्शी’ नामक एक काव्य नाटक की रचना भी की है जो अशोक के कलिंग विजय के बाद के घटना
क्रमों पर आधारित है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपने दो उपन्यासों ‘सिंह सेनापति’ तथा ‘जय यौधेय’
की कथावस्तु में बौद्ध मतों का साम्यवादी
विचारधारा के साथ समन्वय किया है। ‘सिंह सेनापति’
मे लिच्छवी के प्रजातंत्र के सामाजिक विशेषताओं
का चित्रण है। इसमें नायक ‘सिंह सेनापति’
बुद्ध ओर संघ की शरण में चला जाता है। ‘जय यौधेय’, जो गुप्तकाल की घटनाओं पर आधारित है, में अनित्यवाद और अनात्मवाद आदि बौद्ध सिद्धांतों की पुष्टी
की गयी है। ऐतिहासिक उपन्यासकार चतुरसेन शास्त्री की रचना ‘बोधिवृक्ष की छाया में’ बौद्ध धर्म के तीन शलाका पुरूष बुद्ध, अशोक और हर्षवर्धन के जीवन-वृत को प्रस्तुत
करती है। ‘वैशाली की नगरवधु’
इनकी एक अन्य रचना है जिसका कथानक बौद्ध की
समकालीन राजनर्तकी आम्रपाली पर आधारित है।
क्रातिकारी एवं
मार्क्सवादी चिंतक यशपाल के ऐतिहासिक उपन्यास ‘दिव्या’ की कथा-वस्तु
हर्षवर्धन काल से संबंधित है। भौतिकवादी दर्शन पर आधारित इस उपन्यास में
पतनोन्नमुख बौद्धकालीन समाज का चित्रण है। ‘अमिता’ यशपाल का दूसरा
ऐतिहासिक उपन्यास है जो अशोक के कलिंग विजय पर आधरित है। यशपाल ने अपने इन दोनों
उपन्यासों में मूलतः राजनितिक और सामाजिक मुद्दों की ही चर्चा की है। प्रगतिशील
कथा-साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ रांगेय राघव ने अपने दो ऐतिहासिक उपन्यासों में
बौद्धकालीन घटनाओं को अपनी कथा क विषय बनाया है । ‘यशोधरा जीत गई’ में रांगेय राघव ने बुद्ध और यशोधरा को माध्यम बनाते हुए नारी जीवन धर्म को
तत्कालीन परिस्थितियों का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विवेचन किया है। अपने एक अन्य
उपन्यास ‘चीवर’ में रांगेय राघव ने सम्राट हर्षवर्धन और उनकी
बहन राज्यश्री की कथा के माध्यम से उस समय के राजनीतिक और सामाजिक व्यव्स्था पर
बौद्ध धर्म के प्रभाव को दर्शाया है। इन दोनों उपन्यासों में बौद्ध धर्म दर्शन की
मान्यताओं और इसके उदात्त मानवीय स्वरूप की स्वीकृति स्पष्ट दिखती है। मोहन राकेश
के नाटक ‘लहरों के राजहंश’ का कथानक बुद्ध के जीवनकाल से संबंधित है। नंद
और सुंदरी के वार्तालापों पर बौद्ध दर्शन का परोक्ष प्रभाव है।
समकालीन हिन्दी
साहित्य पर भी बौद्ध धर्म का प्रभाव दिख रहा है। हिन्दी पत्रिकाओ मे स्थापित व नए
रचनाकारो की रचनाओ मे यदाकदा बुद्ध से सम्बन्धित घटनाओ या बौद्ध दर्शन की झलक मिल
जाती है। हाल मे ही प्रकाशित कवि केदारनाथ सिंह के काव्य संकलन ‘तोलसतोय व साइकिल’की कविता ‘बुद्ध से’उल्लेखनीयहै।
स्वातंत्रोतर
भारत में सामजिक और राजनितिक नवजागरण, जवाहरलाल नेहरू के सत्प्रयास व लोहिया और अंबेडकर के विचारों के कारण बौद्ध
धर्म एक बार फिर चर्चा में आया है। अंबेडकर की चिंतन- शैली तथा उनकी पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’ बौद्ध धर्म की नई अवधारणा प्रस्तुत करती है। यद्यपि
अंबेडकरस्वयं बौद्ध धर्म के कई मूलभूत सिद्धांत, जैसे चार आर्य सत्य के प्रति अपनी शंका प्रकट करते हैं फिर
भी बुद्ध और बौद्ध धर्म के मानवीय दृष्टिकोण से अत्यंत प्रभावित हैं। अंबेडकर ने
बौद्ध धर्म को नए सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है जिससे जड़तावादी विचार व्यव्स्था को
तोडने की प्रेरणा मिलती है तथा दलित विमर्शी साहित्य के अधिकांश हिंदी रचनाकार
इससे प्रेरित हुए हैं। रूढीग्रस्त परंपराओं से असंतुष्ट कई साहित्यकारों ने अपने
साहित्य को इस नई धारा से जोडा है। बुद्ध के जातिगत श्रेष्ठता के विरोधीमूलक स्वर
ने दलित साहित्य को प्रभावित किया है जिससे वर्तमान हिंदी साहित्य का संपूर्ण फलक
प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका है। हालांकि जहां दया पवार और अर्जुन डांगले जैसे
मराठी तथा अन्य भारतीय भाषा के दलित साहित्यकारों के रचनाओं का सरोकार बुद्ध या
उनके धर्म से प्रत्यक्षतः जुडा हुआ है वहीं हिंदी के अधिकांश दलित साहित्यकारों ने
अपने अनुभव को ही आधार भूमि मानते हुए अपनी रचनाओं को गतिदीहै। इनकी अधिकांश
रचनाएं बौद्ध धर्म दर्शन के उस पक्ष से अंशतः जुडी हैं जिनमें भेदमूलक व्यवस्था का
विरोध और परिवर्तन का संकल्प सन्नहित है।
प्रत्यक्षतः हम
यह कह सकते हैं कि बौद्ध धर्म-दर्शन से हिंदी साहित्य धारा से को एक नई गति मिली
है, फिर भी इस तथ्य को नकारा
नहीं जा सकता कि यह धारा वर्तमान राजनीतिक प्रभाव से अछूती रही है।बौद्ध दर्शन
के मूल स्वर की उपेक्षा कर यह साहित्य-धारा बुध्द के दर्शन के बुनियादी
सामाजिक व मानवीय सैद्धांतिक मूल्यों को नकारती रही है। बुद्ध को मतवाद व पंथवाद
की संकीर्णता में बांधकर उनकी देशना के दार्शनिक पक्ष को नजरअंदाज कर, प्रायःउन्हें भौतिकवादी समाज सुधारक के रूप में
प्रस्तुत किया जा रहा है। बुद्ध के दर्शनका सम्यक अध्ययन जीवन-दर्शन मूलतः
आत्ममुक्ति के उदघोष का है।वह भौतिकवाद ओर संसार से पलायन, इन दोनों अतियों को नकार कर मध्यम-मार्ग का उपदेश है। यह
दर्शन मानव को आत्मग्राही दृष्टि ओर आत्मकेंद्रितता से मुक्त कर,उसे परार्थ हित में समर्पित कर,जीवन को एक नया अर्थ देने का है । बौद्ध धर्म
के इस पक्ष की ओर अभी हिंदी साहित्कारों की दृष्टि सामान्यतः नहीं गयी है।
* टिप्पणी: यह लेख21 नवंबर2009 को 'इंडिया इस्लामिक
सेंटर, लोधी रोड, दिल्ली,' में 'महापंडित राहुल
सांकृत्यायन फाउण्डेशन' द्वारा आयोजित
राष्ट्रीय सेमिनार में प्रो. मैनेजर पांडेय की अध्यक्षता में पढे गए आलेख का
संक्षिप्त एवं संशोधित रूप है।
संदर्भ -
(1) हिंदी साहित्य का
संक्षिप्त इतिहास – विश्वनाथ
त्रिपाठी (एन.सी.ई.आर.टी., दिल्ली संस्करण -
1986)
(2) हिंदी साहित्य
कोश – संपादक : धीरेन्द्र वर्मा
(ज्ञानमंडल, वाराणसी, संस्करण - 1960)
(3) महादेवी –
संपादक : इंद्रनाथ मदान, (राधाकृष्ण, दिल्ली, संस्करण - 1973)
(4) स्कंदगुप्त -
जयशंकर प्रसाद, (राजकमल, दिल्ली -1994)
(5) चंद्रगुप्त –
जयशंकर प्रसाद, (अनुपम, पटना - 2006)
(6) राहुल
सांकृत्यायन: व्यक्तित्व एवं कृतित्व – संपादित (अलका प्रकाशन, कानपुर - 1995)
(7) भारतीय साहित्य
के निर्माता: यशपाल – कमला प्रसाद
(साहित्य अकादमी, दिल्ली - 1984)
(8) दिव्या – यशपाल (विप्लव, लखनऊ – 1958)
(9) हजारी प्रसाद
द्विवेदी ग्रंथावली – भाग – 1 (राजकमल, दिल्ली - 1981)
(10) आलोचना – त्रैमासिक (जनवरी-मार्च - 2008, राजकमल, दिल्ली)
(11) कितने नावें
कितनी बार – अज्ञेय (भारतीय
ज्ञानपीठ, दिल्ली - 1983)
(12) कथाकार रांगेय
राघव – डा. कमलाकर गंगावने
(साहित्य रत्नालय, कानपुर -1982)
(13) बौद्ध धर्म के 2500 वर्ष – संपादक: पी. वी. बापट (प्रकाशन विभाग, दिल्ली - 2008)
(14) दलित कहानी संचयन
– संपादक: रामणिका गुप्ता,
(साहित्य अकादमी, दिल्ली - 2003)
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