महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’
द्विवेदी जी रूढ़िवाद के विरोधी और
वैज्ञानिक चिंतन के पक्षधर थे। उन्होंने ऐसी तमाम रूढ़ियों एवं मान्यताओं का खुलकर
विरोध किया जो सामाजिक एवं साहित्यिक विकास में बाधक थी। डॉ. रामविलास शर्मा ने
अपनी पुस्तक ‘महावीर प्रसाद
द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ में द्विवेदी जी
और ‘सरस्वती’ के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए लिखा है : “यदि द्विवेदी जी द्वारा संपादित सरस्वती के
पुराने अंक उठाकर किसी भी नई-पुरानी पत्रिका के अंकों से मिलाए जाएँ तो ज्ञात होगा
कि पुराने हो चुकने पर भी इन अंकों में सीखने-समझने के लिए अन्य पत्रिकाओं की
अपेक्षा कहीं अधिक सामग्री है। ‘सरस्वती’ सबसे पहले ज्ञान की पत्रिका थी। वह हिंदी
नवजागरण का मुख पत्र थी और हिंदी भाषी जनता की सर्वमान्य जातीय पत्रिका भी,
ऐसे साहित्य की जो रूढ़िवादी रीतियों का नाश
करके नवीन सामाजिक, सांस्कृतिक
आवश्यकताओं के अनुरूप रचा जा रहा था। द्विवेदी जी ‘सरस्वती’ के लिए नए लेखक,
नए पाठक ही नहीं तैयार किए अपितु प्रगतिशील
विचारधारा के बाबूराव विष्णु पराड़कर और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकार भी
तैयार किए जिन्हें देश की सामाजिक, सास्कृतिक एवं
राजनीतिक परिस्थितियों का सम्पूर्ण ज्ञान था।” (शर्मा, रामविलास,
1977, पृ. 377) द्विवेदी जी के चिंतन वैविध्य को समझने के लिए
तत्कालीन परिस्थितियों एवं परिवेश को समझना आवश्यक है। उनके समग्र चिंतन का फ़लक
राष्ट्रीय, जातीय एवं वैज्ञानिक
दृष्टि पर आधारित है।
द्विवेदी जी सिद्धांततः व्यक्ति
स्वातंत्र्य के समर्थक थे पर व्यवहार के स्तर पर इसके विरोधी थे। इसके प्रमाण में
मैथिलीशरण गुप्त को लिखे गए एक पत्र को उद्धृत किया जा सकता है। वे लिखते हैं –
“आगे से आप सरस्वती में लिखना चाहें तो इधर-उधर
अपनी कविताएं छपाने का विचार छोड़ दीजिए। जिस कविता को हम चाहें, उसे छापेंगे। जिसे न चाहें उसे न कहीं दूसरी
जगह छपाइए, न किसी को दिखाइए,
ताले में बंद करके रखिए।” (मिश्र, सत्यप्रकाश, 1996, पृ.-48) द्विवेदी जी का मानना था कि हमें सर्वज्ञता का
घमंड नहीं होना चाहिए और हमें अपने लिखे हुए पर परिशोधन अथवा संशोधन को स्वीकार
करना चाहिए। इस संदर्भ में उनका स्पष्ट मत था कि- “अपना लिखा सभी को अच्छा लगता है परंतु उसके अच्छे-बुरे का
विचार दूसरे लोग ही कर सकते हैं। जो लेख हमने लौटाए वह समझ-बूझकर ही लौटाए,
किसी और कारण से नहीं। अतएव यदि उसमें किसी को
बुरा लगा तो हमें खेद है। यदि हमारी बुद्धि के अनुसार लेख हमारे पास आवें तो
उन्हें हम क्यों लौटाएँ। उनको हम आदर स्वीकार करें, भेजने वाले को भी धन्यवाद दें और उसके साथ ही यदि हो सके तो
कुछ पुरस्कार भी दें। यदि किसी को सर्वज्ञता का घमंड नहीं है तो वह अपने लेख में
दूसरे के द्वारा किए हुए परिशोधन को देखकर कदापि रुष्ट नहीं होगा। लेखक अपने लेख
का प्रूफ स्वयं शोध सकता है और संशोधन के समय हमारे किए गए परिवर्तन यदि उसे ठीक न
जान पड़े तो वह हमें सूचना देकर वह उसको अपने मनोनुकूल बना सकता है।” (गगनाञ्चल, नवंबर-दिसंबर, 2013, पृ. 11) द्विवेदी जी की
यह खासियत थी कि वह साहित्यिक कृतियों के संदर्भ में किसी भी लाग-लपेट के बगैर
रचना केन्द्रित उसका मूल्यांकन करते थे। यही कारण है कि सरस्वती पत्रिका में जितनी
भी रचनाएँ प्रकाशित हुई वह हमेशा स्तरीय रहीं। 'सरस्वती' पत्रिका के अंक
की संपादकीय में पत्रिका के उद्देश्य एवं महत्ता के संबंध में संपादक ने लिखा है-
"सरस्वती में केवल उत्कृष्ट कोटि की रचनाओं को ही महत्त्व दिया जाएगा और उनकी
उत्कृष्टता का निर्णय लेखकों की प्रसिद्धि के आधार पर नहीं बल्कि रचना के अपने
वैशिष्ट्य के आधार पर किया जाएगा।" (सरस्वती पत्रिका का संपादकीय से) इस
पत्रिका की मुख्यप विशेषता यह भी रही है कि इसमें यथासंभव लगभग सभी विधाओं
जैसे-कविता, कहानी, एकांकी, समालोचना और पुस्तैक परिचय, कला-सभ्यहता, इतिहास, लोकगीत आदि
सांस्कृेतिक विषयों पर लेख तथा अन्यय भाषाओं के साहित्य के अनुवाद को प्रत्येाक
अंक में लाने का भरसक प्रयास किया है। यह सच है कि सरस्वाती पत्रिका ने न केवल
हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में, अपितु समग्र
हिंदी साहित्य के विकास की दृष्टि से कई मानदंड स्थानपित किए। इस पत्रिका के
माध्यषम से हिंदी के मानक रूप गढ़े गए और हिंदी साहित्य को परिष्कृषत रूप में
समृद्ध किया गया। पत्रिका के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए यदि इसके शुरुआती
अंकों को देखा जाय तो इसने अपने उद्देश्यों के प्रति हमेशा सजगता बरती ही साथ ही
उसका सफल निर्वहन भी किया है। द्विवेदी जी के संपादकत्व में पत्रिका का न सिर्फ
साहित्यिक दृष्टिकोण बदला बल्कि 'सरस्वती' अपनी निजी भाषा और सामग्री के माध्यम से पाठक
को अपनी ओर आकर्षित करने में भी सफल रही।
द्विवेदी जी के संपादकीय व्यक्तित्व के चार
आदर्श थे- 1. पाठकों के
लाभ-हानि का ध्यान 2. न्याय पथ से
विचलित न होना 3. मालिक का विश्वास
भाजन होना 4. समय की पाबंदी।
द्विवेदी जी हमेशा अपने उद्देश्यों के प्रति नैतिक एवं सचेत रहे हैं। उस दौर की
पत्रिकाओं में ‘सरस्वती’ का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। यहाँ तक कि ‘चाँद’, ‘माधुरी’, ‘कल्पना’,
‘हंस’ आदि पत्रिकाएँ 'सरस्वती' के क्षेत्र विस्तार और बौद्धिक सजगता के बाद ही
अपने स्वरूप में विकसित हो सकीं। 'सरस्वती' ने ही हिंदी पत्रकारिता को ऐसा व्यवस्थित
आधारभूत ढांचा दिया जिससे वह वैचारिकता को प्राप्त कर सकी। उस दौर में (तत्कालीन)
शायद ही कोई ऐसा विषय रहा होगा जिस पर 'सरस्वती' में लेख न
प्रकाशित हुए हो। उस दरमियान किसी भी रचनाकार के लिए 'सरस्वती' में प्रकाशित
होना एक उपलब्धि थी। अपने समय में ‘सरस्वती’ ने हर तरह के लेखकों को जोड़ने का काम किया। एक
प्रकार से देखें तो ‘सरस्वती’ ने उस दौर की तत्कालीन समस्याओं को उजागर करने
में हिंदी भाषी समाज के लिए एक मंच का काम किया। काबिलेगौर है द्विवेदी जी के संपादन-काल में भाव और भाषा के
साथ-साथ विधागत स्तर पर भी काफी प्रगति हुई। सरस्वती पत्रिका की यह महत्त्वपूर्ण
विशेषता रही है कि इसने हिंदी भाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा-विषयक सामग्री (साहित्य
की समस्त विधाओं) को अनुवाद के जरिए सामने लाने का अनूठा कार्य किया।
'सरस्वती' उस दौर की अकेली
ऐसी पत्रिका है जिसने बहुत ही का समय में न सिर्फ साहित्य जगत में बल्कि हिंदी
पत्रिकारिता के इतिहास में अपनी गहरी पैठ बनाई है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने
भी इस संदर्भ में लिखा है कि- "द्विवेदी जी के सरस्वती-सम्पादन का इतिहास
अनेक आंदोलनों का इतिहास है। वह उनके व्यक्तित्व और तत्कालीन समाज के विकास का
इतिहास भी कहा जा सकता है।" (यामिनी, रचना भोला, 2010, पृ. 58) ‘सरस्वती’ के माध्यम से द्विवेदी जी ने रीतिवाद का जमकर विरोध किया।
वे रीतिकालीन श्रृंगारिकता एवं नायिका-भेद
के घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि रस, भाव, अलंकार, छंद-शास्त्र और निरा नायिका-भेद का वर्णन करने
से मानव-सभ्यता (जाति) का विकास संभव नहीं है। इसीलिए वे हमेशा कविता को रीतिवादी
कूप से निकालकर काव्य-विषय के विस्तार के पक्षधर थे। एक प्रकार से देखें तो
सरस्वती पत्रिका समकालीन रीतिवादी धारा के विरोध में और ब्रज भाषा के स्थान पर खड़ी
बोली हिंदी के समर्थन में एक संघर्षरत पत्रिका थी। द्विवेदी जी के संपादन-काल में
समाज-सुधार, स्त्री-शिक्षा,
एवं बाल-साहित्य जैसे विषयों को भी ‘सरस्वती’ में विशेष स्थान दिया गया। नवजागरण की चेतना का प्रसार एवं
उसे जनसाधारण तक पहुंचाने में 'सरस्वती' एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी, दोनों ने संबल का काम किया। हिंदी साहित्य की
सामयिक अवस्था का चित्रण करने एवं उसका गहरा प्रभाव डालने के लिए ‘सरस्वती’ में व्यंग्य-चित्रों को भी यथोचित स्थान मिला है। यहाँ तक
कि आधुनिक हिंदी कहानी का उदय एवं आधुनिक खड़ी-बोली कविता को प्रचार-प्रसार एवं
प्रतिष्ठा भी सरस्वती से ही मिली। खड़ी बोली हिंदी को काव्य-भाषा के रूप में
प्रतिष्ठित करना इस पत्रिका की नायाब उपलब्धि है। मैथिलीशरण गुप्त, श्रीधर पाठक, राय देवी प्रसाद, गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही', हरिऔध, नाथू राम 'शंकर' शर्मा, रामनरेश त्रिपाठी आदि कवियों की रचनाएँ प्रकाशित करके द्विवेदी जी ने यह साबित
कर दिया कि खड़ी बोली हिंदी में भी उच्च कोटि की कविताएं लिखी जा सकती है। कविता के
साथ-साथ कहानी विधा के विकास में भी इस पत्रिका की महती भूमिका रही है। बंग महिला
की 'दुलाई वाली', चंद्रधर शर्मा गुलेरी की 'उसने कहा था', विश्वंभर नाथ शर्मा की 'रक्षाबंधन', प्रेमचंद की 'सौत', जैसी महत्त्वपूर्ण कहानियाँ द्विवेदी जी के ही सम्पादन में प्रकाशित हुई।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निबंध 'कविता क्या है ?',
कामता प्रसाद गुरु का 'हिंदी व्याकरण', मैथिलीशरण गुप्त का 'कविता किस ढंग की
हो', एवं सरदार पूर्ण सिंह
द्वारा लिखे गए लाक्षणिक निबंध इसी अवधी की देन है। गौर करें तो उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, जीवनी, यात्रा-साहित्य एवं डायरी जैसी विधाओं के
अतिरिक्त पुस्तक-समीक्षा के विकास में भी 'सरस्वती' की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मैथिलीशरण गुप्त, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कामता प्रसाद गुरू, प्रेमचंद, लोचन प्रसाद
पाण्डेय आदि ऐसे कई लेखक हैं जो ‘सरस्वती’ पत्रिका के द्वारा ही हिंदी जगत में परिचित एवं
अपनी पहचान बना सके। द्विवेदी जी के संपादन काल में ‘सरस्वती’ में एक भी ऐसा
लेख प्रकाशित नहीं हुआ जिससे समाज पर बुरा प्रभाव पड़े। द्विवेदी जी ने सरस्वती
पत्रिका के द्वारा हिंदी साहित्य में सुरुचि का प्रसार किया और साहित्य के क्षेत्र
को खूब विस्तृत किया।
प्रदीप त्रिपाठी
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग
सिक्किम विश्वविद्यालय, गंगटोक
सम्पर्क
ptripathi@cus.ac.in |
वास्तव में
सरस्वती पत्रिका का उद्देश्य बहुत व्यापक था। यह संकुचित अर्थ में साहित्यिक
पत्रिका न थी बल्कि यह हिंदी भाषा एवं साहित्य-सृजन की दिशा में इसका महत्वपूर्ण
योगदान रहा है। ‘सरस्वती’ ने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास के लिए
जितना कार्य किया, वह बाद की
पत्रिकाओं द्वारा न हो सका। डॉ. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि “द्विवेदी जी सीमित अर्थों में साहित्यकार नहीं
हैं। उनका उद्देश्य हिंदी प्रदेश में नवीन सामाजिक चेतना का प्रसार करना रहा है,
उन्होंने उसे साबित भी किया।” (शर्मा, रामविलास, 1977, पृ. 77) डॉ. शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’
में ‘सरस्वती’ के संदर्भ में कई
महत्त्वपूर्ण संकेत किए हैं। सही अर्थों में देखा जाय तो 'सरस्वती' सांस्कृतिक
निर्माण की पत्रिका थी। आज भी इसीलिए उस पर बहस उपादेय है। सरस्वती पत्रिका के
संपादक के रूप में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी के पहले ऐसे व्यवस्थित
समालोचक थे जिन्होंने पत्रकारिता के साथ-साथ रचना और आलोचना (व्यावहारिक एवं
सैद्धांतिक) के नए मानदंड स्थापित करने का कार्य किया।
संदर्भ
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10. शुक्ल, रामचंद्र. (2000). हिंदी साहित्य का इतिहास.
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11. हलीम, अनवर (संपा.). (नवंबर- दिसंबर,
2013).
गगनाञ्चल. नई दिल्ली
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बहुत महत्वपूर्ण जानकारी है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कार्य है, साहित्य से जुड़े ऐसे ही कार्य करते रहे 🙏
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