भोजपुरी कविता और देस-राग
यह लेख भोजपुरी
कवि चंद्रदेव यादव के कविता संग्रह ‘देस-राग’ पर आयोजित परिचर्चा में पढ़ा गया
पर्चा है. यह आयोजन ‘गाँधी शांति प्रतिष्ठान’ नई दिल्ली में आयोजित हुआ था. कवि
चंद्रदेव यादव वर्तमान में जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिंदी के प्रोफेसर
हैं-सम्पादक
भोजपुरी कविता और इस संग्रह पर बात करने के
ठीक पहले एक तथ्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित कराना चाहता हूँ। भोजपुरी, सामान्यतया अवधी और ब्रज की तरह लिखित साहित्य की भाषा कभी नहीं
रही। इस भाषा में लिखित साहित्यिक परम्परा अपेक्षाकृत कम रही है। हाँ, लोक और वाचिक परम्परा
में भोजपुरी की जड़ अपने सहधर्मा भाषाओं की तरह गहरे गड़ी हुई हैं। ध्यान रहे कि मैं
तेग अली, बनारस और भिखारी ठाकुर जैसे कई मज़बूत अपवादों की बात नहीं कर रहा हूँ।
द्वंद्वात्मक रूप से इसका फ़ायदा भी हुआ और
नुक़सान भी।नुक़सान यह कि काव्यभाषा स्थिर नहीं हुई और फ़ायदा भी यह कि काव्यभाषा स्थिर
नहीं हुई। संक्षेप में इस बात से समकालीन भोजपुरी कविता में फ़र्क़ यह पड़ा कि आज के
दिन यह बहुरंगी-बहुवर्णी है। उसके ऊपर अन्य समधर्मा भाषाओं के मुक़ाबले दीर्घ व्यवस्थित
परम्परा का दबाव बहुत कम है। इसलिए आज भी भोजपुरी कविता के भीतर बहुत से रंग सक्रिय
हैं। यह संग्रह इसी बहुरंगी वृक्ष की एक शाख़ है।
सबसे पहली बात जो इस संग्रह के संदर्भ में
रेखांकित करना चाहता हूँ वह है ईमानदारी। मुक्तिबोध ने ईमानदारी को एक कसौटी के तरह,
काव्य-मूल्य की तरह
बरता था। कवि ईमानदारी से अपनी सोच और बूझ, बिम्ब और लय पाठकों
के सामने रखता है। उसमें कोई डराव-छिपाव नहीं है। इसलिए इन कविताओं से सम्वाद-विवाद
करना अपेक्षाकृत सहल है। दूसरी बात है इन कविताओं की लय। यह लय गाँव की पुलिया पर,
चौपाल पर बैठे लोगों
की बतकही की लय है। इन कारणों से इस संग्रह में कई बार बेहद सुंदर बिंब उभरते हैं।
मसलन दिल्ली को कवि की नज़र से देखिए : ई बड़की मछरी ह आऊर छोट मनई इहवाँ डिंडा
ह’। आप में से बहुतेरे
डिंडा जानते होंगें। तालाबों या नदियों में छोटी-छोटी मछलियों का झुंड, आमतौर पर मछलियों के
बच्चे डिंडा कहलाते हैं। तो दिल्ली में आम जनता की मुश्किलों का सटीक बखान करने वाला
इस बिम्ब जैसे कई बिम्ब इस संग्रह में कई हैं, और बख़ूबी अपना काम
करते हैं।
ग्राम्शी बुद्धिजीवी पद को वर्गीय बताते हैं।
बुद्धिजीवी किसी वर्ग का होता है। उसकी अपनी अवस्थिति होती है। हर वर्ग के अपने बुद्धिजीवी
होते हैं। ग्राम्शी की इस बात की याद यहाँ इसलिए कि कवि-लेखक या बुद्धिजीवी किसी वर्ग
का प्रतिनिधित्व करता है। उसकी रचनात्मक ज़मीन, उसकी वैचारिता किसी
एक वर्ग के लिए होती है। ईमानदारी की काव्य-कसौटी को मुक्तिबोध ने भी वर्ग के मातहत
माना था। इस संग्रह पर बात करते हुए हम इन कविताओं/कला-उत्पादों की सामाजिक अवस्थिति
के बारे में समझ सकेंगे, ऐसा मेरा इरादा है।
इस संग्रह की अगली महत्त्वपूर्ण बात है कि
यह एक ख़ास तरह के सामाजिक द्वंद्व को रेखांकित करता है। यह द्वंद्व है पुराने बनाम
नए का। बाज़ार बनाम गाँव-जवार का। एकल आधुनिक परिवार बनाम सामूहिक परिवार का। अपनी
अनेक कविताओं में कवि यह बताते हैं कि जिस रंग की आधुनिकता हमारे मुल्क में आयी,
वह बेहद घातक है। वे
इस आधुनिकता के सर्वश्रेष्ठ वाहक बाज़ार को इस तबाही के ज़िम्मेवारों में एक समझते
हैं। इस बिंदु पर भारत के लम्बे उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष को याद कीजिए। साम्राज्य
के ख़िलाफ़ लड़ते हुए तमाम भारतीय विचारकों-शायरों ने इस बात को रेखांकित किया कि जो
आधुनिकता आ रही है, वह कोई महान चीज़ नहीं है। याद करिए महात्मा गांधी की हिंद स्वराज
को, जिसमें वे आधुनिकता और मशीनों और संसद वग़ैरह से मुल्क को आगाह करते हैं। याद करिए
अकबर इलाहाबादी जैसे शायर को जो अपनी देशज ज़मीन से खड़े होकर औपनिवेशिक रंग-ढंग को
तीखे मज़ाक़ का विषय बना देते हैं। इसके साथ ही हमें याद करना होगा प्रेमचंद के लेख
‘महाजनी सभ्यता’ को, जिसमें उन्होंने औपनिवेशिक
लूट के तंत्र को बेपरदा किया है। आशय यह है कि साम्राज्यवाद-विरोध की परम्परा हमारी
विरासत है, जिसके अलग-अलग मॉडल रहे हैं। कहना न होगा कि हमारा यह कवि उपनिवेशवाद-विरोध की
प्रेमचंद की नहीं बल्कि गांधी-अकबर की परम्परा
के ज़्यादा नज़दीक है। कवि के शब्दों में ‘पच्छूँ के भरोसे रहले
से जिनगी आपन निरधार भईल’।
हमारा कवि सफलतापूर्वक उपनिवेशवाद-साम्राज्यवाद
विरोध की परम्परा को अपने समकाल में चिन्हित करता है। वह यह देख पाता है कि आज अमरीका
के नेतृत्व में चल रहे विश्वव्यापी हमले का विरोध करना ही इस परम्परा का वारिस होना
है। वह यह भी चिन्हित कर पाता है कि बाज़ार के रास्ते पूँजीवाद हमको अलगा रहा है,
हमारा गहरा शोषण कर
रहा है।
पर हमारा यह कवि इस पूँजीवाद के दौर की आधुनिकता
से नाख़ुश जब अपने सपनों की की दुनिया में होता है तो वह पीछे की ओर लौट जाता है। उसके
द्वारा सुझाए गए विकल्प लगभग वही हैं, जिसे छोड़कर इंसानी समाज आगे बढ़ गया है: मसलन
सामूहिकता, परिवार आदि। यह वह छूटी हुई दुनिया है जिसके दया, ममता, प्रेम, स्नेह और परिवार जैसे
आदर्शीकृत मूल्य हमारे कवि को आकर्षित करते हैं। कवि चाहता है कि गाँव रहे,
गाँव में हँसी-ख़ुशी
रहे। लोग एक-दूसरे से स्नेह करें। श्रम का मूल्य मिले। कुल मिलाकर गाँव एक आदर्शीकृत
रूमानी जगह की तरह कवि के बोध में आता है।
यहाँ एक अवांतर: ‘चीफ़ की दावत’ कहानी पढ़ते-पढ़ाते एक दिन अचानक यह लगा कि शामनाथ को कहानीकार
शुरू से ही विलेन की तरह पेश करता है और माँ को उसका प्रतिपक्ष। गाँव की दुनिया की
प्रतिनिधि माँ और शहराती शामनाथ। पर क्या शामनाथ के सामने कोई और रास्ता था?
क्या शामनाथ को बड़ा
आदमी बनने की प्रेरणा उसी गाँव से नहीं मिली? यह गाँव से शहर की
ओर बढ़ने के साभ्यतिक-ऐतिहासिक बदलाव का दोषी सिर्फ़ शामनाथ को मानना है जबकि शामनाथ
सिर्फ़ एक माध्यम है। कहानी शामनाथ को हमेशा खलनायक की तरह देखती है, उसकी मुश्किलों के
बारे में बात नहीं करती।
प्रसंगतः इन कविताओं में भी शहर, नई पीढ़ी आदि को खलनायक
की तरह पेश किया गया है। हालाँकि यहाँ उनकी बेरोज़गारी-बेकारी और व्यवस्था की उनपर
मार आदि का ज़िक्र आता है पर लब्बो-लुआब यही निकलता है कि नई पीढ़ी ‘नंगी’
है। इसके बरक्स गाँव,
व्यवस्था और बाज़ार
के मारे गाँवों का एक स्वर्णिम अतीत है जिसे हमें हासिल करना है।
पर क्या गाँव इतनी एकायामी आदर्श और रूमानी
जगह है? वह कभी रही है? जिस सामूहिक स्वर्णिमता के ओर ये कविताएँ इशारा करती हैं,
उसमें महिलाओं,
दलितों और समाज के
अन्यान्य हाशिए के तबक़ों की हालत क्या रही है? यह कौन सी जगह है जिसकी ओर यह कविताएँ इशारा कर रही है जहाँ
‘अहि मयूर, मृग, बाघ’ सब एक जगह बसते हैं? इस बात को और समझने के लिए ‘परिवार’ और ‘महिलाओं’ के साथ इन कविताओं
का रिश्ता देखने लायक है। परिवार और उसकी सामूहिकता कवि के लिए बेहद पवित्र चीज़ है।
मेरा अनुभव यह है कि हमारे समाज में जब भी
परिवार की बात होती है, आदर्शीकृत रूप में होती है। आधुनिक संस्थाएँ भी ख़ुद को कई बार
परिवार कहती हैं। मसलन विभाग-परिवार, विश्वविद्यालय-परिवार वग़ैरह-वग़ैरह। जब हम
किसी संस्था को परिवार कह रहे होते हैं तो उसके क्या आशय होते हैं? पहला तो यह कि यह एक
ऐसी संरचना है जहाँ सबका ख़याल रखा जाएगा। यहाँ तक कि माँ अपने कमज़ोर बेटे को ज़्यादा
रोटी देगी। कमाने वाला भाई न कमाने वाले भाई का ख़र्च उठाएगा। दूसरी बात यह है कि यह
संरचना के भीतर स्थिर क़िस्म की पितृसत्ता को पालती है। मतलब परिवार नाम की संस्था
में ‘पिता’ का कहा हुआ ही सब कुछ
होगा। परिवार के सारे सदस्य एक शक्ति सम्बंध में बँधे होंगे जिसकी ऊपरी सीढ़ी पर पिता
होगा। पिता का कर्तव्य है सबका हित साधन पर यह कर्तव्य लोकतांत्रिक कतई नहीं होता।
बेटा या बेटी उससे बराबरी पर नहीं होते। आधुनिक शोषकों को भी यह संरचना पसंद आती है
क्योंकि उन्हें भी सत्ता की इस स्तरीकृत संरचना से अपना काम निकालने में सुभीता होता
है। दूसरे परिवार कह देने भर से ही उसके भीतर की संरचना पर सवाल उठाने की जगह जाती
रहती है। हिंदी विभागों, जिनसे मेरा साबका पड़ा, के अनुभव के आधार पर
यह कह सकता हूँ कि ज्योंही कोई विभाग को परिवार कहता है, इसका अर्थ होता है
विभाग के भीतर पितृसत्तात्मक ढाँचे को मानना और आंतरिक लोकतंत्र की विदाई।
यहीं, ठीक इसी बिंदु पर इस
संग्रह में आयी दो तरह की महिलाओं की पहचान की जा सकती है। एक महिला वह है जो परिवार
संस्था के भीतर है। माँ है, बहन है, बच्ची है जो स्कूल नहीं जा पाएगी और असमय बड़ी हो जाएगी। इन
महिलाओं के लिए, उनके श्रम के लिए इन कविताओं में सम्मान है। पर वे इस ढाँचे
के भीतर ही रहें, यह प्राथमिक शर्त है। इस शर्त के बाद उनके साथ मानवीय व्यवहार
की चाह कविताओं में कई जगह विन्यस्त है।
लेकिन जो महिलाएँ इस ढाँचे से बाहर हैं,
हमारे कवि की उनसे
कोई सहानुभूति नहीं। उनके कपड़े-लत्ते से लेकर रहन-सहन तक पर वह सवाल उठाता है। सवाल
किसी राजनीतिक-कट्टर मताग्रही की तरह नहीं बल्कि यहाँ से कि पूँजी ने यह समस्या पैदा
की है।
अब मेरा सवाल यह है कि यह आज़ाद महिला,
भले ही उसकी आज़ादी
पूँजीवाद के दायरे में है, के सामने क्या रास्ता है? कवि का सुझाना यह है कि पुराने पारम्परिक ढाँचे ही असली विकल्प
है।
अब एक बेहद जटिल सवाल हमारे सामने जो इस कविता
संग्रह से उभरता है? जो है वह भयानक और क्रूर है पर जो होना चाहिए, अगर वह पुराना है तो
वह भी भयावह और क्रूर है। तब हम इसमें से किसी एक को चुनना क्यों चाहते हैं?
मार्क्सवादी शब्दावली
में कहूँ तो सवाल यह है कि पूँजीवादी समाज की बर्बरता से बचाने का रास्ता क्या पूँजीवाद-पूर्व
समाज में है? आमफ़हम बोलचाल की भाषा में सवाल यों हुआ कि आज का ज़माना अच्छा
है या पुराना ज़माना अच्छा था? ग़ालिब के शब्दों में ‘ईमाँ मुझे रोके है
तो खैंचे है मुझे कुफ़्र’।
हमारा कवि इस सवाल का जवाब लगभग हाँ में देता
है। पर इतिहास की गति पीछे की तरफ़ नहीं होती। इतिहास आगे की तरफ़ बढ़ता है। इस पूँजीवादी
दौर के भीतर से ही दुनिया और जीवन को और बेहतर बनाने की लड़ाईयाँ निकलेंगीं। पीछे जाने
का कोई विकल्प है ही नहीं। इस बात को हम सबको और हमारे कवि को समझना होगा।
अगला बिंदु है गाँव की पहचान। दिलचस्प यह
है कि हमारा कवि एक साँस में गाँव में भ्रष्टाचार, शोषण, ग़रीबी आदि का ख़ाका
खींचता है और दूसरी साँस में गाँव की भोली हवा के मद में झूम उठाता है। ऐसा क्यों होता
है? क्योंकि गाँव का रूमानी बोध गाँव की हक़ीक़त पर भारी पड़ जाता है। हमारा कवि ‘इंटरनेट पर गाँव खोजने
वालों’ का उचित ही मज़ाक़
उड़ाता है पर गाँव को महान बताने के चक्कर में गाँव की भीतरी हक़ीक़तों, द्वंद्वों को कई बार
दरकिनार कर देता है। वह बहुत ही बेहतर तरीक़े से खाद, बीज, प्रशासनिक अमले की
धाक, सड़े हुए राजनीतिक माहौल का चित्रण करता है पर मिड डे मील को जिस तरह से देखता
है उससे पता चलता है कि वह उन बच्चों-परिवारों के साथ नहीं खड़ा है जिनके घर में अनाज
मुहाल है और मिड डे मील उसमें एक वरदान की तरह है।
यों इस बहस से गुज़रते हुए हम देख सकते हैं
कि ये कविताएँ एक किसान की कविताएँ हैं। खेत मज़दूर की नहीं, मध्यम किसान की। जो
सरकारी नीतियों के चक्के तले दबा हुआ है पर सांस्कृतिक रूप से जिसकी चेतना अभी भी पिछड़ी
हुई है। अन्य उत्पीडित समुदायों की ठीक-ठीक समझ यहाँ नहीं है।
फिर से ग्राम्शी पर लौटें। जन बुद्धिजीवी
(Organic Intellectual) वह है जो ग़रीब तबके, निचले वर्ग का बुद्धिजीवी
है। उसी तबके के नेतृत्व में परिवर्तन की लड़ाई सम्भव है। इन कविताओं में एक सामाजिक
बुद्धिजीवी तो हमें दिखता है पर वह ग़रीबों का नहीं, मध्यम किसानों का नुमाइंदा
है: उसकी सभी कमियों-कमज़ोरियों और मज़बूती के साथ।
संग्रह की एक कविता मुझे बेहद पसंद आयी: हिसाब।
इस या इन जैसी कविताओं में कवि का शीर्ष दिखता है। यहाँ वह पानी कमज़ोरियों से मुक्त
पूरी ताक़त के साथ शोषण का पर्दाफ़ाश करता है। उस कविता की आख़िरी पंक्तियों को उद्धृत
करते हुए बात ख़त्म करूँगा:
‘सचाई त ई ह कि
आदमी अपने जांगर के
बदले
दाल-रोटी ना खाला
अपने ख़ून के निथार
के हथेली पर
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