‘मत्स्यगंधा’ (असमिया) उपन्यास
लेखन की पृष्ठभूमि
“क्या असम में कोई
दलित नाम का सम्प्रदाय है? दलित केंद्रित
कोई आन्दोलन या फिर असमिया भाषा में दलित केंद्रित कोई साहित्य रचना हुई है ?
इसके जवाब में यही कहना पड़ेगा कि असम में
हिन्दू समाज के अंतर्गत निम्न जाति को पुकारने के लिए ‘दलित’ शब्द को कभी नहीं
लिया गया है। और अब तक यह शब्द उपयोग में नहीं आया है। जिस कैवर्त समाज के लोगों
के जीवन को केंद्र बनाकर ‘मत्स्यगंधा’
उपन्यास लिखा गया है, उन लोगों को असमिया समाज ने कभी भी दलित नाम से संबोधित
नहीं किया है और अब तक यह सुनने को नहीं मिला है। यद्यपि उनके लिए ‘हरिजन’ शब्द उपयोग किया जाता है, लेकिन यह
घृणासूचक शब्द नहीं है।” भारत के कुछ राज्यों में अस्पृश्यता की समस्या
जितनी प्रबल है उतनी अधिक असम में नहीं है। कई ऐतिहासिक कारणों से असम का हिन्दू
समाज भारत के अन्य राज्यों के हिन्दू समाज से बहुत ज्यादा उदार और सहनशील है।
लेकिन असम में भी कुछ साल पहले तक अस्पृश्यता की समस्या थी और इसीलिए ‘मत्स्यगंधा’ जैसा उपन्यास लिखा गया है। लेकिन जिस समय की पृष्ठभूमि पर
असम के एक कैवर्त गाँव की जीवनधारा को केंद्र में रखकर यह उपन्यास लिखा गया था,
उस समय तथा आज की स्थिति में बदलाव आ गया है।
भारत के कुछ प्रदेशों में सदियों से अस्पृश्यता के दंश झेलते आ रहे निम्न जाति के
हिन्दू के विरुद्ध उच्च वर्ग के हिन्दुओं का निर्मम सामाजिक अत्याचार चलता आ रहा
है। और इसी ने भारत के एक विस्तृत क्षेत्र
में दलित आन्दोलन को जन्म दिया है। असम में यद्यपि निम्न जाति के लोग अस्पृश्यता
के शिकार थे लेकिन बहुत कम समय में ही एक ऐसा नीरव विप्लव घटित हो गया कि असम के
कैवर्त समाज और उच्च वर्ग के हिन्दू समाज में जो अंतराल या विषमता थी वह धीरे-धीरे
कम होती गयी।
‘मत्स्यगंधा’
अर्थात् ‘मछली की गंध।’ असमिया समाज में यह माना जाता है कि डोम जाति मछली को सूखाकर और उसे आग में
भुनकर खाती है और उनको बाकी चीजों की पहचान नहीं है। जिसके घर से सूखी या भुनी हुई
मछली की गंध आयेगी वह केवल डोम ही हो सकते हैं और कोई नहीं। यह मान्यता तार्किक
नहीं है। उपन्यास की शुरुआत ही कुछ ऐसी होती है – दो लोग रात के अंधेरे में अपने रिश्तेदार के घर जाने के लिए
कई गाँवों को पार करते हुए जा रहे थे तो उन दोनों में से एक ने पूछा कि हम कहाँ तक
आ गये ? तो दूसरा साथी बोलता है
कि - इतने अंधेरे में कैसे जान पाऊंगा कि कहाँ तक पहुंचे हैं ? लेकिन थोड़े देर बाद ही वह कुछ सूंघते हुए कहते
हैं कि दोस्त और ज्यादा दूर नहीं है क्योंकि हम जहां जा रहे हैं वह डोम के गाँव
पार होते ही वह गाँव आता है और यह ही डोम का गाँव है। तब उसका दोस्त कहता है कि -
थोड़े देर पहले तो तुम नहीं पहचान पा रहे थे कि हम कहाँ तक पहुँचे ? अब कैसे जान गये ? तब वह बोलता है कि - तुम्हें गंध नहीं आ रही है क्या ?
इस जगह पर चारों तरफ से सूखी हुई मछली की गंध आ
रही है यानि कि यह डोम का गाँव है। थोड़े देर पहले हम दूसरे गाँव में थे इसलिए उधर
सूखी मछली के साथ-साथ तेल में पकाने वाले मछली के गंध और दाल, खट्टा, हल्दी-मसाला की भी गंध आ रही थी। यह डोम का गाँव है इसलिए यहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़
सूखी मछली की ही गंध आ रही है।
जब वह बार-बार डोम-डोम कह रहे थे तो
मेनका नाम की एक औरत सुन लेती है और गाली देने लगती है कि किसको डोम-डोम कह रहे हो
? हमारे गाँव में आकर हमें
ही डोम-डोम कहकर अपमानित स्वर में बात कर रहे हो ? ‘डोम’ शब्द मेनका के
कान में गूँजते ही वह पागल-सी हो जाती है क्योंकि उस शब्द के साथ जुड़ी हुई है उसकी
जीवन की सहस्र दु:ख-दर्द और अपमान की कहानी। जब वह ‘डोम’ शब्द से परिचित
हुई थी तब शायद उसकी उम्र सिर्फ 5 साल थी। अपनी
माँ के साथ वह किसी के घर चावल मांगने गयी थी, उनके घर में एक औरत धान सूखा रही थी मेनका अनजाने में दौड़कर
उसके पास गयी तो उसकी छाया धान पर गिरने से वह औरत आकर उसे एक थप्पड़ मार देती है
और उसकी माँ को भी गाली देती है कि वह मेनका को क्यों वहाँ तक दौड़ के आने के लिए
देती है कि अब उसको जहाँ तक मेनका की छाया गिरी थी वह धान फेंकना पड़ेगा। उस अबोध
बालिका को यह सब कुछ समझ में नहीं आ रहा था और वह अपनी माँ को पूछती है कि उस औरत
ने ऐसा क्यों किया तब उसकी माँ उसे बताती है कि- हम लोग डोम हैं। समाज के नीचे
तबके के। उसकी छाया पड़ने से वह धान अछूत हो गये थे। तब से ही मेनका के जीवन में यह
डोम जाति के दंश का सिलसिला शुरू हो जाता है और वह अपनी अभिज्ञता से जान पाती है कि
उसके छूने से सवर्ण व्यक्ति अस्पृश्य हो जाते हैं। न ही डोम सवर्ण के साथ उठ-बैठ
सकते हैं और न खा-पी सकते हैं यहाँ तक कि
उसकी छाया किसी सवर्ण व्यक्ति पर पड़ने से वह सिर्फ चीजें ही फेंक नहीं देते
हैं उनको नहाकर भी शुद्ध होना पड़ता है। डोम को अगर प्यास भी लगे तो सवर्ण के घर
में उसे रास्ते से पत्ता तोड़कर लाना पड़ता है और ऊपर से दिया गया पानी पीना पड़ता
है। तभी से किसी के मुँह से घृणा सूचक ‘डोम’ शब्द सुनने को मिलता है
तो उसे बहुत गुस्सा आ जाता है।
जीवन में उसको हर तरफ से समस्या
झेलनी पड़ती है और गरीबी के कारण वह पढ़ाई भी नहीं कर पाती है। उसकी शादी भी एक
निकम्मे से हो जाने पर उनकी आर्थिक अवस्था में सुधार नहीं आ पाता है। मेनका का
स्वास्थ्य दिन-व-दिन बिगड़ता जाता है और वह ‘कानि’ (अफीम) का सहारा
लेती है और ‘कानि’(अफीम) के सहारे अपनी शारीरिक बीमारी और मानसिक दु:ख
को कुछ समय के लिए भूलने की कोशिश करती रहती है।
उसकी ननद गर्भवती हो जाती है लेकिन
वादा करते हुए भी सवर्ण जाति का पूर्ण नाम का लड़का उससे शादी नहीं करता है और पूर्ण की शादी कहीं और
ठीक हो जाती है। 3 महीने हो जाने
के बाद मेनका की ननद आत्महत्या करने के लिए जाती है लेकिन उसी समय मेनका की आवाज
आँगन में सुनने के बाद थोड़ी हिम्मत करके मेनका के पास आती है और बच्चे गिराने के
लिए मेनका से मदद मांगती है और बोलती है कि, नहीं तो, वह मर जायेगी। जब
मेनका जान जाती है कि लड़का सवर्ण जाति का है तो तभी वह ठान लेती है कि वह
कुछ-न-कुछ करेगी और पूर्ण पर दवाब डालती है उसकी ननद से शादी कर ले नहीं तो वह
सबको बता देगी तब उसको उसके समाज से बहिष्कृत किया जाएगा। दवाब में ही सही पूर्ण
उसकी ननद से शादी कर लेता है और घर जमाई बन जाता है क्योंकि डोम की लड़की को कभी
सवर्ण जाति के लोग स्वीकार नहीं करते हैं और डोम से शादी होने के कारण न ही पूर्ण
को उसके समाज में स्वीकार किया जाएगा। शादी हो जाने के बाद दो लोग बात कर रहे थे
कि आज क्या हुआ है ? पास से ही गुजरते
हुए एक व्यक्ति बोलता है कि एक लड़का अपना जात-कुल छोड़कर डोम के घर, घरजमाई बना है तो उसे वे लोग अपने जात से उठाने
के लिए उत्सव मना रहे हैं। तभी दो लोगों में से एक बोलता है कि क्या बात करते हो
डोम की जात में उठायेंगे या सवर्ण को डोम के जात में नीचे उतारेंगे ? तभी फिर से मेनका सुन लेती है तब वह बोलती है
कि नीचे नहीं गिराए हैं उन लोगों में से एक को डोम के जात में लिया है और बाकी उन
लोगों को भी एक दिन वह डोम जात में ले लेगी।
लेखक ने यह उपन्यास बचपन की कई घटनाओं से
प्रभावित होकर लिखा है। लेखक का जन्म असम के ढेकुआखाना जिले के बालिगाँव में हुआ
था। उनके गाँव बालिगाँव के पूर्व की ओर हुज गाँव तथा पश्चिम की ओर कसुगाँव दो
कैवर्तों के गाँव हैं। और यह कसुगाँव ही उनके उपन्यास की पृष्ठभूमि है। क्योंकि
उनके बगल के ही कसुगाँव के गरीब दुखियारे लोग लेखक के गाँव के लोगों के घर चरवाहे
का काम करके अपना गुजारा कर लेते थे। इसी कारण से कसुगाँव के कैवर्त और लेखक के
गाँव के लोगों के बीच धीरे-धीरे एक आत्मीयता का सम्बन्ध पनपने लगा था। हुज गाँव का
एक कैवर्त परिवार उनके जन्म से पहले ही शिक्षित परिवार के रूप में प्रतिष्ठित हो
चुका था। और उसी परिवार के एक सदस्य लेखक के शिक्षक थे। “लेखक उन्हें कभी ‘कैवर्त’ या ‘अस्पृश्य’ के रूप में नहीं जानता था क्योंकि तब तक इस तरह की
अस्पृश्यता वाली कोई घटना नहीं घटी थी। लेकिन एक दिन एक दिल दहला देनी वाली घटना
ने लेखक को यह समझा दिया कि उनके शिक्षक ‘कैवर्त’ और ‘अस्पृश्य’ हैं।” एक दिन लेखक के घर वालों ने लेखक के शिक्षकों
को खाने पर बुलाया। सभी शिक्षकों तथा लेखक के पिताजी ने उन लोगों के साथ आँगन में
बैठकर तरह-तरह की बातें कीं। जब खाना खाने का समय हुआ तब हर एक शिक्षक को घर के
अन्दर बुलाया गया। लेकिन लेखक का वह शिक्षक जब घर के अन्दर जाने के लिए खड़ा हुआ तो
लेखक के पिताजी ने उन्हें कहा कि वह वहीं बैठे रहें, उनको खाना वहीं पर दिया जाएगा। ये सुनते ही जैसे उस शिक्षक
की पाँव तले की जमीन खिसक गयी वह मौन रहकर वहीं बैठ गया और उनकी आँखों से आँसू
टपकने लगे। लेखक यह सब कुछ खिड़की के पास से देख रहा था। अस्पृश्यता की यह छाप उनके
मन में हमेशा के लिए रह गयी। यह घटना सन् 1942 ई. की है। इसके दो साल पहले जब लेखक आठ साल के थे तब उनके
गाँव बालिगाँव के एक आहोम युवक ने कसुगाँव की एक कैवर्त युवती से शादी करके
कसुगाँव में घर जमाई बन गया था। इस घटना से उस समय एक ऐसा सामाजिक भूचाल तथा
भूकम्प आ गया था कि इस भूकम्प ने उनके दिल को भी दहला दिया था।
कुछ साल बाद लेखक ‘पंचायत परिदर्शक अधिकारी’ बन गया और एक बार वह अपने जिले में ही पंचायत
के परिदर्शन करने के लिए गया। उस समय पंचायत का जो सभापति था संयोगवश वह लेखक के
बचपन के कैवर्त शिक्षक का अपना छोटा भाई था। एक दिन सभापति जी उनसे मिलने के लिए उनके
घर आ गए। कुछ देर बात करने के बाद लेखक ने उनसे कहा कि – ‘भैयाजी कल मैं आपके घर में खाने पर आऊँगा।’ उस समय लेखक के पिताजी भी वहाँ बैठे हुए थे।
लेखक के मुँह से यह बात सुनते ही सभापति जी और उनके पिताजी चौंक पड़े। उन्होंने
पहले अपने पिताजी की ओर देखा तो देखा कि वह उनको विस्मय नजरों से देख रहे हैं जैसे
कि वह यकीन ही नहीं कर पा रहे हैं कि उनका बेटा कुछ ऐसा भी बोल सकता है। उसके बाद लेखक ने सभापति की ओर
देखा तो उन्होंने देखा कि उनकी आँखों से आँसू टपक रहे हैं। यह देखते हुए उन्हें
अपने शिक्षक की याद आ गयी थी। अपने शिक्षक के उस दिन के आँसू और आज सभापति जी के
आँसूओं में कितना फर्क था ! परिवर्तन की एक पहल। इन्हीं घटनाओं को केंद्र बनाकर
तथा अपने अनुभवों से प्रभावित होकर कैवर्त समाज के लोगों की जीवन धारा तथा उनके
दुःख-दर्द, जातिभेद के दंश, छुआछुत, अस्पृश्यता को विस्तृत रूप से उजागर करने के लिए उन्होंने
यह उपन्यास लिखा है।
बाद के समय में उसी सभापति के दोनों
बेटों की शादी उच्च वर्ग के हिन्दू सम्प्रदाय की लड़कियों के साथ हुई। दोनों
कैवर्तों के उच्च वर्ग की हिन्दू लड़कियों से शादी करने से समाज में किसी भी प्रकार
का प्रश्न नहीं खड़ा हुआ बल्कि यह इतनी आसानी से हो गया कि जैसे इससे ज्यादा
स्वाभाविक और कोई घटना हो ही नहीं सकती है।
बर्नाली नाथ (शोधार्थी)
हिन्दी विभाग
अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय
हैदराबाद
सम्पर्क
9492448034
barnalinath001@gmail.com
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जिस शादी ने लेखक के गाँव तथा समाज में हलचल मचा
दी थी तथा अस्पृश्यता की भावना को और ज्यादा बढ़ावा दे दिया था, सालों बाद अब के समय में जब लेखक एक बार घर गया
तो देखा कि उसी घर जमाई के वंश के कोई एक युवक ने किसी एक कैवर्त युवती से शादी कर
ली है। और लोगों ने इस शादी को इतने सहज रूप से लिया है कि कहीं पर भी किसी भी
सवाल की कोई गुंजाइश ही नहीं रही। समय के साथ-साथ परिवर्तन के स्वरुप को देखा जा सकता
है। लोगों के मन में बड़े पैमाने में परिवर्तन आया है तथा उनकी मानसिकता भी बदल रही
है। ‘मत्स्यगंधा’ उपन्यास का ही एक सन्देश ‘अंतर्जातीय विवाह’ है जो लेखक का मंतव्य भी है। यह समाज में परिवर्तन के लिए
अपेक्षित है। केवल असम में ही नहीं भारत के अन्य राज्यों में भी यह होने से काफी
हद तक जातिभेद की समस्या दूर हो सकती है। असम का कैवर्त समाज राज्य के अन्य
सम्प्रदायों से ऐसे घुल-मिल गये हैं कि छुआछूत की भावना अब वहाँ देखने को नहीं
मिलती है। अगर किसी दूर-दराज के गाँवों में अब भी यह मिलन नहीं हुआ है तो इसके
प्रभाव से दूसरे क्षेत्रों में जरुर इसकी शुरुआत हो गयी होगी। छुआछूत की भावना रही
है तो वहाँ से भी बहुत जल्दी ही यह सब मिट जाएगा। इसके लिए पढ़े-लिखे शिक्षित लोगों
को पहल करना चाहिए कि उनको जागरूक बनाये तथा जातिभेद, छुआछूत की मानसिकताओं को बदलने की कोशिश करे। उनके समाज को
शिक्षा की ओर आकर्षित कराने से छुआछूत की भावना सहने वाले लोगों में भी परिवर्तन आ
पायेंगे। उनको अपनी अस्मिता की पहचान करवाने पड़ेंगे, उनकी गलत धारणाओं को कि वह किसी पूर्व जन्म के पाप की वजह
से किसी नीच जात में पैदा हो गये हैं ऐसे विचारों के खंडन करवाने होंगे। जन्म से
ही सब सामाजिक रूप से बराबर हैं। किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता मनुष्य के बीच नहीं
रहनी चाहिए। साहित्यिक रचनाएँ इन सब परिवर्तनों में एक माध्यम का काम करती हैं।
संदर्भ – सूची :
1. असमिया दैनिक
समाचार पत्र : ‘नियमीया वार्ता’ में होमेन
बरगोहाईं द्वारा लिखा गया ‘सरव चिंता’(चिंतन), दिनांक 17 फ़रवरी, 2016. पृष्ठ संख्या 1 और 11.
2. असमिया दैनिक
समाचार पत्र : ‘नियमीया वार्ता’ में होमेन
बरगोहाईं द्वारा लिखा गया ‘सरव चिंता’(चिंतन), दिनांक 17 फ़रवरी, 2016. पृष्ठ संख्या 1 और 11.
सन्दर्भ :
1. आधार ग्रन्थ :
होमेन बरगोहाईं : ‘मत्स्यगंधा’, प्रकाशक - भारती
बुक स्टाल : गोलाघाट, प्रथम संस्करण 1987
2. ‘मत्स्यगंधा’ (असमिया उपन्यास)
: हिन्दी अनुवाद और विश्लेषण। (एम. फिल.
हिन्दी उपाधि हेतु प्रस्तुत लघु-शोध-प्रबंध)
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