मुक्तिबोध का रचना प्रक्रिया संबंधी चिंतन
रचना प्रक्रिया पर अगर एक रचनाकार के विस्तृत विवेचन की बात करें तो मुक्तिबोध के बिना यह चर्चा अधूरी सी प्रतीत होती है। हिन्दी साहित्य में जिसे नया दौर (नयी कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना इत्यादि) कहा जाता है, उसके जाने-माने रचनाकार-आलोचकों में से मुक्तिबोध एक महत्वपूर्ण नाम है। जहां तक उनकी रचनात्मक दृष्टि का सवाल है तो, वह रचना, रचनाकार और उसके सामाजिक उद्देश्य को लेकर विकसित हुई है; इसीलिए उनकी रचनाओं में सामाजिक विडंबनाओं के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया दिखाई देती है। उन्होंने रचना और जीवन को एकरूप में देखा इसी वजह से शब्द और कर्म में फर्क को वे साहित्यिक ईमानदारी के विरुद्ध मानते हैं। इसी निजी और सामाजिक के बीच की संबंध भावनाओं से उभरे अंतर्द्वंद्व को उनके रचना-प्रक्रिया संबंधी चिंतन में साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है।
साहित्यिक सर्जन को लेकर हमेशा सर्जक का
व्यक्तित्व, निजी व सामाजिक दृष्टिकोण से उत्पन्न आत्मसंघर्ष के बीच फंसा रहता है।
उसे सामाजिक समस्याएं भी मानवता के नाते प्रभावित करती हैं और निजी भावनाएं भी; इसलिए वह किस प्रकार अपनी अभिव्यक्ति को
रचनात्मकता के साथ जोड़े, उसके सामने बराबर यह प्रश्न बना रहता है। इस प्रश्न से
मुक्तिबोध भी जूझते हैं। वे यह बराबर महसूस करते हैं कि – “साहित्यकार सामाजिक दृष्टिकोण से जनता की सेवा के लिए साहित्य सर्जन
करें या अपने भीतर सौंदर्य प्रतीति से अभिभूत होते हुए आत्मप्रकटीकरण के रूप में
साहित्य लिखे?”1 उन्हें यह बात
हास्यास्पद लगती है कि सौंदर्य प्रतीति और सामाजिक दृष्टिकोण में परस्पर विरोध
होता है।
उनकी नजर में सामाजिक प्रभावों के बावजूद
सृजन के लिए आलोचनात्मक चेतना का होना जरूरी है, क्योंकि बिना आलोचनात्मक चेतना के
रहते मूल्यांकन परक दृष्टि नहीं बन सकती। जबकि वे सृजन को बिना मूल्यांकित किए हुए
संभव नहीं मानते। इस संदर्भ में उनका तर्क यह है कि – “सृजनशील प्रेरणा या बुद्धि स्वयं एक आलोचनाशील मूल्यांकनकारी शक्ति
है, जो इस मूल्यांकन के द्वारा ही अपने प्रसंग को उठाती है और उसे कलात्मक रूप से
प्रस्तुत करती है। बिना मूल्यांकन शील शक्ति के कोई सृजन कम से कम साहित्यिक सृजन
नहीं हो सकता।”2 उनका यह तर्क साहित्य एवं कला में निहित मार्मिकता
से जुड़ता है जो कि उनके हिसाब से साहित्य एवं कला का प्राणतत्व है।
रचनाकार और रचना प्रक्रिया, परिवेश सापेक्ष
होने के चलते हर दिक्-काल (स्थान और समय) में भिन्न होती है। इसी बात के दायरे में
वे छायावादी रचनाकारों से भिन्न नए दौर के रचनाकारों की रचना-प्रक्रिया को देखते
हैं। वे छायावादी भाव को ‘आवेशयुक्त’ मानते हैं जबकि नए दौर के भाव को अनुभूत मानसिक
प्रतिक्रिया, हालांकि आवेशीय स्थिति को दोनों दौर में उन्होंने स्वीकार किया है।
इस संदर्भ में उनका मत है कि – “मुख्य बात यह है कि
आज का कवि अपनी बाह्य स्थितियों-परिस्थितियों और मनस्थितियों से न केवल परिचित है
वरन् वह अपने भीतर उस तनाव का अनुभव करता है जो बाह्य-पक्ष और आत्म-पक्ष के
द्वंद्व की उपज है। चूंकि आज का वैविध्यमय जीवन विषम है, आज की सभ्यता हासग्रस्त
है, इसलिए आज की कविता में तनाव होना स्वाभाविक ही है।”3
आत्मपरक क्षणों को महत्व देना
या अपने जीवन के आंतरिक पहलुओं को कला में व्यक्त करना वे गलत नहीं मानते। लेकिन
अपने अंतकरण के जीवनानुभवों को उनके समग्र बाहरी संदर्भों के साथ उपस्थित करना
आवश्यक मानते हैं क्योंकि सर्जक को वे संपूर्ण द्रष्टा के रूप में देखते हैं। इस
प्रकार के चिंतन के पीछे उनकी धारणा यह है कि – “काव्य रचना
केवल व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं, सांस्कृतिक प्रक्रिया है। और फिर वह
एक आत्मिक प्रयास है। उसमें जो सांस्कृतिक मूल्य परिलक्षित होते हैं वे व्यक्ति की
अपनी देन नहीं, समाज की या वर्ग की देन है।”4 विचारणीय यहां यह है कि काव्य को सांस्कृतिक
प्रक्रिया मानते हुए भी आत्मिक प्रयास मानना सर्जक के सामाजिक दायित्वबोध को
निरूपित करता है। इस कलात्मक प्रक्रिया को व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामाजिक या वर्गीय
चेतना की देन मानना सामाजिक दायित्वबोध को सामूहिक वैकल्पिक दृष्टि से देखना है।
साहित्य में दर्शन एक दृष्टि के रूप में
रूपयित होता है जो साहित्य के अंदर वैचारिक अस्थिरता को उत्पन्न होने नहीं देता
है। मुक्तिबोध ने साहित्य के हर दौर में साहित्य के दार्शनिक निरूपण की बात सिर्फ
स्वीकार ही नहीं की है बल्कि साहित्य में दार्शनिकता का होना अनिवार्य भी माना है,
चाहे वह विचारधारा के रूप में हो या जगत के अनुभव से उत्पन्न व्यक्ति-भाव बोध के
रूप में। इससे भी आगे वे दार्शनिक भावधारा की बात करते हैं, जो
विचारधारा(विश्वदृष्टि) और भावबोध (भावदृष्टि) के संयोग से निर्मित होती है। इसे
वे रचनाकार की व्यक्तिगत भावधारा के रूप में देखते हैं।
लेखक की आंतरिक दुनिया जो कि रचना-प्रक्रिया
में मुख्य भूमिका निभाती है, उसका भी विश्लेषण बहुत् तार्किक रूप में वे प्रस्तुत
करते हैं। वे अंतरात्मा और लेखक के बीच के संबंध को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि
–“आत्मा के आग्रह और अनुरोध हमेशा आगे-आगे ही
रहेंगे, और लेखक अनुगमन करते हुए भी यही सोचता रहेगा कि उसने अपने आग्रह लक्ष्यों
को उपलब्ध नहीं किया। इस प्रकार लक्ष्य और उपलब्धि के बीच जो फासला है, वह आतुर मन
के लिए बराबर बना रखा है, क्योंकि लक्ष्य स्वयं गतिमान है मनुष्य की अपनी ही गति
के कारण।”5 रचनात्मकता को अंतरात्मा का अनुकरणधर्मी मानना यह
स्पष्ट करता है कि रचनात्मकता में व्यक्तिगत पक्षधरता भी अनिवार्य है।
रचना-प्रकिया में आंतरिक दुनिया पर विचार के
पश्चात जब बाह्य दुनिया द्वारा रचना-प्रक्रिया के विषय में रुचि का प्रश्न उठता है
तो उनका तर्कगत अनुमान इस संबंध में यह है कि – “मेरे ख्याल से एक उत्तर यह है कि उसके अंतर्तत्वों के विश्लेषण से
सौंदर्य संबंधी किसी सामान्य सिद्धांत पर आया जा सकता है।”6 हिन्दी में रचना-प्रक्रिया के विश्लेषण को भी वे नयी कविता के दौर में
शुरू मानते हैं, जो सौंदर्यानुभव और आधुनिकता को समझने से जुड़ा हुआ है।
रचना-प्रक्रिया जैसे
जटिल विषय पर सकारात्मक पक्षधरता का ही परिणाम है, उनकी किताब –‘एक साहित्यिक की डायरी’ और इसमें संकलित
निबंध ‘तीसरा क्षण’ इस परिणाम की सबसे बेहतर पुष्टि है। सूत्र और संवाद शैली का रोचक
उपयोग करते हुए वे अपने विचार व्यवस्थित दृष्टि के साथ व्यक्त करते हैं। रचना
प्रक्रिया पर उनका सूत्रनुमा वक्तव्य है – “कला का पहला क्षण
है, जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव का क्षण। दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने
कसकते-दुखते मूल से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह
फैंटेसी आपकी आंखों के सामने ही खड़ी हो तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैंटेसी के
शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की
गतिमानता।”7
बात अगर अनुभव के
पहले क्षण की करें तो उसे रचना –प्रक्रिया का मूल माना जा सकता है, क्योंकि यह
जीवन अनुभव का वह हिस्सा होता है जो रचना की प्रेरणा का आधार बनता है। इसमें
संवेदना अपने आवेगात्मक स्वरूप में सम्मिलित रहती है। उसके अलावा यह क्षण इसलिए भी
महत्वपूर्ण है क्योंकि कला का दूसरा क्षण तभी उत्पन्न होगा जब पहला क्षण सक्रिय
होगा। क्योंकि, एक रचनाकार अपने मूलभावों से परे कैसे होगा। इसीके चलते कला के
प्रवाह का क्षण महत्वपूर्ण है।
कला के दूसरे क्षण में फैंटेसी शब्द है जो
रचना-प्रक्रिया को इसके लक्ष्य तक पहुंचाने में मुख्य भूमिका निभाती है। फैंटेसी
इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसके शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया में समस्त व्यक्तित्व और
जीवन का प्रवाह होता है। कला के दूसरे क्षण में फैंटेसी रचना-प्रक्रिया की संपूर्ण
स्थिति बन जाती है; क्योंकि सारा व्यक्तित्व और उसकी चेतना उस
फैंटेसी का अंग बन जाती है। वे फैंटेसी में संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक
संवेदना का जुड़ाव मानते हैं। वे रचनाकार और पाठक को संपूर्ण रूप में
रचना-प्रक्रिया में शामिल मानते हैं। उनके शब्दों में “कृतिकार को यह महसूस होता रहता है कि उसका अनुभव सभी के लिए
महत्वपूर्ण और मूल्यवान है। तो मतलब यह है कि भोक्तृत्व और दर्शकत्व का द्वंद्व एक
समन्वय में लीन होकर एक-दूसरे के गुणों का आदान-प्रदान करता हुआ सृजन-प्रक्रिया
आगे बढ़ा देता है। दर्शक का ज्ञान और भोक्ता की संवेदना परस्पर विलीन होकर अपने से
परे उठने की भंगिमा को प्रोत्साहित करते चलते हैं। इस प्रकार सृजन-प्रक्रिया में
विशिष्ट में सर्वमान्य का महत्व प्रतिबिंबित होता सा प्रतीत होता है।”8
मुक्तिबोध द्वारा रचना-प्रक्रिया संबंधी
चिंतन में एक बात ध्यान देने वाली यह भी है कि उनके तीसरा क्षण नामक लेख और नई
कविता का आत्मसंघर्ष नामक लेख में इससे जुड़े जो तर्क दिए गए हैं उनमें कल्पना की
उत्पत्ति और सक्रियता को लेकर अंतर है। तीसरा क्षण में वे कल्पना को दूसरे क्षण
में सक्रिय मानते हैं जबकि नई कविता का आत्मसंघर्ष में वे कल्पना को पहले क्षण में
ही सक्रिय मानते हैं। उनके अनुसार –“तरंगायित होकर जब
अंतर्तत्व मानसिक दृष्टि के सम्मुटन उपस्थित हो उठते हैं, तभी उनमें रूप आता है,
अर्थात् कल्पना बिंब स्वर या प्रवाह से संवृत हो उठते हैं। कल्पना का कार्य यहीं
से शुरू हो जाता है। बोध-पक्ष अर्थात् ज्ञानवृत्ति भी यहां सक्रिय हो उठती है। यह
उद्धाटन क्षण है, यह कला का प्रथम क्षण है।”9 दूसरे क्षण में वे
कल्पना शक्ति के उद्दीप्त हो जाने की बात करते हैं। यह नव-नवीन रूप बिंबों का
विधान करती है ताकि मनोवैज्ञानिक तत्व अपने मूल रूप में प्रस्तुत हो सके।
कला के तीसरे क्षण को वे कला का अंतिम क्षण
मानते हैं जिसमें फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया पूरी होती हैं। नंद किशोर
नवल इस पर असहमति जताते हुए कहते हैं कि कला का तीसरा क्षण जो शब्दाभिव्यक्ति का
होता है, मुक्तिबोध ने उसे पहले क्षण में माना है, उनका कहना है कि- “फैंटेसी का उन्मेष पहले क्षण में होता है, तो शब्दाभिव्यक्ति की
प्रक्रिया पहले क्षण में ही शुरू हो जाना चाहिए, भले वह निश्चित और अंतिम रूप
तीसरे क्षण में प्राप्त करें।”10 इसकी वजह वे यह
बताते हैं कि –“काव्य कल्पना जो फैंटेसी को जन्म देती है,
शब्दरहित नहीं हो सकती, कितने भी अविकसित रूप में क्यों न हो, शब्दाभिव्यक्ति शुरू
से ही उसके साथ लगी रहती है। मुक्तिबोध ने खासतौर पर इस बात पर बल दिया है कि
अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में फैंटेसी परिवर्तित हो जाती है।”11 नवल
जी का यह तर्क सही लगता है क्योंकि फैंटेसी ही शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया से
गुजरती है और मुक्तिबोध ने नई कविता का आत्मसंघर्ष में कल्पना को पहले क्षण से ही
सक्रिय माना है; जिसके सक्रिय होते ही फैंटेसी सामने साक्षात
उपस्थित हो जाती है। इसलिए शब्दाभिव्यक्तित का प्रारंभ पहले क्षण से ही मानना
चाहिए।
कला का तीसरा क्षण जिसमें फैंटेसी के
शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया चलती है। इस प्रक्रिया में मुक्तिबोध ने फैंटेसी के
शब्दबद्ध होने को आसान नहीं माना है क्योंकि –“होता यह है कि फैंटेसी को शब्दबद्ध करने की प्रक्रिया में बहुत से
तत्व उसे लगातार संशोधित करते रहते हैं।
ध्यान रखो कि यह फैंटेसी अनुभव प्राप्त होते हुए भी अनुभव बिंबित होती है। इस
फैंटेसी में वस्तुत: एक भावात्मक बिंब समाया रहता है। उसमें एक
संवेदनात्मक दिशा रहती है। फैंटेसी के भीतर यह दिशा और उद्देश्य फैंटेसी का मर्म
प्राण है।”12
फैंटेसी के बदलने के पीछे पहला कारण जीवन के
विविध अनुभवों के संघर्ष का फैंटेसी में मिलना और दूसरा कारण फैंटेसी के द्वारा
अनुभवों का बिंबों में तब्दील हो जाने से है। और यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है,
जब तक रचनात्मक उद्देश्य प्राप्त नहीं हो जाता है।
डा. राकेश कुमार सिंह
असि. प्रोफेसर हिंदी (संविदा)
DESSH, RIE(NCERT)
भुवनेश्वर,सचिवालय मार्ग, भुवनेश्वर
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इस प्रकार से मुक्तिबोध रचना-प्रक्रिया में,
जीवन प्रक्रिया से उत्पन्न जीवनानुभवों को रचनात्मक उद्देश्य से जुड़ा मानते हैं।
वे रचना-प्रक्रिया के विषय में रचनाकार के आत्मकथन को सृजनशीलता के विकास में
सहायक भी मानते हैं। उनके अंदर व्यक्तिगत रूप में सामाजिक प्रतिबद्धता का सवाल अहम
है जो इस बात की पुष्टि करता है कि रचनाकार सिर्फ समाज में ही नहीं जीता बल्कि
समाज को भी जीता है।
संदर्भ –
1. मुक्तिबोध
रचनावली, संपा-नेमीचंद जैन, राजकमल प्रकाशन, प्र.सं. 1980, पृ. 187
2. वही, पृ.187
3. वही, पृ.194
4. वही, पृ.200
5. वही, पृ.258
6. वही, पृ.247
7. एक साहित्य की
डायरी, मुक्तिबोध, भारतीय ज्ञानपीठ, सं. 2002, पृ. 20
8. वही, पृ. 23
9. मुक्तिबोध, नंद
किशोर नवल, साहित्य अकादमी, प्र.सं. 1996, पृ. 59
10. वही, पृ. 59
11. वही, पृ.59
12. एक साहित्यिक की
डायरी, मुक्तिबोध, पृ. 24
13. वही, पृ. 24
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
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