कहानी:अभागिन/
करीब रात के ११ बजे जैसे लगा कि जिंदगी थम सी गई, जब मेरे फ़ोन की रिंगटोन बजी, दूसरी तरफ से एक भारी सी आवाज मुझे सुनाई दी...........................
हॉस्पिटल के
अन्दर एक छोटा सा कमरा जिसे आई.सी.यू.के नाम से जाना जाता है उसके अन्दर से सफ़ेद जैकेट में एक लम्बा, गोरा चिट्टा आदमी, आँखों पर चश्मा लगाये हुए, तेजी से बाहर आया और उसने सोफे पर बैठी बुआ से
कहा...........................
“मुझे माफ़ करियेगा
अब मैं कुछ नहीं कर सकता”
उसके चेहरे की
शिकन और निराशा की भावना किसी अप्रिय घटना की तरफ इशारा कर रही थी।
बुआ की आंखे बंद
हो गई और पानी की कुछ बुँदे उनके गाल से होते हुए फर्श पर चू पड़ी।
“मैं अबला अब कहाँ
जांऊ , कौन है जो मेरी जिंदगी की
इस कश्ती का खेवनहार होगा? अब मैं किस
किनारे लगूंगी”
उनके पास सब कुछ
था, मगर बुआ के ये लफ्ज बरसों
की तपस्या को बीच में ही भंग करने वाले मालूम पड़ रहे थे।
इन सब के बीच
रानी मुस्कुरा रही थी।
जब मैं बारहवीं
की परीक्षा दे रहा था, तब मेरी अवस्था
यही कोई १६ वर्ष की थी।
मेरी बुआ मुझे
बहुत प्यारी थी, वो घर के सारे
काम काज के साथ मेरा ख्याल भी रखती थीं। मुझे कोई तकलीफ होती तो माँ से ज्यादा
उनको तड़प होती थीं, माँ से ज्यादा
मैंने उनको जाना, पहचाना था। उनके
रहते मुझें कोई तकलीफ नहीं हो पाती थी।
बुआ की माँ उनको
जन्म देने के तुरंत बाद ही दुनिया से चली गई थीं। उन्होंने अपनी माँ को नहीं देखा
था। उनकी मौत का कारण सभी बुआ को ही मानते थे। उनकी परवरिश हमारे घर की नौकरानी
दाई अम्मा ने की, दादा ने बुआ का मुख कभी नहीं देखना चाहा,क्योंकि वो उनको एक अभिशाप मानते थे,जो जन्म लेते ही अपनी माँ को खा गई थी।
उनका
नाम नीलू था, वे सांवली सी,
शायद 5.4 इन्च पतली सी, फूंक दो तो पतंग की तरह उड़ जाए, उनकी डोर हमेशा मेरी माँ के हाथों में रहती, वे जब चाहे तब उनको आसमां से जमीन पर ला सकती थी। बुआ ने कभी स्कूल का रास्ता
नहीं नापा था। बाबा ने कभी उनको पढने के लिए स्कूल नहीं भेजा वे तो बस एक नौकरानी
की तरह घर में हर समय काम करने के लिए थीं।
उनको वो चीज़े कभी
नहीं मिली जो मेरी माँ को आसानी से मिल जाती थीं, बुआ अपने मायके में जरुर थी मगर वो किसी पिंजरे से कम न था।
एक दिन बुआ को
तेज बुखार आ गया। उस दिन न तो मेरी माँ को चाय मिल पाई,ना पापा के कपड़े प्रेस हुए और ना ही मेरा नाश्ता तैयार हो
पाया, फिर क्या था माँ ने जैसे
सारे घर को ही सर पर उठा लिया,
“नाटक कर रही है ”
“मुझे सच में
बुखार है भैया ”
“चल अभागिन तू तो
वो आस्तीन का सांप है जिस का काटा पानी भी नहीं मांगता और तुझे बुखार..................हूँ
”
“मुझे भी उसी के
साथ चले जाना चाहिए था”
“जाती कैसे?हमारी छाती पर मूंग जो दलना था”
“जाने दो शालू ”
“मैं कब कुछ कहती
हूँ मेरा तो एक ही विचार है शादी करा दो,बला टले”
“मैं भी तो यही
चाहता हूँ की शादी हो जाये ”
“मैं आज ही अपनी
माँ से बात करती हूं ”
“ठीक है”
माँ के इस रूप को
देख कर मैं सोचता हूँ कि कैसे? एक स्त्री दूसरी
स्त्री का ऐसा अपमान कर सकती है, नीलू ही थी जो
रोज–रोज के अपमान का यह मीठा
जहर पीती जा रही थी। स्त्री यदि समाज की कर्णधार है ,तो दूसरी तरफ वो अपने धूर्त आचरण से दूसरी नारी का जीवन नरक
के समान भी बना सकती है। शायद मेरी माँ इसी का एक उदाहरण थीं। बचपन से जिस लड़की ने
अपनी माँ के आँचल में कभी अपना चेहरा नहीं ढंका उसकी यह हालत देख कर मैं अन्दर ही
अन्दर सुलग रहा था।
हाथी के दांत
दिखाने के और खाने के और जैसी हालत मेरी माँ की थी। मुझे जितना प्यार करती थीं
उसका थोडा सा भाग भी वो बुआ से कर पाती तो अपने ही घर में बुआ की जिंदगी इतनी नरक
नहीं हुई होती।
जैसा की तय हुआ
था उसके अनुरूप बुआ की शादी लग गई इस अवसर पे सारे घर में उल्लास का वातावरण छाया
हुआ था। घर में सब रिश्तेदार जमा होने लगे।
पास ही के एक
गाँव में बुआ की शादी तय हुई थी। लड़का मैट्रिक पास करके मुम्बई में किसी सेठ के
यहाँ ड्राइवर की नौकरी कर रहा था, रंग सांवला ,कद शायद ५.९ इंच मिलनसार प्रवृति उसकी पहचान
थी। वह मेरा रिश्ते में मामा लगता था। घर में सास, ससुर और एक ननद के अलावा जेठानी भी थी। इस शादी में जिधर
देखो नानी के ही रॉब,अधिकार और प्रभाव
की चर्चा थी, आखिर शादी नानी
के रिश्ते में ही जो लगी थी। आज बुआ पराई होने जा रही थीं मगर इसका गम किसी के मुख
पर नहीं शायद, घर का एक बहुत
बड़ा भार हल्का होने जा रहा था। २० मार्च जब बुआ हमेशा के लिए घर से पराई एक नई दुनिया
में अपना कदम रखने जा रही थीं। मुझे याद है वह कठिन क्षण जब बुआ ने दादा से
कहा.................................
“पापा एक बार मुझे
देख लो शायद मै आपके ऋण से मुक्त हो जांऊ”
लेकिन उन्होंने
नजर भर देखा तक नहीं और बुआ के आँखों की जो लालसा थी, वह धीरे–धीरे आसुंओं के सहारे किनारे जा लगीं। उस अभागिन के मन में
आज जो कसक अपनी माँ के लिए थी, वो जरुर पूरी
होती यदि दादा की एक नजर उनके माथे के सिंदूर पर पड़ जाती, मगर नियति के खेल से तो कोई नहीं बच पाया फिर वह कैसे बच
पाती।
ससुराल में बुआ
की जिंदगी अच्छी हो गई थी। कुछ ही दिनों में उन्होंने अपने आचरण से ससुराल के सभी
लोगों का दिल जीत लिया। अब वो उस परिंदे की तरह अपने को खुला महसूस कर रही
थीं। जो पिंजरे की कैद से छूट कर हवा की
गति के साथ आसमां में उड़ता है। बुआ की जिंदगी किसी नरक के द्वार से निकल कर स्वर्ग
की दहलीज़ पर जा पहुँची थीं। जितने अच्छे उनके पति थे, उससे कहीं ज्यादा अच्छा उनका परिवार था। पति के साथ-साथ
पूरा परिवार उनको अपने ममता की छांव में पनाह दे रहा था। जिसे उपेक्षा और अपमान के
अतिरिक्त जीवन में ममता का कोमल संस्पर्श कभी नसीब ही नहीं हुआ था,वही आज पूरे परिवार के आँखों का तारा हो गई थी।
फूफा जी भी उनको
अपेक्षा से ज्यादा प्यार देते,समय कितना महान
होता है आज उनको महसूस हो रहा था। जिंदगी करवट तो लेती है, मगर इतनी जल्दी उन्होंने ऐसा सोचा नहीं था। इस बात का एहसास
उनको भी था मगर पतंग जितनी तेजी से ऊँचाई पर जाता है, उससे कहीं तेजी से नीचे भी आता है। इस बात का डर उनको अक्सर
रहता था। मुझे हर रोज़ वे फ़ोन पर अपना हाल-चाल
कहती थीं।
कुछ महीनो बाद
मैं बुआ के घर गया। यह देखने की क्या वे जो मुझ से कहती हैं वह सब सच है या मुझे
झूठी कहानी सुनाया करती हैं मगर जब मैं वहां पंहुचा तो उनको देखकर मैं हतप्रभ रह
गया।
जब मैं उनसे मिला
तो आश्चर्यचकित रह गया अब वे अभागी नहीं हैं।
उनके अब दिन बदल
गए थे, एक मजूरन अब महारानी की
भांति चेहरे पर ओज लिए खड़ी थी।
“बुआ क्या है ये?”
“ये वो है,
जिसकी मैंने कभी कल्पना नहीं की थी !”
“मैं आपके लिए......
” बुआ ने रोका
“बाबू तुम कुछ न
कहो”
“क्यों?”
“क्यों? हा हा हा हा ”
“इस हंसी का कारण?”
“ये वो हंसी है जो
मैंने कभी न हंसी थी। मैं अम्मा के चरण पर अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर दूँ, तो वो भी कम पड़
जाएगी, मेरे बाबू मुझे जीवन में
इतनी ख़ुशी कभी नहीं मिली। एक अभागिन की तरह जीने की पीड़ा अब ख़त्म हो चुकी है बाबू”
बुआ मुझे प्यार
से बाबू कहती थीं।
“क्या बातें हो
रही है” फूफा ने आते हुए कहा
“कुछ नहीं बस यू
ही घर की”
“हाँ कर लो बस आज
के दिन”
“क्यों?”
“बाबू मैं कल सुबह
वाली गाड़ी से मुम्बई जा रही हूँ न”
“अच्छा हाँ याद आया” आपने बताया था, मैं भूल गया।
“अच्छा हाँ याद आया” आपने बताया था, मैं भूल गया।
“बाबू, जाने के बाद अपना ख्याल रखना”
“आओ आप सब खाना खा
लो सुबह जाना है न ” बुआ की ननद ने
बाहर से ही आवाज लगाया।
सुबह के ८ बजे स्टेशन पर गाड़ी आ गई, सभी से विदा लेकर जब मैं घर वापस आया तो माँ ने
कहा कि कैसा लगा वहां जाकर?, सब अच्छे तो है,
हाँ मैं जानती हूँ सब अच्छे ही होगें आखिर मेरे
ही परिवार के हैं.........................
माँ की बातो में
एक अहम् की भावना थी,जो किसी कटाक्ष
से कम तो न थी। मन में एक बात उठी....................
“हाँ आप भी तो उसी
परिवार की हो!”
मगर कहने की
हिम्मत नहीं हो सकी, शायद मेरी माता
जो ठहरी। धीरे-धीरे समय कैसे बीता यह पता
ही नहीं चला। मैं ग्रेजुएशन की पढाई कर रहा था, समय अपनी तेजी से भागा जा रहा था।
बुआ से अक्सर फ़ोन
पर बात होती तो पता चलता कि फूफा जी की तबियत ख़राब है शायद पुराना रोग है मुहं और
गर्दन में अक्सर दर्द होता रहता है , किसी डाक्टर से दवा करा रहे थे।
बुआ के लिए
मुम्बई बहुत ही अनजान शहर रहा क्योंकि वहां पर जिन्दगी अपनों के बीच ही बेगानी हो
जाती है। समय किस तरह से पलक झपकते बीत जाता है इसका एहसास शायद किसी को नहीं होता
है।
बुआ को गए २ साल हो चुके थे और इन दो सालो में
जिंदगी ने ऐसी पलटी मारी कि फूल कब सुख कर डाली से गिर गए, बुआ को अहसास तक नहीं हुआ।
शादी से पहले
अक्सर फूफा जी बीमार रहा करते इस बात को किसी ने नहीं बताया था। लेकिन हालत शादी
के बाद कुछ ज्यादा बिगड़ने लगे। जिसका मुख्य कारण उनका गलत संगत में पड़ कर नशा को
अपनाना रहा। बचपन से ही वे नशे की गिरफ्त में आ गए थे।
जब वो पूरी तरह से नशे के गिरफ्त में आ गए,
हालत जब बस से बाहर हो गया तब उनको मुम्बई के
सबसे बड़े हॉस्पिटल में दिखाने के बाद पता चला कि उन्हें माउथ कैंसर है, वो भी अंतिम अवस्था में, खबर बिजली के समान बुआ के सीने से टकराई। गोद में एक नन्हीं
सी परी जिसकी उम्र महज ८ महीने थी।
उसे कोई पसंद
नहीं करता था ससुराल वाले भी नहीं सबको लड़की के जगह लड़का चाहिए था जो समाज के
धारणा के अनुरूप था। इस अमानवीय सोच को बदला नहीं जा सकता...................
डाक्टर ने कहा की
हमें आज ही सर्जरी करनी होगी शायद एक उम्मीद की किरण डाक्टर की बातों में थी।
सुबह के पांच बजे
घड़ी का अलार्म बजा। मै जल्दी से तैयार होकर स्टेशन पर पहुंचा। मैं जनरल का टिकेट
लेकर आरक्षित डब्बे में चढ़ गया। मुझे किसी तरह मुम्बई जल्द से जल्द पहुँचना था।
एक साल के भीतर
मैं तीसरी बार मुम्बई जा रहा था। हर बार वो ठीक हो जाते थे मगर इस बार क्या होगा
मेरे मन को ये सवाल बार बार परेशान कर रह था।
स्टेशन पर उतरते
ही मैं सीधा हॉस्पिटल गया। बुआ निढ़ाल फर्श पर पड़ी हुई थीं और परी उनकी गोद में खेल
रही थी।
वहां पहुँचने के बाद, मुझे पता चला कि हालत अब हाथ में नहीं हैं जीने की अब कोई
उम्मीद नहीं बची है..........................
शायद डाक्टर के
पास आने में देर हो गई थी ,बाहरी दवाओं का
कोई फायदा नहीं हुआ था। उन दवाओं ने उन्हें उल्टा मौत के मुंह तक पहुंचा दिया था।
रामनिवास (बुआ के
पडोसी) से मैंने मौके का जायजा लिया तो पता चला कि कुछ देर पहले फूफा जी को
आई.सी.यू. में ले जाया गया है, बचने की उम्मीद न
के बराबर थी क्योंकि मुह से रक्त निकलना
बंद नहीं हो रहा था।
कुछ देर बाद आवाज
शांत हो गई फर्श पर अचेत पड़ी बुआ के चहरे पे मैंने पानी की कुछ बूंदे डाली होश में
आने के बाद फिर से रोने की आवाज गूंज उठी। रामनिवास भैया की पत्नि ने बुआ को अपने
गोद में भर लिया और आसूओं की एक बाढ़ सी आ गई। मेरी आंखे भी जवाब दे गई और आसूं
ढुलक पड़े। ओह! काश ये रिश्ते नाते न होते तो किसी के लिए कोई अपनी आंखे नम नहीं
करता। न जाने कैसे-कैसे ख्याल मेरे मन में पूरी रात चलते रहे। रह-रह के आवाज सुनाई
देती रही। सुबह की पहली किरण के साथ हम बॉडी को लेकर घर पर आ गए। मैंने सबको कॉल
करके सूचना दी,बस अपने घर पर
फ़ोन नहीं किया जहाँ जिंदगी नर्क के समान सी लगती थी। फूफा के पापा ने कहा कि लाश को लेकर हम गाँव आ जाये। सेठ, जिसके यहाँ फूफा काम कर रहे थे उसने अपनी गाड़ी
से हमें गाँव तक भिजवाया। पहुँचने के बाद नजारा मातम में बदल गया सभी आ चुके थे तब
तक बुआ को कुछ भी ख्याल न था, वो किसी और
दुनिया में ही थीं।
मगर एक और चेहरा
था जिसके सहारे वे अपना आगे का जीवन जी सकती थीं,
“परी”
जिसे कुछ मालूम
ही नहीं था वो तो बस अपने में ही मस्त थी।
करुणा ही करुणा
उनके जीवन का हिस्सा बन चुकी थी। हिन्दू रिवाज से जब सब कुछ सम्पन्न हो गया तो बुआ
घर पर आ गई मगर दुखों का पहाड़ लेकर, ऐसा पहाड़ जिसे न हवा गिरा सकती न पानी बहा सकता और न ही आग जला सकती थी।
परी को मैं हर
समय अपने गोद में लिए रहता था ताकि बुआ को अपना ही घर पराया न लगे। मगर मेरी माँ
और पिताजी हर समय उनको ताने दिया करते थे।
घर में सबका मन
था की बुआ ससुराल में ही रहे मगर बुआ को वहां से निकाल दिया गया था, यह कहकर की अब बेटा ही नहीं रहा तो तुम यहाँ
क्या करोगी! अपने साथ इस अभागिन को भी लेकर जाओ।
एक दिन बुआ जब
आंगन में बैठी थी तो पापा बोले......................
“चलो मै पहुंचा
देता हूँ”
“मैं भीख मांग
लूँगी मगर वहां नहीं जाउंगी वो बस बेटे के रहते ही मुझ से प्यार जता रहे थे ”
“अरे तू तो वो
नागिन है जिसने अपने पति को ही डंस लिया”
“नहीं भाभी ऐसा
नहीं है ”
“ऐसा ही है”
“ऐ कलमूही तू भी
अपने माँ के साथ मर जाती तो आज ये दिन न देखना पड़ता”
“बाबू जी ऐसा न
बोलिए”
“तूने पहले अपने
माँ को खाया और उसके बाद अपने पति को, तू और तेरी बेटी दोनों कुलक्षिणी पैदा हो गई”
“नहीं बाबू जी रहम
करिए”
“बुआ तुम अन्दर
जाओ और बस करिए, आप लोग पढ़े लिखे
हैं थोड़ी सी तो समझ रखिए”
“हाँ बाबू जी मैं
अभागिन हूँ”
इतना कह कर वे
कमरे में चली गई तकिये से अपना चेहरा छिपाकर रोने लगीं। मैं सोचता रहा काश! मैं सब
कुछ ठीक कर पाता लेकिन नियति के आगे मेरे बस में कुछ नहीं था।
मैं आखिर करता भी
तो क्या?
सुबह माँ रोते
हुए मेरे कमरे में दाखिल हुई,
अमित कुमार चौबे
|
मेरा दिल जोर से
धड़का क्या हो गया यह शोर कैसा है और तेजी से बाहर भागा, पापा बाहर खड़े रो रहे थे, बाबा दीवाल में सर लगाये खड़े थे और सारा गाँव उमड़ पड़ा था।
मुझे कुछ समझ नहीं आया मैं लोगो की भीड़ को चीरते हुए जब आगे गया तो भंडार घर में
परी अचेत अवस्था में पड़ी थी और बुआ पंखे लगाने वाली कील से रस्सी के सहारे लटक रही
थीं।
मैं वही अचेत
होकर अपनी सुधि खोकर बैठ गया मन में सवाल आया काश ये करने से पहले एक बार कहा होता
आपने, अपनी पूरी जिंदगी आप पर
कुर्बान कर देता। आपका कोई न हुआ, न मायका न ससुराल, जिसे पति के मौत के बाद निकाल दिया गया और जब आप सहारे के
लिए अपनों के द्वार पर आईं तो वहां भी कोई आपका अपना न हुआ।
इतने में किसी ने
पीछे से हाथ लगाया पापा थे, उनके हाथों में
एक पत्र था जिसे उन्होंने मेरी तरफ बढ़ा दिया, उस पर लिखा था.......................
“बाबू माफ़ करना
मुझे, मैं इस दुनिया से नहीं लड़
पाई क्योंकि मैं इस दुनिया की सबसे बड़ी अभागिन हूँ”
“तेरी अभागिन”
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंया हमारे की बहुत बड़ी विडंबना है अमित जी हम चाहे कितने ही आधुनिक ना हो जाए पर हमारे विचार कभी आधुनिक नहीं हो सकते मानवता का ढोंग करते तो जरूर है पर कभी मानवता को आत्मसात नहीं कर पाते आपके जो इस कहानी me मां का जो चित्रण किया है वह कटु सत्य है अब चाहे कितनी ही बड़ी बड़ी बातें क्यों ना कर ले पर पुरुषों से ज्यादा एक नारी दूसरी नारी का शोषण करने से बिल्कुल भी नहीं चूकती है वह कभी मां सासुमां ननद किसी भी रूप में होती है आज भी हमारे समाज में ऐसे लोग हैं जो विधाता का लेखा-जोखा ना मानकर मनुष्य को अभागिन kalmoohi Jaise अमानवीय शब्दों से संबोधित करते हैं
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक और यथार्थवादी
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