संजीव का आदिवासी लेखन
भारत में लगभग करोड़ों आदिवासी अपनी अलग सामाजिक,
सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ अलग-अलग क्षेत्रों
में अपना जीवन जी रहे हैं। भारत के किसी क्षेत्र में आदिवासी समाज की अधिकता है तो
किसी क्षेत्र में कमी। संजीव के कथा साहित्य में मध्य भारत की संथाल, थारू, हो, मुण्डा, बोंडा, उराँव, आदि जनजातियों का यथार्थ
चित्रण हुआ है। संजीव अपने कथा साहित्य में आदिवासी समाज की समस्याओं, संघर्षों एवं सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के साथ उनमें पाई जाने वाली रूढ़
परम्पराओं और अंधविश्वासों का निष्पक्ष रूप से वर्णन करते हैं। आजादी के बाद भी
आदिवासी समाज, विस्थापन,
भुखमरी, बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है। निजीकरण,
उदारीकरण की नीतियों ने आदिवासी समाज के सामने
विस्थापन की सबसे बड़ी और प्रमुख समस्या खड़ी कर दी है। विस्थापन के कारण आदिवासी
समाज के सामने न केवल पहचान और अस्मिता का संकट आया है, बल्कि उनके अस्तित्व ही खत्म होने की राह पर खड़ा है।
संजीव के कथा साहित्य में विस्थापन और उसके
कारण उपजी सामाजिक, सांस्कृतिक पहचान
के संकट का मार्मिक चित्रण हुआ है। विस्थापन होने के साथ ही उनकी सामूहिकता में
पली-बढ़ी सामाजिक व्यवस्था नष्ट हो जाती है। उनके सभी पर्व, त्यौहार, नृत्य गान जो
उनकी सामूहिक संस्कृति की पहचान हैं वे सब नष्ट होते जा रहे हैं। क्योंकि
पुलिस-प्रशासन, राजनेता सभी
शोषणकारी शक्तियों के साथ खड़े हुए हैं। संजीव अपने कथा साहित्य में इसका यथार्थ
वर्णन करते हैं। संजीव के कथा साहित्य में सिर्फ दयनीय और पीड़ित स्थितियों का ही
चित्रण नहीं है वरन् पीड़ित उपेक्षित लोगों का विरोध का स्वर भी वर्णित हुआ है।
संजीव ने अपने लेखन के बारे में स्वयं कहा है। ‘‘देश के लाखों, दलित, दमित, प्रताड़ित, अवहेलित जनों की जिजीविषा और संघर्ष का मैं ऋणी हूँ। जिन्होंने
वर्ग, वर्ण, भाषा, सम्प्रदाय के तंग दायरों को तोड़ते हुए शोषकों, दलालों, कायरों के
विरूद्ध मानवीय अस्मिता की लड़ाई लड़ी है और लड़ रहे हैं। मेरा लेखन उससे ऋण मुक्ति
की छटपटाहट भर है”1
आजादी के बाद देश में समाजवादी समाज की स्थापना
करने की घोषणा हुई लेकिन पूरी तरह से यह आज भी स्थापित नहीं हो पाई है। 1951 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार अधिकांश
आदिवासी लोग कृषि पर निर्भर थे लेकिन 60 के दशक के बाद कृषि कार्य के अलावा उद्योग धंधों की ओर जाने लगे। शहरों में
जाकर कारखानों में मजदूरी करने लगे, वन विभागों में मजदूरी करने लगे। इन सभी जगहों पर आदिवासियों की आय तो नहीं
बढ़ी, लेकिन शोषण को जरूर बढ़ावा
मिला। कारखानों में मजदूरों की मजदूरी कम दी जाती है या देते ही नहीं हैं। मजदूरों
की जान की परवाह भी नहीं की जाती। ‘सावधान! नीचे आग
है’ उपन्यास में इसका यथार्थ
रूप प्रस्तुत किया। उपन्यास में मैनेजमेंट की लापरवाही के कारण हजार मजदूर खदान
में डूबकर मर जाते हैं। मरने के बाद मजदूरों के परिवारों के प्रति कोई सहानुभूति
नहीं होती है, परिवार को मुआवजा
देने में कंजूसी की जाती है। कई मजदूर तो खदान में ऐसे होते हैं जिनका रजिस्टर में
नाम ही दर्ज नहीं होता है। रजिस्टर में जिन मजदूरों का नाम दर्ज होते हैं उनको भी
थोड़ा बहुत मुआवजा दिया जाता है। जिनका नाम नहीं है उनके प्रति कोई सहानुभूति नहीं
होती। ‘‘अफसरों की बीबियाँ संतरा,
सेब, कपड़ा लेकर अपने चटख कपड़ों में दरवाजे-दरवाजे बाँट रही थी, आगे-आगे इस्पात मंत्री और उपायुक्त। एक अकेले
घर के दरवाजे पर एक औरत अपने बच्चे के साथ रोती मिली। मंत्री रूक गए। उपायुक्त ने
लिस्ट देखी। क्या नाम है तुम्हारे पति का?”
‘फ्रांसिस
हेम्ब्रम’
‘इस नाम का कोई
मजदूर नहीं सर।’
‘फिर से देख ले।’
मंत्री जी का अनुरोध
देख लिया सर,
ये रही पूरी लिस्ट।
मंत्री की द्विविधा पर पीछे से एक आदमी ने
जिसका नाम कोई तिवारी है झिड़की दी हुजूर बहुत से लोग राहत सामग्री के लोभ में झूठ
बोल रहे हैं जाओ-जाओ देखो कहीं पी-पा के पड़ा होगा नाली में।”2
आदिवासियों के ही जंगल जमीन, कोयला, खदान लेकिन इन पर ही इनका नाम मात्र का भी अधिकार नहीं है। पूँजीपति वर्ग
भोले-भाले आदिवासियों को अपने चंगुल में फँसाकर सब कुछ छीन लेता है और बदले में
देता है सिर्फ तिरस्कार। ‘धार’ उपन्यास में महेन्द्र बाबू ‘मैना के पिता को बहला-फुसलाकर अनेक प्रकार के
लालच देकर जमीन को हड़प लेते हैं और अंत में उसे मशीन से कुचलवाकर मरवा दिया जाता
है।’ मैना का पति जिन खदान से
कोयला निकालता है तो पुलिस उस पर रोक लगाती है। मैना इन सबके खिलाफ संघर्ष करती है
और साहस के साथ अपने अधिकारों के लिए खड़ी होती है। ‘‘देखिए आप लोग फैसला कर लीजिए अभी-अभी पुलिस को दिया,
अब आप लोग आए हैं कितना देगा।” उसने ऐसे कहा जैसे घर की मालकिन भिखारियों को
झिड़क रही हो थोड़ी बहुत खिच-खिच के बाद पचास पर अड़ गई। ‘‘इससे जास्ती नहीं सिपाई साब, चाहे खाल उधेड़ लो।”3
महाजन लोगों ने भी आदिवासियों का भरपूर शोषण
किया है। आदिवासी समाज आजादी के बाद भी चंगुल से बाहर नहीं आ पाया है। आदिवासियों
को सूद पर पैसा देकर उनकी जमीन को हड़प लिया है। खाने-कमाने के लिए उनके पास उनकी
जमीन ही नहीं बची है। ‘पाँव तले की दूब’
उपन्यास में संजीव आदिवासियों को अपनी जमीन
वापस लेने के लिए संघर्ष करवाते हैं। ‘‘दूसरी सुबह हम जल्दी-जल्दी तैयार होकर टीले पर पहुँचे थे। मेड़ पर नगाड़ा बज रहा
था और तीर धनुष, कुल्हाड़ी,
हंसिया लिए काले-काले दरिद्र आदिवासी, महिला, पुरूष, बच्चे तक दो एक बंदूक भी
थी। बहुत दूरी पर खड़े कुछ अपेक्षाकृत सम्पन्न से दिखने वाले लोग ताक रहे
थे........ मगर वे पास न फटके और दोपहर तक सारा धान कट-बटकर पहाड़ की दरारों में
समा गया।”4 उपन्यास में संजीव
आदिवासी समाज को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करते नजर आते हैं।
‘प्रेतमुक्ति’ कहानी में एक तरफ आदिवासियों की मेहनतकश और अभावग्रस्त
जिन्दगी के दुःख-दर्द को चित्रित करते हैं तो दूसरी ओर मुखिया जी और सुरेन्दर जी
जैसे सामंती व्यवस्था से प्रेतमुक्ति दिलाते हैं। मुखिया जी इलाके की एक मात्र नदी
पर बाँध बनाकर सारे पानी को रोक लेते हैं जिससे जानवर तो जानवर उस क्षेत्र के
आदिवासी लोग बिना पानी के रह जाते हैं। इसके विरोध स्वरूप ‘‘सबसे तो घूम-घूमकर कह आए काका गंगा-माय को बाँध रहे हैं
मुखिया जी। समसे इलाका का खेती, ढोर-डाँगर,
पशु-पाखी, इदमी तड़प-तड़प के मरेगा, कुछ करो, किसी ने कुछ किया?
अकेले काका खिलाफत करते रहें अकेले ही बुढ़वा
जब-जब बाँध काट दिया करता।’ बाँध के शिकार के
लिए पाड़ा बाँधा जाता और पाड़ा देते। मुखिया जी को मेहमानों के आगे शरम से गढ़ जाना
पड़ता।”5 परन्तु एक दिन सुरेन्दर
जी ने ही पाडे की जगह बाघ को चारे के रूप में बाँध दिया काका (चलित्तर महलो) को।
उसी दिन से उसके बेटे जगेसर पर बाप का प्रेत सवार हो गया है। जिसे लोग पागल कहकर
नकार देते हैं लेकिन ‘‘जब तक बूढ़ा हतिया
का बदला नहीं ले लेगा, जाएगा नहीं,
डागडर आवे चाहे डागडर का बाप।”6
एक दिन वह समय भी आ जाता है जब जगेसर अपने
परिवार और संपूर्ण क्षेत्र को आक्रांत करने वाले मुखिया के बेटे सुरेन्दर जी को
मारकर प्रेतमुक्ति पाता है। तीसरे पहर दूर से ही जंगल हरहराया। आँधी से सुरेन्दर
जी के चीखने की आवाज एक बार आई अैर फिर चिथड़ी-चिथड़ी हो गई। ..... बाँध कटा हुआ था।
हरहराता कलकलाता पानी तेजी से बह रहा था। .... सुरेन्दर जी को लादकर पम्प के पास
समतल जमीन पर ले आया मुस्तकीय। सारा शरीर बर्फ की मानिन्द ठण्डा। ..... जीवन का
कोई स्पन्दन बाकी नहीं रह गया था। .... काहे को डोली खटोली मँगवा रहे हैं, मुखिया जी, परेत मुक्ति हो गया।”7 वास्तव में आंतरिक बेचैनी और विवशता (जब सारे रास्ते बंद
हो जाए, सारी शक्ति शोषित के
खिलाफ हो) व्यक्ति को ऐसी लड़ाई संघर्ष की ओर प्रवृत्त कर देती है। संजीव ने दिखाया
है कि आदिवासी समाज की नयी पीढ़ी अपने संघर्ष और विद्रोह की नयी चेतना को लेकर आगे
बढ़ रही है।
संजीव की चेतना पर भगतसिंह की विचारधारा और
नक्सलवादी आंदोलन का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है। समाज, देश और मनुष्यता के प्रति समर्पित हर शख्स उनकी सहानुभूति
का पात्र है। सामंतवाद, पूँजीवाद और
साम्राज्यवाद के खिलाफ जनता की व्यापक एकता उनका सपना है। अपने कथा साहित्य में
जहाँ एक ओर उन्होंने आम जन के दुःख-दर्द की अभिव्यक्ति की है। वहीं उन्होंने
बदहाली की कारक शक्तियों के विरूद्ध जाग्रत करने की चेष्टा भी की है। 14 मई, 1967 को पश्चिम बंगाल में साहूकार सरकार जमींदार के शोषण के
खिलाफ नक्सलवादी आंदोलन के खिलाफ खुला विद्रोह था। इस आंदोलन ने हिन्दी साहित्य को
नई दिशा और दृष्टि प्रदान की। संजीव कहते हैं कि ‘‘मैं आंदोलन के सात्विक और निःस्वार्थ विचारों का कायल था।
परोक्ष रूप से काफी दिनों तक और आज भी मुझे ये विचारधारा प्रभावित करती है यहाँ पर
दुःख कातरता और सर्वांगीण मुक्ति की कामना मुझे ऐसे आंदोलनों से जोड़ती
थी।.......नक्सलवाद के पवित्र मानवी भाव से मैं अलग नहीं हूँ। लेकिन भटकाव पर
मैंने उंगली जरूर रखी।”8 संजीव द्वारा
लिखित ‘अपराध’, ‘शिनाख्त’, ‘आॅपरेशन जोनाकी’ आदि कहानियाँ नक्सलियों की संवेदनशील और देशभक्ति छवि को सामने लाती हैं और
उनके दमन का विरोध करती हैं। संजीव इन कहानियों के माध्यम से कहना चाहते हैं कि जब
प्रशासन पुलिस, महाजन, सूदखोर, जोतदार और जमींदार, किसानों, मजदूरांें तथा
आदिवासियों पर हिंसक जुल्म ढहाते हैं और उस जुल्म से भारतीय न्यायपालिका तक से
छुटकारा नहीं दिलाया जाता है तो उसके खिलाफ शोषित वर्ग द्वारा हिंसक प्रतिरोध
विद्रोह और संघर्ष का एक मात्र रास्ता होता है।
इनकी कहानियाँ इस धारणा और मान्यता को ध्वस्त
करती हैं कि नक्सली अपराधी हैं। संजीव द्वारा लिखित ‘अपराध’ कहानी जो कि उनकी
श्रेष्ठ कहानियों में से एक है, नक्सलवादी आंदोलन
की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। संजीव के प्रिय मित्र सूर्यनारायण शर्मा को नक्सलवादी
आंदोलन में शामिल होने के ‘अपराध’ में पुलिस ने हजारीबाग जेल में बंदूक की नालों
से कोंच-कोंच कर मार डाला था। इसी के चलते वे अपराध कहानी लिख पाते हैं। संजीव ने
इस कहानी में प्रशासन, पुलिस, न्यायपालिका, राजनेताओं सब पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। ‘अपराध’ कहानी के नायक सचिन (बुलबुल) को जब सजा दी जाती है तो उससे बचाव के लिए बोलने
को कहा जाता है तब वह कहता है कि ‘‘मुझे इस
पूँजीवादी, प्रतिक्रियावादी न्याय
व्यवस्था में विश्वास नहीं है। आम जनता भी जिसे न्याय का मंदिर कहती है वह
लुटेरे-पंगे और जूता-चोरों से भरा पड़ा है। .... ये लाल थाने, लाल जेलखाने और लाल कचहरियाँ..... इन पर कितने
बेकसूरों का खून पुता है, वकीलों और जजों
का काला गाउन न जने कितने खून के धब्बों को छुपाए हुए हैं। परिवर्तन के महान
रास्ते में एक मुकाम भी आएगा जिस दिन इन्हें अपना चरित्र बदलना होगा। वरना इनकी
रोबीली बुलन्दियाँ धूल चाटती नजर आएगी।”9
कहानी में बताया है कि सत्ता, व्यवस्था और समाज के तमाम विरोधियों व
अपराधियों को संघर्ष और विरोध के माध्यम से हराया जा सकता है। भले ही उसके लिए
समानान्तर सत्ता और व्यवस्था की स्थापना ही क्यों न करनी पड़े। संजीव मानते हैं कि
आदिवासी किसान, मजदूर व नारी
द्वारा सामंतवाद, पूँजीवाद के
फैसले वर्चस्व का हिंसात्मक विद्रोह और संघर्ष ही नक्सलवादी आंदोलन है।
‘आॅपरेशन जोनाकि’ कहानी में संजीव दिखाते हैं कि किस तरह वन विभाग के
भ्रष्टकर्मी, महाजनों, अफसरों, जोतदारों आदि द्वारा आदिवासियों का खूब शोषण किया जाता है।
पुलिस भी इस शोषण में अत्याचारियों के साथ नजर आती है। विभिन्न आदिवासी समाज
संघर्ष के लिए तैयार हो गया बिना डरे हुए। कहानी में अनिमेष दा असामाजिक कौन है?
का जाबव देते हुए कहते हैं ‘‘ये वन विभाग के कुछ भ्रष्टकर्मी और कुछ वैसे ही
भ्रष्ट महाजन, अफसर, जोतदार और इनके गुर्गे यही है न आपके
शांतिप्रिय प्रतिष्ठित नागरिक.......? आखिर ये त्रस्त क्यों हैं उन भूमिहीन चासा और आदिवासियों से? गाँव की दस लाइसेंस शुदा और बीस अवैध बंदूकें
तो इन्हीं के गाँव में जब भी कोई मारा पीटा गया तो वह उस दूसरे भूमिहीन तबके का
रहा, बलात्कार भी तो उन्हीं
पर। सत्येन का कसूर सिर्फ यही है कि गूंगे अब बोलने भी लगे हैं सरकार क्यों नहीं
चाहती की वे बोले? आज वे अपने
अधिकारों, भूमि, जंगल, मजदूरी और अस्मिता के लिए खड़े होने लगे हैं तनकर सरकार क्या नहीं चाहती की वे
खड़े हो तनकर?”10 संजीव ने बताया
है कि सत्येन जैसे शिक्षित और प्रतिवादी युवक के सहयोग के चलते आदिवासी समाज अपने
अधिकारों के प्रति सचेत होता जा रहा है। शोषण के खिलाफ संघर्ष और विद्रोह की जो
उनकी एक परम्परा रही है। उनमें और अधिक ललक पैदा हो रही है। ‘‘सत्येन के बहकावे में पड़ने से सत्येन उनके बीच
आया है अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं। जब चाहा, पेड काट लिए, तालावों से मछलियाँ चुरा ली, जब चाहा फसलें
काट ली। अनुशासन इसी तरह टूटता रहा तो उसकी परिणति वहीं हो सकती है जो यहाँ हुई।
दरोगा तक को खदेड़ दिया उन्होंने। .... पुलिस का आतंक इस तरह दरकता रहा तो कानून और
शक्ति व्यवस्था को हर कोई खिलवाड़ नहीं समझ बैठेगा।”11
उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और बाजारीकरण के इस दौर में आदिवासियों पर हो
रहे अत्याचारों का वे विरोध कर रहे हैं। संगठित होकर, लेकिन पुलिस के माध्यम से शोषणकारी व्यवस्था उन्हें कुचलने
पर अमादा है। आदिवासी समाज का शोषण और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष और विद्रोह की
परम्परा का लम्बा इतिहास रहा है। पहले आर्यों के खिलाफ संघर्ष किया है तो फिर
मुगलों के साथ फिर बाद में अंग्रेजों, सामंतों, जमीदारों के साथ
संघर्ष किया। वर्तमान दौर में ग्लोबल गाँव के देवताओं टाटा, बिडला, अम्बानी, पास्को, वेदांता आदि के साथ संघर्ष कर रहे हैं। आदिवासी समाज के इसी
संघर्ष के इतिहास को याद दिलाती है। ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’ नामक कहानी। इस
कहानी के माध्यम से संजीव आदिवासी समाज के साथ-साथ उन शोषणकारी आतताइयों को भी
आदिवासी संघर्ष के इतिहास में बताते हैं। संजीव के लिए विरोध और प्रतिरोध करने
वाली औरत ही दुनिया की सबसे हसीन औरत है।
कहानी में शिक्षित टी.टी. साहिबा, पुलिस के जवान और बिना टिकिट यात्रा करने वाली
दो शरीफ जादिया एक मेहनती और टिकिट के साथ गाड़ी में बैठकर सब्जी बेचने वाली ओराँव
महिला पर अत्याचार करती हैं तो वह रोने लगती है तब कथानायक महमूद उनको दुत्कारते
हुए बताता है कि इस ओराॅव महिला के मुखड़े पर तीन गोदने हैं वे औराॅव जनजाति के
संघर्षपूर्ण इतिहास के प्रतीक हैं। ‘‘तुम्हें मालूम है ओराॅव औरतें अपने मुखड़े पर तीन गोदने गुदवाती हैं। रानी
सिनगी दई ने महज औरतों की फौज लेकर हमलावरों (मुगलों को) मुँह की खिलाई थी। सरहुल
का पर्व था मर्द सारे के सारे हंडिया पीकर मुर्दा बने हुए थे। यह एक तरह से आजाद
जातियों पर साम्राज्यवादियों का हमला था, जिसे उन मर्दानी औरतों ने नकाम कर दिया था एक बार, दो बार नहीं तीन-तीन बार। इसी की याद में बारह वर्ष में
ओराँव औरतों का पर्व मनाया जाता है ‘जनी शिकार’।”12
तीन बार मुगलों को हराने के बाद मुगलों ने चैथा
हमला किया। इस हमले में गद्दार सुंदरी के चलते रानी व बहादुर लडाकू औरतें पकड़ी गई।
जिनसे मुगलों ने तीन बार का बदला तीन बार चेहरे दाग कर लिया। ‘‘उन दागों को कलंक न मानकर सभी औरतों द्वारा
सिंगार के रूप में अपना लिया।”13
आदिवासी युवतियों के चेहरों पर ये तीन गोदनों
का संबंध इसी परम्परा और इहिास से है। संजीव इस कहानी के माध्यम से बताते हैं कि
जुल्म और अन्याय के खिलाफ लड़ना सबसे बड़ी बहादुरी है। फल चाहे जो निकले जीत या हार।
‘‘जुल्म की मुखलाफत ही
बहादुरी है और जरूरी नहीं कि बहादुरी महज जीत का ही वाइस बने उसकी हार भी सिंगार
है। यही बताते हैं ये गोदने।”14 यहाँ पर संजीव
ने उसी प्रकार प्रचलित, पारम्परिक
सौंदर्य (रूप, रंग, नैन-नक्श) का अर्थ बदल दिया जिस प्रकार
प्रेमचंद ने ‘अनमोल रत्न’
का अर्थ बदल दिया था। यहाँ जुल्म का विरोध
वर्तमान में नहीं है वह अतीत में है इस नए अर्थ के द्वारा परम्परा को जीवित रखा जा
रहा है और संघर्ष तथा सौंदर्य के सह संबंध को नए रूप में ढाला गया है। यह संजीव की
नयी सौंदर्य दृष्टि है। प्रगतिशील संघ के मंच से प्रेमचंद ने कहा था ‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी’ और संजीव ने वह कसौटी बदल दी है। यह संजीव की
आदिवासी संवेदना की मजबूती भी है तो आदिवासी संघर्ष को जिलाए रखने की आशा भी वे
आदिवासियों के भीतर लगातार दरक रहे टूट रहे उनके मन को भी जानते हैं और संघर्ष
करने की परम्परा की जिजीविषा को भी।
संजीव ने अपने कथा साहित्य में भारत की जंगल
नीति पर भी सवाल खड़ा किया है। आदिवासी समाज की सामुहिक अर्थव्यवस्था हमेशा से
प्रकृति पर आधारित रही है। आज सरकार आदिवासी समाज को उजाड़ने के लिए आदिवासी समाज की
आजीविका के पेड़ों शाल, महुआ आदि को उजाड
कर सागवान जैसे व्यावसायिक पेड़ों को लगा रही है तो दूसरी तरफ उनकी प्रकृति से
जन्मी संस्कृति को नष्ट कर रही है। ‘सावधान! नीचे आग है’ में संजीव लिखते
हैं ‘‘का अब तुम भूल जाओ मूढ़ी,
मछली, रवीन्द्र संगीत और मैं भूल जाऊँ सरसों का साग, मक्के की रोटी और पंजाबी धुनें। यह कोयलांचल है। यहाँ किसी
की संस्कृति सुरक्षित नहीं। इस काली संस्कृति की नाद में भागते हुए डूबे हैं हम
सभी। सब कुछ विसर्जित कर देना है इस काले जल में। न तुम रहोगे, न हम।”15 पूँजीपतियों ने अधिक से अधिक धन कमाने के चक्कर में लोहा,
कोयला आदि खदानों के माध्यम से आदिवासियों के
जल, जंगल जमीन एवं उनकी रहने
की बस्तियों को उजाड़ दिया है।
संजीव ‘टीस’ कहानी में लिखते हैं-‘‘कांकडडीहा कोलियारी के मालिक ने बस्ती के पास
ही सुविध और मुनाफे को ध्यान में रखकर खुली खदान शुरू कर दी थी। जो बस्ती की छाती
पर एक बड़े घाव की तरह दिनोंदिन गहरी और बड़ी होती गई ओर जिसकी निकाली गई मिट्टी और
पत्थरों के ठूह के जबडे में समाते गए थे। संथालों के खेत। कुछ तो इसे अपनी नियति
मानकर ‘चासा’ से मजदूर बनकर वहीं ठेकेदारी में खटने लगे थे,
लेकिन अधिकांश को यह जिन्दगी रास नहीं आई थी और
वे गिघनुमा अधिकारियों और क्लर्कों के चंगुल से मुआवजे की आधी-तीही रकम लेकर धनबाद,
रांची या पुरूलिया की ओर ढोर-डांगर, डेरा-डण्डा लेकर चल पड़े थे।”16 और इस विस्थापन के कारण एक टीस पैदा होती है। ‘‘........आज कनाई चला गया, आज खोखन.......आज गंशा .........आज मनतोष ..........। अब न
माँदल बजेंगे, न बासुरी। न झांझ
बजेगी, न झूमर हो पाएगा।
फीका-फीका रह जाएगा मनसा पूजा, छत्ता, पंचमी, जगरनाथपुर और सरहुल का उत्सव।”17
विस्थापन से आदिवासी समाज को जल, जंगल, जमीन छोड़कर सपेरा आदि बनना पड़ता है तो दूसरी तरफ अपनी संस्कृति सभ्यता का भी
त्याग करना पड़ता है। नयी जगह पर वे व्यवस्थित जीवन नहीं जी पाते हैं। आर्थिक व
सामाजिक शोषण का शिकार हो जाते हैं। रोटी, कपड़ा, मकान जैसी मूलभूत
आवश्यकताओं से वंचित रह जाते हैं। ‘धुआँता आदमी’
कहानी का नायक जब विस्थापित आदिवासियों की
बस्ती में स्त्री सुख भोगने जाता है तो एक हथकटे आदिवासी की पुत्री के साथ सोने की
इच्छा रखता है। लेकिन वह देखता है कि वह लड़की पहले से ही कपड़े खोले बैठी हुई थी।
लड़की नंगी होने का जो कारण बताती है। वह हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर
प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है। लड़की कहती है कि ‘‘ एक ही कपड़ा था अपने पास गंदा होने पर दिन को धो नहीं सकती,
रात को ही साफ करके डाल देती हूँ। सुबह तक सूख
जाता है लेकिन तुम नाराज नहीं होना बाबू, बापू को यह बात खलेगी, इस अंचल में यह
आम बात है .... मील के निर्माण के दौर में पत्थरों को हटाते हुए उसके बाप जैसे
जाने कितने लोग पंगु बेरोजगार और विस्थापित होकर लीक पर उतरने लगे।”18
संजीव के कथा साहित्य में आदिवासी समाज की रूढ़
परम्पराओं एवं अंधविश्वासों का भी निष्पक्ष रूप से वर्णन हुआ है। संजीव इन
परम्पराओं और अंधविश्वासों पर गहरी चोट करते हैं और उन्हें समाप्त करने का विकल्प
सुझाते हैं। ‘प्रेतमुक्ति’
कहानी में दिखाते हैं कि अशिक्षा की वजह से लोग
आज भी भूत-प्रेत, झाड़-फूंक मनौती
आदि में विश्वास करते हैं। कहानी नायक जगेसर के लिए कहा जाता है कि उस पर अपने बाप
की सवारी (प्रेत) है। इसके लिए उसके घरवाले तथा गाँव वाले झाड-फूंक, साधू-फकीर, टोना-टोटका, ओझा-सोखा सभी का
प्रयोग करते हैं। इसी तरह ‘महामारी’ कहानी में संजीव दिखाते हैं कि किसी गाँव में
कोई महामारी फैल जाती है तो आदिवासी लोग उससे छुटकारा पाने के लिए पूजा-अर्चना
झाड-फूंक करते हैं। उसके लिए डाक्टरी इलाज नहीं करवाते। जिसके परिणामस्वरूप कई लोग
अपनी जान गँवा देते हैं। महामारी से मरने के कारण अंधविश्वास और बढ़ जाता है। गाँव
की औरत देवी-पूजन के लोकगीत गाती है एवं विभिन्न प्रकार की पूजा अर्चना करती है।
लेकिन बीमारी कम होने का नाम नहीं लेती है महामारी कहानी में संजीव लिखते हैं। ‘‘लेकिन इस पूजा अर्चना के बावजूद महामारी बढ़ती
ही चली जाती है और पचरा के गीतों और पंडित जी के पाठ की तरंगों पर डूबता-उतराता
रहता हमारा गाँव।”19
आदिवासी समाज में एक खतरनाक प्रथा ‘डायन प्रथा’ जिसका वर्णन संजीव ने ‘धार’ एवं ‘पाँव तले की दूब’ उपन्यास में किया है। इस प्रथा के अंतर्गत किसी स्त्री को
पुजारी-ओझा या अन्य लोगों द्वारा डायन घोषित कर दिया जाता है। फिर उस औरत को सताया
जाता है और कभी-कभी तो मार दिया जाता है। ‘पाँव तले की दूब’ उपन्यास में
संजीव ने डायन प्रथा के चलते एक आदिवासी महिला की मारने की घटना का उल्लेख किया
है। संजीव इस प्रथा का विरोध करते हैं-‘‘अगर उस औरत के मरने के बाद कोई लेरू-काड़ा न मरे, बीमारियाँ न हो। तब तो आपकी बात सही है, लेकिन ऐसा न हुआ तो जरा सोचिए, अपने ही गाँव की औरत को मारने से सिवोंगा नाराज
नहीं होंगे?कल को कोई जान
गुरू कह दे कि तुम डायन हो, तो? .... और लोग तुम्हें भी मंगरी देवी की तरह मार डाले
तो?”20
उपन्यास में संजीव स्पष्ट करते हैं कि डायन
प्रथा आदिवासी समाज में सबसे वीभत्स और कुत्सित परम्परा है। इसे जितना जल्दी हो
सके उतना ही जल्दी समाप्त कर देना चाहिए। संजीव आदिवासी समाज के गहरे जानकार होने
के कारण ही नहीं बल्कि विज्ञान के छात्र होने के कारण भी अंधविश्वासों के खिलाफ
खड़े दिखाई देते हैं।
संजीव अपने कथा साहित्य में आदिवासी समाज में
प्रचारित उन पुरातन परम्पराओं पर भी चोट करते हैं जिनकी वजह से समाज का पूरा
संतुलन और संरचना गड़बड़ा जाती है। कई आदिवासी समाजों में वधू मूल्य की परम्परा है
तो कई समाजों में लड़के की दुगनी उम्र की लड़की से शादी करने की परम्परा है। जिसके
कारण समाज का संतुलन विगड़ जाता है ‘जीवन के पार’
कहानी में संजीव ने वधू मूल्य की रूढ़ि को एक
गंभीर समस्या के रूप में उठाया है। कहानी में नायक मानसिंह सुण्डी और बामई तिर्कि
एक दूसरे को पसंद करते हैं लेकिन मानसिंह सुण्डी वधू मूल्य चुकाने में असमर्थ रहता
है। जिसके परिणामस्वरूप उनका विवाह रूक जाता है। कहानी में संजीव लिखते हैं ‘‘उमर पार हो रही हो तो हो जाए। कुमारी ही मर जाए
बेटी तो मर जाए, बिना मूल्य पाए
उन्हें नहीं छोड़ने वाले। ये दिकू और हम आदिवासी मूल्य के स्तर पर एक से हत्यारे
हैं, बाघ, भालू, गीध, कौए, कुत्ते, सियार से भी ज्यादा खूंखार।”21 यहाँ पर संजीव स्पष्ट करते हैं कि आदिवासी समाज में वधू
मूल्य की रूढ़ि दहेज प्रथा के समान ही है।
बोंडा समाज में भी एक परम्परा है कि जब लड़का आठ
साल का हो जाए तो उसकी शादी 16 साल की लड़की से
कर देनी चाहिए नहीं तो अमंगल हो जाएगा। ‘गुफा का आदमी’ कहानी में संजीव
इस परम्परा का वर्णन करते हैं और दिखाते हैं कि रवायत के अनुसार विवाह न करने पर
अमंगल होगा या नहीं लेकिन रवायत के अनुसार विवाह करने पर अमंगल जरूर होगा। कहानी
में नायिका सोमा और शुकरा दोनों के साथ भी अमंगल होता है। रवायत के मुताबिक सोलह
और आठ साल की उम्र में उनकी शादी। फिर उनके लड़का होने पर उसकी भी सोलह साल की
शुकरी के साथ शादी कर दी जाती है। शुकरा (सोमा का पति) उसकी पुतोह (मंगरा की
पत्नी) उम्र के लिहाज से बेहत्तर जोड़े बनते थे। ऐसे में उनके शारीरिक संबंध स्थापित
हो जाते हैं। एक दिन सोमा और बेटा मंगरा उनको आपत्तिजनक हालत में देख लेते हैं। ‘‘तभी मंगरा का तीर छूटा और वह (शुकरा) जानवर की
तरह डकरने लगा।”22 बेटे के जेल
जाने और चैदह साल जेल में अकेले सड़ने के डर से सोमा ने फावड़ा उठा लिया और अपने पति
को काट डाला। अतः इस कहानी में संजीव स्पष्ट करते हैं कि वोंडा समाज की इस खतरनाक
रवायत के चलते एक भरा पूरा परिवार नष्ट हो गया। यह कहानी अनेक बोंड़ा परिवारों की
कहानी है।
संजीव ने इन सभी परम्पराओं अंधविश्वासों के लिए
शिक्षा की कमी और शोषणकारी लोगों की चालाकी के साथ खुद आदिवासी समाज को भी
जिम्मेदार ठहराया है। शिक्षा के प्रसार से ही आदिवासी समाज में चेतना और जागृति
लाई जा सकती है। लेकिन आजादी के बाद भी आदिवासियों के लिए शिक्षा प्राप्त करना एक
चुनौती सी है। ‘गुफा का आदमी’
कहानी में संजीव लिखते हैं कि-‘‘यहाँ स्कूल है ही कहाँ? पढ़ना-लिखना सीखने का तो यहाँ एक ही तरीका है मनुष्य मारे और
जेल चला जाए। जेल मे पढ़ने लिखने का इंतजाम है। लौटेगा तो पढ़कर निकलेगा। मैं थर्रा
गया या खुदा तालीम हासिल करने की इत्ती बड़ी कीमत।”23 संजीव की यह कहानी आधुनिक भारत की सर्वशिक्षा अभियान की
पोल खोलती है।
संजीव अपने कथा साहित्य में आदिवासी समाज की
रूढ़ियों, परम्पराओं, अंधविश्वासों का वर्णन के साथ उन आदिवासी समाज
के उन जीवन मूल्यों का भी वर्णन करते हैं जिनके आधार पर यह समाज सदियों से जीता आ
रहा है। सामुहिकता, लोकतांत्रिकता,
समानता, स्वतंत्रता आदि ऐसे जीवन मूल्य जिनके आधार पर आदिवासी
संस्कृति अपना अलग अस्तित्व रखती है। अदिवासी समाज में नौकर और मालिक, मुखिया (पटेल) या आमजन में किसी प्रकार का
भेदभाव नहीं पाया जाता है। इस समाज में प्रेम करने की पूरी स्वतंत्रता रहती है।
यहाँ तक कि शादी से पूर्व होने वाले बच्चे को उस महिला सहित पूरे सम्मान के साथ
अपना लिया जाता है। ‘गुफा का आदमी’
कहानी में तैयब चा और सोमा के बीच प्रेम संबंध
बनते हैं। जिससे सोमा के पेट में बच्चा रह जाता है। लेकिन किन्हीं कारणो ंसे वे
शादी नहीं कर पाते हैं। उसके बावजूद भी आदिवासी समाज सोमा को तथा पेट के बच्चे को
स्वीकार कर लेते हैं तैयब चा इस घटना के बारे में पूछते हैं तो वह बताती है। ‘‘मैंने सोमा से पूछा तो उसने बताया कि उसके पेट
में आपका बच्चा है। इसके लिए भोज-भात देना होता था। वो आपके दिए हुए पैसों से हो
गया। यह भी पता चला कि इसके लिए वहाँ औरत को कलंकित नही समझा जाता, बच्चे तो उनके लिए अल्लाह या भगवान की सौगात है
उनकी कद्र करो, प्यार दो। शुकरा
उसे अपने बच्चे की तरह पाल रहा था।”24
सामूहिकता भी आदिवासी संस्कृति की पहचान रही
है। सारा गाँव, जंगल खेत,
चारागाह, पूजा स्थल सबकी मिल्कियत होती है पर्व त्यौहार, नाचगान, गीत संगीत आदि का आनंद सामूहिकता में लेते हैं। ‘टीस’ कहानी में संजीव लिखते हैं-‘‘मेरे जेहन में
मशाल की रोशनी माँदल की ताल पर उस झूमर का दृश्य उभर रहा है। जिसमें काका और मताई
समेत जाने कितने संथाल-संथालियों के पाँव थिरक रहे थे।”25 ‘धार’ उपन्यास में
सामूहिक गीत इस प्रकार दृष्टव्य है-
‘‘लेयाड गाडा धार
रे हमन दारे
काहाउ आकान पेड
नाइ, वाहा थारे थारे
वाहा लागि हायरे
मने, जिउंग आखान थारे।”26
संजीव के कथा साहित्य में गीत संगीत आदिवासी
समाज की संस्कृति को जीवंत करते हैं। गीत संगीत के माध्यम से अदिवासी समाज के आनंद
सुख, दुःख-दर्द, चित्रित होते हैं। सामूहिक नाच गान आदिवासियों
में जिजीविषा पैदा करते हैं।
ज्योति मीणा
करौली,राजस्थान
सम्पर्क
meenajyoti15@gmail.com
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निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि संजीव की
दृष्टि आदिवासी समाज के लगभग सभी क्षेत्रों की तरफ गई है। उन्होंने आदिवासी समाज
के संघर्षों, समस्याओं से लेकर
उनके इतिहास, रूढ़ियों, अंधविश्वासों और जीवन मूल्यों आदि का चित्रण
अपने कथा साहित्य के माध्यम से निष्पक्ष और यथार्थ रूप में किया है।
संदर्भ सूची:
1 संजीव, संजीव की कथा यात्रा: पहला पड़ाव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
पृ. 10
2 संजीव, सावधान! नीचे आग है, राधाकृष्ण
प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 202-203
3 संजीव, ‘धार’, राधाकृष्ण
प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.
4 संजीव, पाँव तले की दूब, वाग्देवी प्रकाशन,
बीकानेर, पृ. 15
5 संजीव, संजीव की कथा यात्रा: पहला पड़ाव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
पृ. 344
6 वही, पृ.
7 वही, पृ. 345-346
8 वही, पृ. 88
9 वही, पृ. 308-309
10 वही, पृ. 301
11 गिरिश काशिद (संपादक), कथाकार संजीव, शिल्पायन, दिल्ली, पृ. 188
12 संजीव, संजीव की कथा यात्रा: दूसरा पड़ाव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
पृ. 41
13 गिरिश काशिद (संपादक), कथाकार संजीव, शिल्पायन, दिल्ली, पृ. 223
14 संजीव, संजीव की कथा यात्रा: दूसरा पड़ाव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
पृ. 41
15 संजीव, सावधान! नीचे आग है, राधाकृष्ण
प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 77
16 संजीव, संजीव की कथा यात्रा: पहला पड़ाव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
पृ. 62-63
17 वही, पृ. 63
18 वही, पृ. 82
19 वही, पृ. 236-237
20 संजीव, पाँव तले की दूब, वाग्देवी प्रकाशन,
बीकानेर, पृ. 32-33
21 संजीव, संजीव की कथा यात्रा: तीसरा पड़ाव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
पृ. 136
22 वही, पृ. 335
23 वही, पृ. 342
24 वही, पृ. 341-42
25 संजीव, संजीव की कथा यात्रा: पहला पड़ाव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
पृ. 69
26 संजीव, धार, राधाकृष्ण प्रकाशन,
नई दिल्ली, पृ. 162
27 संजीव, पाँव तले की दूब, वाग्देवी प्रकाशन,
बीकानेर, पृ. 16
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