राहुल तोमर की कुछ कविताएँ



राहुल तोमर की कुछ कविताएँ

धूप

जितनी भर आ सकती थी

आ गयी

बाकी ठहरी रही किवाड़ पर

अपने भर जगह के लिए

प्रतीक्षित


उतनी भर ही चाहिए थी मुझे

बाकी के लिये रुकावट थी

जिसका मुझे खेद भी नहीं था


दरवाज़े की पीठ पर देती रही दस्तक

उसे पता था दरवाज़ा पूरा खुल सकता है


जितना भर अंदर थी उतनी भर ही

जगह थी सोफ़े पर...


उतनी ही जगह घेरती थीं तुम

उतनी भर जगह का खालीपन सालता है मुझे

जिसे भरने का प्रयत्न हर सुबह करता हूँ।


आजकल

शोर सच्चाई का पर्याय

बन चुका है

धीमी आवाज़ें बड़ी सरलता

से झूठ में तब्दील कर दी गईं हैं

काक को इतनी बार

इतने ऊँचे ऊँचे स्वरों में

सुना गया है

कि उसे अब कोयल से अधिक सुरीला

माना जाने लगा है

विरोध का स्वर इतना बेसुरा है कि

उसे सुनना निषेद है....और विरोधी

का जीना....

भीड़ से इतर खड़ा आदमी या तो पागल

है या महामूर्ख और

उसकी दुबली पतली सी आवाज़ भीड़ के

कोलाहल के मीटर से बाहर है...

एक पंक्ति में चींटियों की तरह चलने

को "आदर्श मनुष्य"  की

परिभाषा के तौर पर स्वीकृति मिलने

लगी है और सोचने समझने की

प्रवृत्ति को एक भयंकर विकार की

संज्ञा दी जाने लगी है....


कुछ पागल सरफिरे फिर भी कोयल की

कूक सुनते हैं , सोचते हैं,

आवाज़ उठाते हैं .....

एक इंच के लोहे की

परवाह किये बग़ैर...


३.

प्रतीक्षा...


उसकी पसीजी हथेली स्थिर है

उसकी उंगलियां किसी

बेआवाज़ धुन पर थिरक रही हैं


उसका निचला होंठ

दांतों के बीच नींद का स्वांग भर

जागने को विकल लेटा हुआ है


उसके कान ढूँढ़ रहे हैं असंख्य

ध्वनियों के तुमुल में कोई पहचानी सी

आहट

उसकी आंखें खोज रही हैं

बेशुमार फैले संकेतों में

कोई मनचाहा सा इशारा

उसके तलवे तलाश रहे हैं

सैंकड़ों बेमतलब वजहों में

चलने का कोई स्नेहिल

सा कारण...


वह बहुत शांति से साधे हुए है

अपने भीतर का कोलाहल

समेटे हुए अपना तिनका तिनका

प्रतीक्षा कर रही है किसी के आगमन

पर बिखरने की...


४.

विन्यास

पतझड़ का मौसम बारह महीनों का हो गया है

बसंत अब सपनो में भी नहीं आती

कुछ कवि अपनी कविताओं में

बसंत को लाने का प्रयास करते हैं

काग़ज़ पर बीज बो दिए जाते हैं

एक पेड़ उगता है नयी नरम और

हरी पत्तियाँ लिए....
\
सब्ज़ सुंगंधित हवा चलती है

बसंत का अनुभव होना शुरू ही

होता है

कि दीमक का झुंड धावा बोल देता

है दरख़्त पर...

ये एक तरीके का विन्यास है

बलिष्ट वर्ग का पतझड़ के साथ

जो किताबों पर प्रतिबंध लगाकर

नई पौध को आने से रोकता है।


 
राहुल तोमर
ग्वालियर मध्यप्रदेश
सम्पर्क
awerahulsome@gmail.com



अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

3 टिप्पणियाँ

  1. धूप कविता मुझे बेहद प्रिय है।
    बाक़ी कविताएं भी बहुत अच्छी लगीं।

    - सारांश

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  2. dhoop aur pratiksha bahut bahut achhi lagin
    sadhi hui bhasha arthpoorn kavitayein!!

    - sonakshi bansal

    जवाब देंहटाएं
  3. chaaron kavitayein bahot achi hein rahul ji
    vinyaas aur dhoop khas taur par pasand aayin
    aage bhi padhna chahunga aapko.

    जवाब देंहटाएं

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