ओशो और उनके निजी जीवन के प्रसंग
बीसवी सदी के वैश्विक आध्यात्म जगत के सर्वाधिक ज्वाजल्यमान और विवादास्पद सद्गुरु भगवान् श्री रजनीश ने आध्यात्म में एक नवीन क्रांति का सूत्रपात किया है।उनकी अनूठी दृष्टि, शैली, बेबाकी और अनौपचारिक प्रवचन शैली से विश्व की सरकारों में भूचाल आया था और अमेरिका से निर्वासित किये जाने के बाद विश्व के तथाकथित 21 लोकतान्त्रिक देशों ने उन्हें अपने यहाँ प्रवेश देने पर प्रतिबंध लगा दिया। भारत के बाद उनका अमेरिका में प्रवास, रजनीशपुरम की स्थापना और 90 रोल्स रोयस की मालकियत ने वैश्विक झंझावात को जन्म दिया था।
उनके भौतिकवाद और
अध्यात्मवाद के समन्वय के दर्शन को जगत ने मुक्त यौनाचार की संज्ञा दी और जीवन
ऊर्जा को दिशा देने वाले अद्भुत प्रवचनों
के कारण भारत में उन्हें ‘सेक्स गुरु’
की उपमा से न सिर्फ विभूषित किया गया वरन उनपर
जानलेवा हमले भी हुए। ‘ ओशो के निजी जीवन
प्रसंग को लेकर लिखी गई किताब ‘उसे मत मारो’
(Don’t kill him)यह पुस्तक उनकी नीजी सचिव
शीला पटेल ने उनपर लगे विभिन्न आरोपों के उत्तर में लिखा है हालाँकि यह उत्तर शायद
तब अवतरित हुए हैं जब उनकी प्रासंगिकता लगभग धुमिल पड़ने लगी है ।देखते ही देखते
भारत में यह पुस्तक ‘नेशनल बेस्ट सेलर’
बन गयी और आध्यात्म जगत में विशेषकर ओशो
प्रेमियों में खूब चर्चा का कारण भी बनी। इस पुस्तक ने ओशो के निजी जीवन से लेकर
उनके विवादास्पद सार्वजनिक जीवन के अनेक रंगों को अपने में समाहित किया है।
कहीं-कहीं तो ओशो से सम्बंधित नितांत अन्तरंग बातों को इस पुस्तक में सार्वजनिक
किया गया है। इन प्रसंगों में प्रामाणिकता और सत्य कितना है यह विषय इस पुस्तक
समीक्षा का नहीं है लेकिन घटनाओं का वर्णन इतनी बेबाकी तथा चतुराई से किया गया है
कि पाठक वही समझे जो उसे समझाया जा रहा है। हालांकि जागरूक पाठक लेखिका के इस पैतरे
को सावधानी से पकड़ सकता है कि वह अति महत्वपूर्ण विषयों को प्रछन्न रखते हुए तमाम
गैर जरूरी आरोप ओशो पर लगाती हैं जिनकी प्रकृति स्वयं में संदेहास्पद है।
ओशो का
आध्यात्मिक विजन स्पष्ट है, सम्भतः इसी
स्पष्टता से जगत के न्यस्त स्वार्थ घबरा गए थे। ओशो ने सत्य को बड़े ही निर्ममता से
व्यक्त किया है और समस्त बुद्ध पुरुषो की देशना के सार को पुनरुज्जीवित किया है।
ओशो ने आध्यात्म के किसी भी आयाम को अस्पर्शित नहीं रहने दिया है।उनके प्रवचन
अत्यंत ही सारगर्भित और उदात्त हैं जिन्हें लगभग 650 पुस्तकों में विश्व पटल पर प्रकाशित किया गया है। ओशो के
शिष्यों में विश्व की कमाल की नामी-गिरामी हस्तियाँ शामिल रहीं हैं। आज भी ओशो के
शिष्यों की संख्या लाखों में है जो समूचे विश्व में व्याप्त हैं और अपने- अपने तरह
से ओशो की देशना का प्रचार कर रहे हैं।
ओशो का जीवन एक
निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से शुरू हुआ 1931 में। पिता जैन धर्म मानते थे और कपड़ों के कारोबारी थे। ओशो
ने तत्कालीन उच्चतम शिक्षा प्राप्त की और दर्शन शास्त्र विषय में एम्.ए. में गोल्ड
मैडल लिया और तत्काल ही उसे कुए में फेंक दिया।
रायपुर के एक कालेज में वह लेक्चरर रहे, फिर जबलपुर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे। पहला आश्रम
बम्बई में बनाया, फिर पूना आये,
फिर अमेरिका। अमेरिका में 4 वर्षों तक मौन रहे और वहीँ इस पुस्तक की
लेखिका शीला को अपना वर्चस्व स्थापित कर ओशो की पोप बनने का अवसर मिला। फिर ओशो ने
बोलना शुरू किया और शीला ने कम्यून त्याग दिया। अमेरिकी सरकार ने ओशो को अनियमितता
के आरोपों में गिरफ्तार किया फिर 12 दिनों बाद रिहा
भी कर दिया क्यों कि उनके पास ओशो के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं था।फिर अमेरिका
ने शीला को गिरफ्तार किया और सालों जेल में रखा। जेल से रिहा होने के बाद शीला अब
एक अनाथालय सम्भालती हैं और उसी अनाथालय में उन्होंने यह पुस्तक लिखा है। पुस्तक 2015 में आयी और जगत में नये विमर्श का कारण बनी।
मैं इस पुस्तक
में अध्यायवार शोध करूँगा और वर्णित घटनाओं की समुचित समीक्षा करने का प्रयास
करूँगा।पुस्तक में 28 अध्याय हैं।
इसका प्रारम्भ होता है एक सूफी कथा से जिसका सार है कि ‘लेखिका ने अपना जीवन एक अन्तःप्रज्ञा के मार्गदर्शन में
जीया है जो कभी भी पूर्व नियोजित नहीं रहा’, वह किसी ‘खिद्र’
की आज्ञा से चलती रहीं
अपने जीवन में। वह अपना खिद्र ‘ओशो’ को बताती हैं। दिलचस्प यह है कि उनकी इस
विवेचना के नायक और खलनायक दोनों ओशो ही हैं जिन्हें वह पूरे वर्णन में ‘भगवान्’ कहती नहीं थकतीं। पुस्तक का शीर्षक है ‘उन्हें मत मारो’!
वह ओशो को बचाना
चाहती हैं, अर्थात उनकी देशनाओं को,
जबकी पूरे पुस्तक में ओशो की मूल देशना ‘ध्यान’ व ‘बुद्धत्व’ का सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में एक भी जिक्र तक
नहीं है। शीला ध्यान को त्याज्य घोषित करती हैं और प्रेम की उनकी ‘व्यक्तिगत’ परिभाषा है जिसमे भक्ति से लेकर वह समर्पण भी शामिल है
जिसका ‘यौन’ अभिन्न अंग है।प्रथम अध्याय ‘मेरे खिद्र ने मुझसे कहा’ में ओशो के भौतिक वस्तुओं की तरफ झुकाव का
वर्णन है। शीला ओशो पर आरोप लगाती हैं कि ‘रोल्स रोयस’ कारों की संख्या 96 हो चुकी है और ओशो और कारें चाहते हैं,
हीरे की घड़ियों के प्रति ओशो लोलुप होते जा रहे
हैं- “वे एक पतनशील मनुष्य की
प्रवृति की ओर झुके जा रहे थे।”
ओशो की धन की
लिप्सा ने शीला और उनकी टीम को परेशान कर
डाला था। शीला यह कहना चाह रही हैं कि ओशो का लालच ही रजनीशपुरम को नष्ट करने का
कारण बना- “ओशो के संदेशों में हमे
यूरोपीय सन्यासियों से अधिक से अधिक धन इकठ्ठा करने की इच्छा ही नजर आती थी”
शीला बड़ी चतुराई
से ओशो को नशीली दवाओं का शिकार बताना चाहती हैं, हालाँकि वह साफ़ तौर पर न कहते हुए बगल से निकल जाती है कि
ओशो के आस पास नशे का कारोबार चल रहा था- “इनका सम्बन्ध नशीली दवाओं से था।”
शीला ओशो के निजी
चिकित्सक देवराज पर ओशो को नशीली दवाएं दिए जाने का आरोप लगाती हैं, हालाँकि वह यह स्पष्ट नहीं करती कि यह ओशो की
अपनी इच्छा से हो रहा था या ओशो किसी षड्यंत्र के शिकार थे- “मुझे बताया गया कि भगवान् को बेलियम और
मेप्रोबेमेट लगातार दिया जा रहा था , क्यों? इसका जवाब मुझे भगवान् से
न मिला।” भगवान् को लाफिंग गैस देकर उनकी मानसिक स्थिति को बिगाड़ने
का प्रयास किया जा रहा था। शीला कभी तो यह
कहती हैं कि ओशो को उनके नजदीकी लोगों के षड्यंत्रों का शिकार बनाया जा रहा था और
कभी यह कहती हैं कि ओशो स्वयं भौतिकवाद से ग्रसित होकर नशे, कार और धन के पीछे आध्यात्म से विमुख हो रहे थे। ये दोनों
वक्तव्य ऐसे प्रस्तुत किये गये हैं कि शीला के कथन की प्रामाणिकता पर संदेह
उत्पन्न करते हैं- “ओशो ने मुझसे कहा
कि देवराज से कहो कि इसकी क़ानूनी समाधान का पता करे” , अब यह स्पस्ट नहीं है कि क्या ओशो नशे करते हुए अमेरिकी
कानून से बचना चाह रहे थे? शीला का समूचा
विश्लेषण आत्मकथ्य है लेकिन इसमें भटकाव स्पस्ट और तथ्य धुधले हैं।
वह कहती हैं कि
वह ‘ओशो से प्यार करती है’
लेकिन यह प्यार उससे गलत काम नहीं करवा सकता।
वह खुद ओशो की शिक्षाओं के दुहाई देती है और आरोप लगाती है कि कम्यून को ओशो ने
नष्ट किया था - “वह भगवान् थे
जिन्होने अपने पागलपन भरे आरोपो से पूरे कम्यून को मटियामेट कर दिया”। अंततः शीला ने उस पत्र को दिया है जिसमे वह
भगवान् को अपना त्याग पत्र देती है- “वह मेरा व्यक्तिगत स्वतंत्रता दिवस था”।
दूसरा अध्याय है ‘ओडिसी की शुरुआत’।शीला के वक्तव्यों की लडखडाहट और बौखलाहट इसमें साफ़ है। यह
मेरा आरोप नहीं आगे आपको सप्रमाण मैं दिखाता हूँ कि ऐसा कैसे था? इस अध्याय की शुरुआत होती है शीला के प्रेम और
सेक्स जीवन के वर्णन से – “मुझे सेक्स के
बाद चाकलेट आनंद लेना पसंद था” फिर उसके संगठन के अन्य सदस्यों द्वारा किए जा
रहे आजीविका के लिए संघर्षों की दास्तान जिसे शीला के अनुसार ओशो ने रजनीशपुरम से
निकाल दिया था।
हालाँकि पहले
अध्याय में शीला ने लिखा है कि वह और उसकी टीम ने स्वेच्छा से रजनीशपुरम इसलिए
त्याग दिया क्यों कि ओशो ‘भ्रष्ट’ हो गये थे”, “भगवान् गुस्से में थे”, “अनेक बार ओशो ने मेरे व सविता के बीच फूट डालने की कोशिश की
लेकिन सफल न हुए” , “भगवान् मेरी
शक्ति के बारे में हमेशा कुछ सोचते रहते थे”। आगे इसी अध्याय
में लिखती हैं –“वह एक मित्रवत और
धैर्यवान शिक्षक थे” ओशो ने उनके व उनकी टीम के ऊपर भीषण आरोप लगाये
थे – “55 मीलियन डॉलर चोरी”,
इन आरोपों से बौखलाई शीला कहती हैं - “भगवान् अपना होश खोये लग रहे थे।”।अगला संगीन आरोप था- “750 लोगों को आश्रम में मैंने सेल्मोनेल्ला जहर
दिया।”, और अंतिम संगीन आरोप -“भगवान् के डॉक्टर देवराज को मैंने मारने की
कोशिश की”। आगे लिखती हैं –
“अमेरिका में न्याय संभव नहीं।” शायद इसीलिए उन जैसी बेगुनाह को जेल की हवा
खानी पढ़ी !”, “ओशो अपने धन का उपयोग लोगों का स्तर ऊंचा या नीचा करने में
करते थे” ।शीला के अनुसार ओशो ने
कम्यून का उपयोग धन बटोरने में किया और जब वह सारा बटोर लिया तो कम्यून को नष्ट कर
दिया।
आगे के तीन
अध्याय शीला के जेल के अनुभव है और इस बात की घोषणा है कि कैसे जेल की भयावह
परिस्थितियों के मध्य भी उसने भगवान् की ‘देशनाओं’ के सहारे कठिन
परिस्थितियों का दिलेरी से सामना किया। उसी भगवान् का जो उसके अनुसार बाद में ‘भ्रष्ट’ होकर उसपर झूठे आरोप इसलिए लगाते रहे ताकि स्वयं की अवैध
गलतियों को प्रकाश में आने से रोक सकें।
शीला खुद की
बेगुनाही के कसीदे पढ़ती है और अपनी सजा के लिए ओशो द्वारा लगाये गये उसपर व उसकी
टीम पर आरोपों को उत्तरदायी मानती है। पूरे पुस्तक में कहीं यह जिक्र नहीं है कि
यदि शीला बेगुनाह ही थी तो उसने इसके लिए कोर्ट में अपील क्यों न किया? उसके माता-पिता या रिश्तेदारों ने उसकी
बेगुनाही साबित करने के लिए प्रयास क्यों नहीं क्या? सजा पूरी कर लेने के बाद जब उसे अपने एक वकील से ज्ञात हुआ
कि अमेरिकी सरकार उसे पुनः गिरफ्तार कर रही है तो वह पुर्तगाल क्यों भाग गयी? वह इसे
अध्यात्मिक रंग देते हुए कहती हैं- “जो कुछ जीवन ने मुझे पेश किया उसे प्यार से मैंने स्वीकार किया”।यदि स्वीकार किया तो फिर पुस्तक लिख कर सफाई
देने की आवश्यकता क्यों?। विचारणीय है।
जिस ओशो के
कार्यों को फैलाने के लिए शीला ने अपना जीवन समर्पित किया था उन्ही के बारे में
आगे लिखती हैं – “दुनियां को
भगवान् जैसे महान बुद्धिजीवियों द्वारा और अधिक असमंजस की जरुरत नहीं है।”जेल से छूटने के बाद रजनीशपुरम यह की सर्वेसर्वा स्विटज़रलैंड में शरण लेती हैं
इस प्रत्याशा में कि वहाँ वे आगे की अमेरिकी कानूनी कार्यवाहियों से महफूज रहेंगी
क्यों कि स्विस कानून अपने नागरिकों को प्रत्यर्पण की बाध्यता से मुक्त रखता है।
वहां शीला ने एक
बूढ़े दम्पति के यहाँ तब तक नौकरी किया जब तक उनपर चोरी का आरोप न लग गया। ओशो के
महानता को याद करते हुए लिखती हैं- “मुझे फिर से भगवान् की शिक्षाओं को अपने दैनिक जीवन में उपयोग करने का मौक़ा
मिला”।पाठक यहाँ असमंजस में
पड़े बिना नहीं रह पाता है, क्यों कि शीला के
जीवन के पतन का कारण यदि भगवान् की शिक्षाएं थीं तो वह ‘क्या’ और ‘क्यों’ उपयोग करना चाहती थी? पुस्तक में यह
विगुचन एक सामान्य सोच समझ को चुनौती देते लगते हैं और शीला की लेखनी और विचारधारा
कुछ ही पंक्तियों में हिचकोले खाती हुई बहुधा अनर्थ कह जाती है।
भगवान् की मूल
शिक्षा सदा ‘ध्यान’ रही है। अगली ही पंक्ति में शीला कहती हैं- “वर्तमान में रहना मेरी विवशता है और इसके लिए
मुझे ध्यान का ढोंग करने की कोई आवश्यकता नहीं है !” भगवान् की
शिक्षाओं का वह उपयोग भी करना चाहती थीं और उन्हें ढोंग भी कहती हैं।
पुस्तक का प्रथम
खंड इसी के साथ समाप्त होता है पाठक के मन में एक अस्पष्ट सा लकीर छोड़ते कि
वस्तुतः वाकया क्या है? क्या शीला भगवान्
की आलोचना कर रही हैं? अथवा वे अपने
जीवन के संघर्षों के मूल कारण ओशो की शिक्षाओं पर चलने के अपने प्रयासों का विवरण
दे रही है?
पुस्तक का दूसरा
खंड है ओशो से शीला की मिलन और उसके रजनीशपुरम छोड़ने के मध्य की दास्तान। दुसरे
खंड का 10 वा अध्याय है ‘यह सब कैसे शुरू हुआ’ जिसमे ओशो से शीला से प्रथम मुलाक़ात की रोमांचक दास्ताँन
है। शीला अमेरिका में पली बढी और शिक्षित थी। उसके पिता गुजराती थे और भगवान् के
भक्त। शिक्षा के बाद शीला अपने कैंसर पीड़ित पुरुष मित्र के साथ भारत आती है और
संयोग वश भगवान् की मुलाक़ात उसके अपने गुजरात स्थित घर पर ही होती है। भगवान् उसके
पिता के अतिथि होते हैं। शीला भगवान् की दिव्यता के वशीभूत हो उनके गहरे प्रेम में
पड जाती है। शीला आगे भगवान् से मिलती रहती है और उनके प्रेम से अनुप्राणित होती
रहती है। संन्यास दीक्षा और प्रवचनों का दौर चलता रहता है।आश्चर्यजनक रूप से पूरी
पुस्तक में शीला द्वारा किसी भी ध्यान के किए जाने का कोई जिक्र नहीं है। वह मात्र
‘प्रेम-प्रेम’ कहती रहती है और जब इससे फुर्सत पाती है तो
भगवान् को कोसती रहती है। शीला ने भगवान् पर जो भी आरोप लगाये हैं वह इतने छिछले
और औसत स्तर के प्रतीत होते हैं कि भगवान् के साथ फिट नहीं बैठते।
भगवान् को वह एक
प्रेमी, एक चालाक योजनाकार अथवा
एक धन लोलुप व्यक्ति से अधिक देखने को तैयार नहीं है-
“भगवान् उस
सन्यासी की सार्वजनिक तौर पर प्रशंसा करते जो धनी होता था”।
“भगवान् जो कुछ
करते वह धन या व्यक्ति के संसाधनों की प्राप्ति के लिए होता था”
कमाल यह भी है कि
लेखिका ऐसे झेंन कथाओं को अपनी पुस्तक में शामिल करती हैं जिनकी आध्यात्मिक गहनता
अनन्य है लेकिन निष्कर्ष वह अपने ही निकालती है जिनका केन्द्रीय पर्याय होता था
भगवान् का भोग व विलास।
वह कहती है “भगवान् एक अच्छे सेल्स मैन थे”।
शीला ओशो को
ज्ञानी कहने में हिचकती नहीं है “यदि किसी में
ज्ञान की इच्छा हो तो भगवान् के साथ सीखना संभव था”।वह ओशो को शोषक घोषित करने में अपने पिछले वचनों की लाज भी
नहीं रखती है “भगवान् पूरी तरह शोषण
करते थे”
वह कहती है कि
उसने सच्चे ज्ञान के लिए खुद को शोषित होने दिया।
यहाँ यह समझ से परे जान पड़ता है कि जो शोषक है वह ज्ञानी कैसे है ? या जो ज्ञानी है वह शोषक कैसे हो सकता है?
और यदि भगवान् धन व संपदा के लिए इतने ही लोलुप
हैं तो वह ‘ज्ञानी’ कैसे थे? शीला किसे ज्ञान समझती हैं? ‘सन्यासियों का शोषण आरम्भ’ नामक अपने अध्याय में शीला का पूरा प्रयास है ओशो को एक
चतुर व्यापारी घोषित करना जो धन की लिप्सा व भोग के लिए ढोंग कर रहा है। यह कहीं
स्पष्ट नहीं है कि वह ‘ज्ञानी’ कैसे थे?
पंद्रहवे अध्याय ‘सम्मोहित निद्रावस्था के प्रवचन से भगवान् के
मौन तक’ में लेखिका कहती हैं –“मुझे यह महसूस होता कि उनके शब्द निश्चित ही
हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण थे बल्कि वे उनकी खुद की भलाई के लिए भी अहम् थे”।अध्याय का समापन इस वाक्य से होता है “मैं उनके कार्य की खूबसूरती को याद करने वाली
थी”।यह स्पष्ट नहीं होता कि
शोषण के कार्य में कौन सी स्मरणीय खूबसूरती प्रछन्न थी !
पुस्तक में
भगवान् के जीवन की घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन है। उनके काम के विस्तार का क्रमवार
विश्लेषण है लेकिन लेखिका अपने इस स्टैंड पर सावधान है कि किस प्रकार उसपर भगवान्
द्वारा लगाये गये संगीन आरोप गलत थे और इसको सिद्ध करने के लिए उसने भगवान् के
जीवन के उन विवादास्पद पहलुओं को बेजा तूल दिया है जो वर्षों भारतीय या विश्व
अखबारों के सुर्खियाँ बनते रहे हैं।
बहुत से प्रसंग
जबरदस्ती के सृजित किये गये लगते हैं जैसे कि वह घटनाओं की साक्षी न रह कर
तत्कालीन अखबारों के आधार पर लिख रही हो। शीला का अंतर्द्वंद हर एक पेज में मुखर
है। वह अपने भीतर लगातार लड़ रही है कि भगवान् का प्रेम उससे उनकी स्तुति भी करवा
रहा है और साथ ही साथ अपनी खोयी छवि को पुनः स्थापित करने की लालसा उससे भगवान् पर
आरोप लगाने को भी बाध्य कर रही है।जागरूक पाठक इस अंतर्द्वंद को सहज ही महसूस कर
सकता है।
शीला का मार्ग
प्रेम का है। निश्चित ही वह भगवान् को प्रेम करती थी। निश्चित ही वह ओशो के प्रति
समर्पित थी लेकिन तभी तक जब तक ओशो ने शीला के कारनामो को अनदेखा किया और उसकी वर्चस्ववादी
करतूतों का निर्ममता से पर्दाफाश न कर दिया। जैसी भगवान् की शैली थी। वह सत्य के
लिए उतने ही निर्मम थे जितने प्रेम के लिए सजल। प्रखर प्रज्ञा और सजल श्रद्धा के
अभूतपूर्व संगम ‘भगवान् श्री
रजनीश’ ने शीला के अहंकार को मौन
में शिखर पर पहुंचा दिया और मौन के पश्चात अचानक प्रवचन प्रारंभ करके उसे शिखर से
नीचे धक्का देने में तनिक भी न हिचके।
कुछ सालों बाद
हजारों सन्यासियों को अपने इशारों पर नचाने वाली शीला रजनीशिज्म की आधार स्तम्भ
किसी व्यक्ति के कुत्तों की परिचारिका थी। भगवान् की एक और
शिष्या विवेक पर शीला की टिप्पड़ियां अशोभन हैं। अध्याय 17-‘एक नयी जमीन की तलाश में’वह लिखती है-“विवेक भगवान् का बिस्तर शेयर करती थी और उसके दम पर वह उन्हें ब्लैकमेल भी
करती थी”।
भगवान् पर इस
प्रकार का यौन आरोप लगाने वाली संभवतः वह विश्व की प्रथम और अंतिम लेखिका है। ओशो
पर कभी यौन संलिप्तता के आरोप नहीं लगे हैं।अध्याय के अंतिम पंक्तियों में वह कहती
है “हम आज भी साथ हैं,
वह मेरा हाथ पकडे हैं और मैं उनका हाथ !”
शीला कभीं भी भगवान् को अपने ‘गुरु’ उपमा से नहीं नवाजती है। वह उन्हें अपना प्रेमी ही मानती है और स्वयं को वह
समर्पित प्रेमिका जो ‘प्यार के खातिर
जान बूझ कर लुटती रही थी।”
लेखिका यह दिखाने
का निरंतर प्रयास करती है कि वह ओशो की उन मानवीय दुर्बलताओं की राजदार थी जिन्हें
जगत नहीं जानता था। 23 वें अध्याय में
वह ओशो के यौन जीवन का जिक्र करती है और विवेक नामक उनकी शिष्या को उनकी अविवाहित
पत्नी की तरह पेश करती है जिसे ओशो नापसंद करने लगे थे। इसी अध्याय में
वह ओशो पर यौन कुंठा, गर्भपात को
प्रश्रय देने का आरोप लगाती है और यह भी कहती है कि ओशो ने इसे छुपाया क्यों कि वह
अपने संतत्व की छवि को बचाना चाहते थे। ओशो जैसा बेबाक और छवि को तोड़ने वाला विश्व
के इतिहास ने शायद ही जाना है। ओशो ने स्वयं को एक संत के तौर पर कभी प्रतिष्ठित न
किया है, इतिहास गवाह है। ओशो ने
प्रतिष्ठा से अधिक सदा सत्य की फ़िक्र की है। यह सत्य है कि ओशो यौन स्वतंत्रता के
पक्षधर थे लेकिन आध्यात्मिक विकास के लिए।
शीला द्वारा
विवेक पर लगाये गये तमाम आरोप संभवतः स्वयं की सुचिता की सिद्धि को लक्षित हैं।
इसी अध्याय में लेखिका का कथन है ‘भगवान् साधारण
भावनाओं वाले व्यक्ति थे’ और आगे वह जोडती
है ‘एक आत्मज्ञानी व्यक्ति भी
महिला से छुटकारा नहीं पा सकता’।आत्मज्ञानी और
साधारण दोनों ओशो को ही वह कहती है और सपाट शब्दों में वह विवेक को खलनायिका घोषित
करने का यत्न कर रही होती है। अध्याय का अंत शीला इन शब्दों से करती है ‘बसंत के मौसम में उनके सम्भोग के अपील के प्रति
मुझे सहानुभूति थी, यह मेरे लिए पूरी
तरह आसान था, मेरी नज़रों में वह
एक सुन्दर, बुद्धिमान और आकर्षक
व्यक्ति थे। मैंने उन्हें इसका आनंद लेने दिया।”
इसमें वह साफ़ कह
रही है कि ओशो के साथ वह सम्बन्ध बनाती थी। साथ ही बड़ी बारीकी से कहते हुए पार्श्व
से निकलना भी चाह रही है। जहाँ विवेक ओशो के संबंधों से उन्हें बदनाम करना चाह रही
है वहीँ शीला उनपर यौन संबंधों के माध्यम से ‘करुणा’ कर रही है!इन
बातों में एक दकियानूसी बू है। पाठक को स्पष्ट प्रतीत होता है कि शीला का वक्तव्य
सत्य से परे है। अध्याय 27 में शीला ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है
कि भगवान् डिप्रेशन में जाने से बचने के लिए भौतिक सुविधाएं तलाश रहे थे। वह अपनी
शिक्षाओं के विपरीत स्वयं जाने लगे थे और तो और वह शीला से आशा कर रहे थे कि वह
उनकी शिक्षाओं को बचा लेगी।
“तुम्हे मेरा
कम्यून और मेरी शिक्षाओं को बचाना चाहिए, यहाँ तक कि मुझसे भी।”
शीला भगवान् को
रोल्स रोयस और भौतिक सुविधाओं के लोलुप बताकर स्वयं को प्रेम में विवश एक मसीहा के
तौर पर प्रस्तुत कर रही है। भगवान् ने रोल्स रोयस कारें खरीदने के लिए 21 अमीर सन्यासियों को बुद्ध घोषित कर दिया। और
पैसे इकट्ठे न हो पाने के कारण धमकी दी कि ‘मैं जल्दी ही शरीर छोड़ दूंगा’।शीला भगवान् के प्रवचन शुरू होने के बाद जो अपना वर्चस्व
खो रही थी उसे अन्य नाम व कारण प्रदान करने की हास्यास्पद कोशिश कर रही थी।
“एक बार अमीर
सन्यासियों की जेबें खाली कर लेने के बाद ओशो उन्ही के खिलाफ बोलने लगते” शीला ओशो को धन के लिए षड्यंत्र करने का खुला
आरोप लगाती है। वह यह भी कहती नहीं थकती कि वह भगवान् की हर ‘पागलपन’ में पूरी मदद कर रही थी। 27 वे अध्याय में
लिखती है –“भगवान् मुझे माफ़ करना
चाहते थे और वापस बुलाना चाहते थे लेकिन मैं ही नहीं जाना चाहती थी।” वह अपनी करतूतों
को स्वीकार भी करती है “मैंने एक सन्यासी
को मारा”।“मैंने भगवान् का अपमान किया”।“मैंने उनकी
शिक्षाओं का पालन नहीं किया” आदि आदि।
वह भगवान् से व
कम्यून से सार्वजनिक माफी मांगने का भी जिक्र करती है। यह नहीं बताती कि जब गलती
भगवान् की थी तो वह क्यों माफी मांग रही थी? “मुझे नष्ट करने के लिए ओशो ने मुझपर मन चाहे आरोप लगाये”,
वह यह स्पष्ट नहीं करती कि ओशो उसे सहयोगी होने
के बाद भी नष्ट क्यों करना चाह रहे थे? अंततः वह कहती है कि उसके पलायन की वजह से ही कम्यून नष्ट हो गया !
अब आता है 28 वा और अंतिम अध्याय “उन्हें मत मारो! उनकी शिक्षाओं व जीवन का सम्मान करो।”। पूरी पुस्तक ओशो को त्रुटियों का पुतला,
एक व्यसनी, विलासी बाबा और धन लोलुप सिद्ध करने का प्रयास है और
निष्कर्ष है उनकी शिक्षाओं का सम्मान करो? यह विरोधाभास स्वयं ही असलियत बयान करने में सक्षम है।
इसमें वह लिखती
है कि “वह मेरे प्रेम से खराब
हुए थे”।
“वह एक गौरवान्वित
व्यक्ति थे”।
“यह कम्यून
दुनियां का सबसे सफल कम्यून था जिसे उन्होंने अपनी प्रतिशोध भावना से नष्ट कर
लिया।”
शीला यहाँ दावा
करती है “दुनियां ओशो को न समझ सकी”,
ऐसा प्रतीत होता है कि ओशो की शिक्षाओं को
मात्र शीला ही समझ सकी है।
शीला के अनुसार 21 देशो से नकारे जाने के बाद दिल का दौरा पड़ने
से ओशो की मृत्यु हो गयी जबकि ओशो को अमेरिका में थेलियम विष दिए जाने के कारण
मृत्यु हुई थी।
पुस्तक के अंत
में शीला का वक्तव्य है “भगवान् श्री
रजनीश के तौर पर उनके प्रवचन पवित्र हैं। इंसान के तौर पर उन्होंने कुछ गलत काम
किये”।वह भगवान् और इंसान को
अलग मानती है।
अमित कुमार सिंह
असिस्टंट प्रोफ़ेसर
देव समाज कालेज फॉर वीमेन
फिरोजपुर सिटी, पंजाब
सम्पर्क
amit.maitraya@gmail.com
9463403074
|
संदर्भ-
1.क्योंकि स्वयं
को संप्रभु समझने वाले ये देश अमेरिकी दबाव में ओशो को प्रवेश नहीं दे रहे थे।
2.जीवन ऊर्जा का
स्पर्श करते ही ‘काम’ की चर्चा अनिवार्य हो जाती है ।जीवन ऊर्जा का
प्रारंभिक सोपान ‘काम’ है ।
3.इस घटना के
सन्दर्भ में ओशो का वक्तव्य है कि ‘शिक्षा हीन भावना
व उच्च भावना का पोषण न करे अतः वह किसी एक को सर्वोच्च कहलाने के पक्ष में नहीं
हैं. प्रत्येक व्यक्ति अनूठा और अद्वितीय है और सभी को एक ही मूल्याङ्कन पद्धति से
नहीं गुजारा जाना चाहिए”
4. सूफी गुरु
5. पेज 24
6. जिन्हें अमेरिकी पुलिस ने वर्षों जेल में रखा
था
7. पेज 25
8. पेज 27
9. पेज 29
10. पेज 30
11. पेज 32
12. पेज 34
13. पेज 38
14. पेज 38
15. पेज 39
16. पेज 42
17. पेज 44
18. पेज 45
19. पेज 78
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21. रजनीशपुरम अमेरिका के ऑरेगोन में 64000 एकड़ विस्तृत आश्रम था जिसकी मुख्य प्रबंधिका
शीला थी.
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