शोध आलेख: वैश्वीकरण: अवधारणा, अर्थ और आयाम/धीरेन्द्र प्रताप सिंह

                  
              आलेख: वैश्वीकरण: अवधारणा, अर्थ और आयाम/धीरेन्द्र प्रताप सिंह



ध्यातव्य है कि वैश्वीकरण शब्द के पर्याय के रूप में ही भूमंडलीकरण, विश्वायन या जगतीकरण शब्द का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि इन सभी शब्दों के लिए अंग्रेजी में केवल एक शब्द का प्रयोग होता है, ‘ग्लोबलाइजेशन। वर्तमान में वैश्वीकरण शब्द समूचे मानव सभ्यता के साथ बद्ध, आबद्ध और संबद्ध हो चुका है। चाहे वह साहित्य हो, शिक्षा हो, संस्कृति हो या अन्य कोई भी क्षेत्र। वैश्वीकरण का शाब्दिक अर्थ है, पूरे विश्व का एकीकरण। इस एकीकरण का आशय आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से है, जहाँ बिना किसी बंधन के एक देश से दूसरे देश तक वस्तुगत उत्त्पादनों, विचारों, मूल्यों आदि का आपस में साझा व्यवहार एवं आदान- प्रदान से है।

वैश्वीकरण को परिभाषित करते हुए रघुवंशमणिजी लिखते हैं कि- वैश्वीकरण वस्तुत: उस एकरुपिता की प्रक्रिया से है, जिसके अंतर्गत वस्तुओं, सेवाओं, उत्पादन साधनों, कच्चे माल, वित्त, प्रौद्योगिकी आदि का बिना सरकारी नियंत्रण के देश की सीमाओं से परे सीधा प्रसार होता है। 

     अभय कुमार दुबे के संपादन में प्रकाशित पुस्तक भारत का भूमंडलीकरणमें भूमंडलीकरण शब्द को इस पुस्तक के अंतिम अध्याय शब्द, तात्पर्य और धारणायेंशीर्षक के अंतर्गत जिस रूप में परिभाषित किया गया है, उसका सार रूप बिन्दुवार इस प्रकार है-

•             आधुनिक भूमंडलीकरण का पहला और प्रधान अर्थ है, एक विश्व- अर्थतंत्र और  विश्व बाज़ार का निर्माण जिससे प्रत्येक राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को अनिवार्य तौर से जुड़ना होगा।
•             दुनिया की राजनीति को इसी अर्थतंत्र और बाज़ार की जरूरतों के हिसाब से संचालित करने की परियोजना।
•             कंप्यूटर, इंटरनेट और संचार के अन्य आधुनिकतम सध्हनों के जरिये में दुनिया में राष्ट्रों, समुदायों, संस्कृतियों और व्यक्तियों के बीच फासलों का कम से कमतर होते चले जाना।
•             उपग्रहीय टेलीविज़न की मदद से एक भूमंडलीय संस्कृति की रचना करना। 

 दरअसल, वैश्वीकरण के मूल में जिस विश्व के एकीकरण की बात की जा रही है, उस एकीकरण का भाव और आवाज भारत में हजारों वर्ष पूर्व वसुधैव कुटुम्बकम्के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि जहाँ  वसुधैव-कुटुम्बकम्में सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया:मानवीय मूल्य, सेवा, समानता, बंधुत्व, न्याय आदि का भाव निहित था, वहीं वैश्वीकरण से तमाम मानवीय मूल्यों को  बड़ी ही चतुराई से अलग कर दिया गया।कहा जा रहा है कि आज विश्व क्व सभी लोगों को एक साथ जोड़ना भौतिकता के नित-नये सोपानों से ही सम्भव है। जो इस वैश्वीकरण के दौर में साकार होता दिख रहा है। जबकि वैश्वीकरण पर टिप्पणी करते हुए प्रोफ़ेसर धीरूभाई सेठ कहते हैं कि- मनुष्य जाति को उसकी भौतिक जरूरतों के हिसाब से परिभाषित करना उसका बहुत बड़ा अपमान है। उनके अन्दर नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रुझान भी मौजूद रहते हैं।

आज वैश्वीकरण को देश के बड़े हिस्से के लिए संकट के रूप में देखा जा रहा है। वैश्वीकरण के नींव की पहली ईंट 1948 ई। में तभी रख दी गयी थी, जब अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन का पहला अधिनियम आया। वैश्विक संवृद्धि को समर्पित यह संस्थान पूंजीपतियों एवं उत्पादकों के हितों को पूरा करने में लग गया। जिसका सोवियत संघ के रूप में प्रतिरोध भी हुआ।वैश्वीकरण शब्द सोवियत रूस के विघटन के बाद जोर पकड़ता है। इसके पीछे का तर्क यह है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व को दो भागों में बांटने वाली जड़वत सीमा रेखा का एक दूसरे में विलय हो जाना था।

एजाज अहमद का आलेख है, ‘वैश्वीकरण: बनना असम्बन्धों के समाज का। इस लेख का आरंभ इस वाक्य से होता है कि  वैश्वीकरण तो सिर्फ एक शब्द है, कई महत्वपूर्ण संदर्भों में एक भ्रामक शब्द। सीधे- सीधे साम्राज्य कहना शायद ज्यादा सटीक होगा।शायद अमरीकी साम्राज्यकहाँ और भी सटीक होगा। किन्तु कई मामलों में फिर भी भ्रामक ही। क्योंकि पहली बार हमारा सामना पूँजी के वैश्वीकृत साम्राज्य से हो रहा है, जो इतिहास में पहली बार संपूर्ण नग्नता के साथ उपस्थित हुआ है, और अमेरिका इसमें वित्तीय स्तर पर, सैन्य स्तर पर, संस्थागत स्तर पर तथा विचारधारात्मक स्तर पर प्रभुत्वशाली भूमिका में है।’   

     ‘वैश्वीकरणकी प्रक्रिया एवं इसको बढ़ावा देने वाले तत्वों, मूल्यों एवं विचारों का मानना है कि वैश्वीकरण ने विश्व को एकजुट किया है। भौगौलिक दूरियां को कम किया है। शिक्षा, स्वास्थय एवं सुरक्षा के प्रति लोग जागरूक हुए हैं। व्यक्तिगत स्वंत्रता का दायरा बढ़ा है। विश्व में लोकतंत्र मजबूत हुआ है। पूँजी का प्रवाह बढ़ा है। उद्योगों का विकास हुआ है। मानवीय एवं सामाजिक समस्यों पर अंकुश लगा है। विदेशी व्यापार और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से रोजगार बढ़ा है। प्रत्येक देशों के हालात प्रत्येक स्तर पर बदलें हैं। सूचना-संचार क्रांति, तकनीकी विकास और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आगमन तीव्र गति से बढ़ने का कारण वैश्वीकरण ही है।

     चलिए यह सब बात मान लेते हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया से किसको क्या मिला।।।? क्या यह सच नहीं है कि वैश्वीकरण ने पूंजीपतियों का वर्चस्व स्थापित किया है? क्या वैश्वीकरण ने तथाकथित विकास के सभी कार्य नवधनाढ्य एवं साम्राज्यवादी हाथों में नहीं सौंपा है? यह सवाल उठना लाज़िमी है कि आज जिस वैश्वीकरण के दौर में सर्वसमावेशी लोकतंत्र की बात हो रही है, वह क्यों लूटतंत्र से परिभाषित होने लगा है? कल्याणकारी राज्यों के सिद्धांत क्यों मटियामेट हों रहे हैं? पे एंड यूज का कल्चर क्यों और किसके लिए खड़ा किया जा रहा है? लोक कला, लोक व्यवहार, लोक संस्कृति एवं लोक जीवन क्या आज सुरक्षित हैं? रोजगार के अवसर बढ़ने के बजाय क्यों घट रहीं हैं? यदि यह वैश्वीकरण इतना ही कल्याणकारी और सर्व जनहितकारी है तो क्यों अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब क्यों हो रहा है? किसान, मजदूर और युवा आत्महत्या, निराशा एवं कुंठा के शिकार क्यों होते जा रहे हैं? क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि तकनीकी एवं संचार के बढ़ते प्रभाव और किसी भी तरह सफलता प्राप्त करने के दवाब में मानवीय संवेदनाओं ने दम तोड़ा है। यह सब प्रश्न वैश्वीकरण के सन्दर्भ में बेहद सोचनीय एवं खतरनाक इरादों के तरफ इस दौर को आगाह करती है।

यहाँ एक बात और उल्लेखनीय है कि वैश्वीकरण को गति देने में उदारीकरण ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो वैश्वीकरण ने उदारीकरण के माध्यम से ही अपना विस्तार किया है। जैसे-जैसे वैश्वीकरण, उदारीकरण का सहारा लेकर आगे बढ़ा, पूँजी का प्रभाव भी उतनी ही तेजी से आगे बढ़ा। वैश्वीकरण के मूल में पूँजी का विस्तार ही करना होता है। इसी कारण वैश्वीकरण के प्राथमिक स्तर अर्थात पूँजी को, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए, विश्व- बाज़ार की व्यवस्था के लिए उदारीकरण ने ही सन् 1990 के बाद विश्व व्यापार हेतु नए औद्योगिक नीतियों का निर्माण किया। निजीकरण को बढ़ावा दिया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुले बाज़ार की छूट दे दी। जिसका परिणाम यह हुआ कि स्वदेशी उद्योगों व भारतीय कंपनियों पर खतरा पैदा हो गया। किसी भी देश के भौगौलिक एवं सामाजिक आधार पर व्यवस्थित अर्तव्यवस्था को बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने वैश्वीकरण के नाम पर अपने भारी-भरकम संसाधनों, भ्रमात्मक विज्ञापनों द्वारा उसके ढांचे पर प्रहार करके चौपट कर दिया। दरअसल विदेशी पूँजी निवेश किसी भी देश के सामने शर्त रखता है कि प्रत्येक देशों को अपनी आर्थिक अर्तव्यवस्था पर कम से कम सरकरी नियंत्रण रखकर उसे उदार बनाना होगा। इसके पीछे छुपी हुई मंशा यह होती है कि हम मजदूरों का अधिकाधिक शोषण कर सकें, सस्ता श्रम पा सकें और मनचाहे लाभ प्राप्त कर सकें। आज वैश्वीकरण न केवल राष्ट्रों के बीच आर्थिक संबंध जटिल बनाता है बल्कि आर्थिक सत्ता के एकीकरण के नाम पर केन्द्रीयकरण करके राजनीतिक और सामाजिक सत्ता को भी अपने दायरे में ले रहा है।  सामान्य नागरिकों के सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों को भी सीमित कर रहा है।

     उदारीकरण की नीतियों ने जो मुक्त बाज़ार का रास्ता साफ़ किया, उससे पूरा देश बाज़ार रूपी व्यवस्था से संचालित होने लगा। यंत्रीकरण के बढ़ते प्रभाव से छोटे किसान तबाह हुए। देशी बीज एवं कम्पोस्ट खाद के स्थान पर बी। टी। कॉटन बीज एवं खतरनाक रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते प्रभावों ने छोटे के साथ बड़े किसानों को भी खेती किसानी से मोह भंग की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। विकास के नाम पर, देशी-विदेशी पूंजीपतियों के कारोबार हेतु कृषि योग्य भूमि, जल, जंगल- जमीन का औने- पौने दाम पर अधिग्रहण कहीं से न्याय संगत नहीं जान पड़ता।  आज इस बाजारवादी व्यवस्था ने मानवीय मूल्यों को भी लाभ- हानि के तराजू पर खड़ा कर चौपट किया है। स्त्री देह को विज्ञापन और उपभोग की वस्तु के रूप में परिभाषित और उपयोग करना शुरू किया है।    

उदारीकरण के नीतियों के फलस्वरूप उपजी स्थितियों को लेकर अरविन्द मोहनने  अपने एक आलेख में लिखते हैं कि- इस तथाकथित आधुनिक और विकासवादी नजरिये ने पारंपरिक जल संचय प्रणाली से जमा पूरे पानी को ही ख़ारिज करा दिया है- ठेकेदार, इंजिनियर, नेता, नौकरशाह के लूट वाली हर प्रणाली को उत्तम बनाने का अभियान है। मान के दूध को पिछड़ेपन की निशानी और बोतल के दूध को मॉडर्न बनाने का खेल इसने ही किया है। ईंट का घर माने विकास, फूस- मिट्टी के घर का मतलब दरिद्रता- पिछड़ापन।’  आज जिस प्रकार अचानक से दुनिया के रंगमंच पर वैश्वीकरण धूम- धड़ाका और सभी समस्याओं से निजात दिलाने के नाम पर चकाचौंध के साथ उपस्थित हुआ है, यह स्वाभाविक एवं अनायास नहीं बल्कि सायास और सुनियोजित प्रक्रिया का हिस्सा लगता है। क्योंकि ठीक इसी प्रकार, आज के सैकड़ों वर्ष पूर्व साम्राज्यवादी देशों ने भी अपने पैर फैलाये थे। इन देशों ने पहले व्यापार, फिर धीरे- धीरे अशिक्षा, आडम्बर और पिछड़ेपन को दूर करने के नाम पर सैकड़ों देश को गुलाम बना लिया।

आज के वैश्वीकरण की अवधारणा को वर्षों पूर्व ब्रिटेन के उपनिवेशवादी व्यवस्था के माध्यम से भी समझा जा सकता है। उस दौर पर की गयी एक टिप्पणी का ब्यौरा एक पुस्तक में मिलता है। जो इस इस तरह है- जब ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में दीवानी का अधिकार मिला तो एक वर्ष बाद मार्च 1767 ई। में प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका जेंटलमैनने लिखा कि कंपनी को प्राप्त यह नवीन वृहदाकार इस राष्ट्र (ब्रिटेन) के लिए संपत्ति की एक खान साबित हो सकते हैं। इससे प्राप्त सम्पदा से कुछ ही वर्षों में न केवल राष्ट्रीय ऋण चुकाया जा सकता है बल्कि भूमिकर को समाप्त किया जा सकेगा। एक महीने बाद पत्रिका में छपी एक अन्य टिप्पणी इस प्रकार थी कि कंपनी द्वीप में कुछ क्रूरताओं को पुन: दोहरा सकती है, जो भारत के देशज औए मासूम लोगों के साथ उनका रक्त बहाएगी’ 

इस उदाहरण से यह बात निकलकर सामने आती है कि पूर्व में एक कंपनी जो व्यापार और अपने लाभ के लिए लाखों लोगों को गुलाम और निर्ममता पूर्वक उनके अधिकारों का दमन कर चुकी है। फिर आज तो विकास करने के नाम पर अनेकों देशी- विदेशी कम्पनियाँ उग आई हैं। ऐसा भी नहीं कि आज की कम्पनियाँ अपना केवल व्यापार कर रहीं हैं। हालिया ऐसे कई उदाहरण हैं, जो इन कंपनियों की ताकत और निर्ममता का पोल खोलती हैं। चाहे सिंगुर की घटना हो, सलवा जुडूम हो, टाटा की स्टील परियोजना का विरोध करते हुए कलिंगनगर में 14 लोगों की मौत या ऐसी ही अन्य घटनाएँ।

कंवलजीत सिंह के पुस्तक वैश्वीकरण’? के हवाले से– ‘ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रवाह अत्यधिक संकेंद्रित है और पूरे विश्व में असमान रूप से वितरित है। इसका दो तिहाई हिस्सा अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान में नियोजित है। विश्व की 100 सर्वोच्च गैर- वित्तीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों में लगभग 90% अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान में है। विकसित देशों में हुए उत्पादन का 85% घरेलू बाज़ार के लिए ही है। वैश्वीकरण की वर्तमान विद्यमान प्रवृत्ति को केवल पूंजी का मुक्त सञ्चालन ही कहा जा सकता है। वैश्वीकरण का तात्पर्य वर्तमान में केवल यह है कि  एक ऐसी प्रक्रिया जो स्वचालित (यांत्रिक) न होकर मानव-नियोजित प्रक्रिया है।।।एक ऐसी प्रक्रिया जिसका सीधा सम्बन्ध उत्पादन-खपत से होता है।

वैश्वीकरण के आयामों की ओर इशारा करते हुए कथा में गाँवपुस्तक के संपादक सुभाषचंद कुशवाहा का कहना है कि- देश और वैश्विक स्तर पर हुए परिवर्तन बता रहे हैं कि सब कुछ बदल गया है। डंकल, पेटेंट, मुक्त व्यापर, केबल संस्कृति, इन्टरनेट, ईमेल, चैटिंग, एस।एम।एस।, डिजिटल कैमरे और मोबाइल फोने की चहकती दुनिया में गांवों की सुध- बुध नहीं रही किसी को। सब कुछ तेजी से बदल गया है भाई!’ 

धीरेन्द्र प्रताप सिंह
शोध-छात्र(हिंदी),
इलाहाबाद विश्वविद्यालय,
इलाहबाद 
संपर्क 09415772386
हम यह मानते हैं कि वैश्वीकरण का लाभ कुछ लोगों या कुछ देशों के लिए अबाध गति से मिल रहा है। लेकिन क्या कुछ लोगों के हितों से ही दुनिया का हित संचालित होगा? यह चिंता का विषय है। आज जरुरत इस बात है कि खासकर उन देशों में जहाँ लोकतंत्र है वहां की राज्य संस्था द्वारा जनकल्याण की नीतियों को मजबूती से लागू किया जाये। विकास के नीति-नियम तो बनाये जाये लेकिन वीनस के नाम पर नहीं। लघु और कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित कर उन्हें बढ़ावा दिया जाए। अभिव्यक्ति की आज़ादी, आर्थिक स्वालंबन और चुनने की स्वतंत्रता को और अधिक मुखर किया जाए। सामाजिक मुद्दों मसलन ( स्थानीय भाषा, लोक संस्कृति, कला, खेल, शिक्षा, शोध।।) उत्कृष्टता को सुनिश्चित किया जाए।    

फ़िलहाल इस विषय के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण ने लिया बहुत कुछ है, दिया बहुत कम है।

सन्दर्भ
1- रघुवंशमणि, बदलते समय में(कुछ आलोचनात्मक लेख), वितर्क पुस्तिका, 203, आवास विकास, बस्ती, सं.  2013, पृ. सं.-
2- विजय प्रताप, वैकल्पिक भूमंडलीकरण की ओर, भारत का भूमंडलीकरण, अभय कुमार दुबे (सं.), वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, सं. 2003, आवृति-2017, पृ.सं.- 377 
3- एजाज़ अहमद, किनकी सदी, किनकी सहस्त्राब्दी,(अनु.- मनोज झा), वैश्वीकरण: बनना असम्बन्धों के समाज का, संवाद प्रकाशन, मेरठ, सं. 2008, पृ.सं.- 63 
4- अरविन्द मोहन, नए अर्थतंत्र में किसका विकास, कैसा विकास! उदारीकरण और विकास का सच, उर्मिलेश ( सं.), अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स(प्रा.) लि. दरियागंज, नई दिल्ली, सं.- 2010, पृ.सं.-248 
5- कंवलजीत सिंह, वैश्वीकरण? वैश्वीकरण समर्थक बौद्धिक छल का खुलासा, अनुवादक- जीतेन्द्र गुप्ता, संवाद प्रकाशन, मेरठ, सं. 2008, पृ.सं.-
6- वही, पृ.सं.- 11 
7- सुभाष चन्द कुशवाहा (सं.), कथा में गाँव, संवाद प्रकाशन, मेरठ, सं. 2006, पृ.सं.- 15-16 


अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

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