दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय चेतना
राष्ट्रकवि दिनकर की चेतना महान है, वे संवेदनाओं एवं
संचेतनाओं के साहित्यकार हैं। भारतीय संस्कृति और अस्मिता की जमीन से जुड़े
साहित्यकार हैं, दिनकर जी। उनके काव्य ने समय-समय पर भारतीय युग चेतना को राष्ट्र
की अस्मिता क प्रति उद्वेलित किया है। मन मानस को राष्ट्रीयता से आपूरित किया है।
एतदर्थ राष्ट्रकवि दिनकर का काव्य प्रासंकितापूर्ण है और यह प्रासंगिकता युग-युग
का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए राष्ट्रकवि दिनकर हिन्दी साहित्य-संसार में अमर है
उनका काव्य भारतीय संस्कृति-भारतीयता से परिचित कराता है उनकी दृष्टि में भारत एक
भू-खण्ड मात्र नहीं है। एक विचारधारा है जो भारतीयता से अंगीकृत है। उन्हीं के शब्दों
में -
‘‘भारत नहीं स्थान का वाचक,
गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भू-मण्डल भर का
है।
जहाँ कहीं एकता अखण्डित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश मे वहाँ खड़ा, भारत जीवित भास्वर है।”
कवि अपने युग का प्रतिनिधित्व करता है।
किसी भी कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में युग प्रतिबिम्बित होता है। स्वयं कवि
ने स्वीकार किया है -
‘कवि मानवता का वह चेतन
यंत्र है जिस पर प्रत्येक भावना अपनी तरंग उत्पन्न करती है। जैसे भूकम्प मापक
यंत्र से पृथ्वी के अंग में कहीं भी उठने वाली सिहरन आप से आप अंकित हो जाती है।’
धर्मपाल सिंह कहते हैं कि – “कवि ने जब काव्य जगत
में प्रवेश किया उस समय भारतीय राजनीति हलचल के दौर से गुजर रही थी। भारत अंग्रेजों
का गुलाम था। इन परिस्थितियों ने ही कवि के रूप में दिनकर जी को विशेष ख्याति
प्रदान की। कवि ने अपने युग को बड़ी ईमानदारी से सशक्त स्वर में वाणी दी है।” डॉ.
गोपाल राय सत्यकाम दिनकर के एक और पक्ष की ओर ध्यान दिलाते हैं – “देश के स्वाधीन होने के समय दिनकर हिन्दी के एक प्रमुख और प्रतिष्ठित कवि
थे, और वे ऐसे कवि थे जिनकी कविता राष्ट्रीयता आन्दोलन की
समसामयिक गतिविधियों से अभिन्न रूप से संबद्ध रही थी। दिनकर स्वाधीनता संग्राम में
नहीं कूदे थे, केवल कलम से ही उसमें सहयोग दे रहे थे।”
दिनकर का पहला प्रकाशित काव्य-संग्रह ‘बारदोली विजय‘ है पर इसकी कोई भी प्रति कहीं उपलब्ध नहीं है। इसमें 10 कविताएँ संकलित हैं जिसमें दिनकर की राष्ट्रीयता भावना बीज रूप में
विद्यमान है। इसके भी पहले दिनकर ने ‘वीर बाला‘ और ‘मेघनाद वध‘ नामक काव्य
लिखने आरंभ किए थे जो अधूरे रह गए और जिनकी पांडुलिपियों का कहीं पता नहीं है।
प्रणभंग की रचना दिनकर ने मैट्रिक पास करने के बाद 1928 मे
की। प्रणभंग जयद्रथ वध की तरह ही एक खंडकाव्य है जिसकी कथा महाभारत से ली गई है।
प्रणभंग में राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति का मार्ग अपनाया गया है। इसमें कहानी
तो महाभारत से ली गई है, पर उसके माध्यम से यह कहा गया है कि
गुलामी का अपमान भरा जीवन जीना कलंक है, इसलिए युद्ध से पहले
जब युधिष्ठिर के मन में पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म की दुविधा
पैदा होती है तो अर्जुन, भीम एक साथ आक्रोश से फट पड़ते हैं -
‘अपना अनादर देखकर भी आज हम
जीते रहे,
चुपचाप कायर से गरल के घूँट यदि पीते रहे,
तो वीर जीवन का कहाँ रहता हमारा तत्व है
इससे प्रकट होता यही हममें न अब पुरूशार्थ
हैं।’
कवि के अनुसार यदि भारत गुलाम था, तो इसका कारण भारत से
पुरूषार्थ का लोप था। कवि की दूसरी कृति रेणुका 1929-1925 के
बीच लिखी गई। कुल 33 कविताओं का एक प्रतिनिधि संग्रह है।
जिसका प्रकाशन 1935 में हुआ था। इसमें राष्ट्रीय कविताएँ संग्रहीत हैं। अतीत की गौरव
गाथा और युगीन समस्याओं को उन्होंने पूरे तेज के साथ उजागर किया है इस काव्य की
पहली कविता मंगल आवाह्न में वह श्रृंगी फूंक कर सोए प्राणों को जगाना चाहता है -
‘‘दो आदेश फूंक दूँ श्रृंगी
उठे प्रभाती राग महान
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में
जागें सुप्त भुवन के प्राण”
कवि ऐसे स्वरों को गाना चाहता है। जिससे
सारी सृष्टि सिहर उठे। कवि देश में व्याप्त अत्याचार, आडंबर और अहंकार को दूर
करने के लिए शंकर के ताडंव तत्जन्य ध्वंस की कामना करता है -
“विस्फारित लख काल नेत्र
फिर, कांपे त्रस्त अतनु मन ही मन
स्वर-स्वर भर संसार, ध्वनित हो नगपति का कैलाश
शिखर
नाचो हे नटवर नाचो नटवर।”
हुंकार कवि की राश्ट्रीय रचनाओं का दूसरा
संकलन है जिसका प्रकाषन 1928 में हुआ।हुंकार का कवि तूफान का आह्वान करता है। कवि स्वर्ग तक को जला
देने की इच्छा व्यक्त करता है। ‘आलोक धन्वा‘ काव्य में दिनकर क्रान्ति द्रष्टा के रूप में उपस्थित होते हैं। उनका रूप
बड़ा दिव्य और ज्वलंत है -
“ज्योतिर्धर कवि मैं ज्वलित
और मंडल का
मेरा शिखण्ड अरूणाभ किरीट अनल का
रथ में प्रकाश के अश्व जुते हैं मेरे
किरणों में उज्जवल गीत गुंथे है मेरे।”
हुंकार की कविताओं में सर्वत्र मानव पीड़ा
विद्रोह की ऊर्जा और बलिदान का स्वर गूँज रहा है। इसका धरातल सामाजिक और राष्ट्रीय
दोनो हैं। इसमें आने वाले संदर्भ दोनों के है कवि को सामाजिक विशमता का बड़ा स्पश्ट
बोध है। वे समझते है कि एक ओर किसान मजदूर हैं जो श्रम करके भी भूखे रहते है, दूसरी ओर परोपजीवी वर्ग
है जो शोषणजन्य भोग विलास का सुख लूट रहा है। कवि ने शोषित वर्ग की पीड़ा और षोशक
सभ्य क्रूरता के तनाव को उद्घाटित किया है-
“बोले कुछ मत क्षुधित,
रोटियाँ खान-छीन खाएँ यदि कर से,
यही षान्ति, जब वे आएँ, हम निकल कर जाएँ
चुपके से निज घर से।”
यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि
चेतना आग और रक्त में निवास करती है। आग और रक्त का संग्रह उनकी काव्य चेतना का शुचितम
तीर्थ है। वस्तुतः क्रांति के यही दो कगार है। बाह्य परिस्थितियाँ जब व्यक्ति को
तिरस्कृत कर व्यक्ति के समस्त आतंरिक मूल्यों और अहं के उद्रेकों पर तिरस्कार-मयी व्यंग्य की तीखी बौछारें बन जाती
है तब उस आग की सृष्टि होती है जो पहले अज्ञात ज्वालामुखी की भाँति मन से सुलगती
रहती है। इस आग की संधि-धमनियों में दौड़ते हुए रक्त से होती है। रक्त खौल उठता है
तथा यही रक्त सामूहिक क्रांति शक्ति संगठित करता है।
राश्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण अपनी रचनाओं
में उन्होंने अपने विषाल देष के प्रति अनुराग का उच्च भाव राश्ट्र वंदना के रूप
में मुखरित किया है जो कि निम्नांकित पंक्तियों में दृश्टव्य है-
“मेरे नगपति मेरे विषाल
साकार, दिव्य, गौरव, विराट
पौरूश के पूँजीभूत ज्वाल
मेरे जननी के हिम-किरीट
मेरे भारत के दिव्य भाल।”
कुरूक्षेत्र 1943 में प्रकाशित दिनकर का
प्रथम प्रबंध काव्य है। विचारों की दृष्टि से ही कवि इसे प्रबंध काव्य मानता है।
कवि कुरूक्षेत्र में राष्ट्रवादी एवं मानवतावादी दृष्टिकोण का ही विशेष समर्थन
करता है।
दिनकर ने कुरूक्षेत्र में युद्ध के दो
स्तर स्पश्ट किये है। बाह्य और आतंरिक। सनातन काल से चलने वाला देवासुर संग्राम
आतंरिक युद्ध है, शेष सभी बाह्य दोनो के कारण समान और लगभग एक से है। जब तक मन में विकारी
भाव रहेंगे तब तक समाज में युद्ध अवश्यंभावी है। कुरूक्षेत्र के छठे सर्ग में इसी
अखण्ड शांति का संदेश कवि देता है। कवि का द्वंद है-
“है बहुत देखा सुना मैंने
मगर
भेद खुल पाया धर्माधर्म का
आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर
बाँट दूँ मैं पाप को औ पुण्य को।”
कुरूक्षेत्र अपने समय और समाज के प्रति
जागृति का संदेश देने वाला समन्वय की भूमि पर स्थित काव्य है जहाँ युद्ध की
अनिवार्यता, धर्म
एवं शान्ति के मंगल की शुभकामना सन्निहित है।राष्ट्रकवि दिनकर की रचनाएँ राष्ट्रीय
भावनाओं से ओत-प्रोत है। सामधेनी का प्रकाशन सन् 1946 में हुआ था। सन् 1941 से 1946 तक का काल देश में क्रांति का काल रहा है। समग्र देश का प्रतिशोध और
प्रतिहिंसा का स्वर इसमें व्यक्त हुआ है। इस कृति का मूल स्वर क्रांति ही है।
कवि पुरोधा बनकर क्रांति यज्ञ में
बलिदानों की समिधा द्वारा अग्नि प्रज्जवलित करना चाहता है। सामधेनी की प्रथम कविता
‘अचेतमृत-अचेतन‘ शिला मंगलाचरण रूप है। संग्रह के प्रथम सात गीत भाव प्रधान मुक्तक है,
उनमें कवि के राष्ट्रीय भाव बड़ी प्रवणता से व्यक्त हुए हैं। कवि की
दृढ़ता रागपूर्ण स्वर में व्यक्त हुई है। वह चाँद से बातें करते हुए समय उसे छिपी
चेतावनी तो दे ही देता है-
“स्वर्ग के सम्राट को जाकर
खबर कर दे,
रोज ही आकाष चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिए जैसे बने इन स्वप्न बालों को
स्वर्ग की हो और बढ़ते आ रहे हैं वे।”
सामधेनी में कवि ने काव्य का विषय स्वर्ग
की अपेक्षा धरती को चुना है। हुंकार का क्रान्तिकारी कवि स्थिर हो गया है। जो
युद्ध के संदर्भ में शांति की ओर विचारशील हो गया है। श्री विश्वनाथ सिंह के शब्द
निष्कर्ष रूप में प्रस्तुत करना पर्याप्त है- ‘‘दिनकर का यह काव्य संग्रह सामधेनी इस प्रकार यौवन के
उद्दाम वेग की वाणी ही नहीं युग की वाणी भी है।”
इतिहास के आँसू में कवि की दस प्रारंभिक
ऐतिहासिक संग्रहीत हैं। इन कविताओं का रचनाकाल 1932 ई0 से 1948 ई0 तक है। ये सभी कविताएँ हमारे इतिहास से
सम्बन्धित है, किन्तु कवि का राश्ट्रप्रेम और उसका ओजपूर्ण
स्वर भी इनमें मुखरित है। इस काव्य संग्रह के अन्तर्गत कवि ने इतिहास के महान
योद्धाओं की वीरता का गुणगान किया है। सामान्यतः कवि ने वर्तमान की समस्याओं के
लिए अतीत का द्वार खटखटाया है। इस प्रक्रिया में उसके मानस में जिन विषेश
व्यक्तियों के चित्र उभरते है उनमें गौतम बुद्ध और अषोक का स्थान प्रमुख है
वर्तमान का निमंत्रण लेकर जब कवि अतीत के द्वार पर पहुँचता है तो उसे विषेशकर
बलषाली मगध अथवा नालंदा और वैषाली की ही याद आती है कवि पाटलिपुत्र की गंगा से
पूछता है कि वह कौन सा विषाद है कैसी व्यथा है जिस कारण आज उसके प्रवाह में
षिथिलता दृश्टिगोचर हो रही है। गंगा साक्षी है हमारे उस गौरवपूर्ण अतीत की जिसकी
तूती संपूर्ण भारत में ही नहीं वरन् विदेषों में भी बोलती थी, गुप्त वंष की गरिमा, अषोक की करूणा, गौतम का षांति सन्देष, लिच्छिवियों की वैशाली सभी की
स्मृति उसके मानस में अवष्य ही सुरक्षित होगी। 1935 के बाद
की रचित ऐतिहासिक कविताओं में (जो यहाँ संगृहीत है) कवि केवल अतीत के गौरव की
स्मृतिमात्र से संतुश्ट नहीं हो जाता, वरन् उनसे प्रेरणा
लेकर भारतमाता की गुलामी की बेड़ी को काटने की प्रेरणा भी देता है। कवि का आह्वान
है-
“समय माँगता मूल्य मुक्ति
का, देगा कौन माँस की बोटी?
पर्वत पर आदर्श मिलेगा खाएँ चलो घास की
रोटी।
परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़़ी हुई
भारतभूमि से वह स्पष्ट शब्दों में पूछता है-
ओ भारत की भूमि वंदिनी! ओ जंजीरो वाली!
तेरी ही क्या कुक्षि फाड़कर जन्मी थी वैशाली?”
इतिहास के ये आँसू कवि को कितने प्रिय है
हमारे लिए कितने अनमोल है इसका पता हमें इन रचनाओं को पढ़ने के बाद ही लगता है।राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत कवि का
आगे काव्य संग्रह धूप और धुआँ का प्रकाषन 1953 में हुआ और इसमें कवि
भी 1947 से 1951 तक की रचनाओं का
संग्रह है। समीक्ष्य काव्यकृति में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चा के राश्ट्रीय
जनजीवन की अभिव्यक्ति है कवि इसके नामकरण के बारे में लिखता है- ‘‘स्वराज्य से फूटने वाली आषा की धूप और उसके विरूद्ध जन्मे हुए असंतोश का
धुआँ, ये दोनों ही इन रचनाओं में यथास्थान प्रतिबिंबित मिलेंगे।
अतएव जिनकी आँखे धूप और धुआँ दोनों को देख रही हैं। इसके लिए यह नाम कुछ निरर्थक
नहीं होगा।”
संग्रह की रचनाओं में स्वतंत्रता, राश्ट्र हित की भावनाएँ
तथा बापू और अन्य बलिदानियों के प्रति श्रद्धांजलि के भाव स्पश्ट हुए हैं। कवि को
वर्तमान में जो तृशा दिखाई दे रही है उसे वाणी प्रदान की है। इस ग्रंथ के विशय में
कवि ने स्वयं लिखा है-
‘‘स्वराज्य से फूटने वाली
आषा की धूप और उसके विरूद्ध जन्मे हुये असन्तोश का धुआँ ये दोनो इन रचनाओं में यथा
स्थान प्रतिबिम्बित मिलेगी। अतएव जिसकी आँखे धूप और धुआँ देख रही है उसके लिए यह
नाम कुछ निरर्थक नहीं होगा।” धूप और धुआँ काव्य संग्रह की
रचना स्वतंन्त्रता, राष्ट्र कल्याण, बलिदानियों
पर श्रद्धा सेनानी की वीर भावना आदि ज्वलन्त विशयों से परिपूर्ण है। यथा-
“माँ का अंचल है फटा हुआ,
इन दो टुकड़ो को सीना है।
देखे देता है कौन लहू, दे सकता कौन पसीना है।”
दिनकर की सोच राष्ट्रवादी सोच है और स्वदेश
गौरव तथा स्वाभिमान उनमें कूट-कूटकर भरा है। कवि गाँधी जी की विचारधारा से प्रभावित
होने के कारण उनका राष्ट्रवाद और अधिक पुष्ट तथा मजबूत बन गया है, किन्तु वे अहिंसा में विश्वास
न करते हुए हिंसा को मूल में रखते हुए कहते हैं शांति और अहिंसा के सिद्धांतो को
अपनाता है तो इससे उसकी कायरता ही उजागर होती है।
परषुराम की प्रतीक्षा सन् 1962 में भारत-चीन की पृष्ठभूमि
पर लिखी गई वीरता तथा ओज से परिपूर्ण कविताओं का संग्रह है उस समय कवि ने ओजमयी
वाणी में इस आपद्धर्म को प्रकट किया है, जो किसी महान राष्ट्रवादी
कवि रचनाकार के ही बूते की बात है। गाँधीवाद की उपासना में तत्कालीन सत्ता ने जिस
मार्ग का आश्रय लिया कवि उससे संतुष्ट कैसे रह सकता है? अतः
उसने यहाँ के वीरों को परशुराम के रूप में देखा तथा कवि ने गाँधीवादी अहिंसा को
त्यागकर परशुराम की तरह धर्म और जाति की रक्षा के लिए शस्त्र ग्रहण करने का अनुरोध
किया-
“चिंतको! चिंतना की तलवार
गढ़ो रे!
ऋशियों! कृषान, उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे!
योगियों! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे
बंदूको पर अपना आलोक मढ़ो रे!”
कवि परषुराम की प्रतीक्षा काव्य संग्रह में चीन के विरूद्ध पूरे जोर से युद्ध का समर्थन करते है और स्वतंत्रता की रक्षा
के लिए सभी कुछ न्यौछावर कर देने तथा अपने आपको बलिदान कर देने की भावना को
प्रोत्साहित करते हैं-
“दासत्व जहाँ है, वहीं स्तब्ध जीवन है।
स्वातंत्रय निरंतर समर, सनातन रण है।
स्वातंत्रय समस्या नहीं आज या कल की
जागर्ति तीव्र वह घड़ी-घड़ी, पल-पल की।
कवि आगे यह आकांक्षा प्रकट करता है कि-
तिलक चढ़ा मत और हृदय में हूक दो,
दे सकते हो तो गोली बंदूक दो।”
कवि के अनुसार युद्ध के समय तटस्थ बने रहकर
चुप बैठे रहना भी कायरता है। ऐसे तटस्थ और
चालाक लोगों को फटकारता हुआ कवि कहता है-
“अब समझा, चुप्पी कदर्यता की वाणी है,
बहुत अधिक चातुर्य आपदाओं का घर है,
दोशी केवल वही नहीं, जो नयनहीन था,
उसका भी है पाप, आँख थी जिसे, किन्तु जो
बड़ी-बड़ी घड़ियों में मौन तटस्थ रहा है।”
दिनकर के काव्य का अवलोकन करने से यह ज्ञात
होता है कि उनका काव्य राष्ट्रीय चेतनाओं से परिपूर्ण है कवि ने शुरूआत ही राष्ट्रीय
चेतना से सम्बन्धित काव्य से की है तथा अलग-अलग संदर्भो में राष्ट्रीय चेतना को
अपने काव्य में दर्शाया है। कवि दिनकर ने अपने युग का प्रतिनिधित्व अपने काव्य में
किया है। दिनकर की सोच राष्ट्रवादी सोच है और स्वदेश गौरव तथा स्वाभिमान उनमें
कूट-कूटकर भरा है, कवि गाँधीवादी विचारधारा से प्रभावित है किन्तु वे अहिंसा के बल पर नहीं
बल्कि हिंसा के बल पर देष को आजाद कराना चाहते है। कवि स्वतंत्रता की रक्षा के लिए
सभी कुछ न्यौछावर कर देने तथा स्वयं को भी बलिदान कर देने की भावना को प्रोत्साहित
करते है।
सन्दर्भ
1- दिनकर एक शताब्दी, डॉ स्वयंवती शर्मा,
डॉ, दिनेश कुमार.
2- राष्ट्रकवि दिनकर एवं उनकी
काव्य कला, शिखर चन्द्र जैन
3- दिनकर का वीरकाव्य, धर्मपाल
सिंह आर्य
4- दिनकर व्यक्तित्व और रचना के
नये आयाम, डॉ गोपाल राय सत्यकाम
5- दिनकर की काव्यभाषा, डॉ यतीन्द्र
तिवारी
6- हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. नागेन्द्र
संध्या गैरोला
अतिथि प्रवक्ता (हिन्दी विभाग)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय गोपेष्वर,
चमोली।
जिला- पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखण्ड)
पिन0 न0- 246174
दूरभाश- 9760499521, 9758419861
राष्ट्र कवि उपाधि की तिथि और देने वाले का नाम स्पष्ट नहीं किया गया है ।
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