प्रवासी जीवन एवं गिरते नैतिक मूल्य
दो संस्कृतियों के बीच बढ़ता इन प्रवासी भारतीयों का मन एक अजीब सी स्थिति में आ खड़ा होता है। प्रथम व द्वितीय पीढ़ी का भारतीय आग्रह व वहां संस्कृति में पली-बढ़ी तृतीय पीढ़ी का पाश्चात्य मोह संक्रमण की स्थिति ला खड़ा कर रहा है। माता-पिता चाहते हैं बेटा-बेटी भारतीय मान-मर्यादा व मूल्यों की संस्कृति को अपनाए, उसे संजोए, उसे कार्य व्यवहार में रखे। किंतु सच्चाई इसके उलट नजर आती है। हरि कुमार का नाम हैरी क्यूमार हो जाता है। परमिंदर का नाम पम्मी, पंजाबी भांगड़ा या पोप में भंगडा बन जाता है। भारतीय व्यंजन पाश्चात्य प्रभाव या रचनीयता की चाहत बन जाते हैं। यहां का लौकिक संगीत, पॉप म्यूजिक में बदल जाता है।
डॉ नीरजा लिखती है - दो देशों की संस्कृति
के मिश्रण से एक नवीन संस्कृति की उपज नजर आती है। सैंडविच-ढोकल, पॉप संगीत,
डिस्को-डांडिया जैसे फ्यूजन का फैलाव इसी मिश्रण से हुआ है।"1
इस यह कहा जा सकता है कि सांस्कृतिक संक्रमण के बावजूद भारतीय संस्कृति की यह बड़ी
विशेषता है कि यह अन्य संस्कृतियों से सहज रुप से अपना सामंजस्य बिठा लेती है।
प्रवासी भारतीय जहां भी रहे वह पाश्चात्य आग्रह के साथ-साथ भारतीयता संस्कृति व
मूल्यों को न भूलता ना ही भुलाता है। यह संस्कृति एक जीवंत संस्कृति रही है। समय
और नए वातावरण के बदलाव को ग्रहण कर परिवर्तित हो जाती है। यह भारतीय संस्कृति की
ही विशेषता है कि अपनी अस्मिता खोए बिना यह प्रवासी देशों की विशेषताओं को अपने भीतर ही समावेशित करती रही। यही कारण है कि इन
प्रवासी देशों में भारतीय संस्कृति एक नए और निश्चित रूप से आज भी कायम है।
गिरते
नैतिक मूल्य
परिवर्तन केवल और केवल परिवर्तन का हिमायती विदेशी
समाज और वहां की अति भौतिकवादी संस्कृति में मूल्य चेष्टा आज बेमानी नजर आती है।
स्वच्छंद वातावरण, स्वप्रेरित मानसिकता, भौतिक उहापोह, पूँजीवादी संस्कृति, एकल
आग्रह, मूल्यहीनता आदि कितने ही कारण है जिनसे मूल्यपरक वातावरण प्रभावित हो रहा
है।
पाश्चात्य
संस्कृति सदैव, अति स्वच्छंदवादी व परिवर्तनगामी संस्कृति रही है। यहाँ व्यक्ति
नैतिक विचारणा से परे केवल स्वयं के लिए सोचता है अपने सुख-सुविधा व आराम के लिए
सोचता है, घर-परिवार उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। दैहिक संबंधों की चाह, उसे
अपनों से दूर कर जाती है। विवाहपूर्व संबंध उसका निजीपन है। उनकी दैनिक चाह है।
माता-पिता की इज्जत आबरू से उसे कोई वास्ता नहीं। मानव मूल्य मर्यादा, प्यार-प्रेम,
आत्मीयता, पारिवारिक दायित्व उसे अवरोध नजर आते हैं। जी हां यह ऐसा वातावरण है
जहां हमेशा मूल्यों का अवमूल्यन नजर आता है। डॉ प्रभा वर्मा ठीक ही लिखती है -
मूल्य विघटन का एक प्रमुख कारण है निरंतर परिवर्तनशीलता। जब समाज में स्थापित
मानदंड समयानुसार अपनी उपादेयता खो देते हैं और नए संदर्भों, परिस्थितियों एवं
वातावरण के अनुकूल उनका तालमेल नहीं बैठता तब मूल्य विघटन होने लगता है।"2
यह परिवर्तनशीलता ही विदेशी माहौल की महती
उपज है। जिसने व्यक्ति को अकेला जीना, ज्यादा से ज्यादा कमाना सिखाया, अपनेपन व
स्वकेंद्रीय होना सिखाया है। गिरते नैतिक मूल्यों का यह वातावरण किस कदर प्रवासी
भारतीयों को प्रभावित करता है। यह शोध का मुख्य विषय है। 'वेयर डू आई बिलांग' का
कथानक डेनिस संस्कृति के गिरते नैतिक मूल्यों का दृश्यांकन है। एक तरफ भारतीय
नैतिक मूल्यों की दुहाई देने वाला भाव तो दूसरी ओर खुली व स्वच्छंद वृति में सांस
लेने वाला युवा जीवन। जिनके लिए धर्म संस्कृति व मूल्य जीने का अवरोध नजर आते हैं।
प्रकाश शांडिल्य का बड़ा बेटा सुरेश हो या
डॉक्टर साहब की रीना, अपने मन के अनुसार चलते है उनके लिए मूल्य कोई वास्ता नहीं
रखते हैं। सुरेश कॉलेज के समय से ही डेनिस लड़कियों से ताल्लुकात रखता है। जब चाहे
तब किसी भी लड़की को घर ले आता, डांटने पर उसे ले कहीं ओर चला जाता, रातभर उसके
साथ रहता। यह मूल्यहीनता प्रकाश को अच्छी नहीं लगती। अब वह उनके बिना बताए टेनिस
लड़की लिंडा के साथ रहने लगा था - उन्होंने उसे धिक्कारा कि वह उनके पारंपरिक
मूल्यों का उपहास बना रहा है, कभी से बिलशिट क्या है हमारे पारंपरिक मूल्य।"3
उपन्यास में कई जगह ऐसे प्रसंग उपस्थित होते
हैं। जहाँ मूल्यहीनता नजर आती है। लिंडा का अपने पूर्व पुरुष मित्र से शारीरिक
संबंध, खुलेआम सिगरेट और शराब का सेवन, अर्धनग्न कपड़ों को पहनना, बडों का कोई आदर
सम्मान नहीं करना, कुछ ऐसे ही प्रसंग है डेनिस वातावरण में एक बात जो मूल्यहीनता
को सबसे ज्यादा दर्शाती है, वो
है कॉलेज या ऑफिस में काम करने वाले युवा-युवतियाँ कई दिनों तक एक दूसरे के साथ रह
लेते हैं, जब मन करता है। उसे बदल लेते हैं। घृणित और कुत्सित मानसिकता नजर आती है यहां के युवा समाज में, जो
मूल्यों को दिनों दिन गिराते जा रहे हैं। इसे मानसिकता खुलापन कहे या यौनात्मक
कुठाएँ। लेकिन पाश्चात्य माहौल में यह बात सामान्य है। भारतीय नजरों से ही हम
उनमें दोष निकाल पाते हैं। एक प्रसंग देखिए जो डेनिस विश्वविद्यालय की पार्टी का
अंश है, जिसमें पार्टी के उपरांत भारतीय या पाकिस्तानी लड़कियाँ तो अपने घर आ जाती
है किंतु बाकी लड़के लड़कियाँ इंजॉय करने (रात बिताने) उनके साथ चली जाती है 'सभी
लड़के-लड़कियाँ पार्टी के बाद अपने अपने बॉयफ्रेंड व गर्लफ्रेंड के साथ रात बिताने
कहीं चले गये।"4
पारिवारिक
दायित्व हो या बड़ों का मानसम्मान सब इस एकाकी भौतिक चाह में चकनाचूर होते दिखलाई
पड रहे हैं। विदेश में रहने वाला है एन.आर.आई. पति, भारतीय लड़की से शादी तो कर
लेता है, किंतु उसके वैवाहिक मूल्य बदलने लगते हैं। पत्नी को नौकर रूप में
स्वीकारना या केवल काम करने वाली समझना, या ऐसी पत्नी की चाह जो उसके अनैतिक
कर्मों को सदैव अनदेखा कर, पत्नी धर्म निभाती रहे। ये भावना कहीं ना कहीं गिरते
नैतिक मूल्यों का ही भान है। अनु और प्रणव, गुरिंदर व केनाडियन पति, या फिर डेनिस की लिंडा या कठगुलाब
का डॉ. जिम जारविस कुछ ऐसे ही नैतिक मूल्यों के पतन का आभास कराते हैं। बात-बात पर
पत्नी को प्रताड़ित करना, देश व रंग को लेकर टिप्पणियाँ करना, आदि कितने ही कारण
बनते हैं इन मूल्यों के पतन के जहां एन.आर.आई. पति अपने पारिवारिक दायित्व से मुँह
मोड़ लेता है।
शेष यात्रा की अनु सपने संजोए अमेरिका चली आती
है किंतु उसे यहाँ के वातावरण में मूल्यहीनता नजर आती है। पतियों के बावजूद
ज्यादातर स्त्रियों के नाजायज संबंध है। पति भी अन्य स्त्रियों में रत है। एक
दूसरे को समझाने के बजाय ये इन बातों में 'गैप मेंटेन' करके चलते हैं। एक दूसरे की
स्वतंत्रता में दखल नहीं देना चाहते। ऐसे में बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता होगा?
सोचना पड़ता है। थोड़ी सी स्थितियाँ प्रतिकूल हुई कि पति-पत्नी में तलाक हो जाते
हैं, और फिर पुन: नए का आकर्षण व चाव बढ जाता है। बिना शादी के भी साथ रहना 'लिव
इन रिलेशन' संबंध पद्धति यहाँ खूब देखी जा सकती है। "शादी करने को वे तैयार
नहीं थी पर आर जी शादी के से माहौल में पुरुष के साथ रहने में कोई आपत्ति नहीं थी।
उनमें से कुछ लेसबियन जरूर थी पर, ज्यादातर मर्दों के साथ ही रह रही थी। यह दूसरी
बात थी कि कि हर छठे-छमासे वे साथी बदल लेती थी।"5
पति पत्नी को बोझ समझता है या फिर नौकर, या
पत्नी पति को कुछ ही आभास दिलाती है। शेषयात्रा की अनु का पति उसे इसलिए छोड़ना
चाहता है कि वो उससे बोर हो गया, उसके कितने ही नाजायज संबंध थे जिन्हें वह अब भी
काम में लेता है। भारतीय परंपरा में पली-बढ़ी अनु उसे अपने संबंधों की दुहायी देती
है किंतु उसके नैतिक मूल्य पतन की ओर जा चुके थे। वह उससे मुक्त होना चाहता है। "वह
सब बातें दुहराने से कोई फायदा नहीं है अनु, हमारा-तुम्हारा साथ रहना असंभव है मैं
फ्री होना चाहता हूं।"6
आज व्यक्ति दायित्वहीन
समाज चाहता है। अपना वजूद व एकाकी जीवन ही उसके लिए महत्वपूर्ण है। अपनों के लिए
कोई स्थान नहीं होता। विदेशों में बुजुर्ग मां बाप का साथ होना या साथ रहना वो
वैसे भी संभव नहीं हो पाता किंतु अगर मिलने या रुकने के संयोग से कोई बुजुर्ग
मां-बाप अपने बेटा-बेटी या बहू के पास आ भी जाए तो उनके दायित्व मुँह मोड़ने लगते
हैं। स्थानीय लोगों ने 'ऑल्ड होम' के ऑप्शन को अपना रखा है। ऑफिस आते वक्त बेटा
अपने पिता को किसी मॉल के बाहर या मंदिर गुरुद्वारे में या फिर पार्क में छोड़
देते हैं और शाम को ऑफिस से आते वक्त घर ले आते हैं।
'श्याम सखा श्याम' का उपन्यास कोई फायदा
नहीं का कथानक कुछ ऐसी नैतिकविहीन मानसिकता को रेखांकित करता है। टिकट के पैसे दो
और चली जाओ। फोकट में अमेरिका की सैर को नहीं बुलाया है। प्रभाष कुछ बोला नहीं।
मेरी रुलाई फूट रही थी।"7 कुछ ऐसी ही मूल्यहीनता नजर आती
है 'वेयर डू आई बिलांग' के प्रकाश दंपति के बीच, जिनकी संतान उसे कुछ नहीं समझती। पूरी
जिंदगी औलाद के लिए सब कुछ किया किंतु आज वही बड़ा लड़का हर बात पर मां-बाप की तौहीन
करता है। बात-बात पर उनका अपमान करता है।
पाश्चात्य माहौल में भारतीय परंपरागत मानवीय मूल्यों को संभाल पाना या द्वितीय या तृतीय पीढ़ी से संभलवाना आज असंभव हो गया है। बदलती मानसिकता, उच्चस्तरीय जीवनशैली, भौतिक चकाचौंध, अपनेपन की चाह, अतिशय यांत्रिकता संबंधों की कृत्रिमता, भावों का अभाव, मूल्यहीनता आदि कितनी स्थितियां उत्पन्न हो गई है जिनसे मूल्य गिरते जा रहे हैं स्वच्छंद व खुला वातावरण जहां अत्याधुनिकता को जन्म दे रहा है वही बदलती टेक्निक व यांत्रिकता ने जहां व्यक्ति को घर बैठे सुविधाएं व सरल जीवन दिया है वही संबंधों से क्षीण कर दिया है। एकांकी जीवन को पालित प्रवासी मन आज मूल्यों के पतन का प्रभावी कदम है। यहां दया, माया, ममता, सद्भाव, शांति, सुकून, प्रेम और सौहार्द का अभाव नजर आता है।
प्रवासी परिवेश
का सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों का पक्ष, इतना एकिक व संकीर्ण हो गया है कि नए व परिवर्तन की चाह में, व्यक्ति मान-मूल्यों को तोड़ता जा रहा है। कभी
स्वार्थ में अंधा अपनों की अवहेलना करता है तो कभी काम-कुंठा के चलते नाजायज
संबंधों का हिमायती बन बैठता है। पारिवारिक दायित्व से मुंह मोड़ता उसका मन,
केवल-केवल पैसों की भूख को शांत करने में लगा
रहता है।
प्रणु शुक्ला
सह-आचार्य
राजकीय महाविद्यालय
टोंक
सम्पर्क
8209487313
pranu.rc55@gmail.com
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संदर्भ-
1. भारतीय डायस्पोरा
: विविध आयाम, रामशरण जोशी,
पृ. 62
2. हिन्दी उपन्यास
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया और स्वरूप, डॉ. प्रभा वर्मा, पृ. 64
3. वेयर डू आई
बिलांग, अर्चना पैन्यूली, पृ. 26
4. वेयर डू आई
बिलांग, अर्चना पैन्यूली, पृ. 307
5. कठगुलाब, मृदुला गर्ग, पृ. 33
6. शेषायात्रा,
उषा प्रियंवदा, पृ. 63
7. कोई फायदा नहीं,
श्याम मोहन सखा (उपन्यास का अंश) हरिगंधा
पत्रिका, जुलाई 2014, पृ. 242
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