गृह-त्याग/ कहानी
“किससे बात कर रही है…आस-पास तो कोई नहीं दिख रहा ….खुद से बात करना कब से सीख गई।”
‘अरे बरखा तू…..मैं सोची पूनम यहीं कहीं आस-पास है,
समोसा लाने को बोली थी…..ले आई।कहाँ है, उन्हें आवाज दे दो और फिर जाकर गरमा-गरम चाय बनाओ। मैं तब तक हाथ-मुंह धोकर आ
जाती हूँ।’
“आज उनका मूड ठीक नहीं है। जब से पांण्डे के घर से आई है
चुप-चाप अपने कमरे में पड़ी हुई है। मैं कई बार जाकर आवाज भी दी बाहर आकर बैठने को……मगर यह कहकर टाल दिया कि उनका तबियत ठीक नहीं
है।” ‘ऐसा क्या हुआ उनके घर। कुछ बोली नहीं।’
“नहीं।”
‘मैं देखती हूँ।’ यह कहकर दीपा थप-थप करती हुई पूनम के
कमरे की ओर चल पड़ी, जाकर देखी,
पूनम
पेट के बल लेटी हुई थी। धीरे से आवाज दी। ‘पुनम।’ आवाज सुनते ही
पूनम करवट लेते हुए दीपा को देखी। दीपा ने
पूछा ‘क्या हुआ समोसा मंगवा कर
भूख हड़ताल पर क्यों बैठ गई, आवाज दे दे कर थक गई….पांण्डे के यहाँ कुछ ज्यादा खा लिया क्या??? चलो बैठक में, बरखा चाय बनाने गई है, समोसा भी ठण्ढा हो जाएगा।
“मेरा तबियत ठीक
नहीं है।”
‘अचानक तबियत खराब…?
क्या परेशानी है?’
“अरे ऐसा कुछ नहीं,
सर में हल्का दर्द है, तुम दोनों खाओ में आ रही हूँ।”
‘तुम दोनों खाओ से
क्या मतलब? आज चार साल में कभी ऐसा
हुआ है कि हम में से कोई एक दूसरे को छोड़ कर अकेले खाए हों। उठो, बैठक में चलो। शायद चाय की चुसकी से राहत मिले।’
“नहीं दीपा तुम
जाओ, आज मन अच्छा नहीं लग रहा
है।”
‘आज मन अच्छा नहीं
लग रहा ये क्या बात है, ये मन तुम्हारा
अकेले का कैसे हो गया। जब से हम यहाँ आई हैं हमारा सुख और दुख अकेला का नहीं रहा।
हमारी होठों की हंसी पर हमारा अकेले का हक नहीं तो उदासी तुम्हारी अकेले की कैसे
हो गई। बताओ क्या हुआ?’
“कुछ नहीं, किताब के कुछ
पुराने पृष्ठ खुल गए। दीपा, कुछ पृष्ठ बड़े
दुखदाई होते हैं जो कभी-कभी फरफराते हुए आँखों के सामने बेवज़ह शब्दों का सामियाना
तान बैठते हैं। जिसके तले छांव की कोई गुंजाईश नहीं रहती। हाँ, दग्ध करने वाले कुछ शब्द सामियाने के फटे झरोखे
से हमारे तन-मन के आशियाने में अपना डेरा जरुर डाल देते हैं।”
पूनम
की बातों से दीपा स्तब्ध हो गई।आवेगिक हो बोली- आज चार साल में हमने कभी एक
दूसरे के दुख को नहीं टटोला। हम यह जानती हैं सुख की परिस्थिति में घर-परिवार का
त्याग संभव नहीं है। यही कारण है कि हम सदैव सुख के कारणों को ही टटोलते रहे और
ठहाके की हंसी में अपने दुखों को पीते रहे हैं। लेकिन आज मैं पूछती हूँ कि जीवन के
कौन से ऐसे पृष्ठ तुम्हारे सामने खुल गए जो तुम्हें पेट के बल सोने पर विवश कर
दिया।’
“पूनम मुस्कुराते हुए बोली- बस यही एक भय मुझे परेशान किए जा
रहा है कि कहीं एक और पूनम की सिसकी घुटन
में ना बदल जाए।”
‘पहेलियाँ क्यों
बुझा रही हो।’“सारी पहेलियाँ
खड़े-खड़े सुलझा लोगी,तुम चलो, मैं अभी आई।”
‘ठीक है, यह कहकर दीपा वहां से चल पड़ी।’
पूनम लेटे-लेटे एकटक उस पंखे को निहार रही
थी जो उसके आँखों के सामने अपनी तीव्र गति में चल रहा था। शायद कुछ ऐसे पृष्ठ उसके
सामने खुल गए थे जिसे वह फाड़ कर फेंक देना
चाहती थी। लेकिन यादों के झरोखों से कुछ स्मृतियाँ इस कदर जुड़ जाती कि लाख कोशिश
के बावजूद गाहे-बगाहे दिल पर दस्तक दे ही देती हैं। उसके दिमाग में अभी तक पाण्डे
की लड़की की सगाई का दृश्य घुम रहा था। वह बुदबुदा उठी- क्या फिर एक पूनम की घुटन अपने अन्दर ही घुट-घुट कर दम तोड़ देगी…क्या उसका स्वागत भी अपने घर में उसी तरह होगा
जिस प्रकार मेरा हुआ था….क्या उस घर में
उसका अपना कमरा होगा जहाँ वह चैन की नींद ले सके….क्या कार की अगली सीट पर अपने पति के बगल में उसका सीट मिल
पाएगा…या फिर वही बच्चों का
ताना सुन-सुन कर…….नहीं ऐसा नहीं
होना चाहिए। मैं रोकुँगी इस शादी को….उसके सपने को टुटने से मैं बचाऊँगी।एक मंगलसूत्र की इच्छा की थी। जिसको लेकर
उन्होंने बखेरा खड़ा कर दिया था। कितना चिल्लाए थे उस रात मुझ पर—‘क्या तुम्हारे मंगलसूत्र के लिए अपना सर फोड़
लूँ…. इन्सान को जितना मिलता है
उतने में खुश रहना चाहिए,” यह कहते ही अपने
सर को जोर-जोर से दीवार पर मारने लगे…मैं डर गई….रोती रही मगर
उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा। उस रात पहली बार मैं नींद की दवाई खाई जो अक्सर मेरे
जीवन का हिस्सा बन गया।
पंखे की गति के साथ उसकी स्मृतियाँ भी घुम
रही थी-“मैं सिन्दुर लगाना छोड़ दी
हूँ।” ….. ‘क्यों ?’…….. “हमारा रिश्ता यदि केवल शरीर तक है तो वह जीवन
भर कायम रहेगा। मैंने तुमसे प्यार किया और फिर पति के रूप में तुम्हारा वरण भी
किया। यह जरुरी नहीं की तुम भी मुझे उसी कदर प्यार करो जिस कदर मैंने किया। तुम
पत्नी का दर्जा मुझे नहीं दे सकते क्योंकि तुमने अपनी पत्नी को खोया है, ऐसे में उसके वादे को, कसमों को कैसे भूला सकते हो…..वो तो कभी-कभी मेरा औरतपन जागृत हो जाता है जिस वजह से तुम
पर पत्नी का हक दिखाने लगती हूँ। इसलिए समाज के नजर में हम हमेशा पति-पत्नी बने
रहेंगे।”
‘नहीं डारलिंग,
कल तुम्हें तुम्हारा हक मिलेगा। कल सुबह तैयार
हो जाना हम मंदिर…….।’
‘क्या हुआ नीचे
आने को बोल कर आई नहीं।’
पूनम फट से अपनी आँखे खोल दीपा को देखी और उठकर बैठ
गई।……. “अरे जा ही रही थी तबतक
तुम आ गई।” चलो चलो, यह कहते हुए वह अपने आँखों के कोने को मलने
लगी।
दीपा बोली- ‘पूनम ऐ उँगलियाँ
आँखों पर कितनी भी नाटक कर ले। मगर भिगी हुई पलकें अपनी कहानी होले से बोल ही देती
हैं। चलो।’
“कब से समोसा खाने का मन कर रहा था…..लाओ गरमा गरम चाय समोसे का आन्नद उठाया जाए। तभी पूनम की नज़र बरखा पर पड़ी जो अपलक उसे निहारे जा रही
थी। उसे टोकते हुए बोली- अरे ऐसे टुकुर-टुकुर काहे देख रही है रे छौरी….तू हंस काहे रही है।”
‘तुहार बनावटी हंसी पर हंस रही हूँ समझी…..अभी थोड़ा देर पहिले तो तोहार मन ठीक नाहीं था……हम इ सोचे रही बाजार जाई के एक आईसा ताला लाईब
और तोहार सुते वाला मन के ताला मार देइब…..।’
ये सुनते ही पीछे खड़ी दीपा जोर-जोर से
हंसने लगी। फिर क्या था तीनों हंसते हुए चाय का लुफ्त उठाने लगीं।
‘पाण्डे के घर से जो गाजा लाई है उ भी लाऊँ का…..।’ यह कहते ही बरखा गाजा लाने चल दी। चाय पीते वक्त दीपा पुछी‘पाण्डे की बेटी की शादी का तारीख कब का तय हुआ।’
“एक महीने बाद।”
‘लड़का को देखा,
कैसा है?’
“लड़का नहीं आया
था। वैसे भी एक बार लड़के को देख कर हम उसका चरित्रांकन कैसे कर सकते हैं?मुझे एक बात खटक रही है कि पाण्डे ने अपनी लड़की
के लिए दोआह लड़का क्यों देखा? सुना है उसके दो
बच्चे भी हैं।”
क्या? ‘दीपा चिल्लाई। प्यार-वार का कहीं चक्कर तो
नहीं।’
“पता नहीं।”
‘अच्छा तो आप पेट के भर सोए-सोए इसी पहेली को सुलझा रही थीं
जनाब। ठीक ही है, बच्चों को माँ
मिल जाएगी। लड़का भी अकेले यूँ ही कबतक रहेगा। एक साथी तो चाहिए।’
“बच्चों को माँ मिल जाएगी सही है लेकिन लड़की को पति मिलेगा,
मुझे संदेह है। एकबार पति धर्म को बखूबी निभाने
के बाद फिर दूसरे छवि के साथ पति धर्म का निर्वाह करना……खैर छोड़ो। बरखा गाजा लेने गई थी कहाँ रह गई।”
‘बरखा गाजे के साथ
पीछे खड़ी है, इतना
गाम्भीर्यपूर्ण बातों में थोड़ा कान लगा दी।’
बरखा प्लेट में सजे गाजा को आगे बढाते
आकस्मात पूछ बैठी—‘पूनम तुम ये क्यों नहीं सोचती कि लड़के को पत्नी
मिलेगी तो पति भी खुद-ब-खुद बन जाएगा, यहाँ संदेह की गुंजाईश ही कहा है। शादी जैसे पवित्र रस्म को निभाएगा तो पति के
रस्म को तो निभाना ही पड़ेगा।’
“रस्म को समाज ने बनाया है। दिल किसी रस्म को नहीं मानता।
रस्म को निभाना और उन रस्मों में जान भर देना दोनों में बहुत फर्क है।”
‘मगर जीने के लिए
साथी तो चाहिए, जो आप के आँसूओं
का भार बहन कर सके।’
“अच्छा तो साथी केवल आँसू के भार को बहन करने के लिए ही
जरूरी है, फिर खुशियों का भार कौन
उठाएगा??”
‘खुशी में वजन ही कहाँ होती है, वह तो व्यक्ति खुद उठा सकता है लेकिन…..।’बीच में ही दीपा टपक पड़ी— ‘अच्छा मोहतरमा आप
खुशियों को खुद गटकेंगी और दुखों का पुलिंदा किसी और के कंधे मढेंगी।’
‘दीपा हम तीनों यह बखूबी जानती हैं कि सुख की घड़ियाँ कितनी
छोटी होती हैं उसको उठाने के लिए कोई हो या न हो, फि़क्र ही कहाँ रहती है। मगर दुख की घड़ियाँ काटे नहीं कटती।
दुख छोटा हो या बड़ा दुख, दुख होता है।
उसको उठाने के लिए एक ऐसा हमसफर चहिए, दीपा जो उस की दुख की घड़ी की सुई को पलटने का हौसला बन सके। मगर वह हमसफर मेरे
हमसफर…..!’इतना कहना था कि बरखा
सुबक-सुबक कर रो पड़ी।
“पूनम ने उसके कंधों
को झकझोरा बरखा…….आज रिस्तों की
बात करके मैंने दुखती रग पर हाथ रख दिया।”
‘नहीं पुनम, रिस्ता तो वह
बेली है जो अपनी खुशबू के साथ फैलना जानती है महज की वह बेली विषाक्त न हो। वर्ना
उसके नीचे जो भी पेड़-पौधे होंगे उन्हें बढने का मौका नहीं मिलेगा और एक दिन ऐसा
आयेगा कि वे पौधे अपना दम तोड़ देंगे। मैं विषाक्त बेली के तले की वह पौधा हूँ
जिसने खुशबू की इच्छा की थी, मगर…….मेरा बेली तो दूसरे पौधों के गेंसुओं को सजाने
में ही लगा रहा। मेरे हिस्से तो केवल इन्तजारी था।…….मैं थक गई थी, उसे समझा कर की छोड़ दो इन सभी चीजों को…। मुझमें क्या कमी है, मैं तुम्हे वह सब कुछ देती हूँ जो एक पति अपनी पत्नी से
चाहता है। मगर एक नहीं सुनी थी उसने। मेरी बहुमूल्य रातें उसके इन्तजार में कट
जाती। वह जब घर आता तो तमतमाए चेहरे के साथ, जैसे पहाड़ उखाड़ कर आया हो। कभी किसी रोज घर में रात काटनी
पड़ती, उस रात चील की भाँति मेरे
शरीर को नोचता। मैं कराह उठती, मगर उसके कानों
तक मेरी कराह नहीं जाती। वह नोचते रहता।असहनीय पीड़ा मुझे बेहोशी के आलम में पटक
देती। तुमने ठीक कहा पूनम सात फेरे ले
लेने भर से पति-पत्नी के रिस्ते सार्थक नहीं होते, जबतक कि उन रिस्तों में प्यार की भीनी खुशबू न हो। वर्ना
प्यार के बगैर तो पति शब्द गाली का पर्याय मात्र है। यदि हमसफर ही दुख का कारण बन
जाए तो सुख की टोह हम कहाँ करें? ऊपर से हम
अभिशापित नारी, पर पुरुष के हँसी
के साथ हमारी हँसी मिले तो बदचलन रूपी शब्द हमारे मत्थे गढ दिए जाएंगे।’
दीपा भरे कंठ से उसे झिरकते हुए बोली- ‘पहली बात हम महिलाएं अभिशापित नहीं है और न ही
बदचलन। पुरुष के सदृष्य ही हमारे पास भी एक मन है और उस मन पर हमारी पूर्ण स्वतन्त्रता
है। हमारा यह शरीर भी हाड़-माँस से निर्मित है और इस हाड़-माँस से बने शरीर में
इच्छा न हो यह असम्भव है। तब यह तय है कि हमारे शरीर में प्राण के रहते उन पुरुषों
की तरह हमारी इच्छाएं भी जागृत होंगी। यह हमारे ऊपर है कि या तो हम उसका दमन कर
दें अथवा नई राह का चयन करें या उन्मुक्त छोड़ बाजार की वस्तु बन जाएं। मगर बाजार
की वस्तु बनने से पहले हमें दस बार यह सोच लेना होगा की कहीं हम भोग की वस्तु न बन
जाए। मगर इच्छाओं को मारना बहुत कष्टकर है, बरखा, बहुत कष्टकर।’
लाख कोशिश के बावजूद भी दीपा अपनी आँसुओं
को नहीं रोक पाई। पूनम हाथ में चाय का
प्याला पकड़े नम आँखों से उनको देखे जा रही थी। वह मन ही मन बुदबुदाई- “समाज औरत की कराह को कब महसूस करेगा? क्या उस दिन जब औरत अपने औरतपन का त्याग कर,
सामाजिक परिवंचनाओं को अंगुठा दिखाते हुए,
बाल-बच्चों एवं पारिवारिक बन्धनों को तोड़ स्वच्छंद हो जाएगी? यदि ऐसा हुआ तो उस दिन समाज का परिदृश्य कैसा
होगा? रिस्तों की कोई कद्र नहीं
रह जाएगी। आए दिन रिस्ते अपना दम तोड़ते रहेंगे। ‘तू ना सही और सही’ बाली बात अपने सार्थकता को प्राप्त करेगी। कितना घिनौना होगा वह समाज। इस पर
विचार करना सामाजिक हित के लिए अनिवार्य है। वर्ना आनेवाली पीढी के लिए पति-पत्नी
और परिवार के रिस्ते बेबुनियाद साबित होंगे। काश! तुमन मेरी इच्छाओं का कद्र किये
होते तो, आज हमें एकान्तवास न
भोगना पड़ता। तुम कहते हो हम दोनों एक दूसरे को समझ नहीं पाए। शादद तुम सत्य कहते
हो। मगर यह भी सत्य है कि तुमने मेरे भीतर झांकने की कोशिश ही न की। या यूँ कहे कि
जान बूझ कर अन्जान बने रहे, क्योंकि तुम्हारे
जीवन की प्राथमिकता तुम्हारे बच्चे थे। यही कारण है कि तुमने मुझसे शादी अवश्य की,
लेकिन पत्नी का दर्जा नहीं दे पाए। बच्चों को
लेकर तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं था। एक पत्नी की भाँति तुम मुझसे अपने घर-परीवार
की कोई बात साझा नहीं करते। मैं बार-बार कहती कि तुम मुझसे हर बात साझा क्यों नहीं
करते। वे तुनक कर बोल पड़ते हर बात बताना जरुरी नहीं है। मैं उन्हें कहती मुझपर
विश्वास करो, मैं बच्चों के
साथ कभी अन्याय नहीं कर सकती। वे बार-बार एक ही बात दुहराते- यदि तुम वच्चों के
साथ अन्याय करती तो मैं तुम्हारे पास आता हीं नहीं। ‘आता ही नहीं’ का अर्थ मैं समझ नहीं पाती। किसके पास नहीं आते, एक पत्नी के पास या…..? उनके मुख से दशन बार यह कथन सुन कर मैं पक चुकी थी। एक दिन
मैंने भी पलट कर कहा- तो मैं अपके पास क्यों जाऊँ। आप तो बार-बार मेरे साथ अन्याय
करते हैँ। तुम्हारी बच्चियों कि गलती तुम्हें नज़र नहीं आती। बोलो तो कान पर जूँ तक
नहीं रेंगता। तुमने भी तो बार-बार मेरी बेटी के साथ अन्याय किया है। पास आकर भी
उसका जन्मदिन मनाए बगैर तुम उसे एक चोकलेट तक नहीं दिए और चले गए। तुमने ये सोचा
ही नहीं की इसका मुझपर क्या असर होगा। तुम सोच भी नहीं सकते थे क्योंकि तुम्हारी
दुनिया अपने बच्चों तक ही सिमटा हुआ था। यदि मैं ऐसा करती तो क्या तुम मुझे माफ
करते? पहली बात मैं ऐसा कर ही
नहीं सकती थी। दूसरे जन्मदिन पर भी तुमने वैसा ही किया, आए किन्तु एक चोकलेट तक तुम उसे नहीं दिए और मैं नालायक
तुम्हारी राह देखती रही कि तुम जो करोगे वही होगा। कभी पत्नी का दर्जा नहीं दिए।
तभी तो तुमने कहा था- जा रहा हूँ अपने नाम से एक करोड़ का जीवन बीमा करवाने। काश!
उस क्षण के दर्द को महसूस कर पाते। बहुत प्यार करती थी तुम्हें, बेहद…..।”
क्या हुआ
पूनम कहां खो गई और तुम्हारी आँखों में…..।’
“कुछ नहीं,
इन आँखों में सैलाब है बह जाने दो।”
दीपा पुनः बरखा
से पुछी- ‘इतना होने के बाद भी उस
नर-पीशाच को तुमने सजा नहीं दी?’
‘सजा….तीन साल के उपरान्त कानुनी रूप से हम दोनों अलग
हो गए। मैं अपने बच्चे अमन को लेकर मायके चली आई।’
‘लड़का’ फिर तुम यहाँ………?’
‘हाँ दीपा, लड़का। मैं उस
पिशाच से दूर होकर अपने बेटे अमन के साथ खुश थी।’ बरखा कुछ बोलना चाह रही थी कि पूनम बीच में टोकते हुए बोली “एक बात पुछू बरखा, उससे अलग होने के बाद तुमको अकेलेपन का अनुभव नहीं हुआ….क्या तब तुम्हारे अन्दर एक हमसफर की इच्छा नहीं पनपी?”
‘नहीं पुनम, उस वक्त रात-दिन
का मुझे ख्याल कहाँ रहा। मैं जब स्कूल जाती तो मेरी भाभी उसकी देख भाल करती। जैसे
ही मैं स्कूल से आती उसे छाती से लगा लेती और उस वक्त सही मानों जहां की सारी खुशियां मेरे कदमों में लोट जाती।
मेरे सपनों की धुरी अमन था। उसके बढते कदम मुझे शक्ति देती।वह मेरी तपस्या का
मंत्र बन चुका था। उसके डॉक्टर बनने का इन्तजार था। मेरी तपस्या पुरी हुई पुनम,
जिस दिन मेरा अमन डॉक्टर का सर्टिफिकेट लाकर
मुझे दिया था। उस दिन उसे पकड़ कर मैं फूट-फूट कर रोई थी, तब मेरे अमन ने मेरी आँसू पोछते हुए बोला था- मां अब तेरे
आँखों में मैं आँसू देखना नहीं चहता। मैं बहुत खुश थी। समय बितते गए। अमन की शादी
बड़ी धूम-धाम से हुई। बहू भी डॉ. थी। धीरे-धीरे उनका परीवार बढता गया। मुझसे फासले
बनते गए। मैं केयरटेकर बन गई। स्कूल से आने के बाद बच्चों में लगना पड़ता। थोड़ी सी
लापरवाही भी मेरे लिए आफत बन जाती। अमन के पास भी मेरे लिए समय नहीं रहा। मुझे
अनुभव हुआ कि इस घर में मैं, अब स्पेयर पार्ट
हूँ। फिर भी समय तो काटने थे। कहाँ जाती। बच्चे खुश रहें, यही मेरे लिए पर्याप्त था। एक शाम घर में पार्टी चल रही थी।
अचानक मुन्ना के रोने की आवाज सुनाई पड़ी। मैं अपने आप को रोक नहीं सकी। वहाँ जा कर
देखी तो मुन्ना की ऊँगली से खून टपक रहा था। क्या हुआ बोल कर मुन्ना को उठाने के
लिए हाथ बढाई तभी बहू ने जोर से मेरी हाथ पकड़ कर झटक दिया। मैं स्तब्ध रह गई। वह
मुझ पर जोर-जोर से चिल्लाने लगी- ‘दिन भर कोने में
पड़ी रहती हैं, एक बच्चा नहीं
सम्भाला जाता। बच्चों के घर में कौन सा समान कहाँ रखना है क्या यह भी तहज़ीब नहीं
है आपको। नाखुन काट कर ब्लेड क्या इधर-उधर रख देते हैँ।’ मैं बूत बनकर चुपचाप खड़ी रही। थोड़ी देर बाद मैं अपने कमरे
में चली आई। सोचने लगी मेरी तपस्या में कहाँ चुक रह गई थी। बहू के चिल्लाने का
उतना दुख मुझे नहीं था जितना दुख अमन के ये कहने से हुआ कि ‘छोड़ो मां का दिमाग अब काम नहीं करता।’ बहुत कष्ट हुआ था। उसी रात बिना किसी को कुछ
बोले मैं घर से निकल पड़ी।
चाय खत्म हो चुका था। उस बैठक में अजीब सी
खामोशी छा गई थी। पूनम ने कहा “जिस खामोशी को पीछे छोड़ हम बाहर निकल आई हैं
फिर उसे ओढने के फिराक में क्यों हैं।”
दीपा ने पुछा ‘तुम छोड़ पाई हो पुनम? चलो क्यों ना हम तीनों अपने दुख का दरिया को इस कदर बहा दें
कि सैलाब आ जाए। फिर वह पुनः हमारी ओर मुरने की जुर्रत न करे।’
पुनम- “देखना उस सैलाब में कोई बह ना जाए।”दीपा- ‘बहने से डर लग रहा है। हमारी छह हाथों में क्या इतनी ताकत नहीं है जो हम
एक-दूसरे को बहने से बचा सके।’
बरखा- ‘तो काहे ना शुरुआत तोही से करते हैं। तू तो
यहाँ बहुत सालन से हो। तोहार घर इहें था का। फिर अकेले……..!’
‘अकेले !!!मेरी
तन्हाई, मेरी यादें मेरे अंग-संग
रही।’
पुनम- “कौन सी यादें मीठी या तीखी?”
‘मीठी यादें तनहाई में कहां ढकेलती हैं पुनम। वह तो रातों को
गुदगुदाती हैं। दिन में उमंगे भरती हैं जिसकी तरंगे हमारे जीवन को गति प्रदान करती
हैं। जलाती तो तीखी यादें हैं जो भरी महफिल में भी तनहा बनाने का जुल्म करती हैं।
ऐसी यादें नासुर हैं नासुर, जो शनैः शनैः
तन-मन को खोखला बना देती हैं। दीपा के रूप में तुम्हारे सामने वह विधवा खड़ी है
जिसकी वादियों में मात्र दस महीने ही गुलशन ने अपना रंग बिखेरा और एक रात तुफान ने
मेरे हरे भरे गुलशन को तबाह कर दिया। उजार गया मेरा गुलशन। फिर शुरू हुआ सामाजिक
रीति-नीति। न जाने मेरे घने बालों ने क्या बिगारा था। पहला प्रहार उसपर किया गया।
मेरे रंग-बिरंगे कपड़े सफेदी में तब्दील हो गए। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि भंयकर पतझड़
ने मेरे जीवन में स्थाई डेरा डाल दिया हो। मैं अकेले रातभर सुबकती रहती, मगर मेरे आँसूओं को थामने वाला गुलशन की डाल
नहीं थी। मेरे लाख मना करने के बावजूद महीने भर बाद मुझे विधवा-आश्रम में भेज दिया
गया। वहां मेरे जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। मैं अपने कमरे में लेटी थी।
तभी मुझे कुछ लोगों की फुसफुसाट सुनाई पड़ी। खिड़की से झांकी तो मैंने देखा की कुछ
हट्ठे-कट्ठे पुरुष अम्मा जी ( उस आश्रम की मुखिया थी) से बाते कर रहे थे। मुझे लगा
किसी काम से इनका आना जाना होगा। मैं अपने विस्तर पर लौट आई। थोड़ी देर बाद मेरे
कमरे का दरवाजा खटखटाया गया। मैं खोल कर बाहर आई। अम्मा जी मेरे हाथ में एक साड़ी
देते हुए बोली इसे पहन लो बाहर जाना है।
मैंने पूछा ‘इतनी रात को?’ उत्तर आया, ‘हाँ।’ मैं फिर पूछी ‘क्या ये रंगीन साड़ी मैं पहन सकती हूँ।’ अम्मा जी बोली ‘रात के अंधेरे में तुम्हें कौन देखने वाला है तुम क्या पहनी
हो क्या नहीं।’ मेरा माथा ठनका,
पूछ बैठी ‘जाना कहां है।’ वह गुर्राते हुए बोली, ‘चुपचाप तैयार हो
जाओ, ये मुसडंडे तुम्हें जगह
पर ले जाएंगे। दाम भी अच्छा मिलेगा। आखिर आश्रम चलाने के लिए पैसे तो चाहिए ही।’
यह सुनकर मैं बौखला गई- “यह कैसा ढोंग है आप लोंगो का। सफेद लिबास में
काली करतूत। छेः।” यह कहना था कि
अम्मा जी कही जाने वाली वह औरत जोर की एक थप्पर
मेरे गालों पर जड़ दी। मुझ पर पागलपन सवार हो गया। मैं चिल्लाने लगी- “औरत के नाम पर कलंक हो। दलाल हो दलाल। फिर दिन
के उजाले में यह पवित्रता का ढोंग क्यों। हिम्मत है तो दिन के उजाले में खुले
बाजार में अपने को परोस कर दिखाओ। ओहो, दिन के उजाले में तुम्हारी करतूत जो दुनिया के सामने आ जाएगी। सफेद साड़ी
दाग-दाग हो जाएगा। नकाबपोश कहीं की। मेरी बात आज कान खोल कर सुन लो अम्मा जी। आज
तक तुम जिस्म का बाज़ार चलाते रही हो। मगर अब नहीं। मेरे साथ तो कतई नहीं।” वह जोर-जोर से हंसते हुए बोली- ‘क्या कर लोगी? देख रही है ये सब जो तुम्हारे सामने खड़ी हैं, शुरु-शुरु में इनका रवइया भी तुम्हारी तरह ही
था। लेकिन ये सब ठंडी पड़ गई हैं। एक दिन तुम भी ठंड पड़ जाओगी।’ मैं तमतमाते हुए अपने विस्तर पर चली आई। अपनी
किस्मत पर रात भर सुबकती रही। सुबह उठने पर वहां रह रही औरते मेरे समीप आकर समझाने
लगीं।
‘तू क्रोधित क्यों होती है। यदि हम औरतों के भाग्य में सुख
होता तो हम विधवा क्यों होतीं ? जैसा जीवन मिला
है उसे स्वीकारने में ही हमारी भलाई है।’
“भलाई’, देह-व्यापार को
भलाई कहती हो? हमारा देह कोई
वस्तु नहीं जो व्यापार का साधन बने। रही बात हमारे विधवा होने की तो जन्म और
मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है। पति मर गया तो इसका दोषी तुम या हम कैसे हुए?
पति के मरते ही जुल्मों का सिलसिला शुरु हो
जाता है। जैसे कि उसकी मृत्यु का कारण हम हो। कोई यह तक नहीं पूछता की हम पर क्या
गुजर रही है। पूछना तो दूर अपने ही घर से अछूतों की तरह निस्कासित…..?मैं पूछती हूँ यह सारी क्रियाएँ पुरुषों पर
क्यों नहीं घटित होती हैं?”
उन्हीं के बीच से एक औरत बोली- ‘क्योंकि वह पुरुष के रुप में इस धरती पर जन्म
ग्रहण किया है। जो जन्म से ही पवित्र होता है। उसे तुम अछूत की व्याख्या से
व्याख्यित नहीं कर सकती। वह लाख कुकर्म करले,लेकिन तुम उन्हें दोषी करार नहीं कर सकती। क्योंकि वह सब
उसका जन्म सिद्ध अधिकार है। इसलिए पत्नी के मरने के उपरान्त उसका निष्कासन संभव नहीं है। यही कारण है कि समाज ने विधवा
औरतों के लिए सैकड़ों विधवा आश्रम का निर्माण करवा दिया किन्तु विधुर पुरुष के लिए
विधुर आश्रम की कल्पना समाज ने कभी नहीं की। जानती हो क्यों, क्योंकि पुरुष को सदैव खुश रहने का अधिकार है।’
मुझे उस वक्त ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे सामने
कोई साधवी बड़े ही शान्त भाव से प्रवचन दे रही हो। मैं उसका रुख कर बोली- “मैं तुमसे यह जानना चाहती हूँ कि पुरुष यदि
पवित्र ही जन्म लेता है तो उसी कोख से जन्मी औरत अपवित्र कैसे बन जाती है? मैं समझती हूँ स्त्री को अपवित्र शब्द से
नवाज़ने में जितना दोष पुरुषों का है उससे कहीं ज्यादा दोष अम्मा जी जैसी औरतों का
भी है। मैं इसके खिलाफ आवाज उठाऊँगी। अपने शरीर को व्यापार का केन्द्र नहीं बनने
दुंगी। यदि तुम लोगों को मेरा साथ देना है तो ठीक है वर्ना….।’’
तभी अम्मा जी की करकराती आवाज़ आई- ‘क्या पाठ पढा रही है इन्हें। मैं भी सुनना
चाहती हूँ तेरी आवाज़ कहाँ तक पहुंचती है।’उस दिन के बाद से कड़े पहरे के साथ ही मुझ पर नाना तरह के अत्याचार होने लगे।
लेकिन इस अत्याचार के बावजूद मैं अपने भीतर की ज्वाला को मद्धिम होने नहीं दी।
मुझे कैसे भी इस जाल से बाहर निकलना था, सो एक दिन मौका मिलते ही मैं वहां से भाग निकली। थाने पहुँच कर रिपोर्ट
लिखवायी। दूसरे दिन पता लगा कर एक नामी वकील के पास गई। क्योंकि मैंने वकालत की
पढाई पुरी की थी, सो उन्हीं के
अधीन मैं प्रेक्टिस करने लगी। और वहीं से शुरु हुई महिलाओं की पक्ष की लड़ाई। इस
लड़ाई में वकील साहब ने मेरी पुरी मदद की।
पुनम- उस
विधवाश्रम का क्या हुआ?
दीपा- जबतक स्वयं
औरत अपने हक की लड़ाई नहीं लड़ेगी, तबतक समाज में
औरतों का दमन होते रहेगा। उस आश्रम से केवल ललिता (जिसने प्रवचन दिया था) ही उबर
पाई। क्योंकि उसमें समाजिक विद्रूपरपताओं से लड़ने का हौसला था।
बरखा- जानती है
दीपा सामाजिक विद्रूपताओं से लड़ते-लड़ते बहुत सारी महिलाएँ फिर उन्हीं विद्रूपताओं
का खिलौना बन जाती हैं। एक से मुक्ति पाकर फिर दूसरे के बाहों में बिक जाना यह
हमारी जीत नहीं है।
पुनम- यह लड़ाई
हमारी हार-जीत की नहीं है। हमारे सम्मान की है। हमें किससे जीतना है, पुरुष से? नहीं। रुढ़िवादी समाज से। रूढ़ परम्पराओं से। जो परम्पराएँ
केवल स्त्री के लिए बनाई गई, उन्हें खत्म करना
है। वर्ना स्त्री और पुरुष के बगैर यह सृष्टि चलेगी कैसे?
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। दीपा उठकर बाहर
आई। कोई केश-ओश का मामला था दीपा उसे सलटाने में लग गई। बरखा मौन खिड़की के बाहर
अपलक निहारते हुए मानों किसी गुत्थी को सुलझा रही थी।पूनम टोकते हुए बोली- “का सुलझा रही है।”
‘अरे पूनम कछू नाही।
उ सोच रही थी कि ई दुनिया इन्द्रधनुषी है। काहू के पल्ले हरा रंग पड़ा तो काहू के
पल्ले सफेद, तो काहू के काला।
चलो ई ठीक हुआ कि हमन अपने रंग को ही धो डाला। कउनों रंग की जरुरत नाही है हमें।’
“अरे रे इ का बोल रही हो, बगैर रंग का जीवन होता है का। हमने तो एक नए रंग को ओढा है
जिसमें हरियाली भी है, ललाई भी, सफेदी भी है, गुलाबी भी। बिल्कुल नया रंग। हमारी यह नयी दुनिया सभी रंगों
का समिश्रण है। चलो थोड़ा अराम कर लें।”
पूनम
बरखा को वहीं छोड़ अपने कमरे में आकर लेट गई। आज सालों बाद उसे बैचेनी हो
रही थी। मिनट नही बीते थे कि बरखा पूनम के
कमरे में आते हुए बोली- ‘तुम तो बड़ी ओ हो
जी, हमें कही कि चलो अराम
करते हैं और खुद अकेले आकर सो गई।’
“तुम ख्यालों में खोई थी, हमने सोचा थोड़ी देर खोई रहो।”
‘अच्छा महारानी।
खैर! मज़ाक छोड़ा, ई बताओ इतनी
गुमसुम काहे हो।’
“गुमसुम कहां,
थोड़ी बैचेनी हो रही है।”
‘बैचेनी के कारण?’
‘कारण पाण्डे की
बेटी’- पीछे खड़ी दीपा बात को आगे
बढाते हुए बोली।
‘वकीलाईन की पकड़
जबरदस्त है’- बरखा मुस्कुराइ।
दीपा- ‘पूनम
हम तीनों ने एक मज़बूत अत्मविश्वास के साथ इस जीवन को स्वीकारा है। ऐसे में
अतीत के दोराहे पर खड़े हो हम बैचेन क्यों हो?’
“आज मेरी बैचेनी
का कारण मेरा अतीत नहीं है दीपा वरन् पाण्डे की बेटी है। मैं यह मानती हूँ कि
दूसरी शादी या दोवाह पुरुष से शादी अभिशाप नहीं है। आए दिन हमारे समाज में ऐसी
शादियाँ हो रही हैं और सफल भी हैं। मगर मैं सोचती हूँ यदि उसके बच्चे उसे स्वीकार
नहीं किए तो? यदि वह लड़का
जिसके साथ पाण्डे की लड़की की शादी होनी है वह उसके दर्द को नहीं समझा तो? ऐसे में फिर एक परिवार टूटेगा और परिवार के
टूटने का दर्द हमसे अच्छा कौन जान सकता है। प्रेमी-प्रेमिका के प्यार और पति-पत्नी
के प्यार में बड़ा फर्क होता है। पति-पत्नी के बीच प्यार भरा विश्वास का होना बहुत
जरुरी है। जिस किसी रिस्ते में विश्वास न हो वह कभी भी धरासाही हो सकता है।”
बरखा- ‘धीरे-धीरे पुरुषों को चेत होगा। प्यार के माइने
अवश्य बदलेंगे। वर्ना जो तुमने थोड़ी देर पहले कही थी उस चलन को पचाने के लिए समाज
को तैयार होना होगा।’
दीपा- ‘सोलह आने सत्य कही। समाज बदलेगा। और इस बदलाव
में हम अकेले नहीं होगीं, हमारे साथ वह
वृहत पुरुष समाज भी होगा जो इस बदलाव में हमारे कदम-से-कदम मिला कर आगे बढेगा।’
डॉ. पुष्पा सिंह
मार्घेरिटा कॉलेज, असम
मार्घेरिटा कॉलेज, असम
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
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