‘अकाल-दर्शन’ में ‘क्रांति-दर्शन’ की खोज
धूमिल वामपंथी धारा के कवि हैंI वामपंथी
धारा के कवियों की कविताओं में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से क्रांति की संभावनाओं
की तलाश एक मुख्य विषय की तरह हैI क्रांति की धारणा को लेकर
हरेक वामपंथी कवि के स्वर भिन्न हैंI कुछ कवियों ने क्रांति
की धारणा को सीधे राजनीतिक नारे के रूप में प्रस्तुत की हैI
इनकी कविताओं में क्रांति की धारणा की कलात्मक प्रस्तुति न होकर सिर्फ राजनीतिक
प्रस्तुति हैI लेकिन वामपंथी कवियों का एक वर्ग ऐसा भी है, जिन्होंने सामाजिक-राजनीतिक
परिस्थितियों को अपने काव्य का विषय बनाते हुए वामपंथी विचारधारा की गहरी कलात्मक
प्रस्तुति की हैI मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन जैसे कवियों का काव्य
इसका सुन्दर उदाहरण हैंI धूमिल की कविताओं को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिएI जनता और जनता की चेतना के बिना किसी भी क्रांति या क्रांति की सम्भावना
की खोज नहीं की जा सकतीI सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक और
आर्थिक समस्याओं की कलात्मक प्रस्तुति के माध्यम से
जनता के भीतर क्रांति की संभावना की खोज वामपंथी कवियों का प्रिय विषय रहा हैI जनचेतना संबंधी दृष्टि में धूमिल और अन्य वामपंथी कवियों के बीच एक
मूलभूत अंतर हैI अन्य कवि जहाँ जनता में अगाध विश्वास प्रकट
करते हैं, वहीं धूमिल इस सन्दर्भ में
द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैंI इसी वजह से कुछ आलोचकों के बीच
धूमिल के बारे में यह धारणा बन गई है कि वे ‘जनता को हिकारत के भाव से
देखते हैं’I जबकि ऐसा कहना या मानना
धूमिल के काव्य को एकांगी दृष्टिकोण से देखना हैI दरअसल धूमिल का प्रहार उस
व्यवस्था पर है, जिसने जनता को ‘पशु’, ‘गूंगा’, ‘बेहया’ या ‘तटस्थ’ बना रखा हैI धूमिल के
काव्य का उद्देश्य सत्ता के ‘हिजेमनी’ यानि ‘प्रभुत्व’ के उन तंतुओं की तलाश है, जिसके कारण जनता शोषित-पीड़ित
होते हुए भी क्रांति के लिए तैयार नहीं हैI ‘अकाल-दर्शन’ का ‘चालाक आदमी’ इसी ‘हिजेमनी’ का प्रतीक हैI वास्तव में वीभत्स हो रही
परिस्थितियों के वावजूद भी जनता किन कारणों से व्यवस्था के खिलाफ पूरी तरह खड़ी
नहीं हो रही है? यह प्रश्न धूमिल की कविता का
केंद्र-बिंदु हैI धूमिल जनता से नहीं बल्कि व्यवस्था से क्षुब्ध हैंI
जिसने जनता को ‘असंग’, ‘तटस्थ’, ‘बेहया’ या ‘गूंगा’ बना के रखा हैI धूमिल की चिंता है कि कैसे
जनता के इस ‘अलगाव’ या ‘एलिएनेशन’ को तोड़ा जाएI ‘अकाल-दर्शन’ की संरचना सत्ता की ‘हिजेमनी’ और जनता के ‘एलिएनेशन’ के द्वन्द्व से निर्मित हैI ‘हिजेमनी’ और ‘एलिएनेशन’ को तोड़ने का मुख्य हथियार
व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाना हैI इसी से किसी भी सत्ता की
असलियत को प्रकट किया जा सकता हैIइसी कारण ‘अकाल-दर्शन’ कविता रचना ‘प्रश्न’ और ‘आश्चर्य’ की शैली में की गई हैI कविता की शुरुआत ही प्रश्न से है –“भूख कौन उपजाता है :”I इस प्रश्न के माध्यम से ही
कविता आगे बढ़ती हैI कवि व्यवस्था से जानना चाहता है कि आखिर इस अकाल की वजह क्या है? ‘चालाक आदमी’ इस कविता में व्यवस्था का
प्रतीक है और उसके पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं हैI सत्ता अपना
प्रभुत्व समस्या की मूल वजह से ध्यान हटा कर कायम रखती हैI ‘संसद से सड़क तक’ कविता संग्रह का प्रकाशन काल 1972 ई० हैI उस समय कुछ दिनों पहले ही इंदिरा गाँधी की कांग्रेस सरकार ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ आई थी और ‘जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम’ भी शुरू हो गया थाI
भारत-पाकिस्तान के बीच बांग्लादेश युद्ध समाप्त हुआ थाIगरीबी, अकाल, भूखमरी जैसी समस्याओं का
कारण बढ़ती हुई जनसंख्या और युद्ध को बताया जा रहा थाI अर्थात्
देश की समस्यायों के लिए सरकार या व्यवस्था नहीं बल्कि स्वयं आम लोग
या प्रकृति इसके लिए जिम्मेदार हैंI ‘युद्ध’ या ‘अकाल’ व्यवस्थाजनित नहीं बल्कि प्रकृति-जनित हैंI सरकार या
व्यवस्था का इसमें कोई दोष नहींI धूमिल इसी सोच पर प्रहार
करते हैंI सत्ता के सम्मुख तार्किक प्रश्न खड़ा करते हैंI लेकिन व्यवस्था का प्रतीक ‘चालाक आदमी’ कवि के प्रश्न का उत्तर देने
की बजाय –
उसने गलियों और सड़कों और
घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगाI
व्यवस्था इतनी चालाक है कि वो दोनों तरह की बात
कहने में माहिर हैI एक ओर यह व्यवस्था भूख को जन्म देती हैI ऐसी
परिस्थितियाँ पैदा करती हैं कि बेकारी बढ़े,जनसंख्या बढ़े क्योंकि इसी में उनका लाभ हैI दूसरी ओर
एनजीओ या योजनाओं आदि के माध्यम से एहसान की तरह थोड़ी से मदद करके व्यवस्था अपने
प्रति क्रोध को कम करता है –
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
‘जनता के हित में’ स्थानान्तरित
हो गया
व्यवस्था हमेशा इन समस्याओं की मूल वजह को
उजागर होने से रोकती हैI ‘हिजेमनी’ इसी तरह कायम रहती है जहाँ
जनता को हमेशा यह लगते रहे कि व्यवस्था जरुर उनके लिए कुछ न कुछ कर रही हैI अर्थात्
जनता को यह लगना चाहिए कि वर्तमान सत्ता उनकी हितैषी हैIवास्तव
में सत्ता को कायम रखने के दो औजार हैं एक ‘सहमति’ से और दूसरा ‘दमन’ सेI कोई भी
सत्ता दूसरे औजार की जगह पहले को ही आजमाना चाहती हैI यह
सत्ता को कायम रखने का सबसे सहज रास्ता हैI इस सहजता को अगर
कोई तोड़ सकता है तो वह बुद्धिजीवी वर्ग हैI सत्ता के तर्कों को अपने तर्कों से बेनकाब करके और इसके लिए सत्ता से
अधिक तार्किक और सरल भाषा की आवश्यकता होती हैIसत्ता को ऐसे
ही बुद्धिजीवियों से खतरा होता हैI इस कविता का कवि ऐसा ही
बुद्धिजीवी है जो व्यवस्था की असलियत हो समझ गया है –
और सहसा मैंने पाया कि मैं ख़ुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गाँधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा हैI
‘यह आज़ादी झूठी है, देश की जनता भूखी है’ नारे की कव्यात्मक व्याख्या
का इससे सुन्दर उदाहरण शायद ही किसी वामपंथी कवि के यहाँ मिलेI कवि
व्यवस्था की उस भाषा को समझ गया है जो तथाकथित ‘राष्ट्रहित’ के आवरण में शोषण के तंत्र
को संचालित कर रहा हैI यहाँ ‘गाँधी’ शब्द का उपयोग नेहरु परिवार के शासन का प्रतीक
हैI‘वंशवाद’ और कोरे ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर चल रही सत्ता की
असलियत कवि तो समझ गया लेकिन वो जनता नहीं समझ रही जो अकाल और भूख से मर रही है –
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैI
कवि की चिंता यहीं शुरू होती है कि इन वीभत्स
परिस्थितियों के बावजूद जनता में व्यवस्था परिवर्तन के लिए कोई सुगबुगाहट नहीं हैI उन्हें सब
कुछ सामान्य लग रहा है –
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और अकाल को सोहर की तरह गा
रहे हैंI
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं हैI’
कवि चाहता है कि लोगों के भीतर व्यवस्था के
प्रति विद्रोह का भाव उत्पन्न हो लेकिन परिस्थितियों ने जनता को ऐसा बना दिया है
कि वे भी असली तथ्य के बारे में सुनना या जानना नहीं चाहतेI अंधे ‘राष्ट्रवाद’ के कारण उन्हें संभवतः सत्ता
विरोध, राष्ट्र विरोध के रूप में
दिख रहा हैI ‘राष्ट्रवाद’ ऐसा हथियार है जिससे कोई भी
व्यवस्था अपने शोषण को सही बताती है और अपने हित को राष्ट्रहित के रूप में
प्रस्तुत करती हैI जिस समय यह कविता लिखी गयी थीIवह दौर
भारत-पाकिस्तान युद्ध का समय था और इंदिरा गाँधी ‘दुर्गा’ के रूप में देश बचा रहीं थीI दरअसल जनता
अपने ही समस्याओं से ‘अलगाव बोध’ में थीI कवि उन्हें समझाने की कोशिश
करता है पर वहाँ हर तर्क के ऊपर ‘राष्ट्रवाद’ का तर्क भारी है –
मैंने जब भी उनसे कहा है देश शासन और राशन
उन्होंने मुझे टोक दिया हैI
अक्सर, वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैंI
जिनका आधे से ज्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते
हैं –
‘भारतवर्ष नदियों का देश हैI
कवि यहाँ पूरे राष्ट्र को एक जंगल का प्रतीक
मानते हुए इसे भेड़ियों का साम्राज्य कहता हैI उसकी चिंता यह है कि जो लोग इस
जंगलरूपी राष्ट्र में शोषित-पीड़ित हैं, वही इसकी प्रशंसा कर रहे हैंI इसका कारण
सत्ता की ‘हिजेमनी’ है जो इन्हें सत्ता की
असलियत समझने नहीं देता –
मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझतेI
अनाज में छिपे ‘उस आदमी’ की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
कभी ‘गाय’ से
और कभी ‘हाय’ से
‘गिज़ा’ का अर्थ यहाँ भोजन या खुराक
से हैIकवि के लिए यह विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि लोग सत्ता की असलियत नहीं समझ
रहे हैं जबकि पूरी सत्ता जनता के शोषण से संचालित हैI यह
सत्ता कभी धर्म से तो कभी डर के माध्यम से लोगों का शोषण कर रही हैI यहाँ ‘गाय’ हिन्दू राष्ट्रवाद या
साम्प्रदायिक विभाजन
का प्रतीक हैI ‘हाय’ यहाँ देश के ऊपर खतरे का प्रतीक हैI अर्थात्
व्यवस्था कभी बाहरी तो कभी भीतरी काल्पनिक खतरों का भय दिखाकर अपने तंत्र को
बरकरार रखे हुए हैI कवि जनता को इस तथाकथित प्रजातांत्रिक
व्यवस्था की गैरबराबरी को सरल शब्दों में समझाने का प्रयास करता है –
वह कौन-सा प्रजातांत्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरे पड़ोस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है
कवि जीवन के अंतरंग अनुभवों से व्यवस्था की
असलियत को रखता हैI यहाँ नारी सौन्दर्य के माध्यम से सत्ता की
कुरूपता को सामने रखा गया हैI परन्तु सत्ता का तिलिस्म तोड़ना
कोई आसान कार्य नहीं हैI वास्तव में जो आलोचक धूमिल की इस
बात के लिए आलोचना करते हैं कि उन्हें जनता पर विश्वास नहीं, वैसे आलोचक इस बात को भूल
जाते हैं कि जनता अपनी समस्याओं से त्रस्त है और क्रांति के लिए जनता को तैयार
करना एक कठिन कार्य हैI धूमिल की कविता खासकर ‘अकाल-दर्शन’ इसी कठिनाई को व्यक्त करती है-
वे चुपचाप सुनते हैंI
उनकी आँखों में विरक्ति है ;
पछतावा है ;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलताI
वे इस कदर पस्त है :
कि तटस्थ हैंI
जनता में चाहे कितनी ही शक्ति हो पर उसका ‘अलगाव बोध’ उसे व्यवस्था परिवर्तन से
रोकता हैI जनता इसलिए ‘तटस्थ’ या ‘पस्त’ नहीं है कि वो कुछ कर नहीं सकतीI वास्तव में
व्यवस्था के ‘हिजेमनी’ से वो दिग्भ्रमित हैI ‘क्या करें’ यह उसके सामने प्रश्न हैI कोई भी
ईमानदार कवि यह कहकर इस प्रश्न से भाग नहीं सकता कि उसे जनता पर पूर्ण विश्वास है
और जनता क्रांति करने जा रही हैI यह सच्चाई है कि ऐसे तमाम
विश्वासों के बावजूद व्यवस्था में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ हैI कुछ बड़े आंदोलनों के बावजूद व्यवस्था का स्वरुप जस का तस बना है और आखिर
ऐसा क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर धूमिल की
कविताओं की गहराई में जाकर जाना जा सकता हैI धूमिल ‘अकाल-दर्शन’ की आखिरी पंक्तियों में
सत्ता की ‘हिजेमनी’ और क्रांति के संबंधों की
सुन्दर प्रस्तुति करते हैं –
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूँजी हैI
क्रांति-
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के –
हाथों की जूजी हैI
क्रांति के लिए सर्वहारा की ‘एकता’ और परस्पर सहानुभूति का भाव
अनिवार्य शर्तें
हैंI परन्तु विडम्बना यह है कि सत्ता द्वारा
शुरू किये गए युद्धों के समय ही एकता उत्पन्न होती हैI
अर्थात् ‘राष्ट्रवाद’ या ‘अकाल’ जैसा राष्ट्रीय आपात ही यहाँ
एकता और सहानुभूति पैदा करते हैंI भारतीय जनमानस इतने अलगाव बोध में है कि
उसे अपने वास्तविक शक्ति का पता ही नहींI जिस प्रकार किसी
छोटे बच्चे को शिश्न की कोई विशेषता नहीं मालूम ठीक उसी तरह क्रांति की धारणा के
सन्दर्भ में भारतीय जनता अभी अल्पवयस्क हैI यहाँ धूमिल ने
भारतीय जनमानस की चेतना पर
छाए सत्ता के ‘हिजेमनी’ की काव्यात्मक व्याख्या की हैI
धूमिल का उद्देश्य कहीं से भी जनता की ताकत को
कम करके आंकना नहीं हैI बल्कि वे इस बात से व्यथित हैं कि जनता को अपनी शक्ति का बोध क्यों नहीं
है ? धूमिल ‘अकाल-दर्शन’ द्वारा सत्ता और जनता की
चेतना के द्वन्द्व से क्रांति के दर्शन की खोज करते हैंI जनमानस पर
सत्ता के प्रभुत्व यानि ‘हिजेमनी’ और स्वयं जनता का अपनी वीभत्स परिस्थितियों से ‘अलगाव’ की व्याख्या के बिना किसी
क्रांति की कल्पना नहीं की जा सकतीI धूमिल का काव्य क्रांति की राह
के रोड़ों से टक्कर द्वारा निर्मित है, जिसका ‘अकाल-दर्शन’ प्रतिनिधित्व करता हैI
पीयूष राज
पीएचडी, भारतीय भाषा केंद्र,
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली
सम्पर्क 09868030533, piyushraj2007@gmail.com
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