बातचीत : महुआ माजी से रविन्द्र कुमार मीना की बातचीत
आप बांग्लाभाषी हैं, फिर हिन्दी साहित्य के प्रति आपकी रूचि कैसे जागृत हुई ?
मैं बांग्लाभाषी
हूँ, लेकिन 1932 के बाद की खतियानी हूँ रांची की जो झारखंड की
राजधानी है पहले यह बिहार का हिस्सा थी। हम लोग यहीं पर जन्मे और पले-बढ़े हैं,
हमारे पूर्वज यहीं आये थे। यह हिन्दी भाषी
क्षेत्र है और हमें स्कूल-कॉलेज में भी उसी तरह का माहौल मिला। हम लोग मिशनरी
स्कूल में पढ़े हैं, वहां की हिन्दी
काफी अच्छी थी। इसको लेकर मेरी हिन्दी भाषा पर पकड़ मजबूत हुई और बांग्ला कल्चर से
भी मैं इसलिए जुड़ी रही कि हमारे बहुत सारे रिलेटिव कोलकाता वगैरह में रहते हैं।
जहाँ साल में कई बार हम लोगों का आना-जाना लगा रहता है। इसके आलावा यहाँ
अच्छी-खासी तादाद में बंगालीयन हैं और करीब 150 साल पुराना क्लब भी है बंगालियों का जहाँ पर बहुत बड़े-बड़े
लेखक, गायक, शास्त्रीय संगीतज्ञ मतलब आज की जीन्स के बहुत
सारे लोग यहाँ हमेशा आते रहे हैं कल्चरर प्रोग्राम में या लिटरेरी फंक्शन्स में तो
मुझे हमेशा उनका सान्निध्य मिलता रहा है। मेरे पापा भी एक क्लब के मेम्बर थे। मेरी
बुआ और हम लोग उससे जुड़े हुए थे तो बहुत अच्छा स्टेज मिला। यहाँ पर एक से एक बड़े
लोग यानि पं. उदयशंकर जी जो कि नेशनल थीम के डांसर हैं और पं. रविशंकर के भाई हैं।
उनका भी मेरे यहाँ आना हुआ है। उनका कल्चरर बैकग्राउंड काफी स्ट्रोंग था और
कलकत्ता से भी जुड़े हुए थे। हमारे यहाँ बहुत बड़े कलाकार और उच्चस्तरीय कला के लोग
हैं चाहे वो साहित्य के हो या अलग क्षेत्र के। ऐसे लोगों से हमारा इंट्रोडक्शन
होता रहा है बचपन से क्लब के माध्यम से भी और पारिवारिक वजह से भी।
हिन्दी साहित्य
के प्रति मेरी रूचि इसलिए जागृत हुई कि मुझे बचपन से हल्का-फुल्का पोइट्री वगैरह
लिखने का शौक था, लेकिन मैं कभी
किसी पत्रिका वगैरह में नहीं छपी थी। मैं एम.ए. में पढ़ती थी उस समय मेरी एक सहेली
थी जो कि यहाँ के स्थानीय अख़बार में लिखती थी। उसके कहने पर मैंने कुछ पोइट्री
वगैरह लिखना शुरू किया। इसके पहले हमारे डिपार्टमेंट के जो हेड थे उनके फेरेवल
फंक्शन में लिखा जो कि बहुत पोइटिक था तो उसने कहा कि अख़बार के लिए भी लिखो।
स्थानीय जो ‘कादम्बिनी’
निकलता था उसके माध्यम से मेरी पोइट्री से ही
शुरुआत हुई। फिर मेरा एक लिटरेरी सर्किल के साथ इंट्रोडक्शन हुआ और मैं कहानी
लिखने लगी तथा नेशनल लेवल पर छपने लगी। मेरी पहली कहानी ‘मोइनी की मौत’ 2001 में कथादेश के नवलेखन अंक में छपी थी। यही से मुझे ब्रेक मिला और इसके बाद
नया ज्ञानोदय, हंस, कथाक्रम, सहारा-समय आदि नेशनल लेबल की पत्रिकाओं में छपने लगी। उसके
बाद मेरा पहला उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’
आया जिसे राजकमल प्रकाशन ने छापा और उसका
अंग्रेजी अनुवाद रूपा पब्लिकेशन ने छापा। मेरे दूसरे उपन्यास ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ को भी राजकमल प्रकाशन ने छापा। इस तरह से मैं साहित्य के
क्षेत्र में आयी।
सवाल : अभी तक
आपने दो उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’
और मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ लिखे हैं। दोनों उपन्यासों के कथानक साहित्य और
समाज के अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करते हैं। इन दोनों उपन्यासों की रचना-प्रक्रिया
क्या रही है ?
जबाब : मुझे ऐसा
लगता है कि ऐसे विषय को छूना चाहिए जिस पर काम न हुआ हो। मेरी इस तरह की रूचि रही
है कि जो चीजें पहले आ चुकी हैं उनके प्रति रुझान कम होता है। मेरी यह इच्छा रही
है कि मैं नई चीज दूँ ताकि पाठकों को मजा आए और साथ-साथ समाज के शोषित वर्ग के
बारे में जानने-समझने का अवसर मिल सके। ‘मैं बोरिशाइल्ला’ को आप देख रहे
होंगे कि वह उपन्यास धर्म एवं साम्प्रदायिकता को लेकर है। मैं यह मैसेज देना चाहती
हूँ कि ये जो दंगें वगैरह होते हैं इनसे किसी को कुछ हासिल नहीं होता है, इसके लिए मैंने बांग्लादेश का दृष्टान्त दिया
और कहा कि इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी गई और तीस लाख लोग मारे गए और यह सारा कुछ धर्म के
नाम पर हुआ। अंततः क्या हासिल हुआ ? जहाँ से शुरुआत हुई थी वापिस उसी जगह पर पहुँच गए लोग। इस दौरान एक्चुली
गुजरात दंगें हुए थे और पूरी दुनिया में आतंकवाद हावी हो रहा था तो मुझे लगा कि इस
समय एक मैसेज जाना चाहिए कि इससे कुछ हासिल नहीं होता है धर्म के नाम पर आम लोग जो
लड़ाईयाँ लड़ते हैं। इसलिए मैंने बांग्लादेश का ज्वलंत उदाहरण सामने रखा। अगर कुछ
हासिल होता तो आज बांग्लादेश खुशहाल होता या पाकिस्तान भारत से अलग हुआ था तो
खुशहाल होता। लेकिन इसके भी दो टुकड़े हुए थे धर्म के नाम पर और लोगों ने आपस ने
खून बहाया।
आदिवासियों पर मेरा कुछ लिखने का मन था,
क्योंकि मेरा जन्म झारखंड में हुआ और मैं बहुत
करीब से इनकी पीड़ा को जानती हूँ। मैं समाजशास्त्री हूँ तो फिल्ड वर्क के दौरान हम
बंगाली लोग बहुत दमन किये हुए होते हैं। जो माइनिंग इलाके हैं वहां मैंने महिलाओं
की पीड़ा को बहुत करीब से देखा। खतरनाक खनिजों के प्रभाव से बच्चे विकलांग होते हैं,
किसी को स्कीन कैंसर होता है और किसी का
अस्तित्व नष्ट हो जा रहा है। उसके लिए प्रोटेक्शन ठीक से नहीं लिया गया, जो कि लेना चाहिए था। लापरवाही की वजह से बहुत
परेशानी हुई। इसलिए मुझे लगा कि जो ट्राइबल कल्चर है वही आज के समय में पूरी
दुनिया को बचा सकता है, क्योंकि वो लोग
प्रकृति के साथ मिल-जुलकर रहना जानते हैं। आज के समय में हम विकास की दौड़ में
शामिल हो रहे हैं तो प्रकृति का नाश कर रहे हैं। पेड़ों को लगाना चाहिए, जंगलों को बचाना चाहिए और सबको ध्यान में रखना
चाहिए तो इसके लिए मैंने सच्चाई को सामने रखा। एक तरफ आदिम संस्कृति को दिखाया कि
आदिवासी जीवन कैसा होता है और किस प्रकार ये लोग प्रकृति के साथ मिल-जुलकर रह रहे
हैं। इनका क्या अतीत है और क्या भविष्य होगा और क्या वर्तमान है ? उसका मैंने एक आंकलन किया और सच्चाई सामने रखी।
अगर हम विकास के नाम पर अभी से सावधान नहीं हो जाते हैं तो भविष्य में क्या-क्या
परेशानी आ सकती हैं।
सवाल : ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ उपन्यास के शीर्षक में आप ‘नीलकंठ’ के मिथक को किस
रूप में देखती हैं ?
जबाब : देखिए ऐसा
है एक हमारी पौराणिक कथा है जब समुद्र मंथन हुआ था तो उसमें अमृत भी निकला था और
विष भी निकला था। शिवजी ने उस विष का पान किया था और वो नीलकंठ हो गए थे। उसी तरह
से मैं यह कहना चाह रही थी कि पूरी दुनिया में यूरेनियम की जो खदानें होती हैं वो
अधिकतर आदिवासी बाहुल्य इलाकों में होती हैं। जहाँ से यूरेनियम निकलता है उस
यूरेनियम को बना के दूसरी जगह भेजा जाता है तो उससे लोग कैंसर का ट्रीटमेंट करते
हैं। सस्ती इलोक्ट्रोसिटी के लिए यूरेनियम का उपयोग होता है। परमाणु अस्त्र के लिए
भी यूरेनियम का इस्तेमाल होता है। एक तरफ यूरेनियम अमृत भी प्रदान करती है
इलोक्ट्रोसिटी के रूप में, कैंसर के
ट्रीटमेंट के रूप में। बीमारियों के रूप में, विकलांगता के रूप में, बाँझपन के रूप में उस विष का पान वहां के लोकल आदिवासी,
वनस्पति, जीव-जन्तु करते हैं। मैं यह कहना चाह रही थी कि मरंग गोड़ा
एक प्रतीक है ऐसे तमाम आदिवासी गांवों के जहाँ पर इस तरह के खतरनाक खनिजों का खनन
होता है तो ऐसे क्षेत्र नीलकंठ हो जाते हैं। कैसे हो जाते हैं ? उसका दृष्टान्त पूरा उपन्यास है। ये क्षेत्र
शिव की तरह विषपान करके नीलकंठ हो जाते हैं और जो अमृत मिलता है उसका लाभ पूरी
दुनिया उठाती है।
सवाल : आदिवासी
साहित्य को सहानुभूति और स्वानुभूति के आधार पर पढ़ा जाता है। इसके बारे में आपके
क्या विचार हैं ?
जबाब : इस मिथक
को मैं तोड़ना चाहती हूँ। लोग जैसे ही आदिवासियों का नाम लेते हैं तो उनको बना देते
हैं कि बड़े-बड़े सींग लगा लिए हैं और कुछ कपड़ें पहन लिए हैं या उनको गलत तरीके से
प्रोडक्ट किया गया है। अधिकांश जगहों पर चाहे वो फिल्म हो या साहित्य हो। उनको एक
अलग रूप दे दिया गया है कि वो नाचने-गाने वाले होते हैं और बहुत खतरनाक होते हैं।
लेकिन ऐसा नहीं है वो भी हमारी तरह इन्सान है और उनमें हमसे ज्यादा प्रतिभाएं छुपी
हुई होती हैं। हमारे झारखंड में तो आदिवासी महिलाएँ खेल के क्षेत्र में अच्छा कर
रही हैं। वे बहुत मेहनती, कर्मठ और
प्रतिभाशाली होती हैं। मैं यह कहना चाह रही हूँ कि आदिवासी सहानुभूति के पात्र
नहीं हैं और वे अपने आप में खुद इतने समर्थ हैं कि उनको मौका मिले तो वे अपनी
प्रतिभा का लोहा मनवा सकते हैं।
सवाल : अभी तक का
अधिकांश साहित्य झारखंड राज्य पर केन्द्रित रहा है। देश के दूसरे राज्यों के
आदिवासी साहित्य को आप किस रूप में देखती हैं ?
जबाब : देखिए
लिखा तो सभी जगह जाता रहा होगा, लेकिन हमारे
झारखंड में हाल-फिलहाल में कुछ लिखे गए हैं। सभी जगह आदिवासी हैं और उनके बारे में
लिखा जाना चाहिए। उनकी एकदम सच्ची तस्वीर सामने आनी चाहिए। मैंने अपने उपन्यास में
आदिवासी लोगों की परंपराओं, समृद्ध संस्कृति
को सामने रखने की कोशिश की है। आदिवासियों के बारे में जो गलत धारणाएँ प्रचारित की
जा रही हैं उनको तोड़ते हुए सच्चाई को सामने रखने के प्रयास करने चाहिए। देश के
दूसरे हिस्से के आदिवासियों के साहित्य के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती हूँ। आप
जैसे शोधार्थियों को इस तरह की चीजों को ढूंढ़कर सामने लाना होगा।
सवाल : प्रो.
वीरभारत तलवार अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं कि ‘झारखंड राज्य में खनिज पदार्थों की जितनी लूट झारखंड राज्य
के बनने के बाद हुई है, उतनी आजादी के
बाद के दशकों में भी नहीं हुई।‘ इसके बारे में
आपकी क्या राय है ?
जबाब : देखो यह
तो अभी जाँच का विषय है। अभी मैं कुछ नहीं कहूँगी। उन्होंने यह किस आधार पर कहा है
इस पर मैंने उनसे अभी डिस्कश नहीं किया है। इस पर जाँच के बाद ही कुछ कहा जा सकता
है।
सवाल : यूरेनियम
की वजह से झारखंड के आदिवासियों के सामने कौन-कौनसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं ?
जबाब : पहले
ज्यादा हुई हैं, जिस समय उनको
बताया नहीं गया था और वो अनजान थे। 1967 के बाद वहाँ खनन शुरू हुआ था और जो डैम बनाया गया था वहाँ लोग नंगें पाँव चला
करते थे। सुरक्षा के जो मानक थे उनका पालन नहीं होता था। इसलिए वहाँ पर बहुत
ज्यादा परेशानी शुरू हुई थी जो लगभग तीस सालों तक रही। उसके बाद लोग जागरूक भी हो
गए और बहुत तरह के सुरक्षा मानक भी निर्धारित किए गए। अब काफी सुधार हो गया है।
सवाल :
आदिवासियों के रोजगार के कौन-कौनसे साधन हैं ? विकास की प्रक्रिया के चलते वे किस प्रकार नष्ट हो रहे हैं ?
जबाब : रोजगार के
उनके प्रमुख साधन जंगल और कृषि हुआ करता था। पहाड़ी इलाका है, इसलिए यहाँ समतल पर खेती बहुत कम होती है।
अधिकांश खेती यहाँ ढलाननुमा होती है। बहुत कुछ चीजे ये जंगल से लेते रहे हैं,
लेकिन वन अधिनियम लागू होने से उन पर पाबंदी लग
गई है। जहाँ शहर बन रहे हैं वहां जंगल कट रहे हैं, नदियों पर असर पड़ रहा है, प्रकृति पर असर पड़ रहा है और पानी कम हो रहा है। विकास होगा
तो आदिवासियों के जीवन पर असर तो पड़ेगा ही। महुआ, बीड़ी पत्ता, लाख आदि
आदिवासियों की मूलभूत आवश्यकताओं की वस्तुओं पर पाबंदी लगी है। महिलाओं को काम के
नाम पर दूसरे क्षेत्रों में ले जाया जा रहा है।
सवाल : आदिवासी
समाज में डायन प्रथा के अभिशाप को आप किस रूप में देखती हैं ?
जबाब : जी,
वास्तव में बहुत बड़ा अभिशाप है और इसको दूर
करने के लिए हम लोग कोशिश कर रहे हैं। महिलाओं को डायन घोषित करके प्रताड़ित किया
जाता है। दरअसल इसके पीछे सम्पत्ति विवाद की ही मामला रहता है, क्योंकि आदिवासी महिलाओं को सम्पत्ति बेचने का
अधिकार नहीं होता है। पारंपरिक रूप से आदिवासी महिलाएँ अपनी सम्पत्ति पर रह सकती
है और उपभोग कर सकती हैं, लेकिन बेच नहीं
सकती हैं। विधवा स्त्री के सगे-संबंधी सोचते हैं कि डायन करार देकर इसकी सम्पत्ति
को हड़पा जा सकता है। जमीन विवाद और अन्धविश्वास ये दो बाते हैं जो डायन प्रथा को
बढ़ावा दे रही हैं। अन्धविश्वास को दूर करने के लिए शिक्षा और जागरूकता की जरूरत
है। शिक्षा के माध्यम से महिलाओं में कानून की समझ विकसित होगी।
सवाल : आप झारखंड
महिला आयोग की अध्यक्ष रही हैं। आपने झारखंड में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने
के लिए किस तरह के प्रयास किए हैं ?
जबाब : मैंने तो
बहुत प्रयास किया है सुधार लाने के लिए। मैंने सभी जिलों में घूम-घूमकर कोट लगाया
और महिलाओं से संबंधित जो भी चीजें हैं उनमें छापा मारा। इसके अलावा महिला नीति के
प्रारूप को मैंने आते ही समाज कल्याण विभाग की तरफ से सरकार के आगे बढ़ाया। पिछली
सरकार ने उसको केबिनेट से पास भी कर दिया है और लागू करना है। वो लागू हो गई तो
यहाँ की महिलाओं को काफी रोजगार मिलेंगे और उसमें शिक्षा का भी प्रावधान है।
निश्चित रूप से महिलाएँ जब शिक्षित होंगी और रोजगार से जुड़ेंगी तो महिलाएँ सशक्त
भी होंगी और यहाँ का विकास भी होगा।
सवाल : क्या आप
झारखंड की महिलाओं केन्द्रीय विषय बनाकर किसी औपन्यासिक रचना प्रक्रिया से गुजर
रही हैं ?
जबाब : अभी मैं
इस आयोग में रोज महिलाओं से मिलती थी, उसमें मुझे कुछ भी थोड़ा अलग तरीके का लगता है तो मैं सारा कुछ नोट कर लेती थी
कि यह बात लोगों के सामने आनी चाहिए। अभी तो मुझे व्यस्तता की वजह से वक्त नहीं
मिल रहा है उपन्यास लिखने का। मेरे पास इतने अधिक विषय हैं महिलाओं से संबंधित।
इसके बाद मैं जो लिखूंगी वो बहुत ही कॉन्टेम्परी यानि समसामयिक विषयों पर ही होगा।
समाज में अभी किस तरह की मानसिकता चल रही है महिलाओं की वो सबकुछ इसमें रिफ्लेक्ट
करेगा, लेकिन फ़िलहाल मैं जिस
उपन्यास पर पहले से काम कर रही हूँ उसको कम्पलीट करने के बाद उस पर हाथ लगाऊँगी।
रविन्द्र कुमार मीना
शोधार्थी
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय
सम्पर्क
9408659955, ravindraghunawat@gmail.com |
जबाब : हाँ,
परमाणु ऊर्जा का विकल्प है जैसे - सौर ऊर्जा या
वाटर एनर्जी या विंगमिल से भी या हवा से भी किया जा सकता है। सबके अपने-अपने फायदे
हैं, लेकिन सबकुछ खतरनाक हैं,
क्योंकि मान लिया जाय सौर ऊर्जा बनाई जाय तो
समुद्र के किनारे को स्टील प्लेट से ढक दिया जाता है और उसी से सौर ऊर्जा बनती है।
समुद्र से जो भाप बनती है उससे जो बदल बनते हैं तो उस पर दुष्प्रभाव पड़ता है और
हमारे मौसम का जो प्राकृतिक चक्र है वह बिगड़ जाता है। अब दूसरी बात कि जब विंगमिल
का इस्तेमाल होता है या जहाँ ज्यादा विंगमिल का उपयोग होता है तो वहां के पक्षियाँ
मरने लगते हैं। हमारी पृथ्वी का इकोलॉजिकल बैलेंस है वह ऊर्जा के गैर परंपरागत
साधनों की वजह से खतरे में पड़ रहा है।
सटीक और विचारणीय मुद्दों पर चर्चा पढ़ कर अच्छा लगा |
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