अल्पसंख्यक-विमर्श और अनवर सुहैल का साहित्य
समकालीन आलोचना में ‘विमर्श’ शब्द उत्तर-आधुनिक
सन्दर्भ में प्रयुक्त हुआ है। यह पारिभाषिक
शब्द अंग्रेजी के ‘डिस्कोर्स’ के समानार्थक रूप
में हिंदी में प्रचलित है। इस शब्द का
विकास सन् 1325-75 ई. के बीच हुआ।
इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले मिडिल इंग्लिश में ‘दिस्कौर्स’ (discours) के रूप में हुआ। बाद में लैटिन के मध्य प्रान्त
में यही ‘discours’ ने ‘discourse’ का रूप ले लिया
जो कि वर्तमान में उसी रूप में प्रचलित है।
“‘डिस्कोर्स’ के लिए फ़ादर कामिल बुल्के ने अपने ‘अंग्रेजी हिंदी
शब्दकोश’ में... हिंदी समानार्थी शब्द दिए हैं :- भाषण, प्रवचन, प्रबंध, निबंध आदि। इन
संज्ञाओं के क्रिया पद हैं- भाषण देना, बोलना। धार्मिक प्रवचन के लिए अंग्रेजी में ‘डिस्कोर्स’ शब्द चलता है।
अंग्रेजी में यह धार्मिक प्रवचन, भाषण के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है और आज भी होता है।”
हिंदी में भी ‘विमर्श’ शब्द का बहुत प्रचलन होने लगा है। इसको लोकप्रिय बनाने का
श्रेय प्रोफेसर सुधीश पचौरी को है। क्रिसबार्करने विमर्श को इस प्रकार परिभाषित
किया है –“विमर्श, ज्ञान की वस्तुओं
का बोधगम्य तरीके से परिकल्पना करते हैं, संरचना करते हैं, निर्माण करते हैं, साथ ही तर्क के अन्य तरीकों को बोधगम्य बनाते हैं।”
अल्पसंख्यक-विमर्श
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में साहित्यिक विकास-यात्रा को देखें तो समकालीन साहित्यिक –लेखन का झुकाव जन-समुदाय केन्द्रित हुआ है। यह परिपाटी
अमेरिका से चली है जिसमें सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों पर अधिक बल दिया जाता है।
सर्वप्रथम हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि ‘अल्पसंख्यक कौन ?’ ‘अल्पसंख्यक’ की अवधारणा में ‘संख्या’ पर बल दिया गया है। जिसमें बहुसंख्यक की अपेक्षा, जिनकी आबादी कम
हो। अल्पसंख्यक की अवधारणा का दूसरा छोर-‘भाषाई एवं सांस्कृतिक’ भी होता है। इस अवधारणा को भी सिद्धांत के रूप में मान्यता
सर्वप्रथम यूरोप में मिली। बहरहाल जो भी हो ‘अल्पसंख्यक-विमर्श’ एक नया विमर्श है
जो अल्पसंख्यक वर्ग की ज्वलंत समस्या को लेकर उभरता है। पश्चिम में इस विमर्श की
शुरुआत स्पेन से होती है और धीरे-धीरे पूरे विश्व में स्थापित हो जाती है। कार्ल-मार्क्स ने ‘जेविश-क्वेश्चन’(1844) को सर्वप्रथम सिद्धांत: उठाया था। उसका विकास
पश्चिम में भिन्न-भिन्न विचारकों ने किया था।जैसे – गीलेसदेलयूज़े और
फेलिक्सगुअत्तरी।
भारत में अल्पसंख्यक सम्बन्धी दो प्रावधान
भारतीय संविधान में निर्दिष्ट किये गए हैं –(1) भाषाई,(2)धार्मिक।
भाषाई-स्तर पर अनेक
जन-समुदाय अल्पसंख्यक हैं। धार्मिक-स्तर पर मुस्लिम, ईसाई, सिख,
बौद्ध, पारसी एवं जैन को
मानने वाले समाहित किये गए हैं। अल्पसंख्यक-विमर्श ऐतिहासिक अनिवार्यता से जुड़ा
हुआ पहलू है।
वास्तव में अल्पसंख्यक को
जानने, समझने और परिभाषित करने
की प्रक्रिया का नाम ‘अल्पसंख्यक-विमर्श’ है। अल्पसंख्यक
हैं कौन; उनका
सम्बन्ध किस देश-प्रदेश से है; उनकी भाषा-बोली
क्या है; देश के साथ उनके
धर्म, मजहब का क्या
ताल्लुक है; उनके आचार-विचार, तीज-त्यौहार क्या
होते हैं; खुद अल्पसंख्यक
लेखक, कलाकार, चिन्तक
अल्पसंख्यकों के बारे में क्या सोचते हैं; गैर-अल्पसंख्यक रचनाकार की अल्पसंख्यक के प्रति दृष्टि क्या
है, इन सबको परिभाषित
करता है- ‘अल्पसंख्यक-विमर्श’।
हिंदी में
अल्पसंख्यक वैचारिकी का विकास
हिंदी साहित्य में ‘अल्पसंख्यक-वर्ग’ की भी एक वैचारिक
भूमिका अवश्य है। पर ‘अल्पसंख्यक’ वैचारिकी का कैसे
और किस तरह विकास हुआ ? यह एक बहुत उलझा
हुआ प्रश्न है,यह समस्या हमारे सामने तब उभरती है जब ‘अल्पसंख्यक’ वर्ग का चुनाव कर
उसकी परंपरा या वैचारिकी के विकास को तलाशना
होता है। क्योंकि कुछ ‘अल्पसंख्यक’ वर्ग जैसे -जैन, बौद्ध,सिख हैं, जो कभी बहुसंख्यक
हिन्दू -वर्ग का हिस्सा हुआ करते थे, वे अभी उनसे अलग हो चुके हैं और उन्हें भी अब ‘अल्पसंख्यक-वर्ग’ का दर्जा दिया
जाता है। बहरहाल जो भी हो आदि काल से ही ‘अल्पसंख्यक’ वर्ग के साहित्य का प्रस्थान बिंदु देखने को मिलता है चाहे
वह बौद्ध-साहित्य हो, जैन-साहित्य हो, सिख-साहित्य या
मुस्लिम-साहित्य। हिंदी साहित्य के इतिहास में भी ‘अल्पसंख्यक- विमर्श’ की शुरुआत हो
चुकी है। अगर ‘अल्पसंख्यक’ की वैचारिक
परंपरा की नींव तलाश की जाएगी तो यह परंपरा आदि काल से सरहपा, शबरपा,गोरखनाथ,शालिभद्र सूरी,अमीर ख़ुसरो, से होते हुए
भक्ति काल में कबीर,मलिकमुहम्मदजायसी,रहीम, गुरु गोविन्द
सिंह, से होते हुए
आधुनिक काल में बदीउज्जमा, राही मासूम रज़ा
से होते हुए नासिरा शर्मा,
अनवर सुहैल तक
फैली हुई है।‘वागर्थ’ पत्रिका के अंक
में समीक्षक भारतभारद्वाज लिखते हैं –“प्रसिद्ध चित्रकार लियोनार्दोदाविंची की रहस्यमयी कृति
मोनालिजा की तरह आज भी अमीर ख़ुसरो की ये पंक्तियाँ –‘गौरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केश, चल ख़ुसरो घर आपने,रैन भई चहुँ देश’ का पाठ और व्याख्या आलोचकों को उलझाती है। इसी तरह जायसी की
‘पद्मावत’ न केवल हिंदी
साहित्य की एक अनमोल विरासत है बल्कि बहुमूल्य धरोहर भी...कबीर को हम कैसे भूल
सकते हैं! वे तो लोकमानस में गहरे पैठे हुए हैं उसी तरह रहीम भी।” प्रो.गोपाल राय
आधुनिक काल में राधाकृष्ण दास के उपन्यास ‘निस्सहाय हिन्दू’ से मुस्लिम समाज का साहित्य में प्रवेश को स्वीकार करते
हैं। प्रेमचन्द भी ‘प्रेमाश्रम’ और ‘रंगभूमि’ आदि उपन्यासों
में हिन्दू-मुसलमान संबंधों पर बात करते हैं। पर यदि आधुनिक अल्पसंख्यक लेखकों पर
गौर करें तो सबसे पहले बदिउज्जमा के उपन्यास ‘एक चूहे की मौत’ और ‘सभापर्व’ आते हैं। उसी तरह
“राही मासूम रजा
का उपन्यास ‘आधा गाँव’ यदि एक तरफ देश
की विभाजन की त्रासदी का हिस्सा है तो दूसरी तरफ उस आधे गाँव का किस्सा भी है, जो
हिन्दू-मुसलमानों में बंटा हुआ है।” यही परंपरा शानी
से होते हुए अब्दुल बिस्मिल्लाह, असगरवजाहत, मंजूर एहतेशाम, इसराइल, नईम,
जाबिर हुसैन, आबिदसुरती, हसन् जमाल, हबीब कैफी, आलम शाह, नासिरा शर्मा, मेहरून्निसा
परवेज से होते हुए अनवर सुहैल तक पहुंची है। अतः देखा जाय तो आधुनिक काल में एक
बड़ा फ़लक मिल रहा है मुस्लिम रचनाकार को जो कि ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय का सबसे ज्यादा पीड़ित वर्ग है। ‘अल्पसंख्यक’ वर्ग के और भी समुदाय हैं जो कि मुस्लिम ‘अल्पसंख्यक’ की तरह जर्जरित
अवस्था में नहीं हैं। इस विमर्श की पहल तो
मुस्लिम रचनाकारों ने की है पर धीरे-धीरे ‘अल्पसंख्यक’ वर्ग के अन्य रचनाकार भी इस विमर्श को आगे बढ़ाने में सहयोग
कर रहे हैं। अतः कुछ समय बाद जरूर ‘अल्पसंख्यक’ वर्ग का एक मुकम्मल चित्र हमारे सामने उपस्थित होगा।
हिंदी में
अल्पसंख्यक-विमर्श के रचनाकार
राही मासूम रज़ा, बदिउज्जमाँ, अब्दुल
बिस्मिल्लाह, मंजूर ऐहतशाम, असगर वजाहत, नासिरा शर्मा और मेहरुन्निसा परवेज आदि बहुत बड़े अल्पसंख्यक रचनाकार हैं, जिन्होंने
मुस्लिम परिवेश को आधार बना कर लिखा है। जैसे-राही मासूम रज़ा ने विभाजन के पश्चात
की त्रासदी, सांप्रदायिक दंगे, मुस्लिम-संस्कृति
और हिन्दू-मुस्लिम के संबंधों को आधार
बनाकर साहित्य-लेखन किया है।बदिउज्जमाँ भी देश-विभाजन
को गलत बताते हैं। उनका मानना है कि-पाकिस्तान का बनना न बनना कोई महत्व नहीं
रखता। अंग्रेजों की कुटिल राजनीति का पर्दाफाश करते
हुए विभाजन के मूल में अंग्रेजों की भूमिका को स्वीकारते हैं (छाकों की वापसी, सभा पर्व)।अब्दुल बिस्मिल्लाह ने हिन्दुस्तान-पाकिस्तान
युद्ध, इंदिरागाँधी के
समय में कांग्रेस का विभाजन, बांग्लादेशका उदय,नक्सलवाद आदि को अपने लेखन का आधार बनाया है। मंजूर एहतेशाम
ने साहित्य में हिन्दू-मुस्लिम समस्या पर सुलझी हुई प्रगतिशील दृष्टि से विचार
किया है। धार्मिक कट्टरता,
पाकिस्तान का
प्रश्न, अंग्रेजों की
कुटिल राजनीति और उनके चलते हिन्दू-मुसलमानों में बढ़ती दूरी, समाज के पिछड़ेपन
के कारणों को देश-विभाजन के मूल में माना है। असग़र वजाहत ने मुस्लिम समाज के
अपने अन्तर्विरोध और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को केंद्र में रख कर अपनी
रचनाएँ की हैं। नासिरा शर्मा ने ईरान की कथा, मध्यवर्गीय मुस्लिम शिक्षित स्त्री का संघर्ष, विभाजन की
त्रासदी, धर्म और
सम्प्रदाय की राजनीति को आधार बनाया है। मेहरुन्निसा परवेज का केन्द्रीय विषय
मध्यवर्गीय नारी-जीवन की त्रासदी है। वे प्रेम, विवाह, तलाक़, अवैध सम्बन्ध, परित्यक्ता नारी
का अकेलापन, नारी जीवन की
विवशता का मार्मिक चित्र साहित्य में उपस्थित करती हैं।
अनवर सुहैल के दृष्टि में अल्पसंख्यक
“अल्पसंख्यक एक अपूर्ण या भ्रमित करने वाला शब्द है...समग्र
में कुछ की संख्या को अल्पसंख्यक मानना मेरे हिसाब में गलत है। जिस प्रदेश में या
जिस नगर में आप बहुतायत में हों और समग्रता के आधार पर की गयी गणना के अनुसार खुद
को अल्पसंख्यक मानें तो ये गलत प्रतीत होता है। जैसे कश्मीर के मुसलमान खुद को
अल्पसंख्यक कहें या फिर पुराने हैदराबाद के मुसलमान या पुरानी दिल्ली के मुसलमान
खुद को अल्पसंख्यक कहें तो मुझे ये स्वीकार नहीं है...ये मुसलमान तो अपनी परिवेशगत
आबादी के पचास प्रतिशत से ज्यादा के लोग हैं इन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा कैसे दिया
जा सकता है ?” अतः अनवर सुहैल अल्पसंख्यक का निर्माण समग्र
देश के आधार पर नहीं बल्कि राज्य के आधार पर करने के पक्षपाती हैं। उनकी दृष्टि
देश के उपेक्षित लोगों पर गयी जिनकी वह वकालत करते हैं।
अनवर सुहैल के
साहित्य में अल्पसंख्यक-विमर्श
भारत में अल्पसंख्यक-वर्ग के समक्ष निम्नांकित चुनौतियां उपस्थित हुई हैं जिनकी अभिव्यक्ति
अनवर-सुहैल के साहित्य में
समसामयिक परिदृश्य के साथ अभिव्यक्त हुई हैं-1. असुरक्षा की भावना 2.पहचान का संकट 3.फिरकों में बंटा
इस्लाम 4. सामाजिक संरचना
में जाति-गत भेदभाव (i)अशराफ (ii)अजलाफ़(iii)अरजाल या पसमांदा 5.संस्कृति के विलय का डर 6.मुस्लिम स्त्री
के लिए दोहरे मापदंड 7.मीडिया की नज़र
में अल्पसंख्यक 8.राष्ट्रीयता पर
संदेह 9.भूमंडलीकरण और
अल्पसंख्यक 10.आतंकवाद और
अल्पसंख्यक 11.आर्थिक और
शैक्षिक बदहाली।
अनवर सुहैल के साहित्य में अल्पसंख्यक वर्ग के उपरोक्त बिन्दुओं की अभिव्यक्ति सशक्त रूप में हुई है।
इनकी कुछ प्रकाशित किताबें हैं :-
(अ)कविता संग्रह :- ‘और थोड़ी सी शर्म
दे मौला’(2007), ‘संतों काहे की
बेचैनी’(2009)
(आ)कहानी-संग्रह:-‘ग्यारह सितम्बर के बाद’(2006),‘चहल्लुम’(2009)‘गहरी-जड़ें’(2014)
(इ)उपन्यास :-‘पहचान’(2009), ‘सलीमा’(2014) ।
अनवर सुहैल भारतीय मुसलमानों की जिंदगी पर
पड़ने वाले समसामयिक प्रभावों को गहराई से पकड़ते हैं। उनके साहित्य में भारतीय
सामाजिक-संरचना के भेदभाव को मुस्लिम समाज के परिप्रेक्ष्य में स्वर मिला है। इसके
अलावा मुस्लिम स्त्री का सवाल उनके साहित्य में प्राथमिक रूप से अभिव्यक्त हुआ है।
समकालीन राजनीति के कारण अल्पसंख्यक वर्ग की छवि किस रूप में चित्रित की जा रही है
उसके विभिन्न रूपों की अभिव्यक्ति इनके साहित्य में हुई है। यह छवि एक तरफ एकमुश्त
वोट बैंक के रूप में है। दूसरी तरफ असुरक्षित और जरूरत मंद नागरिक के तौर पर है।
तीसरी ओर लड़ाकू, संघर्षशील और
मूलगामी विचारों को लेकर है। चौथी ओर मध्यवर्गीय मुस्लिम शिक्षित वर्ग की सोच और
उसके जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को दर्ज करने वाली है, इन सबका उद्घाटन
भी इनके साहित्य में अभिव्यक्त हुआ है। उन्होंने अल्पसंख्यक-वर्ग की आंतरिक
वास्तविकता एवं अंतर्विरोध को प्रमाणिकता से अभिव्यक्त किया है।
अल्पसंख्यक वर्ग की मनोदशा, असुरक्षा की भावना, उसकी राष्ट्रीयता पर संदेह, उसके खान-पान, रहन-सहन पर रोक-टोक एवं उसके दोयम
दर्जे की स्थिति का रेखांकन इनके साहित्य में हुआ है। इसके लिए लेखक केवल बाहरी
कारकों को जिम्मेदार नहीं मानता बल्कि उसके
साथ-साथ स्वयं मुस्लिम समाज में दकियानूसी विचारों और कट्टरता को समान रूप से
जिम्मेदार मानता है। मीडिया द्वारा अल्पसंख्यक विशेषकर मुस्लिम वर्ग की आतंकवाद के
पर्याय के रूप में छवि बनाने की खुल कर आलोचना करता है। जैसे- ‘ग्यारह सितम्बर
के बाद’ कहानी को देखा जा
सकता है। ‘पहचान’ उपन्यास में खोती हुई पहचान को नई पहचान में परिवर्तित करने की बात रचनाकार करता है।
इनका साहित्य ‘पसमांदा-समाज’ (जो पीछे छूट गया हो, दलित मुसलमान) के जीवन की अभिव्यक्ति करता है। यह भारत के दलित मुसलमान का वास्तविक चेहरा है। ‘कुंजड-कसाई’ कहानी में विवाह में बरते जाने वाले जातीय
भेदभाव की कलई खोली गयी है। विभाजन के बाद मुस्लिम-समाज का कुलीन वर्ग एवं
मध्यवर्ग पाकिस्तान चला गया। जिस तबके ने भारत-पाक विभाजन का मुखर विरोध किया, उसकी राष्ट्रीयता
पर संदेह कैसे किया जा सकता है ? लेकिन उनकी आर्थिक एवं शैक्षिक बदहाली को ठीक करने का कार्य
हमारी सरकारों ने क्यों नहीं किया ? क्या यही समान नागरिक भागीदारी या सामाजिक लोकतंत्र है ? इन सवालों को
अनवर सुहैल कहीं मुखर और कहीं सूक्ष्म रूप से अपने साहित्य में व्यक्त करते हैं।
अनवर सुहैल के साहित्य की
सबसे बड़ी विशिष्टता है कि वे पक्षपात न करके वस्तु-स्थिति और वास्तविकता को पकड़ने
की कोशिश करते हैं। इनकी ‘कहन-शैली’ या कहने की शैली
या प्रस्तुतिकरण प्रभावकारी है। जैसे- “अक्ल वालों को अक्ल दे मौला /इल्म वालों को इल्म दे मौला
/धर्म वालों को धर्म दे मौला /और थोड़ी-सी शर्म दे मौला’।”
रचनाकार ने जन के जीवन के प्रति अपनी पक्षधरता व्यक्त की
है। इस रूप में इनका जनवादी रुझान दिखाई देता है।
समकालीन हिंदी-लेखन में गहन
शोध-परकता, विषयगत वैविध्य
और हिंदी भाषा का पाठ व्यापक क्षेत्रीय पुट लेकर अभिव्यक्त हो रहा है। इन तीनों की
अभिव्यक्ति अनवर सुहैल के साहित्य में हुई है। अनवर सुहैल ‘सामासिक –संस्कृति’ (composite culture) के सन्दर्भों को
पकड़ते हैं। जिसमें ‘नीला हाथी’ कहानी का प्रधान पात्र कल्लू हिन्दू मत के
लोगों के लिए मूर्तियाँ बनाने का कार्य करता है। यह उसकी अभिरूचि एवं आर्थिक
आजीविका सेसम्बंधित है। लेकिन उसके समुदाय के कट्टर लोगों द्वारा बनाए गए दवाब को
वह कैसे सहता ? उसकी पीड़ा, दंश और चुभन को
रचनाकार ने संवेदनात्मक स्तर पर सूक्ष्मता से व्यक्त किया है।
नेहरु-युग को कैसे रचनाकारों
ने महिमामंडित या ग्लोरिफाय किया था उसकी सम्यक आलोचना रचनाकार ने कोयलांचल
क्षेत्र में मूल वासियों के विस्थापन और उनकी संस्कृति में अप-संस्कृति के
समाविष्ट होने के रूप में की है। यह इनका कार्य-क्षेत्र और मातृभूमि भी है। अतः लेखक ने व्यवस्था के विकास के मॉडल पर
प्रश्न चिन्ह लगाया है। कोयलांचल में बढ़ते अपराध, राजनीति, पुलिस और माफियाओं द्वारा जनता की जिंदगी कैसे दुश्वार हो
रही है उसकी अभिव्यक्ति लेखक ने की है।
ज़िनित सबा
शोधार्थी, हिंदी विभाग
मानविकी संकाय हैदराबाद विश्वविद्यालय,
हैदराबाद
सम्पर्क zinitsaba33@gmail.com
9492263706
|
‘पहचान’नयी तकनीक आधारित दुनिया में ‘पहचान’ तकनीक के सहारे
भाषा को जोड़ने पर बल देने वाली रचना है। अल्पसंख्यक वर्ग को भी नयी टेक्नोलॉजी के
माध्यम से अपनी अभिनव ‘पहचान’ बनानी होगी जिसका
रास्ता आधुनिक शिक्षा एवं तकनीक आधारित कौशल से निकलता है। यहाँ लेखक का
जीवन-दर्शन अभिव्यक्त हुआ है जिसमें अल्पसंख्यक युवाओं को दिशा एवं ज्ञान दोनों
लेखक ने दिए हैं। यह उपदेशात्मक रूप में नहीं है। समकालीन-सृजन में समस्या तो
इंगित की जाती है लेकिन विकल्प एवं समाधान देना लेखक का उद्देश्य भी होना चाहिए।
अनवर सुहैल ने यह समाधान और लेखकीय दायित्व-बोध दोनों को एक साथ निभाया है।
संदर्भ-
1.वाक् (नये विमर्शों का त्रैमासिक 2007,अंक 3)पत्रिका ,पृ.सं.-225
2.वाक् (नये विमर्शों का त्रैमासिक 2007,अंक 3)पत्रिका, पृ.सं.-229
3.वागर्थ, मई, 2004
4.वागर्थ, मई, 2004
5.अनवर सुहैल के साक्षात्कार से
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
बहुत अच्छा आलेख !!!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन, सारगर्भित लेख ।
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