हरियाणवी लोकनृत्यों का अद्भुत रचना संसार
भारत विविधताओं का देश है। देश की संस्कृति
अत्यंत ही समृद्ध, मनोहारी होने के साथ ही विस्मयकारी भी है। हर
अंचल विशेष की सांस्कृतिक पहचान अत्यंत ही वैविध्यपूर्ण एवम् बहुरंगी है जो लोगों
को अपनी ओर अनायास ही आकृष्ट करती हैं। भारतीय लोकनृत्यों के अनेकों प्रकार, स्वरूप
और ताल हैं, हालांकि इनमें धर्म, जाति तथा व्यवसाय के आधार पर अंतर पाया
जाता है। देश में निवासित कई जनजातियों का जीवन ही नृत्य है। ये जनजातियों सभी
अवसरों पर नृत्य के माध्यम से अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति देती हैं। मानवीय जीवन
के विभिन्न संस्कारों के साथ ही ऋतु विशेष के अलग-अलग नृत्य हैं। नृत्य दैनंदिन
गतिविधियों के साथ ही विभिन्न धार्मिक-सामाजिक गतिविधियों का अनिवार्य हिस्सा है।
बदलती जीवनचर्या तथा आचरण शैलियों के कारण नृत्यों की प्रासंगिकता आज पहले से कहीं
अधिक है। वर्तमान में नृत्यों ने कलात्मक नृत्य का दर्जा प्राप्त कर लिया है।
लोकनृत्य समय, दूरी के साथ ही मनुष्य और प्रकृति की
अभिव्यक्ति का माध्यम है। यह क्रम अनंत समय से अनवरत रूप से जारी है, हालांकि
वर्तमान समय इसमें ठहराव आया है। लोकनृत्य एक नैसर्गिक प्रवृत्ति है, जिसे
भाषा और संगीत के द्वारा अभिनव अभिव्यक्ति मिलती
है। मानव जीवन की यह अनुपम अभिव्यक्ति समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी गतिमान रहती है।
प्रत्येक
अंचल के नृत्य का अपना स्वरूप होता है। नृत्य या तो पुरुषों द्वारा किया जाता है
या फिर स्त्रियों द्वारा अथवा दोनों
द्वारा किया जाता है। किसी नृत्य में महिलाओं का वर्चस्व होता है तो किसी में
पुरूषों की भूमिका प्रमुख होती है। पारंपरिक लोक नृत्य सामान्यत: त्यौहार, धार्मिक
अनुष्ठानों और सामाजिक कार्यों आदि से जुड़े होते हैं, जो कि
सांस्कृतिक इतिहास का बखान करते हैं। भारतीय लोकनृत्यों में जितनी विविधता, रोचकता
और विचित्रता देखने को मिलती है, विश्व में शायद ही कई अन्यत्र देखने को
मिले। देश के अन्य प्रांतों की भांति हरियाणा की लोक कलाओं का अपना वैशिष्ठ्य है।
लोक कलाएं सामाजिक एवम् जातीय चित्रवृत्तियों की वाहिनियाँ बनकर लोक
जीवन को सदैव जीवंत रखती हैं। अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक पहचान एवं सांस्कृतिक इकाई के
रूप में हरियाणा का अस्तित्व प्राचीन काल से मान्य रहा है। हरियाणा अपने वैदिक
कालीन वैभव तथा भारतीय ज्ञान के प्रादुर्भाव बिंदू के रूप में आदिकाल से ही भारतीय
संस्कृति और सभ्यता की धुरी रहा है। हरियाणा की सांस्कृतिक धरोहर देश के अन्य
प्रांतों में सबसे अद्भुत तथा अनूठी है। हरियाणा भारत के उन प्रदेशों से है, जहाँ
भारतीय सभ्यता ने आकार लिया। हरियाणा के गौरवमय इतिहास का वर्णन मनुस्मृति, महाभाष्य, महाभारत
तथा पुराणों में भी हुआ है। हरियाणा ऋषियों-मुनियों की जन्मभूमि के साथ ही उनकी
कर्मभूमि रही है। महर्षि विश्वामित्र, च्यवन, वशिष्ठ, भृगु, दुर्वासा, जमदग्नि
जैसे देवतुल्य ऋषिगण हरियाणा की माटी की ही पैदाइश हैं ।
हरियाणा का सांस्कृतिक जीवन विभिन्न त्यौहारों, धार्मिक
अनुष्ठानों और सामाजिक कार्यों के अवसरों
पर प्रतिबिंबित होता है। हरियाणवी सांस्कृतिक जीवन सही मायनों में परंपरा व
लोककथाओं का असीमित भंडार है, जो स्थानीय लोकगीत और नृत्य के रूप में
अपने आकर्षक अंदाज़ में राज्य के सांस्कृतिक जीवन को प्रदर्शित करने के साथ ही ओज
तथा ऊर्जा से अप्लावित होकर स्थानीय
संस्कृति में विनोदप्रियता का भाव भरते हैं। वर्तमान हरियाणा में लगभग 40
सांस्कृतिक कार्य-विधाएँ जीवित हैं। ये लोक कलाएं पृथ्वीराज चौहान के दौर के साथ
ही तब भी जीवित रही जब देश की बागड़ोर आततायियों के हाथों में आ गई थी । आज सिनेमा और टीवी का दौर
है जिनसे हर कोई हारा है, बावजूद इसके ये कलाएं लोगों के लिए पहले से
कहीं ज्यादा रूचिकर हो गई हैं। गहमागहमी तथा आपाधापी से भरे इस युग में हर किसी को
सुकून की तलाश है; ऐसे में निनांत निश्चल इन विधाओं के प्रति
लोगों का आकृष्ट होना आश्चर्यजनक नहीं है।
हरियाणवी लोकनृत्यों की प्रचलित नृत्य शैलियां-
हरियाणा की विभिन्न सांस्कृतिक कार्य – विधाओं की तरह नृत्य कला का अपना इतिहास, वर्तमान
और भविष्य है। नृत्य कला आदि भगवान शिव के ताण्डव जितनी प्राचीन है। लोकनृत्य किसी
भी संस्कृति के जीवंत दस्तावेज होते हैं। लोकनृत्यों में लोक की आत्मा का निवास होता
है। हरियाणा में लोक नृत्यों की कई नृत्य शैलियां प्रचलित हैं। हरियाणा में इन्हें
न केवल विशेष महत्व दिया जाता है, बल्कि इन्हें राज्य के सांस्कृतिक
प्रतीक के रूप में देखा जाता है। हरियाणवी लोक नृत्य पारंपरिक है, इनमें
इस्तेमाल किये जाने वाले वाद्य, ताल, लयगीत तथा
विभिन्न मुद्राओं सहित नर्तकों की वेशभूषा पीढ़ियों से चली आ रही हैं। हरियाणा में
पुरूषों और महिलाओं द्वारा फसल कटाई के बाद तथा विभिन्न मांगलिक अवसरों पर नृत्य
की परंपरा अत्यंत ही प्राचीन हैं। प्रामाणिक तथ्य है कि किसी समुदाय विशेष की
संस्कृति के बारे में जानना हो तो उस समुदाय विशेष में प्रचलित लोकनृत्य देखकर
उसका अनुमान लगाया जा सकता है। लोकनृत्यों का हरियाणा के जनजीवन से सीधा संबंध है।
सही मायनों में हरियाणवी लोकनृत्य
हरियाणवी लोक संस्कृति के संवाहक हैं। हरियाणा में झूमर, लूर नृत्य, धमाल
नृत्य,
घोड़ी - बाजा नृत्य, तीज नृत्य, फाग नृत्य, डफ
नृत्य,
छठी नृत्य, खोड़िया नृत्य मुख्य रूप से प्रचलित नृत्य
शैलियां हैं। इनके अतिरिक्त मंजीरा नृत्य, खेड़ा नृत्य, सांग
नृत्य,
रसिया नृत्य तथा बीन-बांसुरी नृत्य आदि भी हरियाणा के विभिन्न अंचलों
में दिखाई देते है, हालांकि इन नृत्य शैलियों का प्रभाव हरियाणा के
आम जनमानस से अपेक्षाकृत सीमित है। हरियाणवी लोकनृत्यों का यह अद्भुत संसार
हरियाणा की सांस्कृतिक पहचान होने के साथ ही हरियाणवी आम जनमानस की आत्माभिव्यक्ति
है। हरियाणवी लोक संस्कृति के जीवंतता के प्रतीक इन लोकनृत्यों का अनोखा, लौकिक संक्षिप्त रूप निम्नवत् है।
झूमर नृत्य -
यह
नृत्य प्रसिद्ध पंजाबी नृत्य गिद्दा के समरूप दिखता है यही वजह है कि इसे हरियाणवी
गिद्दा भी कहा जाता है। झूमर राज्य के सभी भागों में समान रूप से किया जाता है।
झूमर महिलाओं के द्वारा किया जाता है, इसमें महिलाएं झूमर के आकार में खड़ी
होकर नाचती और गाती हैं। झूमर महिलाओं द्वारा पहने जाने वाला एक आभूषण होता है, जो
आमतौर पर युवा विवाहित लड़कियों द्वारा माथे पर पहना जाता है। यह नृत्य विशेष रूप
से महिलाओं द्वारा किया जाता है, यही वजह है कि यह झूमर के नाम से जाना
जाता है। झूमर नृत्य में महिलाएं गोल आकार में एकत्रित होकर ढ़ोलक और थाली की थाप
पर धीरे-धीरे नृत्य करना प्रारंभ करती हैं। झूमर नृत्य की विशिष्ट लय के साथ कई
मुद्राएं हैं। महिलाएं रंगीन वेशभूषा में घंटों तक इस नृत्य को करती रहती हैं।
नृत्य के दौरान एक लड़की आगे आकर गाना शुरू करती है। जब लड़की गाना गाती है तो एक
और लड़की आगे बढ़कर लयबद्धता से परिपूर्ण शिष्टता के साथ गीत की दूसरी पंक्ति साझा
करती है। कुछ समय बाद नृत्य की गति बढ़ जाती है। दूसरी लड़की अपनी जगह नहीं छोड़ती, लेकिन
गाना जारी रखती है। इसके साथ ही लड़कियाँ परस्पर ताली बजाती हैं। यह एक नये गीत की
शुरूआत से पहले एक छोटे विराम की तरह होता है।
लूर नृत्य -
लूर हरियाणा के बांगर क्षेत्र की एक प्रसिद्ध
नृत्यकला है। हरियाणा के दादरी क्षेत्र में लड़की के लिए लूर शब्द का उपयोग किया
जाता है और इस नृत्य में केवल महिलाएं और युवतियां ही भाग लेती हैं। संभवत: इन्ही
वजहों से ‘लूर’ नृत्य का नामकरण ‘लूर’ हुआ
होगा। यह फाल्गुन महीनें में होलिका दहन के दो सप्ताह पहले किया जाता है। फाल्गुन
माह में पुरूष जब होरी, फाग, फागण में मस्त रहते हैं, तब
इसी समय हरियाणवी युवतियों और महिलाओं की गेर रमती हैं। महिलाएँ घरेलू कार्यों से
निबटकर गाँव में लूर किए जाने वाले स्थल पर इकट्ठा होती है और उल्लसित भाव से एक
बड़े घेरे में नाचती हैं। लूरों में ज्यादातर कृषक वर्ग की महिलाएं भाग लेती हैं।
इस नृत्य की सबसे खास बात यह है कि यह नृत्य केवल महिलाओं के द्वारा किया जाता है
और यह नृत्य पुरूषों के द्वारा देखा जाना निषेध है।
लूर नृत्य के लिए परम्परागत वेशभूषा जैसे ओढ़नी, कुर्ती, लहंगे
पहने युवतियों व महिलाओं के झूलरे इकट्ठे होने लगते हैं। लूर के लिए एकत्रित
महिलाएं एक अर्द्ध गोले के रूप में एक दूसरे के सामने दो पंक्तियों में खड़े हो
जाते हैं, एक पार्टी एक गीत शुरू करती है और इसी के साथ महिलाएं आपस में अपने
हाथों के कांगसे उलझाकर झुकती, झपटती और कभी आगे बढ़ती कभी पीछे हटती, कभी
गोल आकार में घूमती हुए नाचना शुरू कर देती हैं। लूरों की अपनी विशिष्ट लय व ताल
है। लूर नृत्य के दौरान महिलाएं गीत भी गातीं हैं। गीत को ताल तालियां बजा कर और
पैर के ठमके से दी जाती है। एक दो दशक पहले होली त्यौहार के एक सप्ताह पूर्व एवं
बाद में शाम ढ़लते ही अधिकांश महिलाएं व युवतियां सामूहिक रूप से लोकगीत गाती हुई लूर नृत्य करती थीं, लेकिन वर्तमान
में अब कुछ ही स्थानों पर ही यह लूर नृत्य करती महिलाएं नजर आती हैं। कई गांवों
में पहले होली की मध्यरात्रि तक महिलाएं व युवतियां लूर नृत्य का लुप्त उठाती थीं, लेकिन
होली के रंगों के साथ ही लूर नृत्य की थिरकन भी मद्धिम पड़ गई है।
धमाल नृत्य -
धमाल
नृत्य को हरियाणा के सबसे पुराने लोकनृत्यों में से एक माना जाता है। धमाल नृत्य
महाभारत कालीन है। यह नृत्य फसल कटाई के
अवसर पर चांदनी रात में खुले मैदान में किया जाता है। धमाल नृत्य में युवक एवम्
पुरूष ही भाग लेते हैं। धमाल नृत्य गुरूग्राम, झज्जर एवम्
महेन्द्रगढ़ में अत्यंत ही लोकप्रिय है। धमाल में रणबांकुरों की ओजस्विता एवम्
वीरता की झलक मिलती है। धमाल फाल्गुन माह की रातों में बरसती धवल चांदनी के
सानिध्य में किया जाता है। फाल्गुन में जब कोहरे की धुंध धरती से हट जाती है और
बसंती हवाओं से वातावरण गुलजार हो उठता तब नर्तक एक खुली जगह में धमाल मचाने के
लिए अर्द्ध गोलाकार रूप में इकट्ठा हो जाते हैं। नृत्य के शुरू होने पर ‘बीन’ की
एक लंबी सुखद धुन बजाई जाती है और किसी एक नर्तक के आलाप लेते ही धमाल की आवाज के
साथ ही नर्तक गीत गाना प्रारंभ कर देते हैं और जमीन पर झुकते हैं, नर्तकों
का इस तरह झुकना देवी-देवताओं से आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करना होता है। धमाल के
गीत प्यार-मोहब्बत और लोक जीवन के असीमित
झंझावातों के बोझ से संबंधित होते हैं। नर्तक धमाल के माध्यम से ग्रामीणों के
सुख-दुख, आशा-आकांक्षा, प्रेम-विरह, हर्ष-उल्लास को
नृत्य के विभिन्न भाव-भंगिमाओं से दर्शाते हैं। धमाल में पंद्रह से बीस नर्तक भाग
लेते हैं जिनमंण से कई नर्तक संगत के लिए
अपने हाथों में विशेष प्रकार से सजाये गए बड़े डफ लिए होते हैं। धमाल में संगीत की
धमक के लिए सारंगी, बीन, ढ़ोलक, ताशा और खर्तल
जैसे पुराने संगीत वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है।
फाग नृत्य -
फाग नृत्य के माध्यम से कृषक समाज के लोग अपनी
खुशी और उत्साह व्यक्त करते हैं। हरियाणा अपनी आधुनिक खेती के लिए जाना जाता है।
फरवरी-मार्च महीने के दौरान उन्हें बुवाई
और कटाई के बीच थोड़ा अवकाश मिल जाता है। फसलें जहां अच्छी तरह पुष्ट हो रही होती
हैं,
इस समय बंसत का आगमन होता है ऐसे में ग्रामीण लोकगीत और नृत्य के
माध्यम से खुद को व्यक्त न करें ऐसा संभव ही नहीं है। इस नृत्य में पुरूष और महिला
समूह में एक साथ नृत्य करते हैं। नृत्य करते हुए
वे उन्हें अपने हाथों, आंखों और पैरों के माध्यम से अपनी
सामूहिक भावनात्मक अभिव्यक्ति देते हैं। फाग नृत्य में विभिन्न प्रकार की भाव
प्रवणता होती है जिसके लिए संगीतिक समन्वय
के साथ की आवश्यकता होती है।
फाग नृत्य के दौरान महिलाएं अलग-अलग रंगों के पारंपरिक
परिधान पहनती हैं वहीं पुरूष अपनी पगड़ी में अलग-अलग रंग प्रदर्शित करते हैं।
पुरूष फाग प्राचीन दामल शैली में गाते हैं, जो कि नृत्य और
गीत का संयोजन होता है। यह एक मिश्रित नृत्य है, लेकिन कभी–कभी
यह केवल पुरुषों द्वारा किया जाता है। लेकिन प्रत्येक मामलों में फाग नृत्य के
दौरान गाये जाने वाले गानों में भिन्नता होती है।
डफ नृत्य –
यह
नृत्य भी फसल की कटाई और बसंत ऋतु के आगमन से जुड़ा हुआ है। डफ नृत्य किसानों की
खुशहाली की भावनाओं को प्रदर्शित करता है। डफ नृत्य में गांव के हर वर्ग समुदाय के
महिला-पुरूष इस नृत्य में अलग-अलग भाग लेते हैं। मधुर धुनों के लिए प्राचीन
हरियाणवी वाद्ययंत्रों जैस कि बांसुरी, सारंगी, बीन का इस्तेमाल
किया जाता है। इस नृत्य में विशेष रूप से डफ वाद्य यंत्र का उपयोग किया जाता है।
इस अवसर पर महिलाओं के द्वारा पहने जाने वाले गहनों की आवाज भी नृत्य का अभिन्न
हिस्सा बनकर भावनाओं के प्रवणता को प्रदर्शित करने में अहम हो जाती है।
घूमर नृत्य-
घूमर
राजस्थान प्रांत का प्रमुख नृत्य है, लेकिन राजस्थान की सीमा से सटे हुए
हरियाणा राज्य के लोहारू, दादरी और हिसार और भिवानी में भी यह नृत्य
अंत्यत ही लोकप्रिय है। घूमर नृत्य महिला भक्तों के द्वारा मंदिर के रास्ते में
किया जाता है। इसमें युवा महिलाएं और लड़कियाँ अपने हाथों में कांसे की थाली लेकर
भक्ति गीत गाते हुए मंदिर जाती हैं। यह नृत्य दिवाली, होली, बसंत
के आगमन तथा गणगौर पूजा के स्थानीय समारोह के अवसर पर किया जाता है। अपने हाथों
में कांसे की थाली लेकर लड़कियों द्वारा एक गोला बनाकर गाना शुरू करते ही सहयोगी
संगीतकार वाद्य यंत्रों को थाप देना शुरू कर देते हैं परिणामत: महिलाएं और युवतियां सरलतम विस्पंदन में अपनी बाहें
उठाकर धीरे-धीरे नाचने लगती हैं। युवतियों का कलीदार घाघरे में कुम्हार के चाक की
तरह घूमना इस नृत्य की खास पहचान है। महिलाएं जब वृत्ताकार रूप में नृत्य करती हुई
व्यंग्य और हास्य से परिपूर्ण गीत गाती और तालियों की थाप देती हैं तब धीरे-धीरे नृत्य अपने चरम पर पहुंचने लगता है।
नृत्य की गति जब बढ़ जाती है तब युवतियों के जोड़ों की कदमताल में भी तेजी आ जाती
है और उनकी लहराती और बलखाती देह उन्मत्त होकर नृत्य को उसके चरमोत्कर्ष पर ले
जाती हैं।
गुग्गा नृत्य
या छड़ी नृत्य-
गुग्गा नृत्य विशेष रूप से पुरूषों द्वारा किया
जाने वाला धार्मिक नृत्य है। यह नृत्य भादों के महीने में हरियाणा के ग्रामीण
इलाकों में गोगा जी या गुग्गा के भक्तों के द्वारा किया जाता है। गोगा जी लोक
देवता है और लोगों में गुग्गा पीर, गुरु गुग्गा, जहीर पीर और बगरवाला
जैसे नामों से जाने जाते हैं। गुग्गा की पूजा न केवल हरियाणा बल्कि राजस्थान, पंजाब
और हिमाचल जैसे पड़ोसी राज्यों में भी होती है। गुग्गा पीर का जन्म राजस्थान के
बीकानेर जिले के दादरवा गांव में भादों नवमी के दिन हुआ था। भादों नवमी का दिन
गुरु गुग्गा के जन्मदिन के रूप में पूरे उत्तर भारत में मनाया जाता है। गुग्गा
हिंदू और मुसलमान दोनों में ही समान रूप से पूजे जाते हैं।
गुग्गा
नवमी से एक या दो हफ़्ते पहले गुग्गा के भक्त पीले रंग का परिधानों में एक भगत के
नेतृत्व में शोभा यात्रा निकालते हैं जिसे ‘गुग्गा किछारी’ कहा
जाता है। ‘किछारी’ एक मजबूत छड़ी या बांस का लंबा डंडा होता है
जिसे हारों, फूलों, मोरपंखों और रंगीन कपड़ों के कतरनों की सहायता
से सजाया जाता है। यही वजह है कि इस धार्मिक नृत्य शैली को छड़ी नृत्य के नाम से
भी जाना जाता है। गुग्गा नृत्य में पांच भगत मुख्य नर्तक होते हैं। वे संगीत
वाद्ययंत्र जिसमें ढ़ोलक, मंजीरा, डेरू (एक छोटा
डमरू),
चिमटा और झांझ शामिल हैं, साथ में लेकर गूग्गा की शौर्य गाथा
गाकर चलते हुए झूम-झूमकर नाचते हैं। यह नृत्य निनांत ही सरल है जिसमें नर्तकों के
पैर ताल या गाने के अनुसार चलते हैं जैसे ही गाने की गति बढ़ती है, वैसे
ही गुग्गा के भगत गमगीन होकर रोना शुरू कर देते हैं और लोहे की जंजीर के साथ अपनी
छाती पीटते हैं। लोहे की जंजीर के प्रहार
से गुग्गा भक्तों को पीड़ा नहीं होती है ऐसी मान्यता है इस समय गुग्गा का उनके
अंदर प्रवेश हो गया होता है। सही मायनों में गुग्गा नृत्य गुग्गा के भक्तों को आध्यात्मिक उत्साह से
लबरेज कर देता है।
खोड़िया नृत्य –
यह
नृत्य लड़के के विवाह के समय औरतों के द्वारा बरात जाने के बाद किया जाता है। यह
नृत्य औरतों द्वारा रातभर जागकर किया जाता है। खोड़िया नृत्य आम तौर पर दूल्हे के
आगमन के इंतजार में किया जाता है ताकि वह अपनी दुल्हन घर ला सके। खोड़िया नृत्य के दौरान महिलाएं संपूर्ण विवाह
प्रक्रिया का प्रदर्शन नृत्य के माध्यम से करती हैं। इस नृत्य से महिलाएं
नवविवाहित जोड़े के साथ ही बरात की
सुरक्षित वापसी के बारे में प्रार्थना करती हैं। खोड़िया नृत्य में शामिल
महिलाओं की देह भाषा मदमस्त और काम क्रिया से भी संबंधित होती है लिहाजा छोटे
बच्चों को भी इससे दूर रखा जाता है। खोड़िया संभवत: रात के तकरीबन 9 से
10 बजे के मध्य जब वधू पक्ष के यहां वेदी पर
मंगलाचारण की शुरूआत होती है लगभग उसी समय वरपक्ष के यहां तालियों की ताल और
देवी-देवताओं के स्तवन के साथ खोड़िया नृत्य का शुभारंभ हो जाता है।
खोड़िया नृत्य झूमर नृत्य की ही एक प्रकार है।
खोड़िया नृत्य हरियाणा के मध्य क्षेत्रों में अत्यंत ही लोकप्रिय है। खोड़िया
नृत्य न केवल शादी – ब्याह बल्कि लोगों के आम जिंदगी और फसलों की
कटाई के महत्वपूर्ण आयोजनों के साथ जुड़ा हुआ है। खोड़िया में लोक गीत गाया जाता
है। हरियाणा के अन्य नृत्यों की तरह ही
लड़कियां नाचने वाले स्थान में प्रवेश करके गोलाकार आकृति के स्वरूप में एकत्रित
हो जाती है। नृत्य के दौरान महिलाओं का चक्कर खाते हुए सुनहरे रंग का लहंगा और रंगीन चुनरी के साथ ही भारी देहाती आभूषणों की चमक और मधुर ध्वनि सरल गति रूप प्राप्त कर लेती है।
महिलाओं के मद्धम कदम तेज लय के साथ तेजी से थिकरने लगते हैं, जब
दो या तीन लड़कियों के जोड़े गोले से अलग होकर इसके मध्य में अपने दोनों हाथों को
एक-दूसरे की विपरीत करके एक-दूसरे के साथ अपने स्थान पर खड़े होकर अपने पैरों पर
भंवरनुमा घूमती हैं तब गोले पर स्थिति युवतियां ढ़ोलक की थाप पर तालियों से संगत
देने लगती हैं और इस तरह से खोडिया नृत्य का अंतिम चरण नृत्य घेरे के आसपास संपन्न
होता है।
गणगौर पूजा नृत्य-
यह नृत्य राजस्थान की सीमा से सटे हरियाणा के
गांवों में किया जाता है। यह ईश्वर और गणगौर (भगवान शिव और पार्वती) की पूजा
समारोह में महिलाओं के द्वारा किया जाने वाला औपचारिक नृत्य है, इसमें
महिलाएं रंगीन वेशभूषा के साथ पारंपरिक गहने जेवर पहनकर तथा अपने सिर
पर कांसे का घड़ा रखकर गोल आकार में घूमती हैं। वृत्त में महिलाओं का नृत्य संगीत
के अनुसार बदलता रहता है। नृत्य में नर्तकियों की मुस्कान एक महत्वपूर्ण तत्व हैं।
यह अच्छी फसल के लिए देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए भक्ति नृत्य है और
आम तौर पर यह फाल्गुन और चैत के महीनों
में किया जाता है। कभी-कभी नृत्य एक कीर्तन का रूप ले लेता है, जो
भगवान शिव और पार्वती के प्रेम से जुड़ा होता है। लड़कियां गोलाकार आकृति में
एक-एक करके प्रवेश करती हैं, नृत्य
करती हैं और भक्ति गीत गाती हैं और यह
नृत्य कई घंटों तक अनवरत रूप
से जारी रहता है।
घोड़ी बाजा
नृत्य -
यह नृत्य विवाह संस्कार के शुभ अवसर पर पुरूष
नर्तकों द्वारा किया जाता है। नृत्य में वाद्ययंत्रों की प्रमुखता होती है। पहले
जब हाथी–घोड़ों पर बरात जाती थी, तब बराती उंमग में सराबोर होकर घोड़े – घोड़ियों
को नचाते थे, वहीं बाजा बजाने वाले मस्त होकर बाजा बजाते थे। घोड़ी बाजा नृत्य इसी
सांस्कृतिक परिपाटी का सांकेतिक रूप है जो विवाह संस्कार को विराटता प्रदान करने
के साथ ही हर्षोउल्लास से परिपूर्ण करता है।
घोड़ी बाजा नृत्य की मण्डलियो में पांच छ: बाजा
बजाने वालों के अलावा दो नर्तक होते हैं जिनकी कलात्मक भाव –भंगिमाएं
बराती और घरातिओं को सर्वाधिक आकर्षित करती है। इनमें से एक नर्तक नायक बनता है
जबकि दूसरा नर्तक नायिका। नायक नर्तक कागज एवम् बांस की बनी हुई घोड़ी को धारण करता
है। कागजों से बनी घोड़ी अत्यंत ही हल्की होने के साथ ही इसके बीच में इतना स्थान
रिक्त रखा जाता है कि घुड़सवार का अभिनय करने वाला नर्तक की देह इसमें से आसानी से
ऊपर निकल सके। घोड़ा बाजा नृत्य में इस्तेमाल होने वाली इस कागजी घोडी में अनेक
रंगी-बिरंगी चमकीली पन्नियां लगी होती हैं। घुड़सवार नर्तक वीरवेश में होता है तथा
अपनी कमर में धारण करते हुए ऐसा लगता है कि वह घोड़ी की पीठ पर आसीन है। नृत्य में
इस्तेमाल घोड़ी की टांगे नहीं होती। ऐसे में नर्तक के घुंघुरू बंधे पांव घोड़ी की
टांगों का काम करते हैं। इसके चारों ओर नीचे तक कपड़ा लगा होता है ताकि नर्तक के
पांव न दिखाई दें।
घोड़ी बाजा नृत्य चलता-फिरता नृत्य है यह किसी
खुले स्थान या फिर किसी गली में इसका प्रदर्शन किया जाता है। घोड़ी बाजा नृत्य में
दर्शक नर्तकों के साथ चलते हैं। कई बार जब यह नृत्य जब अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचता
है तो दर्शकों का थोड़ा दूर खड़े होकर इसे देखना ज्यादा बेहतर होता है।
छठी नृत्य-
देश के हर प्रांत के हर समुदाय में बच्चे का
जन्म बड़े ही धूमधाम और आनंद से मनाया जाता है। छठी नृत्य भी एक धार्मिक नृत्य है, बच्चे
के जन्म के छठे दिन किया जाता है। यह नृत्य औरतों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य
की खास बात यह है कि केवल पुत्र जन्म पर ही इसे किया जाता है। छठी नृत्य मूलत:
रोमांटिक नृत्य है और रात के समय में किया जाता है। छठी नृत्य के अंत में लोगों को
उबला हुआ गेहूं और चने का प्रसाद वितरित किया जाता है। उपरोक्त वर्णित इन लोक
नृत्यों के अलावा हरियाणा में कई और निनांत ही
सीमित लोकनृत्यों का प्रचलन हैं। जैसे मंजीरा नृत्य मेवात क्षेत्र में
प्रचलित है। मंजीरा नृत्य पुरूषों एवम् महिलाओं दोनों के द्वारा किया जाता है।
मंजीरा नृत्य को मंजीरों, डफ और नगाड़ों के साथ किया जाता है। इसके साथ
ही रासलीला जो कि भारत के सुखद नृत्यों में से एक है, राज्य के
फरीदाबाद जिले के बृज इलाके में रहने वाले लोगों के मध्य आम लोकनृत्य है। सांग
(स्वांग) नृत्य भी हरियाणा का एक लोकप्रिय नृत्य है, जो कि हरियाणवी
संस्कृति को सही मायने में दर्शाता है। सांग में एक समूह जिसमें दस से बारह
व्यक्ति शामिल होते हैं। यह नृत्य मुख्य रूप से धार्मिक कहानियों और लोक कथाओं को
प्रदर्शित करता है। इन सब के अतिरिक्त खेड़ा नृत्य, रसिया नृत्य तथा
बीन-बांसुरी नृत्य भी हरियाणा में देखने को मिलते हैं।
निष्कर्ष -
अनिल कुमार पाण्डेय
सहायक प्राध्यापक
(पत्रकारिता एवम् जनसंचार)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
सेक्टर -1, पंचकूला
सम्पर्क
mcrpsvvanil@gmail.com |
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