महाकाव्य के रूप में प्रसाद की कामायनी का वैशिष्ट्य
‘कलाधर’ उपनाम से कविता की रचना करना आरंभ कर दिया था। प्रेम और सौंदर्य
इनके काव्य के प्रधान विषय हैं। मानवीय संवेदना उसका प्राण है। अनुभूति की तीव्रता,
वेदना, कल्पना-प्रवणता आदि
प्रसाद काव्य की विशेषताएँ हैं। हिन्दी कविता में छायावाद को प्रतिष्ठित करने का श्रेय
प्रसाद को ही है। डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना के शब्दों में - ‘‘प्रसाद छायावाद की
काव्यधारा के प्रवर्तक ही नहीं हैं, अपितु उसकी प्रौढ़ता, शालीनता, गुरूता, गंभीरता के भी पोषक
कवि हैं। प्रसाद की कविताओं में प्रकृति के सचेतन रूप के साथ-साथ मानव के लौकिक एवं
पारलौकिक जीवन की जैसी रमणीक झांकी अंकित है, वैसी किसी अन्य कवि
की कविता में दृष्टिगोचर नहीं होती।”1 प्रसाद जी अपने युग के अत्यंत प्रतिभावान
एवं जागरूक छायावादी कवि हैं। मात्र नौ वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने
‘कामायनी’आधुनिक हिन्दी साहित्य
का अमर महाकाव्य है, जिसमें आधुनिक युग की विशेषताओं और प्रवृत्तियों का पूर्ण प्रतिनिधित्व
हुआ है और जो अनेक दृष्टियों से अपने युग के पूर्ववर्ती समस्त भारतीय महाकाव्यों से
भिन्न एक निराले स्थान का अधिकारी है। छायावादी काव्यधारा के अंतर्गत जो काव्य लिखे
गए, उन सभी में प्रसाद
का ‘कामायनी’ अत्यंत महत्वपूर्ण
स्थान रखता है। आधुनिक युग की मीरा कही जाने वाली हिन्दी की प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी
वर्मा जी ने लिखा है-‘‘प्रसाद जी की कामायनी महाकाव्यों के इतिहास में एक नया अध्याय
जोड़ती है, क्योंकि वह ऐसा महाकाव्य है जो ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित है और सांकेतिक अर्थ
में मानव विकास का रूपक भी कहा जा सकता है। कल्याण भावना की प्रेरणा और समन्वयात्मक
दृष्टिकोण के कारण वह भारतीय परम्परा के अनुरूप है।”2 इस प्रकार प्रसाद
जी ने ‘कामायनी’ में स्थूल पौराणिक
या ऐतिहासिक घटनाओं के भीतर निहित सूक्ष्म और चिरंतन भाव सत्यों की खोज करके उन्हें
शाश्वत जीवन मूल्यों के रूप में प्रतिष्ठित किया है और उन्हें ही ‘आत्मा की अनुभूति’ कहा है।”3 प्रसाद का यह महाकाव्य
पूर्ववर्ती सभी महाकाव्यों से भिन्न भूमिका पर प्रतिष्ठित है क्योंकि इसमें स्थूल घटनाओं
और पात्रों की नहीं, अपितु सूक्ष्म मनोवृत्तियों और भावनाओं के विकास क्रम की कथा
कही गई है।
कथा क्रम की दृष्टि से कामायनी की कथा का
आधार पौराणिक एवं ऐतिहासिक है। शतपथ ब्राह्मण की जलप्लावन घटना से लेकर पुराणों में
बिखरी हुई सामग्री तक का प्रयोग प्रसाद ने किया है। वस्तुतः प्रसाद जी अत्यंत प्राचीन
कथा के द्वारा मानव के विकास की सरणियों का निरूपण करना चाहते थे। प्रसाद ने ‘कामायनी’ में समस्त कथा सूत्रों को एकत्र करके आदि मानव के विकास की कथा
कही है।
‘कामायनी’
के कथानक की दूसरी
विशेषता यह है कि इतनी बड़ी कथा होते हुए भी प्रसाद जी ने संक्षिप्त एवं सांकेतिक रूप
में उसकी विकास सरणियों को स्पष्ट किया है। वन्य जीवन, नागर सभ्यता, यांत्रिक सभ्यता,
उससे पलायन और अंत
में आध्यात्मिक जीवन के चित्रण द्वारा हमें कथा के विकास की विभिन्न सरणियां प्राप्त
होती हैं। इसी कारण कथा एक सुनियोनित रूप से आगे बढ़ती रहती है। कवि ने बताया कि देव-संस्कृति
का विकास मानव के लिए अभिप्रेरित नहीं है, और न यह उसका लक्ष्य है। उसका लक्ष्य है समरसता
के द्वारा आनंद की प्राप्ति। भावनाओं और दृष्टिकोणों का समन्वय ही समरसता है। नारी-पुरूष,
हृदय-बुद्धि,
सुख-दुःख, आशा-निराशा आदि सभी
दृष्टिकोण से कामायनी का लक्ष्य जीवन में सामंजस्य का प्रयास है। मानव का प्रतीक मनु
इस समन्वय दृष्टि से वंचित होने के कारण अनेक कष्ट भोगता है। उसके हृदय पक्ष और बुद्धिपक्ष
परस्पर संघर्षरत रहते हैं और यह द्वंद्व तब तक चलता रहता है, जब तक श्रद्धा जीवन
में समन्वय नहीं ला देती। प्रसाद जी की धारणा है कि मन से समरसता, सामंजस्य स्थापित करने
से ब्राह्य जगत में भी संतुलन स्थापित हो जाएगा। इस संतुलन से ही व्यक्ति अपने मूल
तत्व का विकास कर सकता है और यही उसका वास्तविक विकास है।
‘कामायनी’
के कथानक द्वारा कवि
ने मानवत्व की प्रतिष्ठा का भी अनुपम प्रयास किया है। मनु के मन में एकांत के कारण
जिन मानसिक वृत्तियों का उदय होता हैं, उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण मन के रहस्यों
का उद्घाटन करता चला जाता है। ‘कामायनी’ मानवता के उस विकास
को लेती है, जिसमें उठती-गिरती मानवता निरंतर गतिमान रहती है। मानव मन का
अंत विश्लेषण करते हुए प्रसाद जी ने उसमें अनेक भावनाओं का आरोह-अवरोह दिखलाया है।
मानव के जीवन में नारी का प्रवेश एक महत्वपूर्ण घटना है। श्रद्धा मनु में एक नवीन भावना
को जन्म देती है। उसकी इच्छा है ‘मानवता विजयिनी हो’। प्रसाद जी अंत में
मानवता की विजय ही घोषित करते हैं। पूर्ण मानव का चरित्रांकन उसका मुख्य विषय है।
‘कामायनी’
के कथानक की अन्य मुख्य
विशेषता यह है कि इसकी कथा में ऐतिहासिक सत्य का आधार तो लिया ही गया है, उसमें मानवता का मनोवैज्ञानिक
इतिहास भी उद्घाटित किया गया है। मनु-श्रद्धा, इड़ा संबंधी प्राचीन
कहानियों में जो रूपक तत्व निहित है, उसी के सहारे कामायनी में प्रस्तुत कथा के
आवरण में मानव के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विकास की कथा कही गई है और यह रूपक योजना
प्रसाद जी की अपनी कल्पना की उपज और उनकी मौलिक देन है। नंददुलारे वाजपेयी ने लिखा
है-‘‘प्रसाद ने मानव वृत्तियों का निरूपण करने वाले अपने काव्य में दार्शनिकता का आभास
अवश्य दिया है पर वह दार्शनिकता काव्य का अंग बनकर आई है और उसकी प्रकृति भावना भूमि
पर ही अधिष्ठित है। वह काव्य के वस्तु वर्णन और भावात्मक स्वरूप को किसी प्रकार ठेस
नहीं पहुँचाती।”4 इस प्रकार ‘कामायनी’ में रूपकत्व संबंधी एक ऐसी विशेषता आ गई है, जो भारतीय या पाश्चात्य
किसी भी रूपक कथा में देखने को नहीं मिलती है। ‘कामायनी’ के कथानक की विशिष्टता पर विचार करते हुए कुछ अन्य तत्वों पर
भी हम ध्यान दे तो ज्ञात होता है कि कथासूत्र में क्रम स्थापित करने के लिए प्रसाद
ने कल्पना का भी आश्रय लिया है। किन्तु श्रद्धा के संदेश, मनु के आंतरिक द्वंद्व
आदि के द्वारा उन्होंने सत्य का प्रतिपादन किया है। कथा का आधार भारतीय दर्शन है।
‘कामायनी’
की कथा के अतिरिक्त
इसके चरित्र भी प्रसाद जी ने प्राचीन ग्रंथों से ग्रहण किए हैं। मनु, श्रद्धा, इड़ा का नाम अनेक प्राचीन
ग्रंथों में मिलता है। भारतीय विद्वानों ने महाकाव्य में नायक के चरित्र का धीरोदात्त
गुण समन्वित होना आवश्यक माना गया है। जिसका तात्पर्य यह है कि उसे उन नैतिक सामाजिक
और धार्मिक आदर्शों का प्रतीक होना चाहिए, जिन्हें तत्कालीन समाज में मान्यता प्राप्त
थी। आधुनिक युग में चरित्रों की मान्यता में भी परिवर्तन हो गया है। आज यह माना जाता
है कि चरित्रों को यथार्थ में मानव का चित्र होना चाहिए, आदर्शवादी नहीं। नायक
के चरित्र-चित्रण की चली आती हुई परम्परा में प्रायः आदर्श और महानता का जो ग्रहण हुआ
है, उसके स्थान पर मनु की चरित्र सृष्टि में प्रसाद ने यथार्थ को अधिक ग्रहण किया है।
मनु एक साधारण मानव है, जो जीवन के समस्त संघर्षों को झेलता हुआ अंत में आनंद तक पहुँच
जाता है। वह वासना, ईर्ष्या की स्वाभाविक दुर्बलताओं से ग्रसित रहता है,
किन्तु आगे बढ़ने की
उसकी आकांक्षा नहीं मरती। ‘कामायनी’ के नायक मनु में धीरोदात्त
नायक के लक्षण न होने पर भी काव्योचित ह्रास के क्षेत्र में वह एक नितांत, नवीन कल्पना है। कवि
ने उसे मानव गुणों और मानवीय दुर्बलताओं से निर्मित किया है। प्राचीन शास्त्रों में
महत् चरित्र की ऐसी कोई कल्पना नहीं थी। इस नवीन कल्पना का श्रेय प्रसाद का अत्यंत
यथार्थवादी दृष्टिकोण प्रकट करता है और यह आज के युग के अनुरूप ही है - यही मनु का
चरित्र चित्रण संबंधी वैशिष्टय है।
इसके साथ ही प्रसाद जी ने श्रद्धा और इड़ा
के जो चरित्र प्रस्तुत किए वे यथार्थवादी धरातल पर होते हुए भी मानव जीवन की उच्च सुरूचियों
और उच्च भावनाओं के स्वरूप के प्रतीक हैं। यह भी एक महान प्रयास है और यह तत्व महाकाव्य
परम्परा को नया आयाम देता है। इसी प्रकार इड़ा भी एक बुद्धिवादी नारी के रूप में चित्रित
हुई है। वह अपनी एकांगी बौद्धिक प्रवृत्तियों के होते हुए भी मानवीय गुणों से सम्पन्न
हैं। वह निराश मनु को आश्रय देती है। अंतिम समय तक वह मनु को प्रेरित करती है। इड़ा
का अंतिम स्वरूव विनम्र हो गया है। वास्तव में बुद्धिमयी होते हुए भी वह अमानवीय,
असहिष्णु तथा निमर्म
नहीं है। बुद्धि रूप में वह एक शक्ति है, जिसका मनु उचित प्रयोग नहीं कर सकें। इस प्रकार
‘कामायनी’ के पात्र केवल ऐतिहासिक
अथवा पौराणिक बनकर नहीं रह जाते, वे युगों पूर्व के होकर भी नवीनतम परिस्थितियों में चलते दिखाई
देते हैं। इतिहास के अतीत में नवीनता का सृजन एक कुशल कलाकार ही कर सकता है और यही
‘कामायनी’ का चरित्रगत वैशिष्ट्य
है।
शैली की दृष्टि से ‘कामायनी’ हिन्दी में अपने ढंग का निराला महाकाव्य है। उसमें शैली की वह
गरिमा, भव्यता और उदात्तता पूर्ण रूप में विद्यमान है, जिसके बिना कोई काव्य
‘महाकाव्य’ पद का अधिकारी नहीं
हो सकता। ‘कामायनी’ में शैली के विविध
तत्वों और पक्षों तथा अभिव्यक्ति के विविध स्वरूपों की पूर्णता है और उन सबके सामंजस्य
से ही उसमें शैलीगत और उदात्तता की प्रतिष्ठा हुई हैं। यहाँ हमें भावनाओं की सत्यता,
व्यापकता और गहनता
मिलती हैं।
‘कामायनी’
में अनुभूति की सूक्ष्मता
और जटिलता की अभिव्यक्ति के लिए अभिव्यंजना के सभी कौशलों के उपयोग किए गये हैं। हमें
इस महाकाव्य में लाक्षणिकता, ध्वन्यात्मकता, प्रतीकात्मकता एवं चित्रात्मकता, सुसंगठित अलंकार विधान
सुंदर भाषा और सरल शब्द चयन आदि गुण प्राप्त होते हैं। ‘कामायनी’ का शिल्प किसी परम्परागत पद्धति का अनुसरण नहीं करता। कवि ने
अपनी उदात्त कल्पना, प्रांजल अभिव्यक्ति से उसकी संपूर्ण योजना का निर्वाह किया है।
काव्य में गीतिमयता का ग्रहण हमें अधिक मिलता है। माधुर्य गुण सम्पन्न भाषा भावों की
लहर उठाती चलती है।
‘कामायनी’
में नाटकीय शैली को
ग्रहण किया गया है। मनु और श्रद्धा के मन में उठने वाले भाव और विचार मूर्तिमान होकर
संवाद रूप में प्रस्तुत हुए हैं। इसके साथ ही पात्रों के पारस्परिक कथोपकथन भी कथानक
को गतिमान करते हैं। ‘कामायनी’ की नाटकीयता उसके सौंदर्यवर्धन
में सहायक हुई है। कामायनी की स्वच्छंदता अनुपम है।
प्राचीन समय में वस्तु वर्णन महाकाव्य का
आवश्यक महत्वपूर्ण अंग था। वर्णनात्मक शैली पर महाकाव्य रचे जाते थे। प्रसाद ने इस
बाह्य वस्तु वर्णन को अंतर्मुखी कर दिया है। मानवीय भावनाओं के प्रकाशन में उन्होंने
संपूर्ण अवधान केन्द्रित कर दिया। सुख-दुःख, आशा निराशा के अतिरिक्त
मन में उठने वाले सभी विचारों का सम्यक प्रकाशन हुआ है। ‘कामायनी’ अपने मनोवैज्ञानिक निरूपण के कारण अधिक भावात्मक तथा अंतर्मुखी
हो गई। वस्तु का स्वरूप न चित्रित करके उसका मानव पर पड़ने वाला प्रभाव चित्रित किया
गया हैं। हम कह सकते हैं कि प्रसाद की शैली वर्णन, वर्णन-प्रधान या विषय-प्रधान
बहुत कम है, विश्लेषण प्रधान और विषयी प्रधान अधिक है।
भाव अभिव्यंजना की सरसता गीतिकाव्य में मिलती
है। ‘कामायनी’ में यह गीतितत्व प्रमुखता
से पाया जाता है। वर्णन प्रधान महाकाव्य में इसका अभाव देखा जाता है। प्रसाद ने अपने
भावों के अनुरूप ही इस शैली को अपनाया है। गीतात्मक शैली द्वारा महाकाव्य का यह निर्माण
कवि का मौलिक प्रयास हैं। इस प्रकार शैली की दृष्टि से भी हमें यहाँ विशिष्टता परिलक्षित
होती है। आशा, वासना और लज्जा जैसी मनोवृत्तियों को चित्र तुल्य साकार रूप
देना ‘कामायनी’ काव्य की ही विशेषता
है।
उद्देश्य की दृष्टि से प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में मानव जीवन के संभावित विकास को दिखाया है और उसका आनंदमय
जीवन किस रूप में सम्पन्न हो सकता है, इसका भी निरूपण किया है। उद्देश्य की महानता
की दृष्टि से इसकी तुलना तुलसी के ‘मानस’ से की जा सकती है।
‘मानस’ की तरह ‘कामायनी’ का उद्देश्य भी मानवतावादी और कल्याणकारी हैं। बौद्धिकता और
भौतिकता के अतिरेक से पीड़ित और विविध प्रकार के संघर्षों में टूटे हुए मानव को चरम
शांति का मार्ग बताना ही यहाँ कवि का उद्देश्य है। प्रसाद जी ने बताया है कि आज के
इस संघर्षमय जीवन में बौद्धिकता को श्रद्धा से संयमित करके ही अखण्ड आनंद की उपलब्धि
और विश्व शांति की स्थापना हो सकती है। आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन तथा इच्छा, ज्ञान,
क्रिया के बीच सामंजस्य स्थापित करना और इस तरह मानव-मानव के बीच की दूरी को मिटाकर
पूर्ण मानवता की प्रतिष्ठा करना ही कवि का चरम लक्ष्य है।
आज मानवता बौद्धिकता और विज्ञान के सहारे
भौतिक उन्नति के शिखर पर पहुँच चुकी है, परन्तु इस उन्नति के क्रम में उसके हार्दिक
गुणों का निरंतर ह्रास होता गया हैं। ऐसे संतप्त विश्व-मानव को प्रसाद ने एक महान आशाजनक
संदेश दिया है और वह है श्रद्धा या आध्यात्मिक आस्था का संदेश-
रेनू सिंह
शोध छात्रा (हिंदी)
वनस्थली विद्यापीठ(राजस्थान)
सम्पर्क
7248560655
renusinghpundir@yahoo.com
|
चिर-विषाद विलीन मन
की,
इस व्यथा के तिमिर
वन की,
मैं उषा सी ज्योति
रेखा, कुसुम विकसित प्रातः रे मन!
जहाँ मरू-ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन घाटियों
की, मैं सरस बरसात रे मन!’’5
इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है
कि महाकाव्य के तत्वों में से प्रत्येक में वैशिष्ट्य के समावेश से प्रसाद रचित ‘कामायनी’ महाकाव्य परम्परा में एक नवीन मोड़, नया धरातल तथा मानदण्ड
प्रस्तुत करती है। इस महाकाव्य में नवीन प्रयोग किए गए, जो आगे आने वाले समय
में भी नया मार्ग प्रशस्त करेंगे। प्रसाद जी ने कामायनी में संसार की परिवर्तनशीलता
का उल्लेख करते हुए जीवन की क्षण-भंगुरता की ओर भी संकेत किया है।
संदर्भ
1. हरीश अग्रवाल, जयशंकर प्रसाद एक विशेष अध्ययन, हरीश प्रकाशन मंदिर,
आगरा, (उत्तर प्रदेश),
पृ. 8
2. गंगाप्रसाद पाण्डेय, महादेवी वर्मा,
कामायनी-एक परिचय,
भूमिका से,
पृ. 8
3. जयशंकर प्रसाद, कामायनी की भूमिका से, पृ. 4
4. नंददुलारे वाजपेयी, आधुनिक साहितय, पृ. 71-72
5. जयशंकर प्रसाद, कामायनी, निर्वेद सर्ग,
पृ. 229
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
ज्ञानबर्धक व रोचक निबंध। शब्द की गरिमा विचारों की अभिव्यक्ति में सुंदर सामंजस्य बिठाती है।
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