‘टुकड़ा–टुकड़ा जीवन’ आत्मकथा में दलित नारी अस्मिता
सभी नारियों को हिन्दू धर्म के आधार पर शूद्रों की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय हिन्दू समाज व्यवस्था का आधार ‘मनुस्मृति’ है। मनु ने समाज में नारी को अधिकारहीन और अस्तित्वहीन के रूप में निरुपित किया है। मनुस्मृति के आधार पर समाज में नारी को स्वतंत्रता, शिक्षा व संपत्ति का अधिकार नहीं था। उसे पुरुष के समक्ष समानता का अधिकार भी नहीं था। पुरुष प्रधान समाज में नारी का स्थान पुरुष के बाद दूसरे नंबर पर था। उसे हमेशा पुरुष के शासन में रहने का निर्देश है। किसी भी उम्र में और किसी भी स्थिति में उसे स्वतंत्र रहने का अधिकार नहीं था। पिता, भाई, पति और पुत्र को उसका संरक्षक माना गया।
हिंदी दलित आत्मकथा लेखिकाओं में
कावेरी का एक महत्वपूर्ण स्थान है। कावेरी की आत्मकथा ‘टुकड़ा – टुकड़ा जीवन’
में अपनी कथा के साथ – साथ परिवार और समाज का चित्रण किया है। यह आत्मकथा, सन 2017 में लिखी गई। आत्मकथा चार टुकड़ों में बटी है। पहले टुकड़े में उन्होंने बचपन का जिक्र किया है।
दुसरे टुकड़े में ससुराल का वैवाहिक जीवन, तीसरे टुकड़े में शैक्षणिक जीवन और चोथे टुकड़े में नीजी जीवन का उल्लेख मिलता
है। दलित जीवन हजारों सालों से दुख,
पीड़ा तथा अनेक प्रकारों के अमानवीय यातनाओं से
भरा हुआ है। इस अमानवीय यातनाओं को आज तक कोई भी इतिहासकार या साहित्यकार सही ढंग
से रेखांकन नहीं कर पाया है। इसी उद्देश्य को पूरा करने के पक्ष में आज दलित
आत्मकथाएँ हमारे सामने आयी है। आत्मकथाएँ दलित लेखकों के अदम्य जीवन संघर्ष के साथ
आगे बढ़ने का संदेश देती है क्योंकि दलित अत्मकथाकार यह बताना चाहते है कि जो
नारकीय और दस्तावेज पूर्ण जीवन उन्हें मिला, उसमें व्यक्ति विशेष का अपराध नहीं, बल्कि व्यवस्था का विशेष है। इसलिए दलित आत्मकथाएँ व्यवस्था
परिवर्तन की माँग भी करती है।
आत्मकथा को साहित्य की अन्य विधाओं
की अपेक्षा सबसे अधिक जनतांत्रिक माना जाता है। क्योंकि साहित्य की अन्य विधाओं
में यथार्थ के साथ कल्पना भी होती है, लेकिन आत्मकथा में अपने जिए हुए जीवन, अपने सुख – दुःख का लेखा –
जोखा और साथ ही साथ इसमें तत्कालीन सामाजिक,
आर्थिक, धार्मिक और राजनितिक परिस्थितियों का लेखा – जोखा देखने को
मिलता है। इस तरह यह साहित्य की एक अन्य परिभाषा ‘साहित्य जीवन की आलोचना होती है’ को भी साथर्क करती है। क्योंकि आत्मकथा में आत्मकथाकार केवल
स्थितियों का ब्योरा ही नहीं देता बल्कि उसके साथ आत्मालोचन और आत्मविश्लेषण भी
करता है। आत्मकथा में अपने और अपने परिवार, साहित्यों और समाज के अन्य सदस्यों की आलोचना की जाती है।
इस तरह आत्मकथा में समग्र जीवन की आलोचना की जाती है। तभी वह आत्मकथा बन पाती है,
नहीं तो कोरा जीवन वृतांत बनकर रह जाती है।
पुरुषों की आज्ञा का पालन, उनकी इच्छा और जरुरत के अनुसार नारी का समर्पण ही रहा है। नारी को बचपन से ही ऐसी
शिक्षा दी जाती रही है कि “पति ही तुम्हारे
स्वामी है, वही तुम्हारा सब कुछ है,
उसके हाथों ही तुम्हारी मुक्ति है।”1 ऐसे भावनाओं के साथ जीने वाली नारी न तो कभी
तर्क करती थी। तरह – तरह के
अत्याचारों को अपनी नियति मानकर चुपचाप सहन करती हुए, मुक्ति पाने की कल्पना करते हुए, पति सेवा में लगी हुई है। वह एक दिन दुनिया से चली जाती।
ऐसे त्यागमयी और कर्तव्यमयी स्त्रियों के उदाहारण देकर समाज में अन्य स्त्रियों को
भी ऐसी ही राह पर चलने का निर्देश दिया जाता था और यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती
रही।
ससुराल में केवल पति द्वारा ही
स्त्री का शोषण नहीं किया जाता है बल्कि पति के साथ-साथ पूरा परिवार अपने बहु का
शोषण करते हैं। लेखिका के साथ भी यही होता है। “ मेरे पति महोदय गाँव में रहकर अनपढ – गंवार जैसा रहते और व्यवहार भी उसी तरह करते। बेवजह उनकी
माँ और बहन मुझे डांटती रहती और वे चुपचाप सुनते रहतें। गुस्सा में सासू माँ गाली –
गौलाज मेरे भैया और पिताजी को देती। मुझे डाटती
तो मैं सहन कर लेती परन्तु मेरे भैया – पिताजी का श्राप देती तो मैं अन्दर से बिफर जाती। मेरी सास और ननंद अनपढ़ थी।
फिर भी उनकी बुद्धिमता के आगे मैं नीरा बुद्ध थी।”2 भारतीय समाज में नयी बहु परिवार में आने पर उस पर परिवार
के सभी सदस्य अधिकार जताते है।
प्रत्येक समाज में अपने समाज का
व्यक्ति जब आगे बढ़ता है तो उसे नीचे खीचने का काम अपने ही समाज के व्यक्ति करते
है। ऐसा ही लेखिका का अनुभव रहा है, वह कहती है “उन्नीस सौ एकानवे
में मुझे प्रोन्नति मिली। मैंने अपना योगदान डी.वी.सी चन्द्रपुरा हाईस्कूल में
शुरू की। मैंने कहा न अपने दलित ही मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगे। मेरे नाम से
एक गुमनाम पत्र आया। जिसमें लिखा था आपने कारपोरेशन को धोखा दिया है। आपके
सर्टिफिकेट फर्जी है। आपके ऊपर धोखा धड़ी का केस ठोका जायेगा। पत्र मेरे आवास के
पते से आया था। प्रेषक का नाम और सजातीय का था।”3 बाबा साहेब के समय भी बाबा साहब की निंदा अपने ही समाज के
व्यक्तियों द्वारा की जा रही थी। तो उन्होंने कहा मेरा समाज शिक्षित नहीं है
उन्हें यह सब बाते समझ में नहीं आती है। इसलिए मेरी निंदा करते है। लेकिन अभी
शिक्षित होकर भी वैसे ही कार्य कर रहे है वह सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए कर रहे
हैं।
कावेरी जी का जीवन बहुत संघर्षशील
रहा है, वह कहती है “मैंने जिन्दगी में हार मानना नहीं सीखा। संघर्ष
तो मेरे जीवन में हमेशा ही रहा। मैंने जान लिया था। आरक्षण के नाम पर जो मखौल
उड़ाया जाता है, उसे हासिल करना
हैं।”4 वह कभी हार नहीं मानती है। अपना कार्य आजतक भी
करती रही है। दलित महिलाओं को हमेशा किसी न किसी माध्यम से उसको संघर्ष करना पड़ता
है। दलित महिला संघर्षशील होती है।
दलित महिला की सबसे बड़ी समस्या
शिक्षा की समस्या है। इसलिए लेखकों का यह दायित्व है कि वे अपनी रचनाओं में लोक
साहित्य के संदर्भ को स्थान दे और कानून की वह धाराएँ जो स्त्री के अधिकार को
स्थान देती है उन पर केन्द्रित विषयों को उठाए क्योंकि अधिकार के लिए चेतना का
व्यापक होना, संवेदनाशील होना
आवश्यक है और यह संवेदनाशीलता अपने अस्तित्व के प्रति तथा अधिकार के प्रति
जागरूकता से आती है।
शिक्षित होने की दलित स्त्री की
आतंरिक इच्छा और अपने ध्येय तक पहुँचने के लिए किए अथक संघर्ष के बाद अभिजात्यों
की दृष्टि में उनकी इस उपलब्धि के प्रति दिखनेवाली उपेक्षा से दलित वर्ग भली –
भांति परिचित तो हैं, लेकिन इस अहंकारी प्रवृत्ति को देखकर दिल पर चोट तो लगती
है। कावेरी का अनुभव दलित वर्ग के प्रत्येक उच्च – शिक्षा, विभूषित स्त्री –
पुरुष के जीवनानुभवों का हिस्सा है। आरक्षण से
मिली शिक्षा सुविधा को भी सनातनी वर्ग की हेयदृष्टि से देखने की प्रवृति हर जगह
दृष्टिगत होती है।
हिंदी एवं मराठी दलित स्त्री
आत्मकथाएँ धर्मान्तरण, आरक्षण, दलित स्त्री – पुरुष भेद, पुरुष प्रधानता,
शिक्षा – लेखन से नाम कमानेवाली पत्नी और पति के बीच के संघर्ष,
पारिवारिक जीवन और नौकरी के बीच चलने वाली
स्त्री का संघर्ष, दलितों के भीतर
के नव – मध्यवर्ग और उसके आडम्बर,
अम्बेडकरवादी विचारधारा के संघर्ष, बहुजन समाज में आयी जागृती आदि सभी सवालों पर
विचार मंथन करती है।
दलित आत्मकथाओं में आत्मकथाकार जीवन
में होने वाले अपमान शोषण, अन्याय, अत्याचार, रोटी, कपड़ा मकान की
बुनियादी समस्याओं को दर्शाता है तथा समृद्ध एवं सवर्ण समाज का निम्न वर्ग के
प्रति व्यवहार आदि का मार्मिक वर्णन करता है। इसके साथ ही पूरे समाज की दुःख –
पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। दलित
आत्मकथाकार स्वाभिमान के साथ जीने के लिए संघर्षरत है और अपने लक्ष्य तक पहुँचने
के लिए प्रयत्नशील है। इस प्रकार दलित आत्मकथाओं में दलित पुरुष आत्मकथाओं के साथ –
साथ दलित स्त्री आत्मकथाएँ भी महत्वपूर्ण है।
दलित स्त्रियों की आत्मकथा सामान्य जीवन से हटकर एक अलग अनुभूति विश्व को साकार
करती है और उसी में शेष समाज संस्कृति और धर्म – व्यवस्था का परिचय मिलता है।
दलित स्त्री आत्मकथाओं में अपनी जाति,
जाति – व्यवस्था में जीने वाले तबके उनका आचरण, रोजी – रोटी की समस्या,
समृद्ध तथा इनके प्रति सवर्ण समाज का रवैया,
दैनंदिन जीवन में होने वाले अपमान, शोषण की तिहरी मार को झेलने के प्रसंगों,
घटनाओं, संघर्षों का चित्रण दिखाई देता है इसे सभी दलित लेखिकाओं ने अपने आत्मकथा के अंतर्गत
अभिव्यक्त किया है। सवर्ण स्त्री और दलित स्त्री
आत्मकथाओं में जमीन – आसमान का अंतर
है। इतना ही नहीं बल्कि दलित पुरुष और दलित स्त्री के आत्मकथाओं में भी बहुत अंतर
हमें दिखाई देता है।
दलित आत्मकथाएँ दलित जीवन का
महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो दलित समाज की आने वाली पीढ़ियों को आगे बढ़ाने की प्रेरणा
देती रहेगी। वंचितों और अस्पृश्यों की सामाजिक सच्चाईओं का बयान देते हुए
व्यक्तियों और जातियों के दुःख – दर्द, व्यथा – चेतना, अंधविश्वास,
अमानवीय परम्पराओं, अशिक्षा और स्त्रियों के प्रति पशु तुल्य व्यवहार की
वास्तविकता पर प्रहार करती हैं।
आत्मकथा लिखने की प्रेरणा आपकी दादी –
माँ के गाए
लोक गीतों, भैया के लिखे
डायरी एवं संस्मरण से, पति डॉ. दयानंद
बटोही के सहयोग से मिली। लेखिका का बचपन घोर गरीबी में कटा। गरीबी से उबरने के लिए
उनके माता – पिता ने अथक
परिश्रम करके लेखिका के पाँच भाई – बहनों को पढ़ाया।
लेखिका का कहना है कि “गरीबी आगे बढ़ने
में बाधा नहीं पहुँचाती, बल्कि उर्जा देती
है। जब हम आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे तो रास्ता खुद ब खुद मिल जायेगा।”6
प्रगति का पहला अंग गरीबी है, हम जीवन में जितना आगे बढ़ेंगे उतना ही गरीबी से मुक्ति पाएंगे।
डी. अरुणा
शोधार्थी, हिंदी विभाग
जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी
नई दिल्ली
सम्पर्क
7382452944
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दलित स्त्री आत्मकथा में नारी को
दोयम दर्जा की श्रेणी में नहीं रखा जाए वह स्वयं सबल है, इस तरह अनुभव करती है। यदि सबल नहीं होती तो जीवन में आए
आँधी तूफ़ान उसे कब का उड़ा ले जाते। “दलित स्त्रियों को न तो इंसान समझा जाता है और न ही मानव अधिकारों का अधिकारी।
वह मूक प्राणी पुरुषों और परिवार समाज की गुलामी करने के लिए ही पैदा होती है।”7
ऐसा माना जाता है कि उसकी छोटी सी गलती के लिए
उसे मनमाना बड़ा दण्ड दिया जाता है। उस पर किये जाने वाले अन्याय – अत्याचारों पर कोई विचार नहीं करता। उसे न्याय
दिलाने के लिए कोई आगे नहीं आता। कुछ धर्म सुधारकों और समाज सुधारकों, राजनेताओं ने नारी उद्धार के क्षेत्र में काम
किया। समाज को संदेश दिया कि नारी पर जुल्म न करो, उस पर दया करो। उनके उपदेशों में मात्र दया और सहानुभूति थी,
जिसे मानना या न मानना लोगों की अपनी मर्जी
होती थी। अतः उपदेश सुनने के बाद भी नारी पर अत्याचार होते रहे। उनकी रक्षा के
लिए कानून तो बनाया गया और अपराध करने
वालों को दण्ड देने की व्यवस्था की गई, व्यावहारिक रूप से इसके लिए सही ठोस
कदम नहीं उठाए गए। इन सब कारणों से पत्नी पर अत्याचार करने वाला पति समाज में सीना
तान कर घूमता रहता है। समाज में नारी पर तरह – तरह के शोषण और अन्याय होते रहते है। धोखा, बलात्कार, हिंसा, अपमान, श्रम और शोषण की शिकार नारी आज भी बनती है।
संदर्भ-
1.डॉ. सुमंगल झा : मनस्मृति में नारी, पृ. सं – 56
2.टुकड़ा – टुकड़ा जीवन – कावेरी पृ.सं – 21
3.टुकड़ा – टुकड़ा जीवन – कावेरी पृ.सं – 96
4.टुकड़ा – टुकड़ा जीवन – कावेरी पृ.सं – 97
5.टुकड़ा – टुकड़ा जीवन – कावेरी पृ.सं – 23
6.आत्मकथा के दो शब्द – कावेरी
7.दलित साहित्य का स्त्रीवादी स्वर – प्रो. विमल थोरात
पृ.सं – 90
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
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