‘मुंडा’ एवं ‘गोंड’ जनजातीय का तुलनात्मक साहित्य और सांस्कृतिक-मूल्य
विषय पर बात करने
से पूर्व ‘संस्कृति’ पर प्रकाश डालना उचित होगा। “संस्कृति शब्द ‘सम’ उपसर्ग के साथ
संस्कृत ‘की’ (डु) ‘कृ’ ( त्र्) धातु से बनता है।
जिसका मूल अर्थ है - ‘साफ’ अथवा ‘परिष्कृत’ करना। आज की
हिंदी में यह अंग्रेजी शब्द ‘कल्चर’ का पर्याय माना जाता है। ‘संस्कृति’ शब्द का प्रयोग कम से कम दो अर्थों में होता है एक व्यापक
और दूसरे संकीर्ण अर्थ में।” संस्कृति और सभ्यता को पर्यायवाची मानने पर उन
शब्दों के अंतरों पर भी विचार करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसके विपरीत संस्कृति
का अर्थ चिंतन तथा कलात्मक सृजन की वह प्रक्रिया होती है जो मानव व्यक्तित्व और
जीवन के लिए साक्षात उपयोगी न होते हुए उसे समृद्ध बनाने वाली है। संस्कृति में
मूल्य, मान्यता, चेतना, विश्वास, विचार, भावना, रीति-रिवाज, भाषा ज्ञान,
कला धर्म, जादू-टोना आदि के वे समग्र मूर्त, अमूर्त स्वरूप शामिल होते हैं जिसे मानव सृजित, भौतिक जगत् से महत्व एवं सार्थकता प्राप्त करता है।
भारतीय संस्कृति
को परिभाषित करना या उसे संक्षिप्त रूप में समझना अत्यंत कठिन है क्योंकि भारत के
लंबे इतिहास में उसकी संस्कृति पर अनेक प्रभाव पड़ते रहे हैं। जिसके कारण उसका रूप
ही परिवर्तित हो चुका है। प्रायद्वीप का यह जंबूद्वीप अनेक जातियों, धर्म तथा संस्कृतियों का संगम स्थल रहा है।
इन्हीं में से एक है आदिवासी-संस्कृति।
आदिवासी-संस्कृति
की अपनी एक भिन्न और विशिष्ट पहचान है। इस संस्कृति के अंतर्गत समानता, बंधुता की भावना, उदात्त-विचार, समता और सबसे विचित्र लक्षण यह है कि प्रकृति के कोख से पैदा होकर उससे
विशिष्ट नैकट्य संबंध बनाती है। इसमें प्रकृति-प्रेम विद्यमान है जो अन्य
संस्कृतियों से इसे अलग एवं विशिष्ट पहचान प्रदान करता है। आदिवासी जीवन में
मनुष्य-जीवन प्राकृतिक एवं साधारण है। उनका दृष्टिकोण उपयोगितावादी और विचारधारा ‘जिओ और जीने दो की है’। उपयोगिता के साथ-साथ उनकी कार्य-चेतना सामूहिक-सहभागिता,
सहयोगिता एवं अनुशासन पर टिकी हुई है। प्रकृति
का नियम है कि ऐसी व्यवस्था जाति, के मानसिक एवं
स्वाभाविक गठन को प्रभावित करती है। आदिवासी-चेतना के अंतर भाव में प्रकृति के
नियम के अंतर्गत संग्रह का उपेक्षा, त्याग, प्रतिरोध, दया, समाधि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आदिवासी समाज के जीवन की आवश्यक्ताएँ सीमित
हैं। वस्तु-धन, संग्रह की भावना
इनकी संस्कृति में नहीं पायी जाती है। यह प्रकृति के सहचर और पुजारी हैं। इनके
धार्मिक-स्थल कोई मंदिर-मस्जिद या विशिष्ट स्थान न होकर खुला आकाश होता है। वह
कहीं भी अपनी उपासना-आराधना पूजा पाठ कर सकते हैं। आकाश और धरती की यह व्यापक
संरचना ही इनका मंदिर और गिरजाघर है। आदिवासी संस्कृति एवं प्रकृति में गहरा
आत्मीय संबंध है। तभी तो प्रकृति प्रदत्त उत्सव को आदिवासियों ने अपने जीवन से
जोड़ लिया है। जबकि सभ्य कहे जाने वाले विकसित संस्कृति से प्रकृति का संबंध
संघर्ष का रहा है। फलतः वह प्रकृति का दोहन चाहते हैं। अब रक्षण का विचार महज
भौतिक उपयोगितावादी सार है। वर्तमान युग में इनका संबंध केवल भारी वैज्ञानिक विकास,
औद्योगिक और वाणिज्य का है।
बिरसा मुंडा और
कोमरम् भीम के साहित्य में चित्रित संस्कृति
बिरसा मुंडा और
कोमरम् भीम पर आधारित साहित्य में आदिवासी समाज, संस्कृति एवं संघर्ष का चित्रण हुआ है। भारत में समग्र रूप
से 450 से अधिक जनजातियाँ निवास
करती हैं। जिनमें मुंडा और गोंड प्रमुख हैं। बिरसा मुंडा के ‘मुंडा’ समुदाय और कोमरम् भीम के ‘गोंड’ समुदाय दोनों की संस्कृति में समानता है। इन
दोनों का साहित्य मुंडा समुदाय और गोंड समुदाय पर आधारित है। भारत में मुंडा और
गोंड जाति में भी अनेक उपजातियाँ हैं और उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आस्थाएं
तथा संस्कृति में कुछ समानताएँ होते हुए भी भिन्नताएँ हैं। इन आदिवासियों की
संस्कृतियों को नष्ट करने का प्रयास कई सालों से होता आ रहा है। फिर भी यह
संस्कृति जीवित है। अनेक परिस्थितियों की चुनौतियों का सामना करते हुए मुंडा और
गोंड समाज की संस्कृति जीवित है। उनके गीत, त्यौहार उनकी चेतना को बनाते हैं। इसे ‘जंगल के दावेदार’ ‘कोमरम् भीम’ उपन्यासों में
लोकगीतों के द्वारा देख सकते हैं। लोकगीत के संदर्भ में ‘धरती आबा’ नाटक का एक
उदाहरण हैं -
“डिमिक डिमिक डिम
माँदर बोले
नाचे धरती जंगल
नाचे
पाँख खोल के पंछी
नाचे
झिर झिर बहती
नदिया नाचे
परबत उपर झरना
नाचे
आबा आबा मुंडा
बोलें
डिमिक डिमिक डिम
माँदर बोले
माथे पकड़ी धोती
पहने
आबा आए आबा आए
दिकू काँपे साहेब
काँपे
चुटिया राँची सब
थर्राए
मुंडा संग
मुंडानी नाचे
डिमिक डिमिक डिम
माँदर बोले।”
भूगोलवेत्ताओं के
अनुसार छोटा नागपुर भारत की सबसे प्राचीन भूमि है। मुंडा इस प्रदेश में रहने वाले
हैं इसलिए मानवशास्त्री इन्हें अधिक प्राचीन आदिवासी बताते हैं। पुराणों तथा
स्मृतियों में दोनों जातियों का उल्लेख मिलता है। और इनका रहन-सहन कई हजार वर्ष
पुराना है। भारत में अंग्रेजों के आगमन से आदिवासी हिंदुओं में गिने जाते थे। तथा
यह अपने प्रदेशों में शासन करते थे। दोनों समाज आज भी असभ्य स्थिति में जी रहे
हैं। लज्जा निवारण हेतु कमर में एक कपड़ा लपेट लेते हैं। भारत में भारतीय
जनजातियों में मुंडा की संख्या अधिक है वह मुख्य रूप से झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल आदि क्षेत्रों में निवास करते हैं।
भारत में गोंड़ों
की आबादी सर्वाधिक है। लेकिन आदिलाबाद (तेलंगाना राज्य) जिले में इनकी आबादी उस
अनुपात में नहीं है। तेलंगाना ( हिंदी-तेलुगु) राज्य के आदिलाबाद जिले में गोंड
रहते हैं, जो खेती पर निर्भर हैं।
दोनों जनजातीय साहित्य में सांस्कृतिक उभार के साथ-साथ संस्कृति पर आने वाले संकट
को भी दर्शाया गया है। आदिलाबाद में निवास करने वाले गोंड जाति के लोग आजकल तीर,
धनुष, कुल्हाड़ी, भाला आदि सभी
उपकरण का प्रयोग अपने जीवन विकास में कर रहे हैं। गोंड जाति के लोग अपने शरीर को
आभूषणों से सजाते हैं। गोदना एक उनकी सामाजिक विशेषता है।
दोनों जनजातियों
पर रचित साहित्य में, चित्रित संस्कृति
में साम्य-वैषम्य हैं। विवाह प्रथा के अंतर्गत एक गोत्र में विवाह न होना, विवाह में वर वाले, वधू के घर जाते हैं। इसके अतिरिक्त सामाजिक परंपराओं में भी
लगभग समानता है। वह निम्न प्रकार है। दोनों जनजातीय साहित्य में धार्मिक आस्थाएँ,
विशिष्ट जीवन प्रणाली, सामूहिक अनुशासन पद्धति, नैतिकता एवं ईमानदारी, प्रकृति से घनिष्ठ संबंध, पर्व-त्यौहार, पशुपालन-प्रवृति तथा अतीत का गौरव गान आदि विशेषताओं का चित्रण हुआ है।
आदिवासी धार्मिक
आस्थाएँ
बिरसा मुंडा और
कोमरम् भीम पर आधारित साहित्य में हम देख सकते हैं कि मुंडा जाति और गोंड जाति में
धार्मिक आस्थाओं, पूजा-पाठ में
विभिन्नता दिखाई देती है।साधारणता माना जाता है कि धर्म एकता पर आधारित पवित्र
धारणा की परिकल्पना है। मुंडा और गोंड जनजाति पशु-बलि पर भरोसा करती हैं। वह मानते
हैं कि ईश्वर, भगवान को बलि
देने पर वह हमारे समाज को सुखी रखेगा। ऐसे विश्वास और अवधारणा ही धार्मिक
कर्मकांडों अथवा प्रगतिशील नैतिक तत्वों को जीवंत रखते हैं। धर्म, प्रकृति का,
ईश्वर के प्रति ऐसा विश्वास है जिसे कभी
प्रमाणित नहीं किया जा सकता। यह विश्वास एवं प्रगति और क्रियाओं का ऐसा जोड़ है जो
पवित्रता के धारणा के साथ जुड़ा है। आदिवासियों के विश्वास, देवी-देवता और क्रियाएँ अन्य समाज से भिन्न हैं। ‘कोमरम् भीम’ में चित्रित ‘गोंड’ समाज भी उसी प्रतीकात्मक
देवता के पूजा के समय बलि देता है। उनका भी विश्वास है कि ‘भीम देव’ को बलि देने पर
फसल अच्छी होती है। वर्ष में एक बार यह बड़ा देव के पूजा करते हैं। जो सामूहिक रुप
से होती है। मुंडा जनजातीय का एक उदाहरण-“वही थे लड़का और लड़की-उनके हुआ एक बेटा। लड़का तो बीमारी से मरने-मरने को हो
रहा था। वे आदि मुंडा नर-नारी सोच में परेशान थे।...बेटा ! तो मरा जा रहा, देवता तुम्हें छोड़कर किसे पुकारें ? इसके लिए दरवाजा घेरकर, चौखट के पास कोयले से तस्वीर बना। देखेगा की बीमारी भाग
जाएगी। मेरी पूजा दे। सफेद मुर्गी की बलि देकर पूजा दे। वही पूजा देकर लड़के की
बीमारी दूर हुई।”
दोनों आदिवासी
समाजों में व्याप्त जादू-टोना एवं भूत-प्रेतों पर विश्वासों पर विशेष दृष्टि जाती
है। क्योंकि उनकी मान्यता के अनुसार भूत-प्रेत आस-पास ही निवास करती है यह दोनों
समाज जादू टोना में अधिक विश्वास करते हैं।
ईमानदारी और
नैतिकता
आदिवासियों की
दृष्टि ‘जियो और जीने दो’ में विश्वास करती है। ये अपने नैतिक मूल्यों को
सुरक्षित रखने हेतु प्राणों को दाँव पर लगा देते हैं। लेकिन अपनी पारंपरिक नैतिकता
का उल्लंघन करना उनके वश के बाहर होता है। वे अपनी बात के पक्के होते हैं।
आधुनिकता के साये में एक वचन के नैतिक मानदंड टूटते चले गए हैं। इसलिए आज नैतिकता
एवं आशाएं दबाव में हैं। कोमरम् भीम के जीवन पर आधारित साहित्य में आदिवासी का एक
संदर्भ है जिसमें आदिवासी जन्मों-जन्मों तक अपनी बातों पर टिके रहने का विश्वास
दिलाता है-
“जो लिया है वह तो
सही है। गोंड कभी भी झूठ बोला है! हमारी जाति में अभी झूठ नहीं आया है साहूकार! अब
तक पाँच वर्षों से साल में बीस क्विंटल ज्वार लेकर हमारे मुँह में मिट्टी फेंक
जाते हों।” कहने का आशय यह है कि
आदिवासियों के संस्कृति एवं सामाजिक रीति-रिवाजों तथा नियमों में ईमानदारी,
नैतिकता और आस्था का बड़ा महत्व है। वह अपने
प्राणों को त्यागने को तैयार हो जाते हैं लेकिन नैतिकता त्यागने को नहीं। नैतिकता
का एक रुप है अतिथि का सत्कार। भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि ‘अतिथि देवो भव:।’आदिवासी खुद भूखे रहकर अतिथि के सत्कार में लगे रहते हैं।
प्रकृति से लगाव
आदिवासियों का इतिहास साक्षी है कि उनका संबंध
अन्य जातियों से अधिक जंगल से है। ये प्रकृति के पुजारी हैं। ये प्रकृति पर
अधिक-से-अधिक निर्भर रहते हैं। आदिवासियों की विशेषता है कि - प्रकृति से प्राप्त
जीवन को आवश्यक साधन सामग्रियों से व्यतीत करना उनके जीवन की एक सामान्य प्रवृत्ति
है। ‘कोमरम् भीम’ उपन्यास का नायक कोमरम् भीम जंगल से ही खेलना,
गाना, सीखा है।“दुख ने भीम को
अपने में डुबो लिया है...। वह जंगल है जिसमें खेलना-गाना सिखा है। एक-एक पेड़ों को
वह जानता है। अपने मित्रों के साथ-खेल क्रीड़ा में गाए हुए गीत के दिनों बारीश के
छींटों में थरथराता हुआ, पत्थरों की आड़
में, बैठे दिन सूर्योदय के समय
चुने गए महुआ, उनके पेड़,
तालाब, टीला, पक्षियों का
झुंड...आदि-आदि स्मृति में छा गए।”
इस प्रकार
प्रकृति से उदार संबंध बनाना केवल आदिवासी जानते हैं। ‘यह प्रकृति को अपनी माता तथा आकाश को पिता मानते हैं। उनके
दिन का आरंभ प्रकृति से होता है, रात की शुरुआत
भी। जीवन का आरंभ पेड़, पक्षियों तथा हवा
के झोंकों से होता है। जीवन का अंत भी उसी प्रकृति में शामिल हवाओं के साथ शांति
के साथ होता है।’
वे प्रकृति का
सम्मान करते हैं। वे प्रकृति की गोद में आनंद, मंगल का अनुभव करते हैं। प्रकृति उनकी सहचर है। प्रकृति की
हलचल एवं भविष्य के आने वाले सुखात्मक भविष्यवाणी को प्रकृति ज्ञान से ही प्राप्त
कर लेते हैं। हमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि उनकी भविष्यवाणी गलत होगी। कहने का
तात्पर्य यह है कि - जंगल-जानवरों से अधिक संबंध बनाते हैं। प्रकृति से उतना ही
लेते हैं जितने कि उन्हें आवश्यकता होती है। प्रकृति का अतिक्रमण करके आज के
आधुनिक समाज ने अनेक समस्याएँ पैदा की हैं। लेकिन आदिवासी समाज कभी प्रकृति संतुलन
को ठेस पहुंचाने का दुष्कार्य नहीं करता है। वे जंगल से, अपनी ईंधन आवश्यकता की पूर्ति हेतु सूखी लकड़ी इकट्ठा करते
हैं, लेकिन गैर-आदिवासी समाज
पेड़ों को काट कर सूखी लकड़ी बनाते हैं। आज प्राकृतिक परिस्थिति मानव विकास एवं
विश्व प्रगति के विपरीत खड़ी हो चुकी है। विश्व प्रकृति से संबंधित सभी सम्मेलनों
में चिंता व्यक्त की जारी है कि प्रकृति का दोहन हो रहा है उपाय खोजा जा रहा है कि
‘किसी-न-किसी रुप से
प्रकृति दोहन का संतुलन बनाया जाए’| ऐसे समय में आदिवासियों की जीवन-दृष्टि और प्रकृति के बारे में उनके ही
विचारों का महत्व और भी बढ़ जाता है।
विवाह एवं
त्यौहार
आदिवासी समाज की
सामाजिक संरचना में बहुत अंतर होने के कारण उनके पूजा, पर्व, त्यौहार किसी
गैर-आदिवासी समाज के लिए आश्चर्यजनक हैं। भिन्न-भिन्न आदिवासी समुदाय में
भिन्न-भिन्न विवाह प्रथा प्रचलित है। ‘कोमरम् भीम’ उपन्यास में
चित्रित समाज में विवाह माता-पिता की अनुमति से ही होता है। लड़का एवं लड़की
परिवार पर अधिक आश्रित होता है कि वे किस लड़की को अपनी गृहलक्ष्मी बनाते हैं।
लड़कियों के पिता केवल अपनी लड़कियां देने अथवा न देने में स्वतंत्र है। दहेज के
रुप में कुछ-न-कुछ देना होता जिसे ‘ओले’ कहा जाता है। ओले लड़के पक्ष वाले लड़कियों को
देते हैं।
बिरसा मुंडा के
मुंडा समुदाय में विवाह एक उत्साह की विधि मानी जाती है। इस समुदाय में पिता चाहे
पुत्रों को उसके विवाह के बाद अलग कर सकता है। लड़कों की शादी हल चलाने आने के बाद
की जाती है और लड़कियों की ताड़ पत्तों से चटाई बनाना सीखने के बाद। विवाह बाहरी
गोत्र में होता है। बहु-विवाह को भी सामाजिक मान्यता प्राप्त है। विवाह की कई
प्रथाएँ प्रचलित हैं जैसे राजी-खुशी विवाह, हरण विवाह, प्रेम विवाह आदि।
वधू मूल्यों में ‘कुरीगोनोंग’
अर्थात् दहेज की व्यवस्था प्रचलित है। विवाह का
प्रस्ताव वर पक्ष के द्वारा भेजा जाता है।
मुंडा आदिवासी
गाँव में युवाग्रह होते हैं। ये उसे ‘गितिओड़ा’ कहते हैं। इस भवन
के दो भाग होते हैं। एक में गाँव के कुंवारे लड़के होते हैं और दूसरे में कुंवारी
लड़कियाँ। नृत्य-संगीत के समय एक साथ होते हैं। गाँव की बूढ़ी औरतें इन लड़कियों
पर नजर रखती हैं। प्रेम-विवाह पर रोक नहीं है लेकिन अपने से निम्न आदिवासियों के
साथ वैवाहिक संबंध आमतौर पर नहीं बनाएं जाते। ‘गितिओड़ा’ की तरह गाँव का
दूसरा चर्चित स्थल है- ‘सरना’ जहाँ ‘पूजा-पाठ’ जैसे कार्यक्रम
संपन्न होते हैं।
यह ‘गितीओड़ा’ एक प्रकार से ‘घोटुल’ व्यवस्था की तरह
मिलता-जुलता है। इसमें कोई विशेष अंतर नहीं है। कोमरम् भीम की गोंड जनजाति में इस
प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है। लेकिन मध्य भारतीय गोंड जनजाति के गोंड समाज पर
आधारित उपन्यास ‘जंगल के फूल’
में राजेंद्र अवस्थी ने घोटुल-व्यवस्था का
स्पष्ट उल्लेख किया है।
दोनों साहित्य
में त्यौहार भी अलग-अलग हैं। इनके त्यौहार, प्रकृति के मौसम के अनुसार होते हैं। ‘कोमरम् भीम’ उपन्यास में आकाड़ी, दिवाली, नागोबा का पूजन,
फसल पूजन, भीमदेव पूजन, आदि अनेक त्यौहार होते हैं। इसी से संबंधित उनके समाज मेले को भी त्यौहार के
रूप में देखते हैं। कोमरम् भीम के गोंड समुदाय में विशेष कर केसलापुर का नागोबा
मेला, जंगूबाई मेला, खामदेव मेला भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन त्यौहारों
में गोंड समुदाय के लोग नाच-गाना भी करते हैं। मुंडा समुदाय में भी अलग-अलग
त्यौहार मनाया जाता है। वहाँ स्री-पुरुषों की असमानता की खाई बहुत कम है।
आदिवासी समाज में
त्यौहार, विवाह बहुत उत्साह और
खुशी के साथ मनाये जाते हैं। आज भारत देश में पाश्चात्य-संस्कृति का अधिक मात्रा
में प्रचलन हो रहा है और इसे लगभग सभी
रूपों में स्वीकार किया गया है। लेकिन आदिवासी समाज पर इस पाश्चात्य संस्कृति का
इतना प्रभाव नहीं हुआ है। आदिवासी समाज पहले जिस तरह से त्यौहार मनाता था आज भी
उसी उत्साह और उल्लास के साथ त्यौहार मनाता है। उनके त्यौहार अधिकतर प्रकृति से
संबंधित होते हैं। उनके दैनंदिन जीवन में प्रकृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसलिए
वह प्रकृति को ही भगवान के रूप में पूजते हैं।
झारखंड के
आदिवासी समाज में अनेक पर्व एवं त्यौहार मनाये जाते हैं। मुख्य रूप से झारखंड में
दो त्यौहार ‘करमा’ और ‘सरहुल’ मनाये जाते हैं। विशेष
बात यह है कि किसी भी उत्साह, नाच, गाने में सभी लोग समान रुप से भाग लेते हैं।
कोई भी पर्व-त्योहार हो यही सहभागिता आदिवासी संस्कृति की अपनी विशेष पहचान बनाती
है। संथाल, मुंडा, हो, आदि जनजातियों में यह देखा गया है कि एक पर्व को अलग-अलग नामों से जाना जाता
है। ‘सोहराय’ संथालों का सबसे बड़ा त्यौहार है। जिसकी शुरुआत
आषाढ़ महीने से होती है। आदिवासी समुदाय में अधिकांश पर्व एवं त्यौहार फसलों की
कटाई के बाद मनाएँ जाते हैं। इसके बाद अच्छी फसल हो इस उद्देश्य से देवी-देवताओं,
पूर्वजों एवं गोधन की पूजा की जाती है। यह
त्यौहार पाँच दिन तक मनाया जाता है।
करम पर्व
करम पर्व
आदिवासियों का महान पर्व है। यह पारंपरिक रीति रिवाजों से मनाया जाता है। भादो
शुक्ल एकादशी से एक सप्ताह से पूर्व से इसकी तैयारी शुरू हो जाती है। यह प्रदेश के
अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न जनजाति अपने विधि विधान के अनुसार पूरे उल्लास
के साथ करम पर्व मनाते हैं।
आदिवासी समाज
प्रकृति के उपासक होते हैं। वृक्षों की पूजा आदिवासी समाज करता है यानि की
पर्यावरण की रक्षा भी आदिवासी समाज के हाथों से होती है। इस समाज में सप्ताह का एक
दिन गुरुवार को लक्ष्मी का दिन माना जाता है। इस दिन महिलाएं उपवास रखती हैं और
साल वृक्ष में कासे के लोटे से जल अर्पण कर सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। पंचांग
के अनुसार भादो एकादशी में मनाया जाने वाला करम पर्व में उपवास रखने वाली युवतियां
आठ दिन पहले नदी से बालू लाकर नये बांस की टोकरी में अनाज के दाने ,धान, गेहूं, चना, मकई इत्यादि का जावा उगाती है। यह जावा हरियाली
का प्रतीक है।
आदिवासी समाज का
रिश्ता प्रकृति से जुड़ा होता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर विधि विधान में
अलग-अलग प्रकार के पत्तल, दोना बनाएँ जाते
हैं। यह समाज उसी की पूजा करता है। जिससे
जीने के लिए हमें अन्न,जल, वायु मिलती है। जल-जंगल-जमीन आदिवासियों की
पहचान है। इस समाज के दो महान पर्व हैं - करमा और सरहुल, इसकी देवी सरना है। जो वृक्षों में ही निवास करती है।
दंडारी उत्सव
‘दंडारी’ का अर्थ गोंड भाषा में ‘सामूहिकता’ है। यह त्यौहार
दशहरा से लेकर दिवाली तक मनाया जाता है। लेकिन प्रमुख रुप से दिवाली से 8 दिन पहले शुरू होता है। इस त्यौहार के अवसर पर
गोंड आदिवासी अपने समग्र वाद्ययंत्रों को बजाते हुए नाचते, गाते हैं। यह त्यौहार आषाढ़ महीने में मनाया जाता है। वह इस
त्यौहार के लिए अपने पारंपरिक वेशभूषा में सजते हैं। इस अवसर पर यह मोर पंख से बना
हुआ मुकुट पहनते हैं, अपने समग्र खुले
बदन को सफेद मिट्टी या चूना लगाते हैं और पैरों में घुंघरू बांधते हैं। दायीं भुजा
पर हिरण का चमड़ा होता हैं और बाएँ हाथों में ‘रोकली’ पकड़कर नाचते
हैं।
वह सभी गाँव के
केंद्र को साफ-सुथरा करते हैं और वहाँ अपने एक घर की सभी वस्तुएं लाकर सजा देते
हैं। और उसे धो देते हैं और उसकी पूजा करते हैं। यहाँ पर वे संप्रदाय के रूप में
पूजा करते हैं। और अपने भगवान को सामूहिक रुप से विनती करते हैं कि भगवान उन्हें
खुश रखें। उन पर कोई संकट ना आने दें। उसी के साथ वह अपना बाजा, गाना शुरु करते हैं इसी को ‘गुस्साडी’ नृत्य कहा जाता है।वह केवल अपने गाँव में ही नहीं बल्कि
आस-पास के गाँव जाकर भी वे त्यौहार मनाते हैं। अपने समाज, बांधवों को परंपरा जारी रखने को संदेश देते हैं और उनका विश्वास
बढ़ाते हैं। अपने भगवान के प्रति श्रद्धा भाव रखने का संदेश देते हैं। उनमें यह
धारणा है कि उनके हाथों में ‘रोकली’ होती है। उस रोकली को अगर कोई रोगी स्पर्श करता
है तो उस रोगी का रोग दूर हो जाता है। इस बात पर उनका बहुत विश्वास है। इस बहाने
समग्र गाँव से मिलते-जुलते हैं और इससे उनके रिश्तों में अटूटता बनी रहती है।
इसी प्रकार गोंड
समाज में दूसरे त्यौहार भी मनाएं जाते हैं। जिनमें कोवंग, आकाड़ी, बडुगा, अकेपेन्क (बड़ा भगवान), भीम देव और जंगूबाई आदि की पूजा आराधना करते हैं। ‘कोमरम् भीम’ उपन्यास में अकाड़ी त्योहार का स्पष्ट उल्लेख किया गया है
जिसे गोंड आदिवासी बीज बोने के पहले मनाते हैं। इस अवसर पर बलि भी देते हैं।
संस्कृति और
संघर्ष
बिरसा मुंडा और कोमरम् भीम पर लिखित
साहित्य में अपने जाति को एकत्र करना संगठित रखकर संघर्ष करने की प्रमुख प्रवृत्ति
है। दोनों भाषाओं के साहित्य में वे अपने अस्तित्व के लिए लड़ते हैं। भोले-भाले
आदिवासी जानवरों की भाँति बंदूकों का शिकार होते हैं।
लेकिन संघर्ष में
इनकी हार होती है। क्योंकि नैतिकता ही आदिवासियों की कमजोरी बन गई है। अपनी
सांस्कृतिक पहचान एवं परिस्थितियों से घिरा आदिवासी समाज बेचैन है। अपनी स्थितियों
को सुदृढ़ करने हेतु तथा अपनी पहचान बनाने हेतु दोनों समुदायों में एक सामान्य सभा
होती है , जिसमें सभी मिलकर
अत्याचार और शोषण के विरुद्ध लड़ने का निर्णय लेते हैं। लेकिन संघर्ष बिना नेतृत्व
के नहीं होगा। इस सभा में कोमरम् भीम का व्याख्यान संदर्भ देने योग्य है-
“हे किसानों। आप
सभी की ओर से बोलने हेतु मुझे मेरे काकाओं ने देवडम (गाँव का नाम) से ले आए हैं...
मैं आप लोगों से बड़ा नहीं हूँ। अधिक जानकार भी नहीं हूँ। मैं भी आप लोगों की तरह
ही अपना यह किसानी जीवन कितने कष्टों से घिरा है, अनुभव किया हूँ...मैं जो कहता हूँ उसे ध्यान से सुनिए। हमने
जंगल काटे हैं किसलिए। सरकार और पट्टेदार हमारे इस कार्य को कानूनी गलत साबित कर
रहे हैं। यह कैसी बात? मेरे बचपन की
बातें याद आ रही हैं। जो मुझे मोतिराम द्वारा कही गई हैं...माँ बालक को दूध न पीने
देने पर क्या हम रूक गये थे? नहीं। उसी तरह
जंगल न काटते तो क्या हम जी सकते थे? इसलिए हम उनके केस लगाने पर भी, जेल में बंद कर देने पर भी, हाथ काट देने पर
भी, हम जंगल काटते ही आ रहे
हैं...। मेरे काका कुर्दु, येसु आप सभी
जानते हैं और पता नहीं कितनी जिंदगी देखे होंगे। इसलिए इन्होंने सभी को एक कर यह
बारह गाँवों की स्थापनाकी।...अंततः जंगल काटने का अंतिम निर्णय हुआ। शाम हो गई।”
इसी प्रकार की
समस्या बिरसा मुंडा के साहित्य में चित्रित हुई है। विदेशी इनके जंगलों और खेती पर
अपने अधिकार जमाने की योजनाएँ बना रहे हैं। यह अपने मिट्टी को प्राणों से भी अधिक
प्रेम करते हैं। विदेशी ताकतों एवं शोषण की आँच अपने अस्तित्व पर आते देख कई
आदिवासी समूह मिलकर सभा का आयोजन करते हैं। अपने अधिकार हेतु मुंडा आदिवासी किसी
भी स्थिति का सामना कर सकते हैं। ये परिस्थिति से निर्धन होते हैं लेकिन
आत्माभिमान से बहुत अमीर होते हैं। ये अपने अस्तित्व को बचाए रखने हेतु प्रकृति की
अनेक आपदाओं और विकट परिस्थितियों का सामना करते हैं।
राठोड़ सुरेश
एम.फिल. हिंदी,
हैदराबाद विश्वविद्यालय
हैदराबाद
सम्पर्क
9494262733,
sureshsjr91@gmail.com
|
अस्तित्व के लिए लड़ने वाले
आदिवासियों का इतिहास गौरव पूर्ण रहा है। लेकिन इतिहास कार उन्हें योग्य स्थान
नहीं दे पाए। उनको ‘असुर’ कह कर ‘दुर्लक्षित’ किया गया। इसका
विस्तृत चित्रण ‘ग्लोबल गाँव के
देवता’ में हुआ है। आदिवासी की
संस्कृति एवं परंपरा तथा इतिहास गौरव गाथओं का गलत व्याख्याओं का असर यह हुआ की
समग्र भारत की व्यापक आदिवासी एकता और समाहित सामाजिक व्यवस्था टूटती गई। कोमरम्
भीम कहते हैं कि ‘हमको इस जमीन के
लिए राज्य के लिए, लड़ना है। इस
लड़ाई में हमारा बलिदान व्यर्थ नहीं होगा। जिनकी मृत्यु होगी। उनका स्थान इतिहास
में विराजमान रहेगा। इस लड़ाई में हमारी पराजय हो जाने पर भी इस पराजय का कारण खोजने
की कोशिश आने वाली पीढ़ी करेगी।...और अंतिम विजय तो निश्चित रूप से प्रजा की ही
होती है’। इस प्रकार गोंड जनजातीय
संघर्ष पर ‘कोमरम भीम’ के उपन्यास में एक लोक-गीत है-
“कुसे कूकू...कूकू... - कोयल
का बोलना कू... कू
केड़ा मावई कू...कू - जंगल
हमारा कू... कू
बीडू मावई कू... कू - बंजर
जमीन हमारी कू... कू
गोंड राज्यम् कू... कू - गोंडराज्य
कू... कू
मैसीवाकट कू...कू - जीतकर
आयेंगे कू... कू
तुडूं अंकत कू... कू - नगाड़े
बजायेंगे कू... कू
सच्चुला देशम् कू... कू - पूरा
देश कू...कू
लड़ाईगोल्वना कू... कू - आंदोलन
जितना कू... कू
मैसीवाकट कू... कू - जीतकर
आयेंगे कू... कू
कुसे कू.... कू... कू... कू... - कोयल
का बोलना कू... कू”
निष्कर्षतः यहाँ कहा जा सकता है कि बिरसा मुंडा
और कोमरम भीम दोनों आदिवासी समाज के अंतर्गत आनेवाले महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। दोनों अपनी संस्कृति को बचाने हेतु हर हमेशा प्रयत्नशील रहे हैं।
संदर्भ -
1. bharatdiscovery.org/India/संस्कृति
2. धरती
आबा (नाटक), हृषीकेश सुलभ, राजकमल,नई दिल्ली,
2013, पृ. सं. 59-60
3. जंगल
के दावेदार, महाश्वेता देवी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ. सं. 49
4. कोमरम्
भीम, साहु-अल्लम राजय्या, पेरपेक्टिवेस, हदैराबाद, 2013 पृ.सं. 8
5. कोमरम्
भीम, साहु-अल्लम राजय्या, पेरपेक्टिवेस, हदैराबाद, 2013 पृ. सं. 33
6. कोमरम्
भीम, साहु-अल्लम राजय्या, पेरपेक्टिवेस, हदैराबाद, 2013,पृ. सं. 119
7. कोमरम्
भीम, साहु-अल्लम राजय्या, पेरपेक्टिवेस, हदैराबाद, 2013,पृ. सं. 89
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
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