अस्मिता एवं अकेलेपन के संकट से जूझता तृतीय लिंगीय समुदाय/स्वाति
(विशेष सन्दर्भ : तीसरी ताली)
मानव होने की सार्थकता हमारी संवेदनशीलता में निहित है। जब समाज का एक वर्ग हमारी संवेदनहीनता के चलते बद्तर जीवन जीने को मजबूर हो तो यह हमारे मानव होने की सार्थकता पर प्रश्न-चिह्न खड़ा करता है। कई कलात्मक प्रतिभा और गुणों से पूर्ण होने के बावजूद यदि किन्नर समुदाय अपनी पहचान और विकास के लिए आज भी तरस रहा है तो इसमें सामाजिक स्वीकार्यता न मिलने की बहुत अहम् भूमिका है। जन्म के साथ हम एक जैविक लैंगिक पहचान लेकर पैदा होते हैं। वह जैविक पहचान हमारे जननांग के माध्यम से हमें नर या मादा प्रजाति से जोड़ती है, ये हमारी लैंगिक पहचान ही होती हैं कि हम ये जान पाते हैं कि हम आखिर हैं कौन- नर, मादा या कोई और। “इन दोनों से इतर समाज में जिनका अस्तित्व है वे तीसरे जन वे हैं जिन्हें हम पारंपरिक यौन-पहचानों के तहत समेट नहीं पाते हैं। इन तीसरे जनों का पारंपरिक यौन-पहचान में फिट नहीं हो पाना ही उन्हें अजनबी बना देता है। सिर्फ अजनबी नहीं, बल्कि अवांछित भी”1 हमारे समाज मे स्थित यह तीसरा लिंग है- किन्नर समुदाय का जिसे हमारे समाज में हिजड़ा, ट्रांसजेंडर,छक्का, थर्ड जेंडर इत्यादि नामों से भी जाना जाता है।
हिजड़ों को ‘यूनक’ (Eunuch) भी कहा जाता था। यूनक का अर्थ लिंग-परिवर्तन के बाद पुरुष से स्त्री
हुई हिजड़ा के संदर्भ में लिया जाता था। डिक्शनरी में ‘यूनक’ का अर्थ 'Castrated
Male' है यानि ऐसा ‘पुरुष जिसका लिंगछेद हुआ हो’। बाइबल में भी यूनक का उल्लेख मिलता
है।
हिंदी में आज इन्हें ‘किन्नर’ कहा जाता है। गुजराती में ‘पावैया’ कहा जाता है तो मराठी में ‘हिजड़ा’ और ‘छक्का’ ये दो शब्द प्रचलित हैं। पंजाबी में ‘खुस्रा’ या ‘जनखा’ तो तेलुगु में ‘नपुंसकुडु’ ‘कोज्जा’, ‘मादा’ कहा जाता है। तमिल में इन्हें ‘शिरूरनान गाई’, ‘अली’, ‘अरवन्नी’, ‘अरावनी’, ‘अरूवनी’ इत्यादि नामों से जाना जाता है। किसी
भी भाषा में चाहे जो कहकर बुलाए लेकिन थोड़े बहुत फर्क के साथ ‘हिजड़ा’ शब्द की संकल्पना समान ही है।
हमारे समाज में किन्नर समुदाय का एक
बड़ा हिस्सा हाशिए पर जीवन व्यतीत कर रहा है। सामाजिक अस्वीकार्यता की वजह से
रोजगार के सामान्य अवसर भी इनके हाथ से छिन जाते हैं। इनकी अशिक्षा भी अधिकारों की
लड़ाई में इन्हें अक्षम बनाती है। हालांकि वैश्विक परिदृश्य में इस तरह के लोगों के
संगठित होने से तृतीय लिंग की स्थिति में बदलाव दिखाई दे रहे हैं। इसमें कोई दो
राय नहीं कि वर्तमान समय में तृतीय लिंग समुदाय की स्थिति में बदलाव आया है। वे
अपनी अस्मिता और अधिकारों को लेकर गंभीर हुए हैं, साथ ही पारंपरिक रूप से जो सांस्कृतिक घेरा बनाया गया है उनके काम को
लेकर जीविकोपार्जन के साधन को लेकर आज उनमें भी बदलाव आ रहा है और यह समुदाय
शिक्षा और स्वरोजगार के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।
15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को
तीसरे लिंग के रूप में कानूनी पहचान दी। केंद्र तथा राज्य सरकारों को निर्देश दिया
गया कि किन्नरों को अपना अलग आधार कार्ड, पहचान
पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट आदि बनाने का हक है। न्यायालय
ने उन्हें सम्मान से जीने के लिए ये अधिकार दिए हैं। साथ ही अपने जीवन जीने के
बारे में निर्णय लेने का अधिकार भी दिया है। संविधान के अनुच्छे 14 में कानून के समक्ष समानता की बात कही
गई है। संविधान के अनुच्छेद 15
में किसी लिंग या सेक्स के आधार पर भेदभाव प्रतिबंधित है अनुच्छेद 15 के अंतर्गत कानूनी रूप से लागू किए गए
नियम और व्यक्तियों के बीच इन नियमों के पालन में अंतर होता है। इसे विडंबना ही
कहा जाएगा कि देश में यौन स्थिति के कारण सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े तृतीय
लिंग के पुनर्वास उनके जीवन स्तर में सुधार, सामाजिक
संरक्षण आदि के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया गया है। अनुच्छेद 17 में छुआछूत का निषेध किया गया है।
भारतीय नागरिक होने के बावजूद तृतीय लिंग समुदाय संविधान प्रदत्त अधिकारों से
वंचित हैं। हमने उन्हें उपेक्षित और बहिष्कृत करके रखा है। उनके मानवाधिकार का
उल्लंघन भी होता है, उनके साथ गलत होता है तो कोई सुनता
नहीं उनके साथ गलत हुआ है पहले तो यही साबित करने में, यही बताने में उनको कितनी तकलीफें आती
हैं क्योंकि उनकी कोई सुन नहीं रहा, उनको
इंसान के तौर पर कोई देख नहीं रहा। अगर हम आज भी इनकी जीवनशैली पर नजर डालें तो
पाएंगे कि इनकी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है। वे आज भी बहुतायत मात्रा
में ट्रेनों और बाजारों में गाना बजा कर भीख मांगते नज़र आ जाते हैं, और इसका सबसे बड़ा कारण समाज का उनके
प्रति नजरिया है। समाज की मानसिकता अभी भी उनके प्रति रूढ़िवादी बनी हुई है। डॉ.
रमाकांत राय ने भी वाङ्ग्मय पत्रिका के एक लेख में इस बात को स्पष्ट करते हुए बताया
है की “हिजड़ा होना प्राकृतिक है। शरीर विज्ञान
के दृष्टिकोण से देखें तो यह गुणसूत्रों के असंतुलन से आई एक विशिष्टता है। लेकिन
सामाजिक दृष्टिकोण से इस गुणसूत्रीय विशिष्टता को कभी सम्मान की नज़र से नहीं देखा
गया। इसे हीन दृष्टिकोण से देखे जाने के तमाम सामाजिक-ऐतिहासिक उदाहरण भरे पड़ें
हैं।”2 वर्तमान में भी सुप्रीम कोर्ट के
द्वारा किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दिए जाने के बावजूद इनकी
सामाजिक स्वीकार्यता और समाज में भागीदारी को लेकर संकट बना हुआ है। किन्नर समुदाय
पूरी ताकत से अपनी अस्मिता के लिए संघर्षरत है। प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ उपन्यास को पढ़कर एक मुख्य बात और
सामने आती है वह यह कि ऐसे लोगों के पास समाज में अपनी पहचान के साथ ही एक बड़ा
संकट अपनी जीविका को लेकर बना रहता है। किन्नरों का जीवन क्या है और कैसे गुजर-बसर
होता है, इसी पर आधारित है तीसरी ताली। तीसरी
ताली में अकेलापन है, जिसे सभी चरित्रों के जीवन में देखा जा
सकता है।
अकेलापन एक ऐसी भावना है जिसमें लोग
बहुत तीव्रता से खालीपन और एकांत का अनुभव करते हैं। अवांछित एकांत का परिणाम
अकेलापन है। अकेलापन अनुभव करने के लिए अकेले होने की आवश्यकता नहीं है इसे भीड़
भरे स्थानों में भी अनुभव किया जा सकता है। अकेलेपन को अन्य व्यक्तियों से अलगाव
की भावना के रूप में वर्णित किया जा सकता है। जब बच्चा एक परिवार में जन्म लेता है
तो उसके आस-पास पूरा परिवार उसके संरक्षण के लिए मौजूद होता है, और वह जब बड़ा होने लगता है तो उसे
मित्रों का सान्निध्य प्राप्त होता है। लेकिन इसके विपरीत जब हम तृतीय लिंगी बच्चे
की बात करते हैं तो परिस्थितियां भिन्न हो जाती हैं। किसी के घर में किन्नर बच्चे
का जन्म सर्वप्रथम उससे छुटकारा पाने की भावना को साथ लेकर आता है, समाज में अपनी मान-मर्यादा बनाए रखने
के लिए अक्सर माता-पिता ऐसे बच्चे को समाज की नजरों से उसकी लैंगिक विकृति छिपाकर
उसे घर में बंद रखते हैं ताकि उन्हें उपहास का पात्र न बनना पड़े और मौका मिलते ही
उसे किन्नरों को सौंप दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में उस लैंगिक विकृत बच्चे
की मनःस्थिति पर कोई ध्यान नहीं देता जो अपने अकेलेपन से जूझता हुआ घर के किसी
कोने में घुट रहा होता है। जिस उम्र में किसी बच्चे को मित्रों की सबसे ज्यादा
जरूरत होती है उस उम्र में एक किन्नर बच्चे की भाव-भंगिमाओं में आए परिवर्तनों के
चलते उससे सब दूर भागते हैं उसका न तो कोई मित्र बनता है ना ही हमदर्द। वह खुद को
असामान्य समझ अंदर ही अंदर अकेलेपन की त्रासदी को झेलता रहता है।
एक तृतीय लिंगी बच्चे में भी वे
प्रत्येक संवेदनाएं होती हैं जो सामान्यतः हर बालक में नजर आती हैं जैसे अक्सर जब
बच्चे को माता-पिता से कुछ क्षणों के लिए दूर किया जाता है तो वह बच्चा उनके बगैर
रह नहीं पाता प्रतिक्रिया स्वरूप रोने लगता है और उनके सान्निध्य में ही रहना
चाहता है लेकिन एक तृतीय लिंगी बालक को जब परिवार से परित्यक्त कर किन्नर समुदाय
में दे दिया जाता है तो उसके लिए धारणा बना ली जाती है कि वह बच्चा (किन्नर) अपने
परिवार को पूरी तरह से भूल किन्नर समुदाय को ही अपना परिवार मान लेता है और अपने
मूल परिवार के प्रति उसके मन में कोई संवेदना नहीं रहती, जोकि गलत तथ्य है। बाकी बच्चों की तरह
इनका भी मन अपने परिवार के लिए छटपटाता है लेकिन विपरीत परिस्थितियों के कारण ये
अपनी इच्छाओं का दमन कर जाते हैं। इनकी इच्छाओं की दमन की प्रक्रिया में कहीं न
कहीं हमारी सामाजिक व्यवस्था जिम्मेदार होती है, जिसके तानों और उपेक्षाओं से अपने परिवार को बचाने के लिए यह समुदाय
उनसे अलगाव की स्थिति बना लेते हैं।
प्रदीप सौरभ कृत “तीसरी ताली”
उपन्यास
में भी विनीता स्वेच्छा से अपना गृह त्याग करती है लेकिन उसके परिवार द्वारा उसे
ढूंढने की एक मृत कोशिश भी नहीं की जाती समाज से जूझते हुए विनीता को घर में रखने
के अपने फैसले पर गौतम साहब भी अफसोस मनाते हैं। घर में विनीता की अनुपस्थिति सब
को सुकून दे जाती है लेकिन सब कुछ त्याग करने वाली विनीता संसार में अकेली हो चुकी
थी उसके पास अपना कहने वाला कोई नहीं था जिससे वह अपने सुख-दुख साझा कर सके। “बेशक वह दूर निकली गई थी और प्रतिशोध
में अपने जीवित माता-पिता की तेरहवीं भी कर चुकी थी, मगर सब कुछ के बावजूद वह अकेली थी। वह जितनी ऊपर जाती, उतनी अकेली हो जाती।”३‘गे
वर्ल्ड’ जैसे पॉप्यूलर ब्यूटी सैलून को खोलने
एवं पेज थ्री की ब्यूटी क्वीन बनने के बावजूद विनीता का अकेलापन उसको सांप की तरह
डंसता सुबह का सूरज अपनी चमक से विनीता की कामयाबी में नित नया उजाला भरता, दोपहर-भर उसकी उष्णता उसके काम में
ऊर्जा भरती, पर शाम ढलते-ढलते ही थके सूरज की तरह, वह मानो अपने लिए ही बेमानी हो जाती
थी। विनीता के भीतर अकेलेपन से उपजा द्वंद्व उसे बेचैन बना जाता। असल में वह
प्रतिशोध और प्यार के उस द्वंद्व से जूझ रही थी जिसमें परिवार द्वारा न तलाशे जाने
की नफरत थी और साथ ही पिता से बिछुड़ने की पीड़ा। “यह हिन्दी का एक साहसी उपन्यास है, जो जेंडर के अकेलेपन और जेंडर के अलगाव के बावजूद समाज में जीने की
ललक से भरपूर दुनिया का परिचय कराता है। जीवन में ऐसे तमाम सच होते हैं, जिसे हम माने या नहीं माने लेकिन उनका
अपना वजूद है, क्योंकि उन पर समाज की मुहर भले ही
नहीं लगी हो लेकिन वक्त ने बेवक्त मुहर जरूर लगाई है।”4
दुनिया का हर जीव किसी न किसी के सान्निध्य में रहना स्वीकार करता है। यही
सान्निध्य उसे परिवार से बांधकर समाज निर्माण में सहायक होता है, लेकिन इस समुदाय को परिवार में ही
संरक्षण नहीं मिलता तो ये समाज में अपना अस्तित्व कहां से बना पाएंगे?
प्रत्येक मनुष्य की ही तरह किन्नर
समुदाय की भी आकांक्षाएं होती हैं। इनका भी अपने विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण
होता है, इनके अंदर भी विवाह करने की चाह होती
है, किसी के साथ सुचारू रूप से जीवनयापन
करने की इच्छा होती है लेकिन इनकी लैंगिक विकलांगता एवं परंपरागत कार्य के कारण
इन्हें हेय समझा जाता रहा है। जिसके कारण ये अकेले ही अपना जीवन बिसर करते हैं
इसका एक उदाहरण हमें शबनम मौसी जोकि देश की पहली किन्नर विधायक रह चुकी हैं उनके
माध्यम से देखने को मिलता है। उनका विधायक बनना भारतीय राजनीति और वर्षों से
सामंती ताने-बाने में अकड़े-जकड़े समाज के लिए कोई मामूली घटना नहीं थी। जिन
किन्नरों को हमारे समाज में घृणा, उपेक्षा
एवं दया का पात्र समझा जाता है उनमें से शबनम मौसी का पूरे अठारह हजार वोटों से
जीतना उनके द्वारा किए गए संघर्षों को स्वयंसिद्ध करता है। मध्यप्रदेश के सोहागपुर
क्षेत्र में नाच गाना कर बधाई मांगकर जीवन-यापन करने वाली शबनम मौसी ने जब विधायक
बनने के लिए आवेदन पत्र भरा था तो शायद ही किसी को विश्वास हो कि वह अपनी जमानत
बचा पाएंगी। लेकिन लिंगधारी समाज को पछाड़ती हुई शबनम मौसी भारी बहुमत से विधायक
बनी।
उपन्यास में जब किन्नरों के सम्मेलन पर
राजनीति एजेंडों की बात निकली तो शबनम मौसी ने निराशा व्यक्त करते हुए अपने भाषण
में कहा कि “हमने लोगों के इतने काम कराए, गांव-गांव में जाकर लोगों के दुख-दर्द
में भागीदार बनी, लेकिन दोबारा जीत न सकी। फिर भी इससे
हमें घबराने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि चुनाव में उन्हें हराने के लिए
शराब, मुर्गा, दादागिरी और नोट से वोट लेने का काम नेताओं ने किया। लोगों को
भड़काया। लिंगभेद के आधार पर राजनीति का सामंती पाठ पढ़ाया और मैं चुनाव हार गई।
ठंडी सांस भरते हुए उन्होंने कहा कि अब ये दीवारें हैं और मैं हूं। अकेलापन काट
खाने को दौड़ता है।”5
जिस अकेलेपन को शबनम मौसी बाल्यावस्था से झेलती आ रही थी वह उनके विधायक
बनने एवं सामाजिक सेवा सुश्रुषा से कुछ कम होने लगा था लेकिन विधायकी कार्यकाल
अवधि समाप्त होने के बाद वह पुनः काल रूपी अकेलेपन के जाल में फंस गई। अपने
अकेलेपन के चलते उन्होंने पुनः राजनीति में अपनी सक्रियता दिखाई लेकिन कुछ तथाकथित
भ्रष्ट नेता की लिंग संबंधी भेदभावपूर्ण नीति के प्रचार प्रसारण के चलते वह दोबारा
विधायकी में अपने पांव नहीं जमा सकी।
व्यक्ति अगर किसी से स्नेह करता है तो
वह स्नेह की आकांक्षा भी रखता है। प्यार के बदले प्यार के प्रतिदान की यह चाहत
व्यक्ति की सहज मनोवृत्ति है और इस चाह की पूर्ति न होने पर उसमें कुंठा, हीनता और मानसिक द्वंद्व जैसे भाव जन्म
लेते हैं। यह हीनता का बोध उसे अनवरत अकेलेपन की ओर ढकेलता है। यह अकेलापन तब और
भयानक रूप ले लेता है जब इन सारी घटनाओं की वजह व्यक्ति स्वयं को तथा अपनी शारीरिक
कमी को मान रहा हो। इस बात को हम सुनयना और शेरपा के प्रसंग में घटित होते पाते
हैं। शेरपा का यह समझते हुए कि सुनयना उसको प्रेम करती है बदले में सुनयना से
प्रेम केवल इस वजह से न करना कि सुनयना हिजड़ी है, सुनयना को निराश करता है ओर अंततः यह निराशा सुनयना के रेखा चितकबरी
के सैक्स रैकेट में शामिल होने के रूप में फलित होता है।
अपने अंदर आधे-अधूरेपन के भाव से अक्सर
किन्नर समुदाय स्वयं में हीनताबोध की स्थिति से गुजरता है, समाज द्वारा लगातार नकारात्मक
दृष्टिकोण अपनाए जाने की वजह से वह स्वयं को उसी नजर से देखने लग जाते हैं, जिसके कारण ये समुदाय समाज से कटने
लगता है। इनका अकेलापन मुख्यतः इनके आधे-अधूरेपन से जन्मता है जिसके कारण न तो समाज
ही इन्हें स्वीकारता है और न ये समाज से जुड़ पाते हैं। अकेलेपन के इसी दंश से
जूझते एवं अपने आधे-अधूरे होने के भाव के चलते विनीता वेजाइना रिप्लाण्टेशन कराती
है और अपने संपूर्ण शरीर को एक स्त्री रूप में परिवर्तित करा एक मुकम्मल औरत होने
का अनुभव करती है। विनीता के अंदर रिप्लांटेशन के पश्चात जन्मा पूर्ण स्त्री का
भाव उसे न सिर्फ आंतरिक शांति प्रदान करता है, बल्कि
होश संभालने से लेकर अब तक आत्मा और शरीर के टकराव की वजह से वह जिस मानसिक
यंत्रणा से गुजर रही थी उससे भी निजात दिलाता है। हालांकि तृतीय लिंग समुदाय से
निकले कुछ व्यक्ति समाज की मुख्यधारा में अपनी जगह बनाने के लिए निरंतर संघर्ष कर
रहे हैं, लिंग परिवर्तन कराकर वह अपनी
इच्छानुसार जीवनयापन कर रहे हैं, अपने
अधिकारों के प्रति सजगता दिखा रहे हैं, अपने
अस्तित्व को समाज में स्थापित करने के लिए अनेक सामाजिक संस्थाओं में भी कार्यरत
हैं किंतु उन्हें इस कार्य के लिए अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। जैसे, अगर हम उपन्यास में विनीता को ही देखें
तो ‘गे वर्ल्ड’ की ब्यूटी क्वीन बनने से लेकर वेजाइना
रिप्लांटेशन तक के सफर में उसने अनेक संघर्षों का सामना किया ताकि वह अपने और अपने
जैसे लोगों के अस्तित्व को समाज में स्थापित कर सके लेकिन इस सब के बावजूद वह अपने
अकेलेपन की पूर्ति न कर सकी।
‘गे वर्ल्ड’ की स्थापना विनीता ने तृतीय लिंग
समुदाय के लोगों में आत्मविश्वास भरने के लिए की थी, लेकिन वेजाइना रिप्लांटेशन के बाद जब उसके मन में विवाह कर घर बसाने
का विचार आया तो वह अपनी इस इच्छा को भी दबा गई क्योंकि, “वह घर बसाती तो उसके पेज थ्री और
ब्यूटी बिजनेस को बट्टा लग सकता था। उसके अधूरे होने ने से ही उसके धंधे की
बुनियाद रखी थी। गे उसके पार्लर में इसलिए आते थे कि वह भी उन्हीं जैसी है|”6 इसलिए अपने में पूर्णता के भाव को
महसूस करने के बावजूद विनीता किसी अन्य के स्नेह व सान्निध्य से वंचित ही रही। पेज
थ्री की महत्वपूर्ण हस्ती बनने के बावजूद वह असल जीवन में जिस अकेलेपन के दंश को
झेल रही थी इसका शायद ही कोई अनुमान लगाया जा सके।
स्वाति
शोधार्थी
पीएच.डी. (हिन्दी साहित्य)
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा,महाराष्ट्र
सम्पर्क
9922039678
swatitasud@gmail.com
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संदर्भ
1. http://www.pakhi.in/may_11/mimansa_jeevantali.php
2. संपा. डॉ. एम. फिरोज अहमद, वाङ्ग्मय(त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका),खंड-तीन थर्ड जेंडर-कथा आलोचना. पृष्ट-71
3. सौरभ, प्रदीप. 2011.
तीसरी ताली. दिल्ली. वाणी प्रकाशन.
प्रथम संस्करण. पृ.-117
4. https://aajtak.intoday.in/story/teesri-taali-written-by-pradeep-sourabh-1-802584.html
5. सौरभ, प्रदीप. 2011.
तीसरी ताली. दिल्ली. वाणी प्रकाशन.
प्रथम संस्करण. पृ.-139
6. सौरभ, प्रदीप. 2011.
तीसरी ताली. दिल्ली. वाणी प्रकाशन.
प्रथम संस्करण. पृ.-154
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
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