‘आदिवासी विमर्श’ और दाना मांझी के परिप्रेक्ष्य में मीडिया की भूमिका
मीडिया की मदद
अगर श्रमिक वर्ग, अल्पसंख्यक,
आदिवासियों को मिले तो उन्नति की राह पा सकते
हैं। पर आजकल हमारी मीडिया सकारात्मक को नकारात्मकता में बदल देती है, और जो दिखाई देता है उसे झूठा साबित कर देती
है। यही अगर एक पूंजीवादी सत्ता नकारात्मक कार्य करें तो वह स्पांसर को सही दिखाकर
उसे सही साबित कर देती है। क्या समाज आज सिर्फ अर्थ पर टिका है, गरीबों की किसानों की दलितों और आदिवासियों का
कोई अस्तित्व उनकी अस्मिता नहीं जो उन्हें मिटाया जा रहा है। आदिवासियों के रहन-सहन
को मनोरंजन के साथ एक भद्दे तरीके से दिखाया जाता है और उनके भीतर छिपे दुख,
दर्द, संघर्ष की पीड़ा तथा उनके जीवन की मेहनतकशी को छुपाया जाता है। क्या यही है आज
का मीडिया। इसलिए मीडिया के प्रसारणों को बदलना होगा ताकि जो आदिवासी क्षेत्र उस
घुटन में पिसता जा रहा है उसे बाहर निकाला जा सके।
आज आदिवासी शब्द
का नाम लेते ही हमारे सामने एक अर्द्ध-मनुष्य की तस्वीर खिंच जाती है। या कह सकते
हैं कि सदियों से अपनी वीरान दुनिया में सिमटे हुए पूर्ण रूप से प्रकृति पर निर्भर,
अपनी परंपरा, संस्कृति को बचाए रखने का संघर्ष करने वाले मनुष्य की
तस्वीरें जो हमारे सामने आ जाती है और यह सदियों के संताप के बाद भी आज तक समाज के
सामने स्वतंत्र रूप से नहीं आ पा रहे जिसकी वजह मीडिया को कहा जा सकता है। क्योंकि
मीडिया, जनसंचार, आॅडियो, वीडियो, फिल्म ऐसे माध्यम
होते जिनके द्वारा किसी भी चीज को आसानी से सहजता से जनता के सामने दुनिया समाज के
सामने लाया जा सकता है। उनकी समस्याओं को सुख हो या दुख को मीडिया के माध्यम से
व्यक्त किया जा सकता है। परन्तु आज जनसंचार हर आम आदमी की मौता का इंतजार करती है
जब तक उन पर मुसीबतों का कहर ना आ जाए। तब तक वह उन पर कोई प्रकाश नहीं डालते।
उदाहरण के तौर पर
वर्तमान समय में घटी घटना आदिवासी ‘दाना माँझी’
के परिप्रेक्ष्य में मीडिया की भूमिका को देखा
जा सकता है जिसमें मीडिया संदिग्ध नजर नहीं आई। क्योंकि इस घटना में साफ स्पष्ट
होता है कि यह सभ्य समाज का दुख या सहानुभूति नहीं बल्कि एक रोमांच है जिस पर
मीडिया ने सहानुभूति दिखाकर, असलियत पर,
उनकी संवेदनाओं पर एक झूठी चादर ढकते हुए जमकर
कारोबार का साधन बनाया। आदिवासी दाना माँझी (कालाहांडी का निवासी, राज्य ओडिशा) अपनी पत्नी अमंग देई की लाश भवानी
पटना, अस्पताल से कंधे पर लादकर
12 किलोमीटर पैदल चला,
तथा उसकी पत्नी टीबी की मरीज थी जिसे इलाज के
लिए वह 60 किलोमीटर दूर अपने गांव
मेलधरा रामपुर से लाया था। अतः 23 अगस्त की रात को
उसकी मौत हो गई।
दाना माँझी और एक
आदिवासी की बेबस जिंदगी का पता वहीं से चलता है जब वह अस्पताल प्रबंधन से पत्नी की
लाश गांव तक ले जाने के लिए एम्बुलेंस की मांग करता है परन्तु पैसे न चुका पाने के
कारण उसे एम्बुलेंस मुहैया नहीं कराई जाती। एक तरफ कहा जाता है कि समाज उन्नति कर
रहा है, देश आगे बढ़ रहा है परन्तु
इस घटना को देखने से पता चलता है कि यह भूमण्डलीकरण, जनसंचार, मीडिया, मल्टीनेशनल
आविष्कार सिर्फ पूंजीपतियों द्वारा शुरू होकर उन पर ही खत्म होते हैं। इन सब नए
माध्यमों का श्रमिक जीवन, गरीबों, दलितों और आदिवासियों के लिए कोई उपयोग नहीं हो
पाता कारण सिर्फ अर्थ का अभाव। इसलिए आदिवासी माँझी पैसों के अभाव के कारण कुछ न कर
पाया और शव को खुद कंधे पर ढोकर ले गया। साथ में उसकी 12 साल की बेटी भी आंखों में आंसू लिए चल रही थी। यहीं से एक
नहीं बल्कि हर माँझी आदिवासी की पीड़ा शुरू होती है। क्योंकि जब यह फोटो वायरल हुआ
तो यही सभ्य समुदाय, सभ्य समाज
सहानुभूति के साथ फैलता गया और भूखमरी से बिलखता कालाहांडी का यह गुमनाम आदिवासी
रातों रात हीरो बना दिया गया।
बाकि लोगों को
लगे कि उस पर पूंजीवादी लोगों ने रहम किया, उसकी मदद की उसकी भूखमरी पर पैसों की बौछार कर दी। पर असल
मंशा यह थी कि जातिवाद, वर्णवद भेद को
लेकर बात आगे न बढ़े, इसलिए तो मीडिया
ने उनकी पत्नी के लिए भक्ति, प्रेम के गीत
गाए। साथ ही माँझी के व्यक्तित्व को उजागर किया कि माँझी जैसे लोग ऐसी बातों,
ऐसे हादसों की परवाह नहीं करते बल्कि जमाने को
चुनौती देते हैं। परन्तु एक झूठी शिद्दत को सामने लाया गया। एक परिवार मंे मृत्यु
जैसी घटना बहुत बड़ी बात होती है और किसी की जीवन संगिनी का गुजरना तो और भी बड़ी
बात है। ऐसे कितने ही आदिवासी होंगे जो जीवन में हर तरफ संघर्ष करते हैं परन्तु उन
पर कोई प्रकाश दृष्टि नहीं डाली जाती। उनके दुखों को भी सुख की किरण दिखाते हुए
उन्हें चुप करा दिया जाता है। क्या यही आज की मीडिया है। जहाँ मीडिया और उसके
संचारों को अच्छी कड़ी माना जाता है, वहीं यह गरीबों के लिए अभिशाप क्यों? सिर्फ इसलिए कि वह अभी पूरी तरह सत्ता में नहीं
आ पा रहे हैं।
बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल
सहित दक्षिणी और पूर्वी राज्यों में ऐसी घटनाएं आम हैं और इनमें से एक भी घटना
सामने आ जाए तो मीडिया के साथ-साथ शिक्षित समाज को मुख्यधारा में दाग लगता महसूस
होता है और सच्चाई को छूपाते हुए उन पर कविताएं लिखने हैं।
करोड़ों आदिवासी
जानवरों से बदत्तर जिंदगी जी रहे हैं और अपने ही जल, जंगल, जमीन के खेतों
में बैलों की तरह जूते हल चला रहे इस सच को दाना के बहाने भी किसी ने नहीं देखा।
फिर उस ऐतिहासिक सच की बात करना तो बेमानी है जो तथ्यों से यह साबित करता है कि
आदिवासी ही देश के मूल निवासी हैं, जिन्हें आर्यों
ने आकर अपना गुलाम बनाया उनकी औरतों का बलात्कार किया और धर्म ग्रंथ रचते उन्हें
शूद्र और सेवक करार दे दिया और आज यही आर्य/पूंजीपति मनुष्य दाना माँझी की पत्नी
की भक्ति करके आरतियां कर रहे हैं, जिससे कोई बगावत
न हो।
आदिवासियों का
शिक्षित और जागरूक होता वर्ग मान लें कि समाज उनसे हमदर्दी रखता है। नहीं तो कहा
जाता है कि नीची जाति में पैदा हुआ मनुष्य आर्यों की सेवा के लिए पैदा हुआ मनुष्य
आर्यों की सेवा के लिए पैदा होता है। यहाँ माँझी ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है
कि वह किसी की सेवा के लिए पैदा नहीं हुआ वह खुद अपने में एक मिसाल है, उसके भी संवेदनाएं हैं जो अपने जीवन के लिए
परिवार के लिए तड़प उठती है। ऐसे ही माँझी की कहानी को देखते हुए कह सकते हैं कि
आदिवासी समाज अनादि काल से ही अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। आज
के दौर में भूमण्डलीकरण, मीडिया ने
आदिवासी की समस्याओं को समाप्त करने की जगह खतरे में डाल दिया है। वर्तमान
व्यवस्था केवल विकास के नाम पर आदिवासी का शोषण कर रही है। इसके लिए आदिवासियों को
एक संगठित विचारधारा को साथ लेकर एक नया आंदोलन खड़ा होगा तब ही आदिवासी अपने समाज
को एक नया आयाम दे सकते हैं।
आज आदिवासी समाज
पूंजीपति के खिलाफ जंग लड़ रहा है। एक तरफ आदिवासी समाज तो दूसरी तरफ विकास का
मसीहा यानि कॉरपोरेट गिद्ध, निरंकुश सरकारें,
काले कानून निर्दयी पुलिस-प्रशासन, मीडिया की झूठी बातें आदि। आदिवासियों के
बेशकीमती प्राकृतिक खजाने को पूंजी के महारथियों यानि मुनाफे के लुटेरों के हाथों
में गिरवी रख देने और विकास के नाम पर देश के आदिवासियों की अधिसंख्य आबादी को
विस्थापन, बेकारी, लाचारी, गरीबी, भूखमरी की आग में
सोंक देने के जिद्द और जबर्दस्ती है जो कहीं से मीडिया द्वारा दिखाई जाने वाला
द्वारा लोकतांत्रिकता की निशानी नहीं है। सरकार को मालूम होना चाहिए की भारत के
मूल निवासी आदिवासी का अहित कर कभी राष्ट्रहित या जनहित नहीं हो सकता, क्योंकि पेट रोटी से भरता है न कि विकास दर के
बढ़ते आंकड़ों से। सत्ता में बैठे लोगों को समझ में आना चाहिए कि आज आदिवासियों की
पहचान खतरे में है। आज हम कहने को उत्तर आधुनिक दौर में जी रहे हैं और विकास के
चरम लक्ष्य को प्राप्त करने का सही तालमेल नहीं बैठ पाया है। क्योंकि मीडिया के
बढ़ते आविष्कारों ने जहाँ अपने सकारात्मक रूप दिखाए हैं वहीं दलित अल्पसंख्यक,
आदिवासियों के भीतरी दुख को दिखाने की बजाए
उनके दुख को खुशी के रूप में दिखाकर उनके अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। दाना
माँझी जैसा मनुष्य अपनी पत्नी का शव कंधे पर न ले जाते हुए देखा जाता तो उसकी पीड़ा
को कोई बाहर ना ला पाता और उसकी पत्नी के अंतिम संस्कार के साथ उसके अस्तित्व का
भी अंतिम संस्कार हो जाता। मीडिया ने उस फोटो को वायरल करके उसे समाज में पहचान तो
दी। परन्तु उसके लिए पहले उठाए जाने वाले कदमों से पीछे रही न अस्पताल से उसे मदद
मिली, न समाज से न मीडिया से।
कहा भी जाता है कि सुख में सभी आते हैं उसकी कोई मदद नहीं उसी प्रकार माँझी की
पत्नी के जिंदा रहते हुए उसकी कोई मदद करने नहीं आया।
पैसों के अभाव के
कारण उसकी बीमारी ने उसे मृत्यु को प्राप्त कर दिया और मृत्यु के बाद वह सुर्खियों
में आ गई। क्या यही मीडिया है जब तक किसी की मृत्यु न हो जाए उसके लिए कोई आगे
नहीं आता। उसके अस्तित्व को नहीं पहचानता और जैसे ही वह दुख की पीड़ा को झेलता हुआ
संघर्ष करता है तो बात सामने आती है। यह है आदिवासी दाना माँझी।इस प्रकार
आदिवासी समाज को अन्य समाज को आज के दौर में अपनी अस्मिता अपने अस्तित्व को बनाए
रखने के लिए आवाज उठानी होगी। अंत में कहना होगा तभी वह इस दौर में बराबरी का हक
ले सकते हैं।
शाहीन बानो
शोधार्थी, पीएच.डी.(हिंदी)
जामिया मिल्लिया इस्लामिया
दिल्ली
सम्पर्क 7503492857 |
संदर्भ सूची
1. सुधीश पचैरी, मीडिया और साहित्य, राजसूर्य प्रा. लि. दिल्ली-110053, सं.1998
2. डॉ. स्मिता मिश्र, भारतीय मीडिया, अंतरंग पहचान, भारत पुस्तक
भंडार प्रा. दिल्ली-94, सं.2002
3. डॉ. क्षमा शर्मा, पत्रकारिता और साहित्य, श्रीनटराज प्र., सं.2002
4. वी. कृष्ण भीमसिंह, आदिवासी विमर्श, स्वराज प्र., सं.2014
5. रमणिका गुप्ता, आदिवासी भाषा और शिक्षा, स्वराज प्र., दिल्ली, सं.2012
6. अनामीशरण बबल, मीडिया-विवाद-संवाद, श्रीनटराज प्र., दिल्ली-2, सं. 2009
एक टिप्पणी भेजें