आधुनिकता के आईने में भारत
प्रेमचंद के काल से अब तक संसार में, हमारे देश में क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुके
हैं। अब स्त्रियां सिल और लोढ़े की जगह मिक्सी में मसाला पीसती हैं, घड़े की जगह रेफ्रिजरेटर का प्रयोग आम हो गया
है। प्रेमचंद को अपने लेखों और पत्रों को स्थानांतरित करने के लिए तार या डाक का
सहारा था किंतु आज अगर प्रेमचंद होते तो बड़े ही सुविधाजनक तरीके से कुछ बटनों को
प्रेस कर ही वे अपने लेख और पत्र दुनिया के किसी भी कोने तक भिजवा सकते। आज अगर
प्रेमचंद हमारे बीच होते तो उन्हें अपनी बातें संप्रेषित करने के लिए केवल कलम की
ही ताकत का सहारा नहीं रहता, अपितु विभिन्न
न्यूज चैनलों पर वे वाद-विवाद में आलोचनाएं और विभिन्न घटनाओं पर टिप्पणियां करते
मिलते, विभिन्न सोशल नेटवर्क्सआ
हमें सरलता से प्राप्त होते और फेसबुक पर वे अपने मैसेजों के माध्यम से, अपने नोटों के माध्यम से देश के प्रत्येक
इन्सान तक अपनी हर बात सरलता से पहुंचा सकते। ... यह कल्पना भी आज कितनी सुखद लगती
है कि काश! आज ऐसा ही कुछ होता और काश! कि प्रेमचंद आज भी हमारे बीच जीवित रहते!
बात जहां तक अत्याधुनिक तकनीकी सुविधाओं की है वहां तक तो यह कल्पना सुखकारी है कि
प्रेमचंद यदि हमारे बीच रहते तो संप्रेषण उनके लिए कितना सरल होता और उतना ही आसान
होता उनके लिए उनकी लड़ाई जो वे गरीबों और मजदूरों की हिमायत के लिए लड़ रहे थे,
लड़ना चाह रहे थे। अपने विचारों को संप्रेषित
करने के लिए, दुनिया की
तथाकथित परिस्थितियों के चित्र को प्रकाशित करने के लिए उन्हें उतनी अधिक मशक्कत
नहीं करनी पड़ती और शायद आज स्थिति कुछ और ही होती क्योंकि उनके जैसा वकील प्राप्त
कर किसानों को जो मनोबल मिलता --वह कम से कम उन्हें हाशिये पर आने से और अंतत:
आत्महत्या करने से रोक सकता किंतु क्या वास्तव में ऐसा होता? यद्यपि यह एक पूर्ण सत्य है कि आज हिंद देश
स्वतंत्र है, आजाद है, स्वराज्य-प्राप्त राष्ट्र है, परंतु क्या वाकई में यह सत्य है? क्या जिस स्वतंत्र देश की कल्पना प्रेमचंद ने
की थी वाकई में स्वतंत्र देश का रूप वही है? क्या भारत मां की तस्वीर आज कुछ विकृत-सी प्रतीत नहीं होती
जहां कहने को तो विश्व-प्रेम, वैश्वीकरण,
धार्मिक निरपेक्षता आदि ऊँचे-ऊँचे नीति-नियमों
की माला जपी जाती है किंतु वास्तव में भीतर का सत्य कुछ और ही है। शायद प्रेमचंद
आज नहीं हैं हमारे बीच तो यह अच्छा ही है क्योंकि गुलाम देश में अगर अंग्रेज सरकार
ने उनकी "सोजे-वतन' और "समरयात्रा'
की चिता जलाई तो वह सहनीय था, क्योंकि वे हमारे दुश्मन थे, हमारे ऊपर जबरन राज करने वाले बहशी थे किंतु आज
अगर हमारे स्वतंत्र देश में व्यवस्था के खिलाफ, सरकार की नीतियों के खिलाफ, राजनैतिक बुराइयों और धार्मिक उपद्रवों के खिलाफ कुछ विरोध
करने और अपने विचार प्रकट करने के लिए, फेसबुक पर मेसेजेस भेजने और ट्वीट करने के कारण प्रेमचंद को जेल भेज दिया जाता
तो वह उनके लिए अत्यंत ही शर्मनाक बात होती।
यह कथन कटु तो है किंतु सत्य है कि आज यद्यपि
हमारा देश स्वतंत्र है तथापि आम जनता स्वतंत्र नहीं है। आज भी आम आदमी को सरकार के
खिलाफ बोलने का अधिकार नहीं है, आज भी उसे उसके
बोलने, अभिव्यक्ति के, शिक्षा के मौलिक अधिकारों से वंचित रखा गया है
और यही कारण है कि प्रेमचंद ने जिन "इशूज' के खिलाफ जिंदगी भर युद्ध जारी रखा, आज वे ही "इशूज' और भी भयावह रूप में आम जनता की जिंदगी की परेशानियों को
बढ़ा रहे हैं। आज मजाक में कोई व्यक्ति मोबाइल पर भी सरकार के खिलाफ कुछ बोलता है
तो सरकार की ऊँगलियों पर नाचने वाले कानून के रक्षक और प्यादे उस आम आदमी को
गिरफ्तार कर लेते हैं। हालांकि वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि आम आदमी चंद मेसेजेस
प्रचारित-प्रसारित करके भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता, तथापि चूंकि वे एक अच्छे छात्र हैं, उन्होंने बीते हुए युग से, इतिहास से एक बात जरूर सीख कर हजम कर ली है कि आम आदमी की
प्रत्येक बात को मजाक में नहीं लेना चाहिए क्योंकि एक-एक आम आदमी ही जिस दिन
इकट्ठा हो जाता है, उसी दिन
साम्राज्य का आसन डोल जाता है, गद्दियां गिर
जाती हैं और राजे-महाराजे तक पददलित हो जाते हैं। अत: एक आम आदमी के विरोध को
प्रारंभिक अवस्था में ही कुचल दो ताकि अंतिम सफलता का प्रश्न ही न उठ सके।
मेरठ में महापंचायत पर लाठी चार्ज और आक्रामक
प्रहार इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि आम आदमी की ताकत को आज किस प्रकार
नेस्तनाबूत करने की कोशिशें की जा रही हैं और यह सिर्फ किसी एक खास सरकार की ही
बात नहीं है अपितु हर वह सरकार जो समाज से ज्यादा व्यक्तिगत हितों को महत्व देती
है, वह इसी प्रकार का आक्रामक
रवैया अपनाती है क्येांकि वह अच्छी तरह जानती है कि ज़रूर हवा एक-न-एक दिन उसके
विरुद्ध बहेगी, अत: शुरू से ही
लूट-खसोट का कार्यक्रम आरंभ हो जाता है, किंतु इस लूट-खसोट से पूरी तरह अवगत होते हुए भी जनता के पास और कोई विकल्प
नहीं है इसके सिवा कि वह किसी भी एक बटन पर ऊँगली दबाकर अपने गूढ़ कर्तव्य से
मुक्ति पा ले, किंतु अब उसे एक
और मौलिक अधिकार दिया गया है और वह है नकारने का अधिकार। अब जनता अपने "वुड
बी' निर्वाचकों को अधिकार
देने से "ना' कर सकती है किंतु
फिर भी इससे प्रश्न की गंभीरता खत्म नहीं होती। "ना' करने से भी जनता को एक सही उम्मीदवार तो नहीं मिल सकता और
जब तक जनता को उसका सही नेता नहीं मिल जाता तब तक वह विश्व के फलक पर अनाथ और थोथे
मूल्यों के कवच के भीतर कैद घोंघा सदृश ही साबित होती रहेगी।
अगर इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया जाए कि
देश की स्वतंत्रता से देश की आम जनता को कितना फायदा हुआ है तो सिर्फ कुछ शब्द ही
हमारे मानस-पटल पर उभरते हैं --महंगाई, खाद्य-संकट, किसानों की
आत्महत्या, दीनों की बेबसी, गरीबों की दुर्गति और मध्यवर्ग का कचूमर। आज
यूं तो समाज में आर्थिक असमानता ने गरीब और अमीर के बीच पर्वत और खाई का-सा अंतर
पैदा कर दिया है किंतु दूसरी तरफ महंगाई, मंदी आदि की मार ने मध्यवर्ग एवं निम्नवर्ग की कमर ही तोड़ कर रख दी है। गरीब
व्यक्तियों को तो प्याज जैसी सुलभ वस्तु भी मोल लेना सुलभ नहीं है क्योंकि आज सोना
और प्याज दोनों ही उच्च भाव में बिकते हैं। सोना तो सिर्फ अमीरों की थाती बन गई है,
खुद को सजाना-सँवारना तो दूर की बात है,
भर-पेट भोजन और सही तरीके का रहन-सहन भी गरीबों
के लिए सपना बन गया है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन बिताने वाले व्यक्तियों के लिए
योजनाएं तो काफी लागू की गई हैं किंतु यह रेखा इतनी नीचे है कि उसके ऊपर के भी
परिवार सुखी नहीं हैं, रेखा के नीचे तो
पूर्णत: हाशिये में हैं ही। जिस आय को इस रेखा में कसौटी मानी गई है उसमें कोई भी
परिवार इज्जत की जिंदगी नहीं जी सकता पर उस सरकार की नजर में यही आय संतुष्टिपरक
है जो खुद अपने ऊपर करोड़ों रुपये का खर्च एक दिन में करती है। साथ ही, गौण स्तर पर देखा जाए तो आज और भी अनेक
समस्याएं उभरती दीख रही हैं जिनकी चिंगारी तो प्रेमचंद ने देखी भी थी और जिनका
वर्णन भी प्रेमचंद ने अपने लेखों में किया था किंतु आज उन मुद्दों की भयावहता का
एहसास वास्तव में हो रहा है। प्रेमचंद ने आरक्षण को महत्व दिया था, प्रेमचंद ने इस बात का समर्थन तह-ए-दिल से किया
था कि कमजोर वर्ग को शिक्षा का, न्यूनतम
आवश्यकताओं का लाभ देने के लिए उन्हें प्राथमिकता देनी ही चाहिए, उन्हें मानसिक संबल और मनोबल प्राप्त करने के
लिए शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण प्रदान करना चाहिए, नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए, किंतु इस बात के वे शुरू से ही खिलाफ थे कि जिन
गुरुतर कार्यों में योग्यता का अहम् स्थान है वहां आरक्षण के बल पर योग्य व्यक्ति
को भी अनदेखा कर अल्पसंख्यकों को स्थान दिया जाए क्योंकि योग्यता के स्तर पर होने
वाली नौकरियों में यह खिलवाड़ देश को अंतिम स्तर तक गिरा सकता है और उस वक्त यह
समस्या जो बिल्कुल एक छोटी-सी बात प्रतीत होती थी आज वास्तव में विकराल रूप धारण
कर चुकी है।
आज हमारे देश में शासन व्यवस्था की चाभी
हथियाने के लिए निर्वाचक आरक्षण, जातिवाद, सांप्रदायिकता को अपनी जादू की छड़ी की तरह
इस्तेमाल करते हैं जिसके बल पर वे पूरे के पूरे समुदाय को अपनी मुट्ठी में कर लेते
हैं और नौकरियों के लालच में समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त करने के लिए आम जनता नशे
में धुत्त की तरह उनके पीछे आंखें मूंदे चली जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि
आज अस्पतालों में अयोग्य डॉक्टरों की भीड़ भरी पड़ी है जो घूस देकर, अफसरों की मुट्ठियां गरम कर डॉक्टर की डिग्री
प्राप्त तो कर लेते हैं पर सही योग्यता और शिक्षा की कमी के कारण वे मासूम मरीजों
की जान लेते हैं और बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हो जाती, अपने पद और शोहरत का गलत लाभ उठाते हुए वे मरीजों को गलत
तरीके से मारकर उनके शरीर के विभिन्न अंगों का सौदा करने से भी बाज नहीं आते और
अपनी अयोग्यता का बदला वे मरीज की जिंदगी का सौदा करके लेते हैं। अगर कुछ भी नहीं
कर पाएं तो कम-से-कम मरीज का ऑपरेशन तो जरूर करते हैं भले ही ऑपरेशन की जरूरत मरीज
को हो या न हो। ये हैं इनकी कमाई के अचूक जरिए।
इसके अलावा भी विभिन्न सेवा-संस्थानों में
जातिवाद कुछ ऐसे घर कर गया है जैसे दाल में नमक। बिना जातिवाद की रोटी खाए किसी का
पेट ही नहीं भर सकता और इससे भी मन संतुष्ट न हुआ तो हिंदू-मुस्लिम में विरोध की चिंगारी
भड़का दी। मुजफ्फरनगर का दंगा आज हमारे स्वतंत्र देश की आधुनिकतम तकनीकों से लैस
स्वतंत्र राष्ट्र की अस्मिता पर, उसकी व्यवस्था पर
एक काला धब्बा है जहां तुच्छ स्वार्थ और मानसिक खलल की संतुष्टि के लिए कुछ लोग
जान-बूझकर एक छोटी-सी व्यक्तिगत स्तर पर होने वाली घटना को हिंदू-मुस्लिम दंगा के
रूप में इस कदर भड़काते हैं कि वही छोटी-सी घटना आगजनी की तरह अनेक हिंदू-मुस्लिमों
के घरों को जलाकर रख देती है। अनेक मासूमों की जिंदगी बर्बाद कर देती है। आखिर
संप्रदाय के नाम पर सरकार बनाकर या सरकार चलाकर कोई क्या हासिल कर सकता है?
इतनी जानें गँवाकर कोई देश कैसे कह सकता है कि
वह स्वतंत्र आबोहवा में सांस ले रहा है जहां सांप्रदायिक हिंसा आम जनता की जिंदगी
में जब-तब जहर घोलती रहती है और जहां एक जाति को परास्त करने के लिए और अपने धर्म
को आबाद करने के लिए "लव जिहाद' जैसे घिनौने खेल खेले जाते हैं।
भले ही प्रेमचंद के समय में धार्मिक अंधविश्वास
का रूप भिन्न था। उस समय अछूतों को, दलितों को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था। शूद्रों की परछाई तक से
ब्राह्मण घृणा करते थे और इस वर्ग को मंदिर के भगवान के दर्शन तो क्या, उनके दरवाजे पर माथा टेकने तक की इजाजत नहीं
थी। धर्म के इस कलंकित और तिरस्कृत रूप का बड़ा ही दारुण चित्रण हमें प्रेमचंद की
कहानी "मंदिर' में देखने को
मिलती है जहां प्रेमचंद ने एक साथ मां की ममता, ब्राह्मण और अन्य उच्च वर्ग की कठोरता तथा धार्मिकता के
पाखंड को बड़ी ही कठोरता से वर्णित किया है, जो कठोर ऊंचे वर्ग के लिए हैं किंतु इस कहानी से प्रेमचंद
की निम्नवर्ग के प्रति अतिशय संवेदनशीलता, सहिष्णुता एवं साथ ही धार्मिक पाखंडों के खिलाफ उनकी तीव्र और कठोर
प्रतिक्रिया का आभास भी सहज में हो जाता है। मां सुखिया अपने नन्हें-से बच्चे को
गोद में ले दुनिया भर के देवी-देवताओं की
मन्नतें मांग रही है ताकि उसका लाल, उसके जिगर का टुकड़ा उसकी गोद में बना रहे और उसकी ममता उसकी लीलाओं पर
न्यौछावर होती रहे। जिस सुखिया को वास्तविक जीवन में भगवान का दर्शन भी नसीब न था
और जो सुखिया रात-दिन अपनी आंखों से यह देखती थी कि ऊंचे वर्ग के लोग जो
उठते-बैठते भगवान के दर्शन करते हैं, उनकी चरण-रज अपने माथे पर चढाते हैं वे हर तरह के पाप-कर्म में लिप्त रहते हुए
भी सर्व-संपन्न हैं, सुखी हैं। अत: यह
स्वाभाविक है कि उसके अवचेतन में कहीं न कहीं यह बात घर कर गई थी कि मुसीबत के समय
में भगवान हमेशा मदद करते हैं और चूंकि उन्हें यह नसीब नहीं होता इसलिए वे दुनिया
में सबसे अधिक दुखी हैं। अत: अपनी सबसे बड़ी मुसीबत की घड़ी में उसे उसी भगवान की
याद आती है जो दुर्लभ हैं। साथ ही, एक और तथ्य यह भी
है कि चूंकि वास्तविक जिंदगी में सुखिया जैसी मामूली, निम्न वर्ग की स्त्री भगवान की बात सोच तक नहीं सकती अत: यह
उपाय भी उसके अंतर्मन में स्वप्न के रूप में ही उभरता है, यथार्थ में नहीं। यही कारण है कि भगवान के दर्शन पाकर अपने
सब दुख दूर करने की जो आकांक्षा है, स्वप्न रूप में स्वयं उसके पति ही उसके सामने प्रस्तुत करते हैं जिससे उसका
विश्वास और भी पक्का हो जाता है क्येांकि भगवान के दर्शन की इच्छा के साथ उसके
अंतर्मन में यह भी बात घर कर रही है कि अगर आज उसके पति जीवित होते, उसके साथ होते तो शायद वह इतनी निरूपाय नहीं
होती।
किंतु अपने पुत्र को जीवित रखने की यही कामना
और उस कामना की पूर्ति का यही उपाय उसके पुत्र के लिए जानलेवा साबित हो जाता है।
प्रेमचंद कहते हैं --""बच्चे की चिंता करते-करते तीन पहर रात बीत चुकी
थी। सुखिया का चिंता-व्यथित चंचल मन कोठे-कोठे दौड़ रहा था। किस देवी की शरण जाय,
किस देवता की मनौती करे, इसी सोच में पड़े-पड़े उसे एक झपकी आ गई। क्या देखती है कि
उसका स्वामी आकर बालक के सिरहाने खड़ा हो जाता है और बालक के सिर पर हाथ फेर कर
कहता है --"रो मत, सुखिया। तेरा
बालक अच्छा हो जाएगा। कल ठाकुर जी की पूजा कर दे, वही तेरे सहायक होंगे। यह कहकर वह चला गया। सुखिया की आंख
खुल गई।''
आंख खुलने पर सुखिया का बेटा थोड़ा ठीक होता है
किंतु शाम होते ही फिर से उसकी तबीयत खराब होती है और इस बार सुखिया की धार्मिकता
और भी चोखी हो जाती है। बरसों से संस्कारों में पैठा भगवान का डर सिर उठाकर बोलता
है और उसे यह पक्का यकीन हो जाता है कि भगवान की पूजा में देरी होने की वजह से ही
उसके बच्चे की तबीयत फिर खराब हो रही है। हाय रे! सुखिया और हाय रे! हमारा धर्म!
हमारे भगवान का भय! जो सुखिया के अशिक्षित मन में धर्म का भय पैदा करता है और भय
भी ऐसा कि वह अपने हाथ में अंतिम गहने तक गिरवी रख के पूजा के लिए पैसे जुगाड़ती है
किंतु हमारी व्यवस्था अशिक्षितों को इतनी भी शिक्षा देना जरूरी नहीं समझता कि वे
शारीरिक असमर्थता में किसी मंदिर या पुजारी का दरवाजा खटखटाने की जगह किसी डॉक्टर
या वैद्य के पास जाएं। पर नहीं, पंडे-पुजारियों
की कुछ ऐसी माया फैली है हमारे समाज में कि वे कुछ भस्म और भभूतों से ही मरते हुए
को भी जिंदा कर देते हैं और इसी माया के चक्कर में आज हमारे देश के हजारों गरीब
मृत्यु के मुंह में समा जाते हैं।
धार्मिक अंधविश्वास का यह नंगा खेल सिर्फ
प्रेमचंद के जमाने में ही नहीं खेला जाता था अपितु आज भी इसका विकृत रूप समय-समय
पर मीडिया के माध्यम से हमारे सामने पेश किया जाता है। टी. वी. पर, नेट पर हम बहुत ही सुलभता से देख पाते हैं कि
धर्म के नाम पर कितनी ही स्त्रियों को जिंदा जला दिया जाता है, कितने ही नर-नारी अपने बच्चों की बली चढ़ा कर
भगवान को प्रसन्न करना चाहते हैं और कितने ही लोग अपने शरीर पर विभिन्न प्रकार के
अत्याचार कर धर्म का गंदा खेल खेलते हैं जो संसार को पाखंड के जाल में घेरकर अपना
उल्लू सीधा करना चाहते हैं।
हमारे धर्म के दूत भी इतने परोपकारी और दयालु
हैं कि वे सुखिया के बचे-खुचे एक रुपये के लालच में उसे नाम-मात्र का जंतर,
तुलसी दल थमा देते हैं और पगली सुखिया इस
विश्वास से घर वापस आ जाती है कि ठाकुर जी की कृपा से उसका बच्चा अवश्य स्वस्थ हो
जाएगा। किंतु जो ठाकुर स्वयं प्रलोभन और माया-मोह के बंधन से ऊपर नही उठ पाया,
जो दिन-भर जमींदार के असामियों की पूजा करता
रहता है वह भला अपनी प्रार्थना से किसी दूसरे मानव को क्या ठीक करेगा। सुखिया के
बच्चे की भी हालत बिगड़ती ही जा रही थी और अंतिम समय में सुखिया का साहस परवान चढ़ता
है। वह चुपचाप मंदिर में ताला तोड़कर घुसना ही चाहती है कि धर्म के सभी ठेकेदार उस
पर टूट पड़ते हैं और धक्का देकर उसके बच्चे को आखिर मुक्ति प्रदान कर ही देते हैं।
सुखिया बेचारी अब तक जो सब कुछ चुपचाप सह रही थी, आज तक जो सब कुछ पत्थर के समान सहती आई थी, सिर्फ अपने ममता के वश अब चीख उठती है
--""पापियों, मेरे बच्चे के
प्राण लेकर दूर क्यों खड़े हो? मुझे भी क्यों
नहीं उसी के साथ मार डालते? मेरे छू लेने से
ठाकुर जी को छूत लग गई? पारस को छूकर
लोहा सोना हो जाता है, पारस लोहा नहीं
हो सकता। मेरे छूने से ठाकुर जी अपवित्र हो जायेंगे। मुझे बनाया तो छूत नहीं लगा?
लो, अब कभी ठाकुर जी को छूने नहीं आऊंगी। ताले में बंद रखो, पहरा बैठा दो। हाय, तुम्हें दया छू भी नहीं गई। तुम इतने कठोर हो। बाल-बच्चे वाले होकर भी तुम्हें
एक अभागिन माता पर दया न आई। तिसपर धरम के ठेकेदार बनते हो। तुम सब के सब हत्यारे
हो, निपट हत्यारे हो। डरो मत।
मैं थाना-पुलिस नहीं जाऊँगी। मेरा न्याय भगवान करेंगे, अब उन्हीं के दरबार में फरियाद करूँगी।''
सुखिया आखिर तो इसी देश की धार्मिकता के रस में
सराबोर स्त्री है जो अपने कलेजे के टुकड़े की मौत का फैसला भी उसी पत्थर के भगवान
पर ही छोड़ बैठती है --उस भगवान के भरोसे पर जो सदियों से मात्र पाषाण मूर्ति हैं,
जो तब भी मूक थे और आज भी मूक हैं। उस भगवान के
भरोसे न तब ही किसी गरीब का भला हुआ और न आज ही हो रहा है, यह भगवान सिर्फ गरीबों को लूटने का माध्यम मात्र बन सकते
हैं --अन्यथा कुछ नहीं। वर्ना क्या कारण है कि आज वर्षों बाद, इतना क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया कि जब अछूत और निम्न वर्ग सभी भगवान की पूजा कर
सकते हैं, मंदिर में आ-जा सकते हैं
फिर भी उनकी तकलीफों का अंत क्यों नहीं है? आज सभी वर्ग भगवान के चौखट पर समान पंक्ति में जाकर शीश
झुकाते हैं किंतु फिर भी उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के दिलों की दुरियां खत्म नहीं
हुई हैं और यही कारण है कि निम्न वर्ग आज भी समस्त सुख-सुविधाओं से, शिक्षा से, अच्छे भोजन से, साफ पानी से, असली दवाइयों से,
महंगे विलास-साधनों से पूर्णत: वंचित है?
वह कल्पना भी नहीं कर सकता उस जीवन की जिस स्वर्गीय जीवन का आनंद देश के एक या दो
प्रतिशत लोग ही उठा रहे हैं। इसका कारण क्या है? क्या देश के बाकी के 99 प्रतिशत लोग भगवान की पूजा नहीं करते या भगवान उनसे नाराज
हैं? असली बात यहीं से शुरू
होती है। आज सुख-सुविधा, दुनिया की तमाम
वस्तुएं सिर्फ देश के कुछ प्रतिशत लोगों तक ही सीमित है क्योंकि इस कुछ प्रतिशत
लोगों ने देश की पूंजी, देश की
प्रकृति-प्रदत्त तमाम वस्तुएं और यहां तक कि देश के भगवान को भी खरीद लिया है,
अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया है।
आज तीर्थ-स्थानों पर जाओ तो धन और धर्म का
"इग्जैक्ट लिंक' समझ में आ पाता
है जहां पंडे-पुजारी को हजार या पांच सौ की एक पत्ती थमा दो और फिर भगवान के दरबार
में आप भी वी. आई. पी. या कहो स्वयं भगवान की ही तरह पूजे जाओगे। भीड़ के साथ कतार
में आपको खड़ा नहीं होना पड़ेगा, आपको भगवान के
साथ डाइरेक्ट साक्षात्कार का सुख प्राप्त होगा, यहां तक कि भगवान के स्पर्श की भी सुविधा आपको मिलेगी,
पंडा-पुजारी और मंदिर रूपी कार्यालय का
प्रत्येक स्टाफ आपका खरीदा हुआ गुलाम बन जाएगा और यही है धर्म का वास्तविक रूप। ये
पंडे-पुजारी भगवान को चढ़ाए हुए फूल और अन्य सामग्री उठा-उठाकर वापस उसे बेचते हैं
और यही धंधा बड़े जोर-शोर से मंदिरों में चलता रहता है और भगवान न तब अपनी आंखों के
सामने होने वाले अत्याचार के खिलाफ कुछ बोल सकते थे और न ही आज पाखंडियों के चंगुल
में कैद होकर कुछ बोल पा रहे हैं।
प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से धर्म और
धर्म के नाम पर लूटने वालों को हमारे सामने लाकर खड़ा कर दिया है। "धर्म तो धूर्तों
का अड्डा बना हुआ है। इस निर्मल सागर में एक से एक मगरमच्छ पड़े हुए हैं। भोले-भाले
भक्तों को निगल जाना उनका काम है। लंबी-लंबी जटाएं, लंबे-लंबे तिलक-छापे और लंबी-लंबी दाढ़ियां देखकर लोग धोखे
में आ जाते हैं पर वह सब के सब महापाखंडी, धर्म के उज्ज्वल नाम को कलंकित करने वाले, धर्म के नाम पर टका कमाने वाले, भोग-विलास करने वाले पापी हैं।'' (सेवासदन) इस उद्धरण से यह साफ हो जाता है कि इस संसार में
धर्म के नाम पर लूटने वाले और ऐश करने वालों की कोई कमी नहीं है। मौजूदा दौर में
हमारे देश में दो व्यवसाय दिन दोगुनी और रात चौगुनी फल-फूल रहा है और वह है एक
राजनीति और दूसरा धर्म की अगुवाई। इस धर्म के बाजार में कमाई अरबों-खरबों में होती
है। जिधर देखिए उधर ही बाबाओं की धूम मची हुई है। ये बाबा धर्म के नाम पर
भोले-भाले भक्तों का शारीरिक एवं मानसिक शोषण करते हैं। अगर इनके कुकृत्यों के
खिलाफ थोड़ी-सी भी आवाज उठाई जाए तो ये तिलमिला उठते हैं। इनकी तिलमिलाहट से यह
पूरी तरह स्पष्ट है कि वे भगवान के नाम पर जुल्म और शोषण का महल खड़ा करते हैं। इसी
शोषण के महल की नींव को मजबूत रखने के लिए धर्म के ठेकेदारों ने सुखिया के साथ इस
तरह का दुर्व्येवहार किया और आज भी आजादी के 70 सालों बाद भी हमारे देश के कोने-कोने में सुखिया जैसी नारी
और उनके बच्चे इसी धर्म के नाम पर कुर्बान हो रहे हैं।
भगवान पंडित और पुरोहितों की जागीर है, यह मौजूदा दौर में पूरी तरह से गलत सिद्ध हो
चुका है। भगवान पर जितना अधिकार ब्राह्मणों और अमीरों का है उतना ही गरीबों का।
भगवान किसी की निजी संपत्ति नहीं है। इस पर सभी का समान अधिकार है। अंधे भक्तों की
आंखों में धूल झोंककर हलवे खाने के दिन अब गए। अब भगवान भी पानी में स्नान करते
हैं, दूध से नहीं।
डॉ. मीनाक्षी जयप्रकाश सिंह
कोलकाता
सम्पर्क
minihope123@gmail.com 7003901646 |
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