टूट
कर चाहना
तुमने
कहा- मुझे टूट कर चाहो;
ऐसे
जैसे कि दुनिया में केवल मैं हूँ!
मैं
तुम्हें वैसे ही चाहती रही,
जैसा
कि तुम चाहते थे…
मैंने
तुम्हें चाहा- तुम होकर;
तुम्हारे
साथ- संस्कृति-सभ्यता का
परंपरा-आधुनिकता
का
ना
रखा कभी कोई भेद…
मैंने
जीवन में बस तीन लोगों को
अधिक
गहराई से सुना…
‘किताब,
गुलाब और तुम्हें’
किताब
ने कहा- आओ देखो,यहाँ से दुनिया…
गुलाब
ने कहा- सब कुछ भुल जाओ…
और
तुमने कहा- मेरे पास आ जाओ…
मैं
सब कुछ ध्यानस्थ हो सुनती रही…
लेकिन
एक दिन-
जब
सम्मोहन की यह तंद्रा टूटी…
मैंने
पाया की:
किताब
ने मेरी आँखें फोड़ दी थी!
गुलाब
ने मेरे स्नायु तंत्र को ही शिथिल कर दिया था!!
और
तुमने मुझे बस हाड़-मांस का पुतला बना दिया था!!!
मैंने
तुम्हें ऐसे टूट कर चाहा कि…
दोबारा
कभी खुद को समेट ही ना सकी,
और
तुमने भी मुझे बिखेर कर
चुपचाप
उसपर अपने पाँव रखकर चले गये…!!
मैंने
कहा- ‘प्रेम’
तुमने
कहा- ‘देह’
मैंने
कहा- ‘नहीं’
तुमने
कहा- ‘तुम्हारा प्रेम किताबी है!
प्रेम में आख़िरी मुलाकात जब होगी...
उस दिन- सूरज रात में निकलेगा,
और चाँद दिन में ही दिखाई देगा;
ना तुम कुछ बोलोगे और...
ना ही मैं कुछ बोलूँगी...
बिन बोले ही चुप्पी सब कुछ बोलेगी...
उस दिन ज़मीन में दरारें पड़ जायेंगी...
सातों रंगों पर एक अदना काला रंग,
अपना पूर्ण अधिकार जमा लेगा...
तुम चाहोगे बोलना-
एक वाक्य, शब्द या अक्षर...
पर एक लम्बी चुप्पी...
तब तक गढ़ चुकी होगी -
मेरे- तुम्हारे बीच में:
एक मोटी-लम्बी दीवार, गढ़ और प्राचीर...
हमारा चेहरा अचानक विकृत और हिंसक हो जायेगा;
कल तक एक-दूसरे की खूशबू से हम मदहोश हो जाते थे...
अचानक भावनाओं के मरने से;
उसकी उठती हुई सड़न के दुर्गन्ध से-
हम एक-दूसरे के साथ खड़े भी न हो सकेगें...
एक बेहद खूबसूरत भाव की हत्या के बाद,
निपट निर्मम हिंसा-प्रतिहिंसा का भाव हमारे सीने को चीर देगा...
हम कितना भी चाहेंगे मुँह से अच्छे शब्द बोलना
पर भीतर लगभग सड़ चुकी मुर्दा भावनाएं...
बाहर हिंसा-प्रतिहिंसा के रूप में साकार हो उठेगीं...
यकीनन...
तुम कभी भी;
नहीं करना चाहोगे ऐसे आख़िरी मुलाकात...!!!
तुम्हें
देखती हूँ,
और बस देखती ही रह जाती हूँ...
मस्तिष्क की उलझी हुई ग्रंथियों में,
कई बातें लिपटी हुई पड़ी हैं...
पर दिल है कि,
तुम्हें साफ - साफ साबूत बचाए पड़ा है...
शायद यकीन के मुगालते में जीना ही उसका स्वभाव है...
जबकि इस बेचैन ख़ौफनाक दौर में,
नहीं वज़ूद है किन्हीं बातों, वादों और भरोसों का...
लेकिन तुम मौज़ूद हो,
उन्हीं बातों, वादों और भरोसों में कहीं...
तुमने,
कई दफ़ा-
मुझे रोका और टोका है...
और मैंने भी,
कई दफ़ा: यह सोचा-
कि नहीं करूँगी अब से तुमसे कोई भी बात...
पर कहाँ रोक पाई हूँ खुद को कभी...
तुम बदल गये,
सब कुछ बदल गया,
मैं भी बदल गई 'बाहर से';
पर कहाँ बदल पाई खुद को 'भीतर से'...
और यह भीतर से ना बदलना बड़ा अजीब होता है...
यह ठहराव-
कभी फैंटेसी रचती है,
तो कभी जटिलता उत्पन्न करती है...
सपनों के मानिंद जिंदगी जीने में,
और हकीकत को स्वीकारने में-
बड़ा फ़र्क होता है...
एक चलने ही नहीं देता
और दूसरा रूकने ही नहीं देता…
प्रेमी
बदल जाता है...
किन्तु प्रेम रह जाता है 'वही',
ठहरा हुआ सा;
सब्र करता हुआ...
कि एक दिन वह आयेगा जरूर....
अपने रूहानी दिल को सतरंगी रंगों में रंग कर;
और समर्पित कर देगा-
अपने रूह को तथा जागती आँखों से देखें गये उन सभी खूबसूरत सपनों को, सभी वादों को....
उस दिन सावन होगा, हरियाली होगी,
और एक नये आत्मविश्वास का जन्म हो रहा होगा…
क्योंकि
एक बार प्रेम पुनश्च हो रहा होगा!!!
मैं
जब भी तुमसे मिली…
खुद
को छोड़ आयी,
कहीं
तुम्हारे भीतर ही;
तुम्हारे
लिए!
और...
तुम
मुझसे जब भी मिले…
मुकम्मल
ही मिले;
पर
जाते-जाते,
एक
अदद टुकड़ा भी ना छोड़ा...
मेरे
लिए!!
कुछ
यूँ आओ…
कि
मैं खो जाऊँ तुममे
और
हो जाऊँ तुम
मदहोशी
की हद तक!
मेरी
पलकें धीरे-धीरे
उठती और गिरती हैं-
जैसे
बेकरारी और इंतज़ारी परवान चढ़ती है!
नींद
भी आती नहीं अब आँखों में-
क्योंकि
महफिले सजती रहीं हैं यादों में!!
ऐ
मेरे हमराही,
हाथों
में हाथ डाले
चलो
चलें…
उस
खूबसूरत लोक में-
जहाँ
कोयल की मधुर ध्वनि से
मेरी
धड़कनें बढ़ जाएँ;
और
अनासक्त हो मैं-
तुम्हारे
भीतर समाविष्ट हो जाऊँ
बिना
किसी आदि और अन्तहीन-
‘इच्छाओं
के’!
और-
‘तुम’-
स्वर्गीय-कुसुमयुक्त
फूलों
की माला
मेरे
गले में
हौले-हौले
डालते
रहो;
और-
‘मैं’;
यूँ
ही
‘तुम्हें’
अपलक
निहारती रहूँ-
निरंतर…
जरा
इधर देखो…
तुम्हारे
हाथों में
सने
पसीने…
मेरे
सूर्ख होंठों को
आज-
नम
कर रहे हैं!
तुम्हारे
होंठों से निकली
शीत
की सित्कार
मेरी
धड़कनो में सुनायी दे रही है!!
‘तुम्हारे’-
साँसो
की सुगंध
मेरे
चारों ओर घिरी
रक्षा-कवच-सी है,
जिसे
अब ‘कोई सुगंध’
नहीं
भेद सकेगी!
‘तुम्हारा’-
एक-एक
स्पर्श
मेरी
आत्मा का श्रृंगार है!
तुम्हारे
होंठों की-
लास्य
भरी मुस्कान;
मेरे
हृदय की
उन
मुदिताओं को-
जगाती
है
जो
सो गयी थीं…
खो
गयी थीं…
क्या
तुम भी महसूस करते हो?
इस
अनोखे तीर्थ-यात्रा
को
जो
मधुर और सुखद-
अहसासों
से भरी है;
और-
हर
उस स्थान की पहचान
जहाँ ‘हम’ थे साथ-साथ,
कल
भी होने की
उम्मीद
के साथ…
आज…
इतनी
काली रात में
जो
चाँद दिखाई दे रहा है
निर्भय, निर्भ्रान्त,निरंतर
वह
संकेत है-
‘हमारे
अटूट प्रेम का’
मुझे
अहसास हो रहा है
जैसे-
उषा
की लाली
अपने
सम्पूर्ण अनुराग से
छू
रही है-
हमारे
हृदय को!!!
हमारे
अनंत प्रेम की दुनिया में
यादों
की रौ…
तन्हाईयों
में भी,
उम्मीद
की उठती-गिरती
लहरों के साथ
आज
की शाम के बाद
कल
सुबह की
सूर्यमणी
बनेगी!!!
गरिमा सिंह
शोधार्थी (हिंदी)
दिल्ली विश्वविद्यालय
पता- फ्लैट नंबर 1407
टावर 4, पंचशील वैलिंगटन क्रॉसिंग रिपब्लिक गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश सम्पर्क 9711700526 |
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
गरिमा जी आपकी सारी कविताएँ बहुत अच्छी हैं । आप ऐसे ही अपना लेखन जारी रखे । बधाई
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