ग्रामीण लोकगीत तथा कृषक समाज: एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण
‘जय जवान जय किसान’, ‘भारत की आत्मा गाँवों में निवास करती है’, ‘मै किसान का बेटा
हूँ’, आदि राजनीतिक
कहावतें भारतीय जनमानस के मस्तिष्क पटल पर गहराई से छाप छोड़ती हैं। हालाँकि कृषक
समाज इन राजनीतिक स्लोगनों से बहुत सरोकार नहीं रखता है। अन्नदाता वर्ग अपनी मेहनत
से एक उत्पादक व उद्यमी के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में हमेशा
मेरुदंड साबित हुआ है। यह मेहनतकश समाज अपनी अभिलाषाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, तथा अवसाद को
विभिन्न ग्रामीण लोकगीतों के माध्यम से व्यक्त करता रहा है।
प्रस्तुत शोध का प्रमुख
प्रतिपाद्य कृषक समाज की समस्याओं तथा उनमें आए महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तनों को
ग्रामीण लोकगीतों जैसे- निरवाही गीत, कटनी गीत, चैता गीत, रोपनी गीत, आदि के माध्यम से समझना है, क्योंकि ये लोकगीत अन्नदाता वर्ग से अविभाजित
रूप से जुड़े होते हैं और इन्हीं लोकगीतों के माध्यम से यह मेहनतकश समाज अपनी व्यथा
व मनोभाव को प्रकट करता है। उपरोक्त लोकगीत पूर्वी उत्तर-प्रदेश में अधिक लोकप्रिय
हैं, इसलिए यह शोध
पत्र भी पूर्वी उत्तर-प्रदेश के ग्रामीण जनमानस पर अधिक केंदित रहेगा।
[सूचक शब्द: कृषक
समाज, राजनीति, लोकगीत, सामाजिक
रूपांतरण]
प्रस्तावना
भारतीय अर्थव्यवस्था में
उत्तर-प्रदेश के
प्राथमिक क्षेत्र (कृषि) का महत्वपूर्ण
योगदान होने के कारण, इसे उत्तर-प्रदेश की अर्थव्यवस्था का मेरुदंड भी कहा जाता
है। जनगणना 2001 के अन्तिम
आंकड़ों के अनुसार, ‘उत्तर-प्रदेश राज्य के कुल श्रमिकों में कृषि से
सम्बंधित मजदूरों का योगदान 59.3 प्रतिशत है, जिसमें कुल कृषक
मजदूर (दीर्घकालिक एवं
अल्पकालिक) 29.0 प्रतिशत हैं।1 उत्तर-प्रदेश की अर्थव्यवस्था में कृषि एवं सम्बद्ध
क्षेत्र का अवयव लगभग 27 प्रतिशत (2014-15 में GSVA में 2004-05 की कीमतों पर) है। पशुपालन, कुकुट पालन, मत्स्य पालन, आदि क्षेत्र
उत्तर-प्रदेश की
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ता प्रदान कर रहा है। विशेष रूप से, पशुधन के चार
प्रमुख आयामों ‘उन्नत पशु प्रजनन, पशु स्वास्थ्य, पशु प्रबंधन एवं
पशु पोषण’ के क्षेत्र में
समग्र प्रयास किये जा रहे हैं। परिणामतया, उत्तर-प्रदेश का दुग्ध
उत्पादन में प्रथम स्थान है।
लोकगीतों में
ऐतिहासिकता व आद्यनता की झलक
लोकगीत हमारे जीवन के
तरीके के एक मैखिक इतिहास होतें हैं, जो स्वच्छंदता, सरसता की पीयूषधारा के समान अपने में भूतकाल, वर्तमानकाल तथा
भविष्य को संचित रखता है। मोहनदास झा (1989) ने अपनी पुस्तक ‘मिथिला लोक परंपरा में लोकगीत’ में राल्फ का
उल्लेख करते हुए कहते हैं कि, “लोकगीत न तो नया होता है और न ही पुराना। वह तो जंगल के एक
वृक्ष के सामान है जिसकी जड़ें भूतकाल से जमीन में गहरी धसी हुई हैं, परन्तु जिसमें
निरंतर नई-नई डालियाँ, पल्लव और फल उगते
रहते हैं” (पृ. संख्या, 20)। जैसा कि
संस्कृति के बारे में कहा जाता है कि ‘संस्कृति’ एक संज्ञा न होकर एक क्रिया की भांति होती है। यहाँ संज्ञा
का तात्पर्य अपरिवर्तंनगामी होना है, तथा ‘संस्कृति’ का आशय परिवर्तन-युक्त होने से है। लोकगीत इस परिवर्तनगामी
संस्कृति को अपने में समाये हुए आगे बढ़ता है। हालाँकि कुछ विद्वान लोकगीतों को
परिवर्तन अनुगामी नहीं मानते हैं। इस परिवर्तनगामी संस्कृति को हम अग्रलिखित
विवेचन से समझ सकते हैं। उदहारणस्वरूप- जैसा कि ग्रामीण कृषक समुदाय के बारे में
विदित है, यह समाज आज़ादी के
शुरूआती दशकों तक प्राकृतिक दशाओं पर काफ़ी हद तक निर्भर था। जिसे लोकगीतों में भी
प्रकट किया गया है-
“गरजो हे! गरजो गरजि सुनावउ हो...देवा! बरसौ जाए के खेतवा
बरसि जुड़वावउ हो।”
[ऐतिहासिकता की झलक को अपने में समेटे हुए उपरोक्त लोकगीत
में मेघ (जिन्हें कृषक समाज एक देवता मानता है)से बरसने के लिए अनुनय–विनय किया गया
है।]
यदि हम कृषक समाज तथा
लोकगीतों के पारस्परिक संबंधो का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करें,तो ज्ञात होता है
कि लोकगीतों में कृषक समाज का चित्राकंन दो प्रकार से किया गया है–(1) प्राकृतिक दशाएँ
व कृषक समाज, तथा (2) सामाजिक समस्याएँ
व कृषक समाज।
कृषक समुदाय का प्रकृति
से हमेशा एक घनिष्ठ संबंध रहा है। कभी सूखा तो कभी बाद आने से फसल की बर्बादी एक
आम बात थी। हालाँकि आज़ादी के पश्चात प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने बड़े-बड़े
बाँधों का निर्माण कराया तथा साथ ही भारतीय वैज्ञानिकों (वर्गीज कुरियन, एम.एस.
स्वामीनाथन, आदि) के अथक
परिश्रम से ‘हरित’ व ‘श्वेत’ क्रांति आई, जिसके फलस्वरूप
ग्रामीण कृषक समुदाय में एक सकारात्मक तथा गुणात्मक परिवर्तन देखने को मिला। अनेक
भूमि सुधार कार्यक्रम बनाये गए, जिससे कृषक समुदाय को प्राकृतिक दशाओं पर निर्भरता से काफ़ी
हद तक छुटकारा मिला।
स्थानीय
सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण से घनिष्ठ जुड़ाव, लोकगीतों की एक प्रमुख विशेषता रही है। यह जुड़ाव श्रोताओं
के मस्तिष्क पटल पर गहराई से छाप छोड़ता है, जिसमें श्रोतागण अपने सुख-दुःख के अनुभव की गाथा को टटोलने
का प्रयास करते हैं। प्रायः अन्नदाता वर्ग की मनःस्थिति कृषिगत कार्यकलापों तथा
पारिवारिक जीवन की दुश्वारियों के इर्द-गिर्द ही रमती रहती है। लोकगीतकार कृषक
समाज की मनःस्थिति से भलीभांति सुपरिचित होता है, और अपने रचनाओं में उन्हें प्रखरता से रखता है
जिसकी झलक हमें विरहा, रोपनी, मल्हार आदि
लोकगीतों में मिलती है।
ग्रामीण महिलाएं भी कृषि
कार्य में परम्परागत रूप से दक्ष होती हैं। वे कृषि कार्य में पूर्णतया समर्पित
तथा एकाग्रचित होने के लिए लोकगीतों को गुनगुनाती हैं। प्रायः महिलाएं जब धान
रोपने तथा निर्वाही करने खेत में जाती हैं, तो अपनी व्यथा (पारिवारिक जीवन की कटुता, प्रेम आदि) व
आकांक्षाएं (गहने, जेवरात, शहर व तीर्थ
दर्शन आदि) ‘रोपनी’ व ‘सोहनी’ नामक गीत से
व्यक्त करती हैं। ‘कटनी गीत, निरवाही गीत, रोपनी गीत’ उसका प्रत्यक्ष
उदाहारण है। इसी क्रम में कृषक समुदाय में लोकगीतों का प्रचालन हम अग्रलिखित रूप
में समझ सकते हैं-
रोपनी गीत
रिमझिम फुहारों में धान रोपने
का अपना विशेष आनंद है, जिसे लोकगीतकार
बखूबी समझता है। हम अग्रलिखित पंक्तियों के माध्यम से इसे भलीभांति समझ सकते हैं-
“रिमझिम बरसत पनिया। भरी जहिहैं कोठिला ये धनिया, आवा चली धान रोपै
धनिया” (विद्या बिंदु
सिंह, 2016: 88-89)।
ऐतिहासिकता की झलक को
अपने में समेटे हुए ज़मींदारी प्रथा’ की व्यथा को दर्शाता अगला उदाहारण कुछ नए-नए तथ्यों से अवगत
कराता है। सावन महीने में स्त्रियाँ भीग-भीग कर धान की रोपाई करती हैं और जब धान
की फसल को काटने का समय आता है, तब ज़मींदार सारी फसल को हड़प लेता था।जिसका एक मार्मिक
उदाहरण नीचे प्रस्तुत है–
“सावन के महिनवा के कदवा रे कदवा कदवा,
दुबलई पोरे मरे अलई अगहन
के महिनवा, लेलकई सब बटोर” (दिनेश दत्त शर्मा, 2015:179)।
निरवाही गीत
धान के रोपनी हो जाने के
पश्चात, कृषक का अगला काम
खेतों में उग रहे खर-पतवारों को साफ़ करना होता है। खेतो में जब खर-पतवार उग आते
हैं तो किसान उन्हें साफ़ करने के लिए अथक परिश्रम करता है। अपनी थकान को दूर करने
के लिए तथा इस कष्टसाध्य कार्य को आसान करने के लिए वह ‘निरवाही गीत’ गाता है। निरवाही
गीतों में कभी-कभी लम्बी कथाएँ होती है। इसीलिए इन्हें लोकगाथा की कोटि में भी रख सकते हैं। जातीय अत्याचार, अबला का उद्धार, सास का बहू को
सताना, पति और पत्नी के
झगडे, सीता की
अग्नि-परीक्षा, सतीत्व का उल्लेख
तथा सौतिया डाह आदि प्रसंग इन गीतों में वर्णित रहते हैं। जैसे–
“पतरी सिकियन का एक रे बढ़निया, ले झुकवन बहारैं वे अंगनवा...।
जौने दिन मांगिन मा डारिन
सेंदुरवा” (अंजलि चौहान, 2016:265)
कटनी गीत
लगभग तीन महीने के तल्लीन
परिश्रम से फसल पक जाने के पश्चात, कृषक उस फसल को काटता है। आँखों में सुनहरे सपने लिए, किसान अपनी थकान
मिटाने के लिए कटनी गीत गाता है।जिसे एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है–
“खेतन में लागी कटनिया हो राम। माथ क झूलर झलाझल झलके।
खनके कलइया कंगनवा हो
राम। मिलि जुली के सखियां लाही बंधवाओ।
भरे चलो घर की बखरिया हो
राम। सासू, ननदिया बाट हेरात
हैं।
सैइया की सजी सेजरिया हो
राम” (दिनेश दत्त शर्मा, 2015:188)।
श्रम विभाजन व संघर्षशील
कृषक जीवन
कृषि कार्यों में हमेशा
पुरुषों का वर्चस्व रहा है,
क्योंकि भारतीय
समाज एक पितृसत्तात्मक समाज है। हालाँकि ‘बहुजन समाज’ की बहू-बेटियां भी हमेशा कृषि कार्यों में बाद-चढ़ कर हिस्सा
ली हैं। जिसकी झलक हमें लोकगीतों में मिलती है। इस सन्दर्भ में एक सुन्दर उदाहरण
प्रस्तुत है–
“एक हरजोतिया जिन देउ बाबुल, रहन देउ कुंवारी।
हरजोतिया हर जोति आवै, मांगे नौ-दस
रोटिया।
भरकै कठौता छांछ मांगै, अनुख मेरे जिय को
सहे”(उपरोक्त पृष्ठ
संख्या 191)।
[उल्लेखित पंक्तियों में कृषक समुदाय की महिलाओं की
कष्ट-साध्यता का वर्णन किया गया है। जिसे देखते हुए, एक नवयुवती अपने पिता से कहती है की मेरी शादी
किसी हल चलने वाले के साथ मत करना, क्योंकि वह थका-हारा आयेगा और नौ-दस रोटियां खाने को
मांगेगा तथा ऊपर से अपनी थकान की भड़ास भी मुझ पर उतारेगा।]
विभिन्न आकड़ों से ज्ञात
होता है कि कृषक समाज में महिलाओं को हमेशा पुरुषों से ज्यादा काम करना पड़ता है, जिसे समाज
वैज्ञानिक ‘डबल बर्डन’ (double burden) कहते हैं (यनिक &फेगिन, 1999)। लोकगीतकार भी
इन समस्याओं को अपनी रचनाओं में स्थान देता है। नीचे दिए गए उदाहरण में इसे हम
स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं–
“जहिया से आयों पिया तोहरी महलियाँ, रतिया दिना करौ
टहलिया रे पियवा।
देहिया झुरानी मोरी करति
टहलिया, सपना भै सुख कै
सपनवां रे पियवा।
बखरी कै हरा तुहूँ जोत्या
रात दिनवां, तबहूँ न भर पेट
भोजनवां रे पियवा।
चिपरी पाथत मोरी अंगुरी
खियानी, तबहूँ न तन कै कप
कड़ी वा रे पियवा” (विद्या बिंदु
सिंह, 2016:89)।
सामाजिक समस्याएं
व कृषक समुदाय
सरकारें बनती-बिगड़तीरही
तथा भारतीय सकल घरेलु उत्पाद (जी.डी.पी.) तथा सकल क्रय शक्ति (पी.पी.पी.) में
अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई, फिर भी कृषक
समुदाय के लिए ग्राम्य जीवन कभी ‘गुलाबी परिदृश्य’ नहीं रहा है। आजादी के शुरूआती दशकों में, बढती मंहगाई तथा
दहेज़ प्रथा के चंगुल में फंसकर एक तरफ किसान साहूकारों (जिसे कांचा इलैया ने ‘सोशल स्मगलर’ (social smugller) कहा) के आगे अधिक
व्याज पर भी क़र्ज़ लेने के लिए बाध्य हुआ। वहीं दूसरी तरफ, पिछले दो-तीन दशकों
से किसानो की साहूकारों पर निर्भरता कम हुई है तथा बैंकों पर निर्भरता बढ़ी है।
बैंकों पर अत्यधिक निर्भरता तथा केंद्र सरकार की उदासीनता कृषकों को एकाकीपन की
तरफ धकेल रही है, फलतः गत वर्षों
में, किसान आत्महत्या
की ओर अभिमुख हुआ है। उपरोक्त वर्णित सामाजिक समस्याएं, बेबसी तथा
निःसहायता बिरहा लोकगीत में महत्वपूर्ण स्थान पाई है। कृषक की बेबसी का पूरक
उदाहरण नीचे दिया जा रहा है जिसमें पत्नी अपने पति से ‘झुलनी’ खरीदने के लिए
कहती है, और बेबस पति उसको
समझाने का प्रयास करता है –
“भुसवा बेंची झुलनी लायदा बालम।
भुसवा बिकाइहैं बैल का
खाइहैं?
बैलव बेंची झुलनी लायदा
बालम।
बैला बिकइहैं खेती कइसे
करबे?
खेतियव बेंची झुलनी लायदा
बालम।
खेतिया बिकइहें लरिकै का
खइहें।
लरीको बेंची झुलनी लायदा
बालम।
लरिकै बिकइहें ताऊ हम का
करबै?
अपुनौ बिकाय झुलनी लायदा
बालमा।” 2
उपरोक्त लोकगीत में
पति-पत्नी (कृषक) के बीच हुए संवाद का मर्मस्पर्शी वर्णन हुआ है। प्रायः कृषक पति
अनाज बेचकर अतिआवश्यक ज़रूरतें ही पूरी कर पाता है और उसकी पत्नी को हार्दिक
इच्छाओं को दबाकर रखना पड़ता है। पत्नी की मनःस्थिति को सामाजिक पटल पर रखता यह गीत
भावनाओं से ओतप्रोत है, जिसमे पत्नी अपने
कृषक पति से ‘झुलनी’ (एक प्रकार का
जेवरात) लाने को कहती है। ध्यातव्य है की ‘खेत’
को ‘किसान की रीढ़’ कहा जाता है, और खेत बेचकर ‘झुलनी’ लाने की बात
चरमोत्कर्ष को दर्शाता है।
एक समय था, जब लोग हल-बैल से
खेती करते थें। उस समय घर में अधिक बैल होना समृद्धि का प्रतीक माना जाता था, जिसे एक उदाहरण
से समझ सकते हैं –
“बिनु बैलन खेती करै, बिन भैयन के रार।
बिनु मेहरारू घर करै, चौदह लाख लवार” (सूर्य प्रसाद
दीक्षित, 2016:262)
लेकिन आज वही खेती बिना
पूंजी के नहीं हो सकती है और पूंजीपति को अगर लाभ न दिखाई दे तो वह भला कैसे निवेश
करेगा। अभागा पूंजीविहीन किसान (आज के दौर में) कहेगा –
‘बिनु पूंजी खेती करै, चौदह लाख लवार’।
गावों में एक मशहूर कहावत
है कि-
‘उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी भीख निदान’ 3
(उत्तम कोटि का कार्य कृषि होता है, व्यापार मध्यम और
नौकरी निषिद्ध है और भीख माँगना सबसे बुरा कार्य है।)
लेकिन यह कहावत हकीक़त से
कोसों दूर है, क्योंकि मंहगाई
दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है तथा कृषक वर्ग अपनी दैनिक जीवन की ज़रूरतें पूरा करने
में असमर्थ है। आज गाँवों का युवा वर्ग शहरों की तरफ तेजी से पलायित हो रहा है।
सरकार की भी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि कृषक वर्ग सरकार को एक ‘वोट बैंक’ के रूप में ही
दिखता है।
जातीय चेतना व
लोकगीत
कृषक एक सजातीय वर्ग (a homogeneous category) नहीं है, अपितु वह भी अनेक
जातियों और वर्गों में बंटा होता है और हर सामाजिक श्रेणी की अलग-अलग व्यथा होती
है। आज भी कुछ विशेष जातियाँ ही कृषि कार्य में तन्मयता से संलग्न हैं, जिन्हें कांचा
इलैया ‘बहुजन समाज’ कहते हैं। इस ‘बहुजन समाज’ के कुछ प्रमुख
जातीय लोकगीत भी रहें हैं,
जिनके माध्यम से
वे अपनी वेदनाएँ प्रकट करते रहें हैं। पशु पालन, प्राथमिक क्षेत्र का एक प्रमुख अतिरिक्त आय का
स्रोत है, जिसकी झलक हमें
ग्रामीण लोकगीतों में मिलती है।
उदाहरण-
“बोलै गड़ेरिया बानी बतिया टू सुना रानी...
भेड़िया चरावा चलिके हमरी
बखरी, तिरछी मारा न
नजरिया हो हमरी बखरी। ”
इसी क्रम में एक दूसरा
उदाहरण-
“कवने बन में गईया चरावताड़ाहो मोहन...कहवां पर बंसिया
बजावताड़ाहो मोहन।”
कृषक वर्ग कई जातियों, उप-जातियों, उप-उप-जातियों
में विभाजित होने के कारण सबकी अलग-अलग परम्पराएँ, विश्वास, खान-पान, एवं आदतें होती
हैं। अतः हर जाति की अलग-अलग जीवन शैली, एक स्वायत्त दृष्टिकोण को जन्म देती है और लोकगीत भी उससे
अछूता नहीं रहा है। यही कारण है कि उनका अपना ‘लोकगीत’ या ‘जाति गीत’ होता है, जिसे तालिका में
स्पष्ट रूप से वर्गीकृत किया है-
जातियाँ
|
लोकगीत
|
अहीर /यादव
|
बिरहा ,लोरिक
|
कुम्हार एवं कहार
|
कहरवा
|
पासी
|
पासिओटा
|
मुसहर
|
दीना- भद्री गीत
|
बढ़ई
|
गोपी ठाकुर
|
स्रोत: श्याम परमार (1990)
स्रोत: श्याम परमार (1990)
उपरोक्त विश्लेषण से
स्पष्ट है कि कृषक समाज में लोकगीतों का एक मत्वपूर्ण स्थान होता है। यह साधारण
जनमानस में भी आदर्शों को सुदृढ़ता प्रदान करने के साथ ही साथ प्रदत्त व्यवस्था को
जीवंत करने में खास भूमिका निभाता है।परम्परानुगत स्वदेशी ज्ञान (traditional indigenous knowledge) को सुरक्षित रखने
में,लोकमानस में
सौन्दर्यानुभूति जागृत करने में, सामाजिक व्यवहार की शिक्षा देने में तथा आर्थिक, राजनीतिक जैसे
महत्वपूर्ण विषयों के अंतर्गत मूल्यवान सूचनाएँ प्रदान करने में लोकगीतों का
अभूतपूर्व योगदान रहा है,
जिसे एक पीढ़ी से
दूसरे पीढ़ी को हस्तांतरित किया जाता रहा है।
कृषि में श्रम की
प्रधानता तथा श्रम गीत
श्रमजीवी मेहनतकश कृषक
वर्ग को ऋतुओं से डटकर सामना करना पड़ता है। वैशाख व ज्येष्ठ महीने की तपती दोपहरी
को जब शहरी वर्ग ‘एयर कंडीशनर’ तथा ‘कूलर पंखे’ की सहायता से
बिताता है, ठीक उसी समय
किसान पैसे बचाने के लिए गेहूँ की कटाई व मड़ाई में लिप्त रहता है।इस श्रम की
प्रधानता को लोकगीतों में भी यथोचित स्थान मिला है। श्रम परिहार के
गीत(जांत/चक्की), निरवाही(सोहनी), रोपनी(कोल्हुई), आदि लोकगीत
ग्रामीण जनमानस में काफी लोकप्रिय रहें हैं तथा कृषकों की सामाजिक-राजनीतिक चेतना
को बढ़ाने में अप्रतिम भूमिका निभा रहे हैं। श्रमगीत एकल एवं सामूहिक दोनों ही
प्रकार से गाए जाते हैं, जैसे- जान्तसार, चरखा व गोदना गीत
एकल है, जबकि रोपनी,निरौनी,ओसाई,बेलहरी,बुआई इत्यादी गीत
सामूहिक रूप से गाए जाते हैं (नीतू सिंह, 2016: 197)।
कृषिगत कार्यों में श्रम
की महत्ता से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण लोकगीतों के माध्यम से हम कृषक समाज के बारे
में अग्रलिखित रूप से समझ सकते हैं-
“आलस नींद किसाने नासै, चोरै नासै खांसी।
अंखिया लीबर बेसवै नासै, बाबै नासै दासी।।”
[ग्राम्य जीवन का यह लोकगीत श्रम की महत्ता को उजागर कर रहा
है, जिसमें कृषक
समुदाय को सावधान करते हुए कहा गया है कि “आलसपन किसान को गर्त में ठीक उसी प्रकार ले जाती है, जैसे किसी चोर की
चोरी करते समय खाँसी। कीचड़ भरी आँखें वेश्या को गर्त में ले जाती है और दासी साधू
के नाश का कारण बनती है।]
एक अन्य उदाहरण
“चार चौमुखा मोरे बाबा कै बखरिया, तेही बिचवां ना
सोवैं।
सीता ऐसी रनियाँ, तेहि बिचवां ना।
दुधवा के फहवां जगावैं
लछिमन देवरा, उठा हो भउजी ना,
होइगै भोर भिनुसरवा उठा
हो भउजी ना,
तोहरे उठाये देवरा जब हम
उठबै रंगाइ हो देव्या ना।..” (विद्या विन्दु सिंह, 2016: 411)।
[उल्लिखित गीत प्रमुखतया पुरुष वर्ग के गीत है।जिसे वे थकान
मिटाने के लिए गुनगुनाते हैं।]
किसानों की
दास्तान और बदलाव
दिनेश दत्त शर्मा समाज के
बदलते ताने-बाने पार पप्रकाश डालते हैं तथा गतकाल में उठ रही आवाजों को समझाते हुए
कहते हैं कि “किसान औरतें अब
तक जिस जमींदार के गुस्ताखी के प्रति विनयशील थीं, बदली परिस्थितियों में उसके अत्याचारी हाथों को
तोड़ने की बात करना उनमें आए ये स्वाभिमान की भावना व सशक्तिकरण को दर्शाता है।”
उदाहरण
“काला कुत्ता भुकववइ कचहरिया में, आग लागो तोहार
जमींदरिया में” (दिनेश दत्त शर्मा, 2015: 178)।
दिनेश दत्त शर्मा ‘विटहा’ क्षेत्र में
प्रचलित लोकगीत का उल्लेख करते हुए, किसान औरतों पर असंवेदनाशिलता की पराकाष्ठ को भी उजागर करने
का प्रयास करते हैं-
“रात में हमें भूत सतावे, दिन में अंग्रेज। सवेरे हमें जाड़ा सतावे, साँझ जमींदार के
सेज” (पूर्वोक्त)।
किसानों की बेबसी को
दर्शाता उल्लिखित गीत हमें जमींदारी प्रथा के दिनों की याद दिलाता है। लेखक कहता
है, ‘मगह में ‘डोला’ की प्रथा थी, जिसमें जमींदार
द्वारा किसान की औरतों को घर पर बेगारी एवं सेज पर सोने को विवश किया जाता था’। अनेक हिंदी
साहित्यकारों ने भी ‘जमींदारी प्रथा’ पर कई लेख लिखे
और उस शोषणकारी व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं से हमें अवगत कराया। उन लेखकों में
मुंशी प्रेमचंद का नाम प्रथम पंक्ति में
लिया जाता है। ‘प्रेमाश्रम’, जिसका प्रकाशन 1922 ई. में हुआ था, मुंशी प्रेमचंद
का सर्वप्रथम उपन्यास है,
जिसमें उन्होंने ‘लखनपुर गाँव’ के जमींदारी
ताने-बाने को सामजिक पटल पर रखने का प्रयास करते हैं।
अगर हम किसान आन्दोलन की
बात करें, तो हमें
उत्तर-प्रदेश के अवध क्षेत्र में चल रहे सामाजिक गतिविधियों पर दृष्टि डालना
आवश्यक हो जाता है। ‘अवध में किसानों
को पहली बार संगठित करने वाले नेता झिगुरी सिंह को स्थानीय किसान ‘रूरे का राजा’, शाहमुहम्मद नईम
अता को ‘सलोन का राजा’, छोटा रामचंद्र को
‘गोसाइगंज का राजा’ और ठाकुरदीन सिंह
को ‘परहत का राजा’घोषित किए (वीर
भारत तलवार, 1990: 166) । ‘किसान नेता
रामचंद्र अपने को अवध के किसानों का सेवक कहते थे, लेकिन अवध के स्थानीय किसान उनके नाम का लोकगीत
गाते थे –
‘बाबा रामचंद्र के रजवा, परजा मजा उड़ावे ना” (पूर्वोक्त)।
इतिहास की सर्पीली
सामाजिक-राजनीतिक धाराओं के अनुभव से गुजरता हुआ, भारत का यह अन्नदाता वर्ग निश्छलता के साथ देश
के विकास में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करता आया है।1936 ई. में जवाहरलाल नेहरू ने ‘भारतमाता की जय’ का नारा लगाते
हुए एक सभा में कृषकों से पूछा, “यह माता कौन है, जिसको आपने प्रणाम किया और किसकी जय के नारे लगाए हैं? एक सज्जन ने
हिम्मत करके जवाब दिया कि “माता का मतलब
धरती से है।” वह इस धरती की
मुक्ति के माध्यम से राष्ट्रीय स्वाधीनता का स्वप्न देख रहा था। आजादी के बाद कृषक
वर्ग आजाद तो हो गया, परन्तु उसकी ‘भारत माता’ शहर और व्यक्ति
केन्द्रित हो गयी (शम्भुनाथ, 2016: 43)। कृषक समुदाय आज भी ‘सामजिक न्याय’ से वंचित महसूस कर रहा है। हालाँकि किसानों के वे भयानक
बुरे दिन आज लड़ चुके हैं,
लेकिन आज भी
किसानों के लिए ‘अच्छे दिन’ का सपना एक जुमला
ही साबित होता है, जब सामजिक न्याय
मांगने पर मध्य-प्रदेश सरकार द्वारा किसानों के ऊपर पुलिस द्वारा ‘लाठी चार्ज’ व गोली चलवाया
जाता है। अनेक राज्यों में सैकड़ों किसानों की प्रतिवर्ष आत्महत्या की सुर्खियाँ, प्राथमिक क्षेत्र
के गुलाबी परिदृश्य का नहीं, बल्कि अन्नदाता वर्ग के बुरे दिन का उपहास है। यद्यपि आजादी
के बाद कई योजनाएँ कृषि में सुधार हेतु लाई गई, जिसके फलस्वरूप कृषकों के जीवन शैली में एक गुणात्मक
परिवर्त्तन दृष्टिगोचर होता है।
निष्कर्ष -
देवी प्रसाद
शोधार्थी,
समाजशास्त्र विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालय गचिबोली, हैदराबाद
सम्पर्क
dpsocio@gmail.com |
कृषक समुदाय दिन-रात
मेहनत करके जीविकोपार्जन करता है, तथा भारतीय अर्थव्यवस्था के ‘प्राथमिक क्षेत्र’ में अप्रतिम
योगदान करता है। कृषक वर्ग ग्रामीण संस्कृति की एक महत्वपूर्ण इकाई के रूप में
अपनी उपस्थिति हमेशा दर्ज कराता रहा है। यही कारण है कि उत्तर-प्रदेश सरकार ने, वर्ष 2016-17 को, ‘किसान वर्ष’ घोषित किया था, तथा भूमिहीन कृषक
मजदूरों को ‘आम आदमी बीमा
योजना’ के तहत लाभ देने
की घोषणा की गई। जैसा कि हमें ज्ञात है, भारत की कुल जनसँख्या में, लगभग 16.51 प्रतिशत (2001¬¬¬ में 16.16 प्रतिशत) आबादी उत्तर-प्रदेश में वास करती है, जो पिछले दशक से 3,36,14,420 अधिक है।जोत के
आकार पर दबाव दिन-प्रतिदिन बढता जा रहा है तथा ‘जनसँख्या दर’ में तीव्र गति से वृद्धि के कारण कृषि जोत का
आकार सिमटता जा रहा है और कृषक परिवार के भरण-पोषण पर इसका सीधा असर पड़ रहा है।
उपरोक्त सामाजिक मुद्दों (अयवयों) के आलावा, प्रवजन, भूमि का दो भाइयों के बीच बंटवारा, मंहगाई, बेरोजगारी, शिक्षा की कमी, दहेज़, छुआछुत, जातीय तनाव, असामयिक मृत्यु
आदि मुद्दों से ग्रामीण कृषक समाज को हमेशा रूबरू होना पड़ता है। इन सामाजिक
मुद्दों की झलक इस समुदाय द्वारा गाए जाने वाले लोकगीतों में स्पष्ट्या परिलक्षित
होती है। गांवों में प्रचलित एक कहावत है, ‘जर,
जोरू, जमीन, तथा जाति’ ही प्रमुख मुद्दे
हैं, जो किसानों को
कोट-कचेहरी में जाने के लिए विवश करते हैं।
सविता यादव
स्नाकोत्तर छात्रा
हिंदी विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालय, गचिबोली
हैदराबाद,तेलंगाना
सम्पर्क
savita7080@gmail.com |
टिप्पणियाँ-
1.गड़रिया का दास्तान, परिशिष्ट संख्या-53 शोध गंगा, पृ. संख्या- 90-91।
2.हिन्दू व मुसलमान, परिशिष्ट संख्या- 27, शोध गंगा, पृ. संख्या- 82-83।
3. Retrieved 10 December 2017, from
http://malviyaparitosh.blogspot.in/2011/07/blog-post.html
4.https://navbharattimes.indiatimes.com/jokes/satire/-/articleshow/8533621.cms
संदर्भ
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अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
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