घरेलू हिंसा का
प्रश्न और मीरा कांत का नाटक ‘अंत हाज़िर हो’
भूमंडलीकरण के दौर ने शताब्दियों से हाशिए पर
पड़े वर्गों को साहित्य के केंद्र लाकर खड़ा कर दिया है। वर्तमान में वंचित तबका
साहित्य के माध्यम से वर्चस्वकारी शक्तियों को बेनकाब कर शोषण के खिलाफ आवाज़ उठा
रहा है। तमाम विमर्शों में यदि स्त्री-विमर्श की बात की जाए तो साहित्य जगत का
तीक्ष्ण प्रश्नों को उठाने वाला सबसे सशक्त विमर्श साबित हो रहा है। यह विमर्श
पितृसत्तात्मक व्यवस्था के सामाजिक नैतिक नियमों की एकपक्षीय नीति और स्त्री-वर्ग
के जीवन के हर शोषण को बेबाकी से उजागर कर रहा है।
कहने को तो भारतीय संविधान देश के प्रत्येक
नागरिक को बराबरी का दर्जा देता है किंतु क्या यह सिर्फ कागजी सच्चाई नहीं है ? क्या आज भी स्त्री पूरी तरह
से परिवार, समाज और संस्कृति से
स्वतंत्र हो पाई है ? भले ही आधुनिक व्यवस्था के
कारण स्थितियों में कुछ परिवर्तन आया है, जागरूकता आई है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था के ढकोसलों को और अपनी
पराधीनता के कारणों को स्त्रियाँ समझने लगी हैं किंतु फिर भी अत्याचार, शोषण, कुटिल षड्यंत्रों तथा
कुत्सित लिप्साओं का सिलसिला रुका नहीं है। बेटियों को अपेक्षित स्वतंत्रता और
बेटों के प्रति उनके रवैये को बदलने वाली नई संस्कृति को गढ़े बिना यह सिलसिला
रुकेगा भी नहीं।
आज भारत यूं तो एक विश्व शक्ति के रूप में उभर
रहा है किंतु भारतीय समाज की स्त्रियों के प्रति मानसिकता में बहुत अधिक बदलाव
नहीं आया है। क्या कोई भी राष्ट्र अपनी आधी-आबादी को अनदेखा कर एक शक्तिशाली और
विकसित राष्ट्र बन सकता है ? वर्तमान दौर का ज्वलंत
प्रश्न यही है। स्त्री-विमर्श पुरुषों का
विरोध नहीं करता बल्कि बराबरी की बात करता है, उन व्यवस्थाओं का विरोध करता है जिसने
असमानताओं को पैदा किया है, स्त्री को दूसरे दर्जे का
स्थान दिया हुआ है। स्त्री-विमर्श पितृसत्ता की उस वर्चस्ववादी मानसिकता का विरोध
करता है जिसने स्त्री को हमेशा से देव, दासी या भोग्या ही माना है। स्त्री-विमर्श अपील
करता है कि उसे केवल मनुष्य समझा जाए। न तो उसे दया का पात्र समझा जाए और न ही
उपेक्षित माना जाए। इस संदर्भ में ममता कालिया कहती हैं कि – “किसी भी समाज या उसके समय की
वास्तविक स्थिति जाननी हो तो उसमें स्त्री की स्थिति पर विचार करना प्रासंगिक
होगा। दलित-प्रश्न की तरह ही नारी-प्रश्न आज ज्वलंत विषय है। ये दो दमित वर्ग आज
अपने अस्तित्व और अस्मिता पर स्वयं विचार करने के लिए जागे हैं। इनकी समस्त
प्रश्नाकुलतायें मनुष्य को और अधिक मनुष्य अर्थात् मानवीय बनाने के प्रयत्न हैं।
ऐसी स्थिति में पूर्व में उन पर लिखे गए पर अगर उन्हें संदेह और असंतोष है, तो उसे सुनना ज़रूरी है। जब
स्त्री को लगा की उनका अस्तित्व, स्थान, अधिकार और आज़ादी संकट में है, उसे अपने विचारों को
अभिव्यक्ति देनी पड़ी। इसीलिए स्त्री-विमर्श का मूल स्वर प्रतिरोध का रहा है।”
स्त्री लेखन ने वर्चस्ववादी व्यवस्था के तमाम
पक्षों का पटाक्षेप किया है जिनमें ‘घरेलू हिंसा’ एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है। आज का साहित्य
प्रश्न उठा रहा है कि ‘घर’ जैसा सुरक्षित स्थान भी
स्त्रियों के लिए कसाईबाड़ा क्यों बनता जा रहा है ? क्यों रिश्तों की मर्यादाएं टूट रही हैं ? क्यों रक्षक ही भक्षक बन रहे
हैं ? यह स्थिति दुनिया भर में
देखी जा सकती है। सुधा अरोड़ा बताती हैं कि- “वर्ल्ड हेल्थ ओर्गनाइज़ेशन यानी डब्ल्यू. एच. ओ.
की जून 2013 की
रिपोर्ट मेरे सामने है- विश्व की हर तीन में से एक स्त्री घरेलू हिंसा की शिकार है, इसमें एशिया और मिडल ईस्ट
देशों में तादाद ज्यादा है। डब्ल्यू. एच. ओ. के स्त्री बाल स्वास्थ्य विभाग की
प्रमुख फ्लेविया बुत्रेओ ने कहा- ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं और इसमें भी ज्यादातर
चौंकाने वाली बात है कि यह किसी एक देश में नहीं, पूरे विश्व का फिनॉमिना है।”
पहले स्त्री-शोषण की जो बातें घर की चार
दीवारों में ही बंद रहती थी आज साहित्य की अलग-अलग विधाओं में उन बातों को स्थान
मिल रहा है। कहानी, उपन्यास और कविता में कई
रचनाकार स्त्री-स्वतत्रंता को अपने साहित्य का मुख्य विषय बना रहे हैं किंतु नाटक
में यह कम ही देखने को मिलता है। नाटक में भी जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, जगदीशचंद्र माथुर, उपेन्द्रनाथ अश्क और धर्मवीर
भारती पुरुष नाटकार तो मिल जाते हैं किन्तु महिला नाटककरों नाम उँगलियों पर ही
गिने जा सकते हैं। यूं तो मृणाल पाण्डेय, त्रिपुरारी शर्मा, कुसुम कुमार इत्यादि सरीखे
नाटककरों ने ऐसे नाटक लिखे हैं जिनके केंद्र में स्त्री-समस्याएँ हैं किंतु मीरा
कांत ने नाटक लेखन के क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति ही दर्ज नहीं कराई है बल्कि
वह स्त्रियों के हक़ में पिछले 17-18 वर्षों से सृजनरत हैं। इनके लगभग सभी
नाटक चर्चित एवं अभिमंचित हो चुके हैं। मीरा कांत के नाटक स्त्री-संबंधी युगीन
प्रश्नों को प्रस्तावित करते हैं तथा पाठक एवं दर्शक को नारी के वर्तमान एवं
भविष्य के प्रति चिंतित एवं बेचैन भी करते हैं। अपने नाटकों के माध्यम से वे
स्त्री के संवेगों, इच्छाओं, क्षमताओं एवं आकांक्षाओं को
उजागर करती हैं। उनको स्त्री के लिए निर्धारित कर दी गयी झूठी नैतिक सीमाएँ
स्वीकार्य नहीं हैं। उनके नाटकों में लिंग के आधार पर स्त्री के कर्त्तव्यों का
विस्तार तथा अधिकारों का संकुचन करने वाली सामाजिक व्यवस्था का विरोध मिलता है।
लेखिका ने वर्तमान समय में सिर उठा रहे नंगे किंतु छिपे हुए सच को बड़ी बेबाकी से
अपने नाटकों में प्रस्तुत किया है।
मीरा कांत संवेदनशील तथा अपने समय से चिंतित
लेखिका हैं और उनका नाटक ‘अंत हाज़िर हो’ वर्तमान समय के ऐसे ही
सड़े-गले किंतु दबे-ढंके यथार्थ को प्रस्तुत करने वाला नाटक है। अपने नैतिक मूल्यों, परम्परागत मान्यताओं, सामाजिक व्यवस्थाओं एवं
संस्कृति पर गर्व करने वाला भारतीय समाज आज ऐसी स्थितियों से गुजर रहा है जो
निश्चय ही न केवल अबोध बच्चियों, किशोरियों, स्त्रियों के लिए बल्कि मानवता के लिए खतरा
सिद्ध हो सकती हैं। पितृसत्तात्मक संवेदनाओं से शून्य मानसिकता धारण किए हुए पुरुष
आज अपनी वासना से दिग्भ्रमित होकर अपने ही परिवार को लीलने लगा है। अपनी वासना की
पूर्ति के अंधेपन में पुरुष-वृति आज पारम्परिक पारिवारिक संबंधों एवं रिश्तों के
मिथक को झकझोरने लगी हैं और ‘घरेलू हिंसा’ जैसे संगीन अपराध अपनी जगह बनाने लगे हैं।
स्त्रियों के लिए कार्य करने वाली संस्था ‘जागो री’ की पत्रिका ‘हम सबला’ के ‘घरेलू हिंसा’ विषेशंका में बताया गया है – “1983 में
घरेलू हिंसा को अपराध माना गया और भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 498ए में इसका उल्लेख किया गया।
इस कानून के तहत पति व परिवार की ओर से विवाहित महिला के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार
घरेलू हिंसा के दायरे में माना गया। इनमें महिला को
आत्महत्या के लिए मजबूर करना, जीवन, शरीर, स्वास्थ्य को चोट पहुँचाने वाले व्यवहार, संपत्ति, धन के लालच में उत्पीड़न तथा
धन या जायदाद न देने की सूरत में की गई हिंसा को ‘क्रूरता’ मानते हुए घरेलू हिंसा को अपराध स्वीकारा गया।”
घरेलू हिंसा एक ऐसा भयानक अपराध है जिसकी परतों
से कई महिलाएं कभी भी बाहर निकल नहीं पाती हैं। नैतिकता का ऐसा लबादा ओढ़ कर इस
अपराध को अंजाम दिया जाता है जिसके दायरे में ऊपर से केवल सम्मान, संस्कार और मर्यादाएं ही नज़र
आती हैं किंतु भीतर एक घिनौना और दमघोंटू माहौल दिन-ब-दिन पनपता रहता है। मर्यादा
की इस चार दिवारी से महिलाएं कभी बाहर झांक तक नहीं पाती। मानवता को शर्मसार करने
वाले ऐसे ही सच को मीरा कांत ने अपने नाटक अंत हाज़िर हो में बयाँ किया है।
तीन अंकों का यह नाटक रिश्तों में ग़ैर-ईमानदारी
को दर्शाता है। इस नाटक में यूं तो गौण रूप से दो-तीन समस्याओं को उठाया गया है
किंतु हम मूल समस्या को ही यहाँ उठाएंगे। इस नाटक की मूल समस्या दो स्तरों पर
हमारे सामने आती है, पहला वृद्धा के माध्यम से, जहाँ उसका बेटा अपनी घरेलू
ज़िम्मेदारियों से तंग आकर घर छोड़कर चला जाता है और उसी का दोस्त आर्थिक एवं
भावात्मक सुरक्षा देने के बहाने उसकी बेटी सलोनी का विश्वास भंग करता है। संबंधों
से रिसती बदनियती का यह पहला दृश्य है। इस नाटक की मुख्य समस्या को प्रकट करता
दूसरा दृश्य शिल्पा के द्वारा प्रकट होता है। इस नाटक का यह दूसरा सिरा बाल और
किशोर मन की उलझनों और मनोविकारों तक जाता है। पाँच वर्षीय तनु जब अपने ही पिता का
बड़ी बहन अनु के प्रति कामार्त व्यवहार देखती है तो उसके कोमल मन पर गहरा आघात
पहुँचता है और खुद की किशोरावस्था में भी पिता की ललचाई नज़रें उसे अवसादग्रस्त बना
देती हैं और इस अवसाद का पर्यावसान तनु द्वारा की गई आत्महत्या में होता है।
‘अंत हाज़िर हो’ नाटक में उठाई गई यौन-शोषण की समस्या के संदर्भ
में ममता धवन कहती हैं कि –“ ‘अंत हाज़िर हो’ नाटक पिता-पुत्री के बेहद
कोमल, पवित्र रिश्ते के भीतर एक
पिता की पुत्रेष्णा, लड़कियों के प्रति हेय और
घृणा की भावना और उत्तरदायित्वहीनता के कारण उपजी काई का बेहद स्पष्ट और घोर
यथार्थपूर्ण चित्रण करता है। समाज में पिता-पुत्री, माँ-बेटे के रिश्ते अत्यंत सुरक्षित स्वीकार
किए गए हैं। इन संबंधों के अतिरिक्त अन्य सभी रिश्ते आज बेमानी और अविश्वसनीय होते
जा रहे हैं। संबंधों की अपनी पहचान व उनके प्रति स्पष्ट दृष्टि का अभाव आज के
बाजारवादी युग का एक दुखद प्रभाव हुआ है। लेकिन पिता-पुत्री जैस पाक रिश्तों पर भी
अब कालिमा छाने लगी है। इसकी पड़ताल सजग नाट्य लेखिका मीरा कांत अपने नाटक ‘अंत हाज़िर हो’ में करती हैं।”
‘अंत हाज़िर हो’ में तीन-तीन बेटियों को बोझ समझने वाले ‘पापा’ की लोलुप दृष्टि वस्तुतः
लड़कियों के प्रति, तथा उनके स्त्रीत्व के प्रति
हेय है। कन्या-धन और पराया-धन में विश्वास करने वाली मूढ़मगज सामंती व्यवस्था को
बदलने की जगह वह लड़कियों को स्त्री होने की सजा देने पर उतारू हो जाते हैं। वे नशे
की हालत में कहते भी हैं – “ साली क्या ज़िन्दगी है हमारी
भी यार... बीज बोओ....उसे सींचते रहो सालो...पालो पोसो...जब लहलहाने लगे तो किसी
और की नज़र कर दो ! तुम भी तो भुगत रहे हो। तुम्हारी ऐसी खुबसूरत जवान बेटी को ले
जाने की वो साला प्रोस्पेक्टिव दामाद कीमत चाहता है। कम न ज्यादा......दस लाख !
साला..... पालें हम फल खाएं दूसरे ! और इस घुटन में तो नशा भी नहीं ठहरता ......।”
स्त्रियाँ और बच्चे ‘सॉफ्ट टारगेट’ होते हैं क्योंकि वे घर के
मुखिया (पितृसत्तात्मक समाज में मुखिया पुरुष ही होता है) पर निर्भर होते हैं।
निर्भरता एक तरह से व्यक्ति में ‘कमजोरी’ का भाव पैदा करता है। इसलिए स्त्रियाँ चुप-चाप
न केवल खुद के साथ बल्कि अपने बच्चों के साथ भी हो रही घरेलू हिंसा को झेलती जाती
हैं। प्रस्तुत नाटक में भी जब ‘पापा’ अपनी पत्नी के पैरालायस्ड होने पर पहले बड़ी
बेटी अनु और उसकी शादी के बाद छोटी बेटी तनु का यौन शोषण करते हैं तब अनु तथा माँ
चुपचाप सब कुछ झेलती जाती है। इसी तरह वृद्धा भी पोती का बेटे के दोस्त द्वारा
लगातार किए जा रहे बलात्कार को आंख मूँद कर सहती जाती है क्योंकि यदि वह मुंह
खोलेगी तो घर का चूल्हा जलना बंद हो जाएगा। बेटा तो जिम्मदारियों से मुंह मोड़ कर
भाग गया और उसका खुद का बूढ़ा शरीर इस लायक नहीं रह गया कि वह अपना और पोती का पेट
पाल सके। वह दिन-रात जहर का घूंट पीती जाती है। साथ ही पोती को भी हर पल तिल-तिल
कर मरता हुआ देखती रहती है।
यही वह स्थिति है जब महिलाओं और बच्चों के पास
आत्महत्या के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं बचता है। यह सच्चाई केवल निम्न तबके
या गरीब घरों की ही नहीं है बल्कि अच्छे खाते-पीते घरों की भी है। ‘अंत हाज़िर हो’ नाटक के ‘पापा’ भी छोटे-मोटे आदमी नहीं हैं, वे बुद्धिजीवी वर्ग से आने
वाले प्रतिष्ठित प्रोफेसर हैं। ‘हम सबला’ पत्रिका में इस संदर्भ बताया गया है – “जब यौनिक क्रियाएँ घर के
भीतर या घर जैसे माहौल में रिश्तेदार या परिवार के सदस्य द्वारा की जाती हैं तब
इसे ‘इन्सेस्ट’ या पारिवारिक व्यभिचार कहा
जाता है। बाल यौन हिंसा में बच्चे के शरीर तथा सम्मान का हनन होता है तथा इसमें
अंतरंग पारिवारिक विश्वास और देखभाल के रिश्ते में दरार पड़ती है। इन क्रियाओं में
हिंसा निहित है इसलिए इसे हमउम्र बच्चों के बीच यौनिक खोजबीन और जानकारी पाने की
उत्सुकता से अलग रखकर देखा जाना चाहिए।” आगे पत्रिका में बताया गया
है कि – “बाल यौन हिंसा भारत की एक
सच्चाई है जो शहरी, संपन्न घरों में घटती है।
हमारे सपने शोध अध्ययन, जिसमें हमने 15-67 उम्र
समूह की 600 अंग्रेजी
बोलने वाली महिलाओं से बात की थी, से पता चला है कि 76 % महिलाओं के साथ अट्ठारह वर्ष
की उम्र से पहले यौन हिंसा हुई थी।”
‘अंत हाज़िर हो’ नाटक सदियों से होते आ रहे ऐसे घृणित सत्य को
प्रकट करता है जिसकी शिकार असंख्य स्त्रियाँ होती आ रही हैं लेकिन उसको उजागर बहुत
ही कम रचनाकार कर पाए हैं जिनमें से एक हैं मीरा कांत। मीरा
कांत ने दम तोड़ती उस भावना को व्यक्त किया है जहाँ दो बच्चियों की देह, उनका हृदय और उनकी मानसिक
स्थिति लगातार परत-दर-परत नष्ट होती जा रही है। उनके जीवन में अंधकार के अतिरिक्त
अन्य कोई रंग नहीं बचा है। इसे छोटी की डायरी के उस अंश के द्वारा समझा जा सकता है
जिसको बड़ी पढ़ती है – “(छोटी की डायरी पढ़ते हुए)
मुझे काटो तो खून नहीं। वो रेज़र तो रात को मैंने ही लिया था। अगले दिन स्कूल के
ऐनवल प्ले की ड्रेस रिहर्सल थी जिसमें मुझे स्लीव लैस ब्लाउज़ पहनना था। इसीलिए रात
को ही चुपके से पापा का रेज़र लिया था पर वापिस रखना भूल गई थी। वो मेरे कमरे में
मेज़ पर रखा था। तेजी से जैसे-तैसे कपड़े पहनकर बाथरूम से निकली और अपने कमरे में
मेज़ की तरफ दौड़ी। देखा पापा वहीं थे। रेज़र उनके हाथ में था, मैं दरवाजे पर ही रुक गई।
स्लीवलैस ब्लाउज़ से बाहर निकलीं मेरी बाँहों को उन्होंने देखा। अच्छी तरह फिर
मुस्कुराए। रेज़र दिखाकर बोले, ‘ये तुम लाई थीं....... “फिर मेरे पास से होते हुए
उसी रेज़र को उन्होंने मेरी बांह पर मारा। (बड़ी ठहरकर अपनी बांह का स्पर्श करती है।
फिर पढ़ते हुए ) और मुस्कुराते निकल गए। ढेर सारे छिपकलियाँ बाहों से होती हुई मेरे
पूरे शरीर पर रेंगने लगीं थीं। उस मुस्कान से जैसे मेरी देह ही उघड़ गई थी। ऐसा लगा
जैसे कपड़े बदलते हुए कमरे का दरवाज़ा बंद करना भूल गई हूँ। मैं निर्वस्त्र हूँ और
दरवाजे पर पापा खड़े हैं वैसे ही मुस्कुराते हुए....”
मीरा कांत ने प्रस्तुत नाटक के माध्यम से
स्त्रियों के प्रति पुरुषवादी-दृष्टिकोण के उस यथार्थ को विवस्त्र किया है जो
हमेशा ही समाज में दबा-ढंका रहा है। यह नाटक अपने छोटे से कलेवर में रिश्तों की
बदनियाती के एक ऐसे गंभीर मुद्दे को समाय हुए है जिसमें छोटी-छोटी बच्चियों के तन
और मन को हर क्षण खंरोचा जा रहा है। असंख्य बच्चियां हर दिन अपनों के ही पशुत्व का
शिकार हो रही हैं। यह नाटक जहाँ एक तरफ ‘कौटुम्बिक व्यभिचार’ जैसे घृणित सत्य को उजागर
करता है वहीं दूसरी तरफ किशोर मन की रोगग्रस्त दशा को प्रस्तुत भी करता है। सुषमा
भटनागर लिखती हैं – “छोटी का अपने सिर पर भैंस के
सींग उग आने की भयातुर स्थिति, उसका पिता की किताबों को बीच से चीर देना, उसका वाचिक आक्रोश और अंतत:
आत्मघात, किशोर असामान्य व्यवहार की
क्रमिक अंतर्यात्रा है। छोटी के पिता की कुत्सित लिप्सा और छोटी और सलोनी का अवसाद
वास्तव में असामान्य मनोविज्ञान की ही दो सरणियाँ हैं। मीरा कांत का यह नाटक इन
दोनों ही सिरों के लिए एक नए अंत का आकांक्षी है। यह सनसनी फैलाने अथवा संबंधों की
उलटबाँसियाँ पेश करके बोल्ड कहलाए जाने का करतब न होकर, ठहर कर सोचने का अनुष्ठान
है।”
पूजा रानी
पीएच.डी. शोधार्थी
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा
सम्पर्क
pooja.mlpawar@gmail.com
|
संदर्भ
- ममता कालिया (2015), भविष्य का स्त्री विमर्श, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-14
- सुधा अरोड़ा, लड़ाई तो पितृसत्तात्मक संरचना से है, नवनीत, संपादक - विश्वनाथ सचदेवा, मार्च-2014.
- विभूति पटेल, घरेलू हिंसा : महिलाओं के मानव अधिकारों का हनन, हम सबला, संपादक – जूही जैन, मार्च-अप्रैल 2009, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 4
- ममता धवन, स्त्री-आकांक्षा और मीराकांत के नाटक, हिंदी नाटक : नई परख,
- मीरा कांत (2012), अंत हाज़िर हो, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पृष्ठ संख्या – 65
- अनुजा गुप्ता, बच्चों से साथ यौन हिंसा भी घरेलू हिंसा, हम सबला, संपादक – जूही जैन, मार्च-अप्रैल 2009, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या -10
- वही, पृष्ठ संख्या -10
- मीरा कांत (2012), अंत हाज़िर हो, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पृष्ठ संख्या – 57
- सुषमा भटनागर (2012), भूमिका, अंत हाज़िर हो, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पृष्ठ संख्या – 10-11
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