दीपशिखा की कुछ कविताएँ
सौभाग्य दो
शब्दों
की गुत्थियाँ वही
मेरा
तमतमाना
मेरा
भुनभुनाना भी
एकदम
वही
बीस
साल पहले वाली ही हूँ मैं
पर
तुम नहीं वही
है
फ़र्क
फ़र्क
है
तेरी
झुर्रियों में
तेरे
कमर की झुकाव में
तेरे
हाथों की स्थिरता में
और
तेरे अपनेपन की चादर के
झिझक
भरी छिद्रों की त्रिज्या में
दूध
पहले भी फेंका था
हाथ
छोड़ खेलने भी गई थी
रिमोट
टी वी का लपका था तुझसे
कई
बार पहले भी
तुम
हँस देते थे
बड़ी
बदमाश है, कह देते थे
कभी
तो लगा भी देते थे
जानदार
शानदार थप्पड़
वो
गूँज वहीं छूट गई
लुप्त
भी हो गई
सन्नाटा
शेष है
बस
वही शेष है पूरे आँगन में
अब
क्यूँ मना नहीं करते चैनल बदलने पर
अब
पूछते तक नहीं
ये
कौन दोस्त हैं, क्यों आए हैं
क्यूँ
नहीं पता करते
रात
देर से क्यूँ आई मैं
माना
नज़र कमज़ोर हुई है
पर
पकड़ मुझ पर
क्यूँ
हुई ढीली वो?
माना
दुखते हैं तुम्हारे पैर
पर
दर्द यहाँ बहुत होता है
जब
रोकते हो खुद को तुम
कुछ
कहने पूछने से मुझसे
माना
तुम्हारा ज़माना चला गया
पर
ज़िन्दगी है तुममें बाकी
तुम
ज़िंदा भर रहो
मेरे
अहसान तले
कहीं
शांत,चुपचाप
खुद
ही समीकरण करते
ना
खुल कर हँसते
ना
फ़ूट फ़ूट कर रोते
फिर
मेरी क्या भूमिका भला?
किलकारी
से हुँकार तक संभाला मुझे
अब
अपनी शिथिलता में सौभाग्य दो
राम-नाम मत भजो अंधेरे में कहीं
अभी
तो प्रकृति लेकर आई है
तुम्हारे
खेलने कूदने की उमर
फिर
से
रेल
ने ही देर कर दी होगी
कोई
आया कचहरी में
खबर
दे गया
माँ
अंतिम साँसें गिन रही है
निकले
घर से हम
ग्यारह
बजे
दसबजिया
के लिए
वो
रेल भी छुक- छुक करती थी
विशाल
थी
बाकी
के रेल जैसी ही थी
बारह
बजे एक चाचा मिले
गरमी
से पिटे हुए
पसीने
से नमक बनता कभी
तो
आना मेरे मायके
चाचा
भईया दोस्त बाबा
सबके
पसीने सोख लेना
बनाना
नमक बेचना लाल पुड़िये में
दो
का सौ बना के
तभी
घंटा बजा एक का
बच्चों
ने पूछ ही दिया
“मां इसे दसबजिया क्यूं कहते हैं”
सुनाई
तो रोज़ देता था उसे
आज
शायद दिल पे लग गया सवाल
और
जल्दी जल्दी आने लगी
आने
लगी डेढ़ बजे
आज
बड़ी जल्दी !
खुशी
नहीं हुई
अचम्भा
ज़रूर हुआ
दूरी
दूर करती है तो चलता है
बुरा
तब लगता है
जब
ज़रिये पास लाने के बढ़ाते हैं दूरियां
हाय
! विधाता का विधान
जो
अपने हाथों में नहीं
वो
विधाता का विधान
जो
सरकार के हाथ में है
वो
भी विधाता का विधान
पहुँच
गई आखिरकार मैं
केवाड़ी
पर बिलख रही थीं औरतें
मै
चुप रही रो भी न पाई
अपनी
ही माँ के देहांत पर
आँसू
तो सूख गए थे प्लैटफ़ार्म पर ही
आँखें
मूँदी थी माँ ने
पर
शिकन ना थी चेहरे पर ना देखने की बेटी को
शायद
उन्हें यकीन था
बेटी
तो आ रही होगी
रेल
ने ही देर कर दी होगी
अजीब से
साहूकार
पिरोए
हैं तुमने ही मोतियाँ
टपक
जो पड़ती हैं कभी आँसू बनकर
कभी
रह जाती हैं पलक पर ही
लुका
छिपी खेलती
कभी
गले में ही अटक जाती हैं
तब,
जब लपेट लेते हो खुद से मुझे
और
इनके गिरने के पहले ही पूछ देते हो
"आज नहीँ रोई तुम"
ये
जल तो साथी हैं अब
किसी
ना किसी रूप में
और
साथ निभाती है इनका सर्वदा
मेरी
मुस्कुराहट
जिसके
साहूकार भी तुम ही हो
पर
थोड़े अजीब से, ना ब्याज ना मूल मांगने वाले
मैं ओस
थी, तुम
दूब
मैं
ओस थी, तुम दूब
मैं
हीन, मैं क्या जानूँ अपना मोल
बस
जानूँ कि तू है अनमोल
कहते
हो मैंने किया शीतल तुम्हें
सोचो
ज़रा
तुम
ना होते तो मैं प्रत्यक्ष भी होती कभी ?
गिरते
हुए को थाम लिया तुमने
बूँद,
हिम, पानी के बीच
मैं
खुद का नाम ढूँढती रही
आस
जब आँसूं बने, तब
तब
इस व्यर्थ को भी नाम दिया तुमने
मैं
बेरंग, तुच्छ सी मैं
ना
परखा ना सोचा ना तुमने तिरस्कार किया
गोद
में जगह दे कर
मेरी
सूक्ष्मता को भी इनाम दिया तुमने
मैं
ओस थी, तुम दूब
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018) चित्रांकन: दिलीप डामोर
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