राम भक्ति काव्य परंपरा में महाकवि तुलसी का स्थान
भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में राम भक्ति काव्य के स्त्रोत आदि काव्य ‘रामायण’ में मिलते हैं। राम काव्य परंपरा में वाल्मीकि को आदि कवि तथा ‘रामायण’ को आदि काव्य माना गया है। वाल्मीकि से पूर्व राम भक्ति स्तुति के प्रमाण लिखित रूप में तो प्राप्त नहीं होते किन्तु जनश्रुति व मिथकों से राम और सीता के चरित्र का आभास जरूर मिलता है। राम कथा ऐतिहासिक है या पौराणिक कल्पित इसके बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है। भारतीय संस्कृति में राम के चरित्र को भाव नायक के रूप में माना गया है। इस भाव-नायक की कथा में प्रत्येक युग में कुछ न कुछ जुड़ता चला आया है। वैदिक काल के बाद संभवतः छठी शताब्दी ई॰पू॰ में इक्ष्वाकुवंश के सूत्रों द्वारा राम कथा-विषयक गाथाओं की सृष्टि होने लगी। यह बहुत समय तक मौखिक रूप में चलती रही, जिस कारण इसका स्वरूप स्थिर न रह सका।
रवीन्द्रनाथ
टैगोर ने अपने निबंध ‘भारत वर्ष में इतिहास धारा’में
कहा है कि, ‘‘वाल्मीकि ने सर्वप्रथम नरकाव्य परंपरा का प्रवर्तन
किया’। प्रचलित वाल्मीकि रामायण के वर्तमान समय में तीन पाठ उपलब्ध होते
हैं। प्रथम दक्षिणात्य पाठ दक्षिण तथा गुजराती संस्करणों के पाठ,
द्वितीय
गौड़ीय पाठ गोरेसियों द्वारा सम्पादित तथा पेरिस में 1843 ई॰
में प्रकाशित कलकत्ता सीरीज का संस्करण तथा तृतीय पश्चिमोत्तरीय पाठ लाहौर का संस्करण
इन सभी पाठों में काफी अंतर है। इसका मुख्य कारण ‘रामायण’
का
कई शताब्दियों के बाद अलग-अलग भाषा एवं परंपराओं मे लिपिबद्ध होना।
बौद्धों
ने राम को ‘बोधिसत्त्व’
मानकर
रामकथा को अपने जातक साहित्य में स्थान दिया। जिससे ‘दशरथ
जातक’, ‘अनाकम् जातक,’, तथा
दशरथ कथानम् ये तीन जातक उत्पन्न हुए। जैन कवियों द्वारा भी रामकथा को लेकर काव्य रचनाए
हुई जिसमें ईसा की सातवीं-आठवीं सदी में लिखित स्वयंभू का ‘पउम्चरिउ’
विशेष
उल्लेखनीय है। जैन साहित्य में दो प्रकार की रचनाओं की प्रचुरता मिलती है। मिथक कथाएं
तथा उच्चचरित नायकों की गाथाएं जिनमें राम से संबंधित कुछ मिथक कथाएं जैन साहित्य में
प्रचलित रही।
संस्कृत
साहित्य में राम कथा को आधार बनाकर नाटक व महाकाव्यों की रचना व्यापक रूप से हुई है।
इस सृजन परंपरा में वाल्मीकि रामायण से अलग हटकर शृंगार का चित्रण हुआ। ‘जानकीहरण’,
‘कुमार संभव’ में
भोगवाद का उभार मिलता है। कालिदास ने रघुवंश में पूरी रघुवंश की परंपरा का वर्णन किया
है। कुमारदास ने ‘जानकी हरण’
अभिनन्द
ने ‘रामचरित’,
आचार्य
क्षेमे न्द्र ने रामायण मंजरी आदि शीर्षक से महाकाव्यों की रचना की।
संस्कृत नाटकों ने रामकथा को नवीन रूप देकर
नया सहृदय समाज दिया। आश्चर्य चूड़ामणि, अद्भुत दर्पण,
महावीर
दर्पण, अनर्घराघव, बाल
रामायण, महानाटक आदि नाटकों में इसके संकेत मिलते हैं।
भारतीय
भाषाओं में राम काव्य की बहुत विशाल परंपरा मिलती है। दक्षिण में कम्बन कृत तमिल रामायण
जिसका रचनाकाल 11वीं शताब्दी माना गया है। तेलुगु में रंगनाथ
‘रामायण’
12वीं सदी, बुद्ध राजकृत भास्कर रामायण
14वीं सदी, मलयालम
में वाल्मीकि रामायण के दो अनुवाद बहुत लोकप्रिय हुए हैं। प्रथम ‘कण्ण्श्श
रामायण’ द्वितीय है केरल वर्मा रामायण।
बांगला
में कृत्तिवास द्वारा रचित ‘कृत्तिवासीय रामायण’है
जिसका रचनाकाल 15वीं सदी है। जिस प्रकार उत्तर भारत में तुलसीकृत
‘रामचरितमानस’
लोकप्रिय
हुई, उसी प्रकार बंगाल मे ‘कृत्तिवासीय
रामायण’, बांगला में राम कथा पर विशाल साहित्य मिलता
है। चन्द्रावली द्वारा रचित ‘रामायण’,
रामानंद
की ‘रामलीला’,
रघुनन्दन
द्वारा रचित ‘रामरसायण’
आदि
प्रमुख है।
हिंदी काव्य में रामभक्ति परंपरा
हिंदी साहित्य में तुलसी पूर्व कवियों में
रामानंद अग्रणीय है ये कवि, समाज सुधारक यायावर प्रवृत्ति
के व्यक्ति थे। हिंदी भाषा-भाषियों के लोक जीवन में रामभक्ति का प्रस्फुटन इनके द्वारा
ही हुआ। ये जिन दार्शनिक मतों से प्रेरित थे वह शंकराचार्य का अद्वैतवाद तथा रामानुजाचार्य
का विशिष्टाद्वैत था ये दोनों दार्शनिक गुरू क्रमशः निर्गुण-सगुण उपासना के प्रचारक
थे शंकराचार्य ज्ञान पर अधिक बल देते थे, ठीक इसी के विपरीत रामानुजा
भक्ति पर वे विष्णु या नारायण की उपासना पर बल देते थे।
रामानंद
ने इन दोनों अध्यात्म गुरुओं के दोनों मार्ग सभी जातियों के लिए खोल दिए। वे निर्गुण
व सगुण दोनों प्रकार की भक्ति में सार्थकता देखते हैं किन्तु वे स्वयं राम के उपासक
के रूप में ही विख्यात हुए। रामानंद ने भक्ति के जिस रूप को लोक-सामान्य में रखा वह
बहुत ही सरल व सहज था वे भक्ति के मार्ग में जाति-पाँति को बाधा समझते थे। उन्होंने
अपने दोहे में स्वतः ही कहा है।
जाति - पाँति पूछे नहि कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।।
रामानंद
ने सर्वप्रथम राम-सीता के साथ भक्ति साधना के लिए हनुमान की भी स्तुति की। रामानंद
ने हनुमान की पूजा आरती का तुलसीदास से पहले उत्तर भारत में विस्तार किया। वे हिन्दी
साहित्य की राम भक्ति परंपरा में मेरूदण्ड के रूप में प्रतिष्ठित हुए। ईश्वर दास ने
राम कथा को आधार बनाकर दो ग्रंथ लिखे, ’भरत मिलाप’
और
‘अंगद पैज’। भरत
मिलाप में करुण प्रसंग को तन्म न्यता से लिखा गया है तथा अंगद पैज में अंगद की वीरता
का चित्रण हुआ है।
तुलसीदास
रामभक्ति काव्य परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उन्होंने प्रत्येक दृष्टि से राम काव्य
को हिन्दी साहित्य के शिखर पर पहुँचाया है। इनके द्वारा रचे बारह ग्रंथ प्रामाणिक माने
गए हैं तुलसी दास ने अपने ‘रामचरितमानस’
को
भाषा, रस, अलंकार,
काव्य
सौन्दर्य, चरित्र-चित्रण आदि काव्य गुणों को चर्मोत्कर्ष
पर पहुँचाया है तथा मानव व्यवहार के मार्मिक पक्षों का ऐसा विश्लेषण संसार के अन्य
किसी भी ग्रंथ में दुर्लभ है, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने
अपने साहित्येतिहास में लिखा है, ‘‘यह एक कवि ही हिंदी को प्रौढ़
साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।’1
तुलसी
के परवर्ती कवियों ने प्रचुरता से राम कथा पर काव्यों की रचना की परन्तु वे उसे उस
उत्कर्ष पर नहीं पहुँचा सके, जो कार्य तुलसीदास ने किया।
केशव की ‘रामचन्द्रिका’,
अग्रदास
ने रामध्यानमंजरी, ध्यानमंजरी, प्राणचन्द
चैहान ने रामायण महानाटक तथा हृदयराम ने ‘हनुमन्नाटक’
का
सृजन किया। आधुनिक काल में भी राम के चरित्र को लेकर विभिन्न काव्य रचे गए। जिसमें
पंचवटी, साकेत, राम
की शक्ति पूजा राम काव्य के बहुत ही उत्कृष्ट उदाहरण है। जिन्होंने आधुनिक संदर्भों
में राम कथा के ऐतिहासिक व पौराणिक महत्त्व को चित्रित किया। निराला द्वारा रचित ‘राम
की शक्तिपूजा’ तो अपने आप में महाकाव्य ही है। जो राम को
पूर्णतः अवतार से बाहर लाकर शंकाकुल मनुष्य के रूप में चित्रित करती हैं।
‘राम भक्ति काव्य परंपरा में महाकवि तुलसी का
स्थान
गोस्वामी
तुलसीदास का प्रादुर्भाव हिंदी साहित्य में ऐसे समय पर हुआ,
जब
मध्यकाल का अस्थिर दौर चल रहा था सामाजिक व्यवस्था चरमरा चुकी थी भारतीय जनता मुगुल
शासकों के शासन से त्रस्त थी। समाज विभिन्न पंथ, धार्मिक
कर्मकाण्ड में लीन था। संत कवि समाज पर कुछ सम्यक प्रभाव ही डाल सके थे जिनसे जनता
की बहुसंख्यक भावना मेल नहीं खा पाई। भारतीय संस्कृति को समग्रता से एक कर सके ऐसे
युग प्रेरणा की आवश्यकता महसूस हुई। उसी रूप में तुलसी का आगमन हिंदी साहित्य में हुआ।
तुलसी
वेद, पुराण, उपनिषद
तथा विभिन्न दार्शनिक मतों के मर्मज्ञ थे वे संस्कृत के प्रकाण्ड ज्ञाता थे। वे अपने
समय की राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक
व सांस्कृतिक परिस्थितियों को समझने की क्षमता रखते थे तथा जीवन में समय-समय पर आघात
पाने से वे मनुष्य रूपी स्वभाव की पैठ अपने हृदय-मन पर अविस्मृणीयता से छोड़ आए थे इसी
कारण उन्होंने अपना भक्ति साहित्य विद्वत समाज में प्रचलित भाषा संस्कृत में न लिख
कर लोक प्रचलित अवधि और ब्रज में रचा।
तुलसी
पूर्व रामभक्ति का जो वातावरण रामानंद ने सम्पूर्ण उत्तर भारत में तैयार कर दिया था
तुलसी ने उसे भारत के कोने-कोने में पहुँचा दिया। रामभक्ति काव्य की सबसे प्रौढ़ रचना
‘रामचरितमानस’
है
तथा तुलसी द्वारा रचित जो बारह ग्रंथ प्रामाणिक माने गए हैं उनमें सबसे अधिक काव्य
प्रतिभा हमें इस ग्रंथ में ही मिलती है। तुलसीदास ने रामकथा को लेकर भारतीय जनता के
लिए एक ऐसा नर-नारी चरित्र लिखा जिसका आदर्श रूप वर्तमान समाज में भी वही स्थान रखता
है जो तुलसी के समकालीन था।
तुलसीकृत
राम काव्य में जो मर्यादा, समन्वय तथा लोकमंगल की धारणा
प्रस्तुत हुई है वह भक्तिकालीन अन्य किसी ग्रंथ में दुर्लभ है। रामचन्द्र शुक्ल अपने
साहित्येतिहास में लिखते हैं, ‘जैसे वीरगाथा काल के कवि उत्साह
को, भक्तिकाल के दूसरे कवि प्रेम और ज्ञान को;
अलंकार
काल के कवि दांपत्य, प्रणय या शृंगार को महत्त्व देते हैं वहीं
तुलसी की वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है। एक ओर तो वह व्यक्तिगत
साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद् भक्ति का उपदेश करती है,
दूसरी
ओर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्ध करती है।’2
तुलसी
की भक्ति दास्य भाव की है। कवि अहं को नष्ट करते हुए तुलसी ने इन पंक्तियों का प्रणयन
किया है।
‘कवित बिबेक एक नहिं मोरैं’
ऐसे उदाहरण हमें कवि सूर, जायसी आदि के काव्यों में भी देखने को मिलते हैं यहां कवि अपने अहं को नष्ट करके ईश्वर भक्ति में लीन होना चाहता है तथा अपने कवि चरित्र को भी नकार दे रहा है।
ऐसे उदाहरण हमें कवि सूर, जायसी आदि के काव्यों में भी देखने को मिलते हैं यहां कवि अपने अहं को नष्ट करके ईश्वर भक्ति में लीन होना चाहता है तथा अपने कवि चरित्र को भी नकार दे रहा है।
तुलसी
ने ग्रहस्थ भारतीय जनता के समक्ष एक ऐसा ग्रंथ ‘रामचरितमानस’
के
रूप में रखा जो सबके लिए सहज ग्राह्य है तथा सियाराम की भक्ति के लिए किसी विशेष मत,
पंथ
व साधना की आवश्यकता नहीं है जिसे ज्ञानी-अज्ञानी दोनों सहज रूप में प्राप्त कर सकते
हैं तुलसी का भक्ति भाव निर्गुण व सगुण का भी भेद समाप्त कर देना चाहता है। और वे कहते
हैं-
‘‘सगुनहि अगुनहि नहिं कुछ भेदा।
गाँवहि मुनि पुरान बुध वेदा’’
गाँवहि मुनि पुरान बुध वेदा’’
तुलसी राम को पूर्णतः अवतार रूप में देखने
के पक्ष में नहीं है वे उसमें मनुष्यत्व भी देखना नहीं भूलते वाल्मीकि रामायण के ही
अनुसार उन्होंने बाली वध राम से छिप कर ही कराया है इस रूप में वे राम के मानव रूप
को सशक्त आधार देते हैं। अन्यथा सम्पूर्ण राम काव्य ऐतिहासिक काल्पनिकता का बोध कराता
नजर आता।
तुलसी
के राम काव्य से पहले सूरदास कृष्णकाव्य को अपनी रचनाओं द्वारा संपन्न कर चुके थे उन्होंने
कृष्ण के चरित्र में बाल लीलाओं को बहुत ही सुंदर व नए-नए प्रसंगों के साथ उद्घाटित
किया तथा कृष्ण के चरित्र को भक्ति का सुदृढ़ आधार बनाकर प्रस्तुत किया। ‘सूरसागर’लिखकर
उन्होंने शृंगार एवं वात्सल्य रस को चर्मोंत्कर्ष पर पहुंचाया। कृष्ण के चरित्र का
विकास वे उस सांस्कृतिक नायक के रूप में नहीं कर सके जो हमें तुलसी के राम में देखने
को मिलता है आदर्श पुत्र, आदर्श भाई,
आदर्श
पति, आदर्श मित्र, आदर्श
शासक ग्रहस्थ जीवन के लिए भक्ति का ऐसा ही आधार चाहिए था जो राम जैसे भाव नायक का अराध्य
रूप ही भारतीय समाज के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हुआ।
सूरदास
लीलाओं में तुलसी से बहुत उच्चकोटि के कवि हैं किन्तु ये बाल लीलाओं व गोपियों के साथ
कृष्ण की शृंगार रस की अटखेलियां किसी भी अराध्य चरित को संपूर्ण जन मानस के हृदय में
बैठाना अप्राप्य ही सिद्ध होगा। भारतीय जनता के हृदय का हार तो वही हो सकता है जो मर्यादा,
समन्वय
व ग्रहस्थ जीवन की आकांक्षाओं पर खरा उतरे, जो
लोगों के जीवन में एक स्फूर्ति पैदा करे, उनकी निराशा को आशा में पल्लवित
कर दे। ऐसा करने में तुलसी के राम उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में हमारे सामने उपस्थित
होते हैं। राम भक्ति काव्य परंपरा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें प्रचलित सभी
रचनापद्धतियों में काव्य रचना मिलती है। जैसे-प्रबंध, मुक्तक,
गीतिकाव्य,
नाटक
आदि।
दूसरी
ओर कृष्ण काव्य में मुक्तक की ही प्रधानता मिलती है। कृष्ण कवियों का हृदय गीति काव्य
में ही विशेष रूप से रमा है। रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं,
‘‘तुलसीदास की विलक्षण प्रतिभा इस बात में है कि उन्होंने भक्त और रचनाकार
की भूमिकाओं का एक साथ सफल निर्वाह किया है भक्त मूलतः देवी शक्ति के किसी स्वरूप में
आस्था रखता है, जबकि रचनाकार अपनी आस्तिकता- नास्तिकता के
बाद एक मूलतः ऐहिक या कि धर्म निरपेक्ष कर्म में प्रवृत्त होता है।’’3 इस
रूप में भी उनका काव्य सर्वोत्तम प्रतीत होता है।
तुलसी के समय में लगभग सम्पूर्ण भारत पर मुगलों का शासन था। भारत की दीन-हीन जनता हताशा व निराशा के एक ऐसे अंधकार में जकड़ी हुई थी जिससे बाहर आना मुश्किल था इन सब परिस्थितियों के बीच एक ऐसे महाकवि का उन्नयन होता है जो न केवल भारतीयों के हृदय से निराशा का भाव समाप्त करता है बल्कि उन्हें उपासना के लिए ऐसा विराट् व आदि चरित्र देता है जो वर्तमान समय में भी उतने ही उदार रूप से लोगों के हृदय मन पर अंकित है जितना उनके समकालीन था।
तुलसी के समय में लगभग सम्पूर्ण भारत पर मुगलों का शासन था। भारत की दीन-हीन जनता हताशा व निराशा के एक ऐसे अंधकार में जकड़ी हुई थी जिससे बाहर आना मुश्किल था इन सब परिस्थितियों के बीच एक ऐसे महाकवि का उन्नयन होता है जो न केवल भारतीयों के हृदय से निराशा का भाव समाप्त करता है बल्कि उन्हें उपासना के लिए ऐसा विराट् व आदि चरित्र देता है जो वर्तमान समय में भी उतने ही उदार रूप से लोगों के हृदय मन पर अंकित है जितना उनके समकालीन था।
तुलसी
साहित्य में हमें समाज सुधार, उनके समय की देश दशा,
सामंत
विरोधी तत्व, ब्राह्मणत्व विरोधी धाराएँ आदि सभी मानवतावादी
दृष्टि देखने को मिलते हैं। ‘कवितावली में तुलसीदास का
युगदर्शन राजनीतिबद्ध मात्र न होकर बहुत व्यापक दिखाई देता है अपने समय की जनता में
व्याप्त भुखमरी और बेरोजगारी का बहुत मार्मिक चित्रण करते हैं।’
‘‘खेती न किसान को, भिखारी
को न भीख बलि,
बनिक
को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविकाविहीन लोग सीधमान सोचबस,
कहै एक-एकन सो, कहाँ
जाई? का करी?’’4
कवितावली में राजा और राजनीति,
समाज
और अर्थ से आगे जाकर संस्कृति और धर्म की दुर्दशा का भी चित्रण हुआ है।
भक्तिकालीन काव्य पूर्णतः सामंतवाद का विरोधी दिखाई देता है। कृष्ण भक्त कुम्भनदास जहाँ लिखते हैं ‘संतन को कहा सीकरी सो काम’ वहीं दूसरी ओर तुलसी ने ‘प्राकृत जन कीन्हे गुन गाना’ के रूप में प्रशस्ति परम्परा का विरोध किया है। उनके इस स्वर में विद्रोह तथा चारणों व भाटों द्वारा सामंत पूजा का तिरस्कार दिखता है। भक्ति आंदोलन की धारा से प्रभावित होकर अकबर ने तीर्थकर व जजिया समाप्त कर दिया था। डा. राम विलास शर्मा ने तुलसी साहित्य के सामन्त विरोधी मूल्य तथा भक्ति आंदोलन और तुलसीदास शीर्षक निबंधों में कहा है कि-
भक्तिकालीन काव्य पूर्णतः सामंतवाद का विरोधी दिखाई देता है। कृष्ण भक्त कुम्भनदास जहाँ लिखते हैं ‘संतन को कहा सीकरी सो काम’ वहीं दूसरी ओर तुलसी ने ‘प्राकृत जन कीन्हे गुन गाना’ के रूप में प्रशस्ति परम्परा का विरोध किया है। उनके इस स्वर में विद्रोह तथा चारणों व भाटों द्वारा सामंत पूजा का तिरस्कार दिखता है। भक्ति आंदोलन की धारा से प्रभावित होकर अकबर ने तीर्थकर व जजिया समाप्त कर दिया था। डा. राम विलास शर्मा ने तुलसी साहित्य के सामन्त विरोधी मूल्य तथा भक्ति आंदोलन और तुलसीदास शीर्षक निबंधों में कहा है कि-
‘तुलसी
की भक्ति सभी जातियों वर्णों को मिलाने वाली थी उनकी भक्ति वर्ण,
जाति,
धर्म
आदि के कारण किसी का बहिष्कार नहीं करती। जिन तमाम लोगों के लिए पुरोहित वर्ग ने उपासना
और मुक्ति के द्वार बन्द कर दिए थे, उन सबके लिए तुलसी ने उन्हें
खोल दिया। तुलसी साहित्य एक और आत्म निवेदन और विनय का साहित्य है,
दूसरी
ओर वह प्रतिरोध का साहित्य भी है।’5
तुलसीदास
के परवर्ती कवियों में रामकथा को लेकर प्रचुर मात्रा में रचनाएं मिलती हैं पर वे ‘रामचरितमानस’
जैसी
श्रेष्ठता प्राप्त न कर सकी। तुलसी ने अपनी दृष्टि में विभिन्नताओं का ऐसा समावेश किया
की पीछे के कवियों के लिए उनके अनुसरण के अलावा और कोई चारा न बचा। वे भाव नायक राम
के सम्पूर्ण पक्षों को अपनी लेखनी में उतार आए।
निष्कर्ष:-
तुलसीदास
ने वाल्मीकि रामायण को नये कलेवर व नवीन रूप में रच कर भारतीय जन मानस के हृदय में
व्याप्त निराशा की गहराई को आशा में पल्लवित किया। उन्होंने राम काव्य को प्रत्येक
दृष्टि से चर्मोंत्कर्ष पर पहुँचाया। उनका साहित्य भाषा, अलंकार
काव्य सौन्दर्य, धर्म, शास्त्र,
लोक
तथा मानवीयता आदि सभी रूपों से प्रौढ़ है। चरित्र चित्रण में उनकी प्रतिभा सर्वोत्मुखी
है। तुलसीदास ने रामकथा को लेकर भारतीय जनता को ऐसा नर-नारी चरित्र दिया है जिसका आदर्श
रूप वर्तमान समय में भी वही स्थान रखता है जो उनके समकालीन था।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
1. हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र
शुक्ल, पृष्ठ संख्या 118, संस्करण:
2007, प्रकाशन संस्थान नयी दिल्ली-110002
2. वहीं, पृष्ठ संख्या 113
3. हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप
चतुर्वेदी, पृष्ठ संख्या 47, प्रथम
संस्करण 1986 बारहवाँ मुद्रण 1999, लोक
भारती प्रकाशन, इलाहाबाद-1
4. विश्वकवि तुलसी और उनके प्रमुख काव्य, डा.
राम प्रसाद मिश्र, पृष्ठ संख्या 156, द्वितीय
संस्करण 1990, प्रकाशक: विनोद पुस्तक मन्दिर आगरा
5. परम्परा का मूल्यांकन, रामविलास शर्मा,
पृष्ठ
संख्या 94, राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली-110002
ऽ महाकवि
तुलसीदास और युग संदर्भ, डा. भगीरथ मिश्र,
द्वितीय
संस्करण 1980, साहित्य भवन प्रकाशन लिमिटेड,
इलाहाबाद-3
ऽ गोस्वामी
तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल, नागरी
प्रचारिणी सभा काशी
ऽ तुलसी
ग्रंथावली तृतीय खण्ड, मूल्यांकन संपादक, रामचन्द्र
शुक्ल, भगवानदीन, ब्रजरत्नदास,
नागरी
प्रचारिणी सभा काशी
ऽ तुलसीदास,
रामचन्द्र
तिवारी, प्रथम संस्करण: 2009, वाणी
प्रकाशन नई दिल्ली-110002
सतवीर सिंह
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय,
दिल्ली
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
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