रामचरितमानस में नीति तत्व
रामचरितमानस लोक-शिक्षा, लोक- प्रेरणा, लोकोपदेश, लोक-व्यवहार तथा लोकाचार का विश्व कोश है। गोस्वामी तुलसीदास के इस महान ग्रन्थ में पाठकों को लोकानुभव जन्य अनेक ऐसे सदुपदेश उपलब्ध होतें हैं जिनके द्वारा समाज बुराइयों से सजग रहकर भलाई की ओर सरलता से अग्रसर हो सके और अपने जीवन तथा समाज को सुखी बना सके। गोस्वामीजी के समय में कलयुग के प्रभाव से तथा विदेशी शासकों के अनाचार के कारण लोगों में नैतिकता का एक प्रकार से लोप ही हो गया था। राजा , प्रजा , वर्ण , समाज सभी ने बौद्धिक चेतना का त्याग कर दिया था जिसके कारण समाज में अनैतिकतापूर्ण दुराचार व्याप्त हो गया था। समाज में कोई भी नियमों का पालन नहीं करता था। इस स्थिति का अवलोकन करके गोस्वामीजी की आचारवादी और मर्यादावादी भावना को अवश्य ही गहरी ठेस पहुँची होगी। इसीलिये उन्होंने रामचरितमानस में पग-पग पर नीति- निरूपण करते हुए समाज को सदाचार, मर्यादा –पालन, नियम-पालन आदि की शिक्षा तथा प्रेरणा दी है।
नीति - नी+क्तिन प्रत्यय से बना है। शब्द कोश में नीति का लक्षण इस प्रकार है – आचरण, चाल-चलन , औचित्य , शालीनता, बुद्धिमत्ता , व्यवहार-कुशलता , योजना, उपाय, आचार- शास्त्र, नीति-शास्त्र, आचार-दर्शन ; व्यवहार की वह रीति जिससे अपना हित हो और दूसरों को कष्ट या हानि ना पहुंचे , जनता या समाज के हित के लिए निश्चित आचार व्यवहार , राज्य और राष्ट्र की रक्षा के हित के लिए निश्चत रीति या व्यवहार। उपर्युक्त कोश गत अर्थों से स्पष्ट है कि नीति का मूल विषय लोकानुभव है। हम समाज में अनेक भले और बुरे कार्यों तथा उनके भले और बुरे परिणामों को निरंतर देखते रहते हैं और उनके निष्कर्षों से शिक्षा तथा प्रेरणा ग्रहण करके समाज को लोक व्यवहार की समुचित आचार पद्धति से अवगत कराते हैं। संक्षेप में यही नीति है। “ लोकानुभव के द्वारा लोक कल्याण के लिए निर्धारित की गई उस आचार या व्यवहार- पद्धति को,जिसमें सदाचार पालन के नियम और लोक व्यवहार की शिक्षा का निर्धारण हो, नीति कहते हैं। ”
समाज के लोकानुभव प्रसूत आचार और व्यवहार की यह शिक्षा- पद्धति अनेक रूपों में उपलब्ध होती है , जैसे –
राज्य संबंधी आचार-पद्धति
समाज संबंधी आचार-पद्धति
धर्म संबंधी आचार-पद्धति
अर्थ संबंधी आचार-पद्धति
शिक्षा संबंधी आचार-पद्धति
इन्हीं सन्दर्भों में रामचरितमानस में उपलब्ध नीति तत्वों का निरूपण किया जाना समीचीन होगा। नीति निरूपण में गोस्वामीजी ने कहीं प्रवृत्यात्मक और कहीं निषेधात्मक प्रणाली का अवलंबन लिया है जिससे उनकी वाणी के तीव्र स्वर यह कहते सुनाई देते हैं कि – यह ग्राह्य है , यह त्याज्य है और यह उपेक्षनीय है।
रामचरितमानस में राज्य संबंधी आचार पद्धति के अंतर्गत राजा –प्रजा, मंत्री, गुरु आदि के कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विशद् परिचय उपलब्ध होता है। जो शत्रु क्षत्रिय हो और राजा भी, वह बड़ा भयंकर होता है और वह छल कपट से कार्य करना चाहे तो उसकी भयंकरता दुर्जेय बन जाती है।
“बैरी पुनि क्षत्री पुनि राजा।
छल बल कीन्ह चहै निज काजा। ”
जीवन में यह भी एक अनुभूत तत्व है कि राजा को हर एक को हर स्थान पर अपना नाम नहीं बताना चाहिए। यह भी कार्य सिद्धि के लिए आवश्यक है –
‘सुनु महीस असि नीति जहं तहं नाम न कहहिं नृप।। ’
शत्रु का जिससे नाश हो वही उपाय काम में लाना चाहिए। यह एक लोक जीवन से संबंधित सत्य पर आधारित नियम है -
जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ ’
शत्रु को परास्त करने के लिए उसके सन्मुख जाकर युद्ध करना आवश्यक नहीं है। शत्रु के आवश्यक श्रोतों को अवरुद्ध करके भी उसे परास्त किया जा सकता है। रावण ने देवों के भोजन संबंधी स्रोतों को रोककर उन्हें अपनी शरण में लाने की नीति इन शब्दों में व्यक्त की थी -
‘छुधा छीन बल हीन सुर सहजेहि मिलहहिं आइ।
तब मारिहों कि छाडिहों भली भांति अपनाइ।।’
सच्चे शूरमा अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करते। जबकि कायर शत्रु को सामने देखकर अपनी डींग मारते हैं।
‘सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहि आपु।
विद्यमान रन पाइ रिपु कायर करहि प्रलापु।।’
राजा का कर्तव्य प्रजा- पालन है। संकट सहन करके भी राजा को प्रजा और राज परिवार का पालन करना चाहिए।
‘सो बिचारि सहि संकट भारी।
काहु प्रजा परिवारु सुखारी।।
समाज में यह देखा जाता है कि दुष्ट व्यक्ति कभी बातचीत से नहीं मानता। इसीलिए राजा को राजदंड धारण करना पड़ता है। ‘ मानस ’ में इसकी पुष्टि अनेक स्थानों पर हुई है।
टेढ़ जानि संका सब काऊ।
वक्र चंद्रमा ग्रसहि न राहू।।’
'भय दिखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव।’
'बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न प्रीति।’
प्रीति और बैर बराबरी वाले से ही करना चाहिए। शेर यदि मेंढकों का वध करे तो बहादुरी नहीं है। अंगद रावण से कहता है –
प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जो मृगपति बध मेढ़कन्ही भलकि कहइ कोइ ताहि।।’
मंदोदरी द्वारा रावण से कही गयी यह उक्ति भी बड़ी सटीक है –
‘नाथ बयरु कीजै ताही सों।
बुधि बल सकिअ जीति जाही सों।।’
ऋण और शत्रु को कभी भी शेष नहीं रहने देना चाहिए।
‘रिपु रिनु रंच न राखव काऊ।’
नीति कहती है यदि मंत्री , वैद्य और गुरु भयवश प्रिय बोलकर राजा को प्रसन्न करने के लिए कुमंत्रणा देने लगे तो राज्य, धर्म एवं शरीर का पतन अवश्यम्भावी है।
सचिव वैद गुरु तीनि जै प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनु कर , होइ बेगि ही नास।’
दूत का वध करना नीति विरोध है। जब शत्रु सामने खड़ा हो तो छल कपट करना और शत्रु पर दया दिखाना कायरता मानी जाती है।
‘नीति विरोध न मारिय दूता।।’
‘रन चढ़ करिअ कपट चतुराई।
रिपु पर कृपा परम कदिराई।।’
नौ प्रकार के व्यक्तियों का विरोध करने से कभी कल्याण नहीं हो सकता। ये व्यक्ति हैं –
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी।
बैद बंदि कवि मानसगुनी।।’
इस प्रकार रामचरितमानस में राज्य संबंधी आचार पद्धति का विस्तृत वर्णन किया गया है। उपर्युक्त के अतिरिक्त भी अन्य राज्य नीति संबंधी कथन ‘मानस’ में यत्र तत्र मिल जाते हैं। यथा –
‘कोउ नृप होउ हमहि का हानी।
चेरि छाडि अब होब कि रानी।।’
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना।
जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।'
'राज कि रहै नीति बिनु जाने ’
रामचरितमानस में लोकानुभव प्रसूत सामजिक सत्य का उद्घाटन करते हुए शिक्षा और प्रेरणा देने की परिपाटी पर्याप्त रूप से अपनाई गयी है। अतः ‘मानस’ में समाज नीति से सम्बंधित उक्तियाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। समाज में ब्राह्मण सभी वर्णों में अपने तपोबल से श्रेष्ठ माना जाता है।
'तप बल विप्र सदा बरिआरा।
तिन्हकें कोप न कोउ रखवारा।।’
ब्राह्मण की ही भांति गुरु भी परम सामर्थ्यवान होता है।
'राखे गुरु जौ कोप बिधाता।
गुरु बिरोध नहि कोउ जगत्राता।।’
सुन्दर वेश बनाकर दूसरों को ठगने वाले लोगों से सदा बचकर रहना चाहिए -
तुलसी देखि सुबेखु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।’
समाज में यह तथ्य भी सार्वभौम सत्य है कि स्त्री कभी स्त्री को देखकर मोहित नहीं होती -
मोह न नारि नारि के रूपा।’
नारी बड़ी प्रबल होती है। उसे कितना ही संभाल कर रखा जाए वह शास्त्र और राजा किसी के भी वश में नहीं रहती -
'राखिअ नारि जदपि उर माहीं।
जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं।।’
सठ सेवक, कृपण राजा, दुश्चरित्र स्त्री औरकपटी मित्र ये चारों शूल के समान दुखदायी होते हैं -
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी।
कपटी मित्र सूल सम चारी।।
अनुचित या उचित कार्य सोच समझ कर ही करना चाहिए -
अनुचित उचितं काजु किछु होऊ।
समुझि करिअ भल कह सब कोऊ।।
नीच व्यक्ति का खुशामद करना या चरणों में पड़ना अत्यंत दुखदायी होता है जैसे अंकुश, धनुष, सर्पऔर बिल्ली झुककर ही घात करतें हैं । तुलसीदास ने दुष्टों से बचकर रहने की सलाह दी है –
‘नवनि नीच के अति दुखदाई।
जिमि अंकुश धनु उरग बिलाई।।
भयदायक खल के प्रिय बानी।
जिमि अकाल के कुसुम भवानी।।’
बरु भल बास नरक कर त्राता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।’
किष्किंधा कांड में वर्षा तथा शरद वर्णन –प्रसंग में समाज नीति- संबंधी अनेक सुन्दर और उपयोगी उदाहरण मिलते हैं, जो समाज को सतत प्रेरणा देने वाले हैं। यद्यपि जगत में अनेक दुःख मनुष्य को सहन करने पड़ते हैं, लेकिन जाति-अपमान सहना सबसे कठिन है –
‘जद्यपि जग दारुन दुख नाना।
सब तें कठिन जाति अपमाना।। ’
बिना बुलाये किसी के घर नहीं जाना चाहिए क्योंकि बिना बुलाये जाने से सम्मान नहीं होता –
‘जो बिनु बोले जाहु भवानी।
रहै न सीलु सनेहु न कानी।।
जद्यपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा।
जाइअ बिनु बोले न संदेहा।।
तदपि बिरोध मान जहं कोई।
तहां गए कल्यान न होई।।’
‘जानि न जाइ निसाचर माया।’
‘समुझै खग खग ही कै भाषा।’
‘अति संघरषन जो कर कोई।
अनल प्रगट चंदन ते होई।।’
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू ।
सो तेहि मिलै न कछू संदेहू।।’
पर उपदेस कुसल बहुतेरे।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।’
धर्म का सम्बन्ध आत्मोत्थान से है और नीति का सम्बन्ध लोकानुभव मूलक सत्य से, अतः धर्म-नीति के अंतर्गत धर्म के वे सभी तत्व आ जाते हैं , जो लोकानुभव प्रसूत, धार्मिक सत्य पर आधारित होते हैं और समाज को शिक्षा तथा प्रेरणा देने में सहायक होते हैं। रामचरितमानस में लोकानुभव पर आधारित धर्म के इन नीति तत्वों की उपलब्धि अनेक स्थलों पर होती है। धर्म में गुरु का सर्वप्रमुख स्थान है –
गुरु पद मृदु मंजुल रज अंजन।
नयन अमिय दृग दोष विभंजन।।’
सत्संगति भी धर्म का एक प्रमुख आचरण है। संतों की संगति से मूर्ख व्यक्ति भी सुधर जाता है –
‘सठ सुधरहि सतसंगति पाई।
पारस परस कुधातु सुहाई।। ’
विधाता का बनाया हुआ यह संसार गुण और अवगुणों से युक्त है। परन्तु जो ज्ञानी होते हैं , वे हंस की भांति गुण को ग्रहण कर लेते हैं और अवगुणों का त्याग कर देते हैं , यही पुष्कल धर्म नीति है –
‘जड़ चेतन गुन दोषमय विश्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन ग्रहहिं पय परिहरि बारि बिकार।।’
कुसंग से हानि होती है और सत्संग से लाभ, इसे लोक और वेद सभी जानते हैं –
‘हानि कुसंग सुसंगति लाहू।
लोकहु बेद बिदित सब काहू।।’
धार्मिक की यह मर्यादा है कि उसे संतों, भगवान् शंकर, श्रीराम और विष्णु की निंदा नहीं सुननी चाहिए क्योंकि –
‘हरि हर निंदा सुनै जौ काना।
होई पाप गोघात समाना।। ’
धर्म – नीति के अंतर्गत भक्ति के आलम्बन श्रीराम के शक्ति तथा शील से युक्त रूप के आराधन का उपदेश भी ग्राह्य है –
सुमिरत जाहि मिटै अज्ञाना।
सोइ सर्वज्ञ रामु भगवाना।। ’
सोइ सर्वज्ञ रामु भगवाना।। ’
भगवान् सर्वत्र व्यापक हैं। वे प्रेम से कहीं भी प्रकट हो सकते हैं –
‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।। ’
कलियुग बड़ा कठिन युग है। इस युग में जो श्रीराम का भजन करते हैं वे ही समझदार लोग हैं –
‘ कठिन काल मल कोस धर्म्म न ज्ञान न जोग तप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहि ते चतुर नर।।’
‘ कलियुग केवल नाम अधारा ’
गोस्वामी तुलसीदास ने धर्मनीति पर सर्वाधिक बल दिया है। कुछ स्थलों पर तो वे धर्म नीति का निरंतर कथन करते चले गए हैं , जिससे समाज को धर्म – पालन का समुचित मार्ग मिल सके।मानस में अर्थ नीति संबंधी तत्व यत्र तत्र उपलब्ध हो जाते हैं। व्यवसाय संबंधी विवेक , निर्धनता ,हानि – लाभ , त्याग तथा दान आदि की लोक कल्याणकारी शिक्षा मानस में पूर्णतया निहित है। यथा –
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।
का बरषा जब कृषी सुखाने।
ऊसर बरषे तृन नहि जामा।।
जथा लाभ संतोष सदाई।
रामचरितमानस में अर्थनीति का प्रेरणादायक निरूपण उपलब्ध होता है जिससे मनुष्य की तृष्णा, लालच, तथा आर्थिक भ्रान्ति दूर होकर संतोष , त्याग तथा दान आदि की प्रवृति के उत्थान की प्रेरणा मिल सके। गोस्वामी तुलसीदास ने एक ही स्थान पर राजनीति, समाजनीति, धर्मनीति तथा शिक्षा नीति आदि का निरूपण समवेत रूप में भी किया है। यथा –
राजु नीति बिनु धन बिनु धर्मा ।
हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा।।
बिद्या बिनु बिबेक उपजाए।
सुभ फल सुकृत किए अरु पाए।।
संत ते जती कुमंत्र ते राजा।
मान तें ज्ञान पान तें लाजा।।
प्रीति प्रनय बिनु मद तें गुनी।
नासहि बेगि नीति अससुनी।।
रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोटकरि।।
इस नीति निरूपण से यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने नैतिक शिक्षा के द्वारा समाज को राजनीति , समाजनीति , अर्थनीति, धर्मनीति, और शिक्षानीति संबंधी चेतना प्रदान की है। ‘ तुलसी का यह नीति निरूपण इतना सरल, स्पष्ट और व्यावहारिक है कि अनेक चौपाइयां लोकोक्तियों अथवा सूक्तियों के रूप में समाज में प्रचलित हो गई हैं। ‘मानस’ की ख्याति का रहस्य इसमें निहित नीति वाक्यों का प्रयोग ही है , जिनसे हर व्यक्ति को सतत प्रेरणा और समुचित सुझाव उपलब्ध होते रहते हैं।
सन्दर्भ:
१ प्रामाणिक हिंदी कोश
२ आदर्श हिंदी शब्द कोश
३ हिंदी शब्द सागर
४ तुलसी ग्रंथावली – प्रथम खंड
५श्रीरामचरितमानस( सटीक )
डॉ. गीता कौशिक, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, भगिनी निवेदिता कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय)
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
रामचरित मानस का सार आप ने लिख दिया,,, ये नीति की बातें सर्वकालिक सार्वभौमिक सत्य हैं। बहुत बहुत धन्यवाद, इतना सुंदर लेख लिखने के लिए,,,
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