कविताएं / प्रगति गुप्ता
सिर्फ एक संयोजन
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जीवन क्या है
मात्र एक
विराम चिन्हों का
सम्मिश्रण..
घटना सुख से
जुड़ी हो
या हो दुख से
खुशी हो या दुख
विरामो, अल्पविरामों में
होता
शब्दों से कथनों
का उद्बोधन....
हर उतरती - चढ़ती
श्वास
देन - लेन से
जुड़ा
बस एक क्रम...
चलना और ठहर जाना
हमेशा के लिए,
सिर्फ एक अबूझा,
जन्म जन्मान्तर
का संयोजन...
जुटते कुछ
अस्तित्व,
अति निकट आकर
और कुछ सुदूर, पर सतत बढ़कर,
जीवन पंक्ति में
होते प्रस्तुत....
जुटना और टूटना
सब चलता रहता
अनवरत क्रम...
सोचे से, कुछ भी तो नहीं
बस समय -
अपने रथ पर हो
सवार,
कभी रौंदता तो
कभी
स्वयं के साथ लिए
उस अनंत यात्रा
को निकलता
जहां से पुनः
पुनः
यही चक्र अनवरत
घूमता.....
हर मानव कर्ण -
सा
धंसे चक्र में
कभी ऊपर तो कभी
नीचे
अपनी श्वासों का
अवलोकन करता...
यही जीवन,
जिसमें अनवरत
खोजता
मनुष्य स्वयं को,
पर करता
अज्ञात ही कोई
सारा नियमन.....
जीवन -
विरामों और
अल्पविरामों में बंधा
अनगिनत
घटनाक्रमों का
सिर्फ एक
संयोजन......
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बादलों की चादर
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ऊपर सोया हुआ
आसमान,
पानी से भरे
बादलों की
या भावों से
समर्पित,
बादलों की
सफ़ेद चादर को
तान के
यूँ, शान्त
खोया सोया - सा
दिखता है....
उन अनगिनत अनछुए
और
कुछ छुए पलों की
छुअन को समेटे
तृप्त - सा दिखकर
लोगो को
बैचेनी की राहें
दिखाता है..
देख तू भी,
यह आसमाँ भी कैसे,
तेरे और मेरे मन
को
उड़ाने भरने की
कल्पनाओं को, उकसाता है,
तभी तो मासूम से
दिलों में प्रेम
पनपा
उस आसमान को, छूने को
उस तक,
उड़ - उड़ कर
जाता है....
नही होता, अगर कोई ऐसे
स्वपन दिखाने
वाला
तो क्यों ये, मासूम से,
दिल भटका करते,
इसी आसमान के
बहकाने से ही तो
दिलों की चाहतें
आसमान
छूने को जाती
हैं...
फिर प्रेम की अगन
को
भटकन बना
वहीं से तो,
यह लौट लौटकर आती
हैं...
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हिसा़ब समय के
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खुद़ से अच्छा
अपने बच्चों का
कर करके
जो माँ बाप
कभी नहीं अघाते
थे...
वही बच्चे
माँ - बाप के लिए
करने की बारी आने
पर,
बस ठीक है कहकर
अपने-अपने
फर्ज पूरे करने
के
दावे कर जाते
है....
बुजुर्ग है आप अब
बस यही अब
आप पर फब़ता है,
कितना भी नया
खरीद ले
ऐसा ही लगेगा
जैसा पुराना लगता
है....
जाने कितने ऐसे
शब्द
माँ - बाप को, कचोटते होगे
यह बच्चे कब
अनुभव कर पाते
हैं...
उनकी अपनी
जरूरतों के आगे
माँ - बाप ही
अपनी जरूरतें हार
जाते हैं ....
जब कभी याद करते
हैं
अपने बच्चों के
बचपन को
तो कुछ, धुंधला - सा
उन्हें जब तब याद
आता है...
जिनकी ख्वाहिशें
पूरी करने में
जवानी गुज़र गई
जाने कैसे, उन बच्चों को
माँ बाप की, उम्र के आगे
उनकी छोटी छोटी
ख्वाहिशों का कद
बहुत ऊंचा ही
नजऱ आता हैं...
शुक्र हैं उस
खुद़ा का
जो उम्र के साथ -
साथ
बुज़ुर्गों की
याददाश्त,
कम या गुम ही
वह कर देता है,
वरना असमर्थ होने
पर
असहायता का भाव
तो
दिलों को
बहुत कचोटता
है.....
ऐसे बच्चों को तो
आता समय ही
अपनी कसौटियों पर
खड़ा कर,
पल - पल परखता
है....
यह समय
कब किसके साथ
गुजा़इशे रखता
है.....
सबकी करनियों के
फल
कभी माँ बाप तो
कभी
बच्चों के लिए
यह वक्त
तौल - तौल कर
करता है.....
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संवाद है सोच
नहीं
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खो गये हम कहीं
इन संवादों की
रेले में
बस-
काट यहां हो रही
एक-दूसरे पर
स्वयं को
विजय घोषित करने
में...
ना थमे से विचार
है
ना थमी - सी
अभिव्यक्ति
बस मार - काट मची
हुई
स्वयं को सिद्ध
करने में...
यहां लगातार
बोलना थकता नहीं
पर अतः सभी का
थका - थका - सा
दिखता है...
सिर्फ वही तो, कभी-कभी
थम कर,
सोचने को कहता
है...
मन - वाणी
दोनों ही
उच्छृन्गल बन
उत्पात से मचाते
हैं..
उनके इसी शोर में
अहम तो संतुष्ट
होते हैं,
पर हम स्वयं को
धीरे-धीरे खोते
जाते है....
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ढूंढे जरूर
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हर टूटे रिश्ते
में
प्रेम से जुड़े
कहीं ना कहीं
कुछ सिरे होते
हैं...
जिन्हें थाम कर
दो जन
रिश्तों का रूप
ले
साथ - साथ चलते
हैं....
अजी़ब सी फितरत
है
इन रिश्तों की
इनकी डोर को
मज़बूती से
बाँधों तो
गाँठें बन
बातें, घुटन बनती है...
यूँ ही छोड़ दो
तो, रिश्तों में
अति स्वछंदता
आकाश को छूती
है...
बहुत सौम्य से
इनके व्यवहार है,
सहेज कर रखो तो
लम्बी यात्रा तक
के
इनके साथ है....
जब भी कभी
टूटन पनपने लगे
इन रिश्तों में
बस इनके, उन सिरों को
मज़बूती से थामें
रहिये
जहां से उपजा -
था प्रेम
और रिश्ते का रूप
धर
आगे -आगे बढा था,
वही पर टूटे
रिश्ते के
सूत्र बस गुम
हैं....
रिश्ता अगर अपना
है
साथ रहने और चलने
में
अगर दुविधा का
अंश
बहुत तृण, जैसा है
तो उस सूत्र को ढूंढने
वाले भी
सिर्फ वही दो जन
हैं.....
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व्यक्त मौन
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अक्सर ठहर जाती
हूँ
मैं तेरे उस
अनकहे पर,
जहां शब्द तो
खामोश होते है..
पर नयन तेरे
कुछ छूटे हुए
विरामों और
अल्पविरामों में
बहुत कुछ तेरा,
अनकहा गढते
है....
जानती हूँ सिर्फ
उन्ही में
अतः तक
बसे हुए हो तुम
स्वयं... .
तब ही तो, गढे हुए में
आगे बढ़कर भी
छूट ही जाते हो
तुम..
और मैं तुम्हें
मेरे अतः से पढ़
उतार लेती हूँ
स्वयं में
सशब्द कुछ पूर्ण
- सा ...
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फूलों को चुनते
-चुनते
युग बीता
पर ले ना पाये
स्वयं ही,
उनकी सुवास...
विक्रय किया
सुवासों का
तब ही -
घर में जगी
चूल्हे की
आस.......
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कुछ छूटा है
या छूट गया है
तलाश उसकी है,
पर मन भटक रहा है
नहीं मिलता,
अक्सर मुझे, मेरा ही पता
जाने क्यों -
उदास बहुत
मेरे ही दिल का
वो कोना
है........
प्रगति गुप्ता
58,सरदार क्लब स्कीम ,जोधपुर -342001 (राजस्थान)
मो. 09460248348 (व्हाट्सएप न.) 07425834878 ई- मेल pragatigupta.raj@gmail.
com
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
बहुत भावपूर्ण और तथ्यपूर्ण कविताओं के लिए प्रगति जी को साधुवाद। संपादक मंडल का आभार ऐसी अछि कविताएं प्रकाशित करने के लिए
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