तुलसी
के काव्य में प्रकृति
प्रकृति और मनुष्य का परस्पर घनिष्ठ संबंध है।सर्वप्रथम मानव ने जब अपनी आंखें खोली तो प्रकृति को पाया। प्रकृति मनुष्य की उत्प्रेरिका शक्ति है। वह जननी के समान मनुष्य को दुलराती है, संस्कारवान बनाती है और पिता की तरह उसका पालन-पोषण भी करती है। प्रकृति के माध्यम से मानव समाज ने जितना ज्ञान और जितनी शिक्षा हासिल की है उसकी तो कोई सीमा ही नहीं है, उसका तो कोई विराम और अंत ही नहीं है। विजयदान देथा के शब्दों में – "प्रकृति मनुष्य की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी है। इस यूनिवर्सिटी ने मनुष्य से कितना सीखा है कितना सीखता चला जा रहा है और कितना सीखेगा - इसका न तो कोई पार है और न इसकी कोई सीमान्त रेखा ही।"1 धर्म, दर्शन, कला, साहित्य और जीवन सभी में प्रकृति का स्थान वरेण्य है। साहित्य में प्रकृति की उपादेयता अक्षुण्ण है यही कारण है कि साहित्य का आविर्भाव ही प्रकृति के माध्यम से हुआ है -
मा निषाद ! प्रतिष्ठां
त्वगम: शाश्वती समा:।
यत्क्रोच्योंमिथुनादेकमवधी:
काम मोहितम्॥2
सूरज, चांद, तारे, नक्षत्र, वायु, बरसात, बादल, बिजली, धूप-छांव, हरियाली, संध्या, तूफान इत्यादि ने मनुष्य को जो शिक्षा
दी है उन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकेगा।
साहित्यकारों ने प्रकृति को अनेक रूपों में देखा
और उसका चित्रण किया है। 'डॉ लालता प्रसाद सक्सेना' के अनुसार – "अपनी भाव रस धारा में निमग्न आत्मविभोर
भावुक कवि प्रकृति को विभिन्न दृष्टियों से देखता है। कभी वह प्रकृति को मानवीय
धरातल पर लाकर उसमें समान भाव, गुण, कार्य, आकृति, वेश-भूषा आदि का दर्शन करता हुआ मानव
तथा प्रकृति का तादात्म्य स्थापित करता है, कभी
मानव को प्रकृति के धरातल पर ले जाकर उसके अंग-प्रत्यंग, रूप-लावण्य, भाव-गुण, कार्य-व्यापार आदि के आधार पर उसका प्रकृतिकरण करता हुआ दोनों का
अभेद दर्शाता है कभी प्रकृति के मानवीय सुख संवर्धन के उपकरणों के रूप में, मानव कार्य व्यापारी की पृष्ठभूमि के
रूप में, मानव भावों के आलंबन के रूप में, जागृति भावों के उद्दीपन के रूप में
अथवा शोकसंतप्त मानव के प्रति संवेदनात्मक रूप में अंकित चित्रित करता है।"3
प्राचीन हिंदी काव्य (भक्ति काल से लेकर
रीतिकाल तक) में प्रकृति का प्रयोग उद्दीपन एवं अलंकरण हेतु ही किया गया है। कतिपय
कवियों ने आलंबनगत चित्र अंकित किए हैं, फिर
भी आधुनिक काल से पूर्व प्रकृति का स्वतंत्र एवं पूर्ण व्यक्तित्व हिन्दी काव्य
में नहीं उभर सका। आदिकालीन विकसनशील महाकाव्य "पृथ्वीराज रासो" में
प्रकृति का उपयोग केवल अप्रस्तुत-विधान के लिए हुआ है। चन्दबरदाई ने नायिकाओं के
सौंदर्य चित्रण में प्राकृतिक उपमानों की सुंदर योजना की है। पद्मिनी के नख-शिख वर्णन में कवि का उपमान-विधान दर्शनीय
है-
मनहूं कला ससि भान कला
सोलह सो बन्निय।
बाल बैस ता समीप अमृत
रस पिंनिय।।4
मैथिल कोकिल "विद्यापति" ने भी उद्दीपन अलंकरण आदि के लिए
प्रकृति का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं मानवीकरण की प्रवृत्ति भी कवि में दृष्टिगत
होती है। प्रधानत: श्रृंगार रस के गायक होने के कारण उन्होंने प्रकृति के उद्दीपन
रूप का ही चित्रण अधिक किया है -
नंदक नंदन कदम्बक तरुतीरे……….. धीरे धीरे मुरली बजाव
समय-सकेत निकेतन बइसल, बोलि बोलि बेरी पठाव
सामरी तोरा लगी अनुखन विकल मुरारी।
जमुना के तीरे उपवन उद्बेगल फिरि-फिरि
ततहिं निहारी
गोरस निके बिके अब जाइत पूछति है
बनवारी
तुम मतिमान सुमति मधुसूदन बात सुनहु अब
मोरा
कह विद्यापति सुनहु बर जोबति वंदहि नंद
किसोरा।5
भक्तिकालीन साहित्य में प्रकृति और जगत को मिथ्या स्वीकारा गया है।
भक्तिकालीन काव्य सहजता का काव्य हैं। भक्तिकाल में राम काव्यधारा का अग्रतम स्थान
है जिसके शीर्ष कवि तुलसी हैं। 'कविता
करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला' की उक्ति तुलसीदास पर बिल्कुल
प्रत्यक्ष बैठती है। हिंदी साहित्य में तुलसीदास का स्थान अप्रतिम है। वे साहित्याकाश में चमकते सूर्य की भाँति है जिसकी
चमक कीमत में निरंतर वृद्धि हो रही है। वे समन्वय के कवि हैं, जनमंगल के कवि है, लोकदर्शी कवि है। 'डॉ. शिवदान सिंह' के शब्दों में - "तमाम दार्शनिक
विचारों और उपासना रूपों तथा देवी-देवताओं के कुछ न कुछ वर्णन तुलसी साहित्य में
होने से उन्हें कोई अद्वैतवादी, कोई
विशिष्टतावादी कोई दास्य भाव का भक्त, कोई केवल वैष्णव तो कोई स्मार्त वैष्णव
मानते हैं किंतु तुलसी इनमें सबको साथ लेकर इन सबसे अलग थे। वे नाना पुराण निगमागम
की बात करते हुए भी लोकधर्म की उपेक्षा नहीं करते थे। उनका दार्शनिक समंवयवाद
सामाजिक मर्यादाओं को वर्ण और भेद के अनुसार प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न था जिस पर
सामंती संस्कारों की छाप थी किंतु लोक-कल्याण में उनकी आस्था उनके उदार मानवतावाद
की परिचायक है जिसकी व्यापक प्रेरणा से वे इतनी विभिन्नताओं का विराट समन्वय करके
युग को अनुकूल बनाने की महान कला साधना संपन्न कर सके।"6
तुलसी के काव्य में प्रकृति चित्रण की सहज परंपरा विद्यमान है। राम काव्य
के सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास को राम के नाते जगत के सभी पदार्थ पूज्य एवं प्रिय है।
जहाँ तुलसी के राम हर्षित होती हैं और वहाँ तुलसी की प्रकृति सद्य हर्षित होती है
और जहाँ तुलसी के राम दु:खी द्रवित होते हैं वहाँ प्रकृति भी इसी तरह की हो जाती
है -
हे खग, हे मृग, हे मधुकर श्रेनी
तुम्हीं देखी सीता मृगनयनी ॥7
प्रबंधकार तुलसी ने प्रकृति
से संदेश एवं तथ्य ग्रहण किए है। मानस में
वर्षा वर्णन एवं शरद वर्णन में प्रकृति चित्रण की इसी प्रवृति के दर्शन
होते हैं -
फल मारन नमि विटप सब रहे भूमि नियराइ।
पर उ पकारी पुरुष जिमि नवहिं
सुसम्पत्ति पाइ ॥8
तुलसी के काव्य में प्रकृति का आलंबन एवं उद्दीपन दोनों ही रूपों का
निर्देशन होता है। यदि अन्य प्रकार से हम कहे तो तुलसी यहां भी अपनी समन्वयवादी
सोच को परिलक्षित करते प्रतीत होते हैं-
कीर के कग्गर ज्यों नृपचीर विभूषन
उप्पम अंगनि पाइ।
औध तजी मगबास के रुख ज्यों पंथी के
साथी ज्यों लोग लुगाइ ॥
संग सुबंधु पुनीत प्रिया, मनो धर्म क्रिया धरि देह सुहाई।
राजीव लोचन राम चले, तजि बाप को राज, बटाऊ की नाईं ॥9
प्रकृति के सभी रूपों को किस
प्रकार ग्रहण किया जाए यह कवि की नवनवोन्मेष शालिनी प्रतिभा पर निर्भर होता है।
प्रकृति का उपदेशिका रूप अलंकार विधानात्मक रूप भी तुलसी के काव्य में सहज ग्राह्य
हैं। सुरेन्द्र नाथ सिंह के अनुसार - "यह ठीक हैं कि कवि का उद्देश्य ही
प्रकृति को साधन बनाकर अपने नीति एवं उपदेश पक्ष की स्थापना करना रहा है।10
अर्क जवास पात बिनु भयऊ
जस सुराज खल उद्यम गयऊ ॥11
आलंबन रूप में तुलसी उतने नहीं रमे है जितने उद्दीपन रूप में। आलंबन रूप
में तो उन्होंने मात्र श्री रामचंद्र जी
की जीवन यात्रा में पड़ने वाले पडावों का ही चित्रण किया है। पंपा सरोवर, ऋष्यमूक पर्वत, किष्किंधा नगरी तथा गीतावली में समग्र
रुप से है, जो वस्तुत: उनके काव्य के लिए आधार
भूमि तैयार करती है। अपनी रचना प्रक्रिया में पड़ने वाले पडावों का तुलसी ने मात्र
सूचनात्मक निर्वहन कर दिया है। राम व सीता के विरह और वियोगयुक्त संलाप में भी
आलंबनात्मक रूप उस भावना से जाग्रत नहीं हुआ। यह सहज और सरल रूप से काव्य में
सरलीकृत हो गया है। इसके विपरीत आचार्य तुलसी ने प्रकृति के उद्दीपन रूप को अपने
समस्त काव्य में अधिक महत्त्वता के साथ ऐकिक किया है। यह सांकेतिक होते हुए भी
पूर्ण समर्थ है। जो वर्षा संयोगावस्था में प्रिया के पास रहने मात्र से कितनी
उल्लीसत हो जाती है तथा वही वर्षा ऋतु वियोगावस्था में उद्वेगजनक हो जाती है उसका
एक मनोरम चित्रण दृष्टव्य है -
घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा ॥11
'सुरेंद्रनाथ सिंह' के शब्दों में - "तुलसी ने
प्रकृति के जिस उद्दीपनकारी रूप का चित्रण किया है उसमें मौलिकता न होकर परंपरागत
शैली का ही निर्वहन है लेकिन उनका वैशिष्ट्य इस बात में है कि उन्होंने प्रकृति के
अतिशयोक्तिपूर्ण और भड़कीले चित्रों का अंकन नहीं किया बल्कि सीधे-सादे ढंग से
पात्रों की भावनाओं को स्पष्ट करने के लिए पृष्ठभूमि के रूप में उनका संयोजन किया
है। उनका प्रयोजन है प्रकृति के माध्यम से पात्र की आंतरिक स्थिति का प्रकाशन करना
जिसमें उन्हें पूरी सफलता मिली है।"12
तुलसीदास जी ने प्रकृति के अलंकार विधानात्मक रूप का भी चित्रण किया है।
इसमें प्रकृति सहचरी की भाँति दिग्दर्शित होती है। चाहे समानुभूति की स्थिति हो, विषयानुभूति की या तटस्थता की प्रकृति
अपने पूर्ण आलंकारिक वैभव के साथ प्रकट हुई है। उपमा व रूपक तुलसी के प्रिय अलंकार
हैं एवं उत्प्रेक्षा की छटा भी यत्र-तत्र बिखरती प्रतीत होती है। एक उदाहरण
दृष्टव्य है-
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिवस
पहिराई न जाई।
सोहत जनु जुग जलज समाना। लखिहिं सभीत
देत जयमाला ॥13
यहां प्रकृति का अलंकार विधानात्मक
रुप सहजता के साथ प्रतीत हो रहा है। दरअसल तुलसी जिस 'जायके' के कवि हैं वहाँ व्यर्थ का भौंडा प्रर्दशन नहीं है बल्कि जो भी कुछ
है सहज सुग्राह्य एवं आत्मसातीकरण के योग्य भी है। गोस्वामी तुलसीदास का प्रकृति
चित्रण उनकी पहचान बन गया है। "रमेश कुंतल मेघ" के अनुसार "तुलसी
ने भागवत परिपाटी के अनुसार भी अपने प्रकृति-वर्णन में सौन्दर्य की सिद्धि के बजाय
नैतिकता की साधना को प्रधानता दी है। इस तरह का प्रकृति वर्णन दो भागों में विभक्त
है- पहले में ऋतु अथवा वस्तु का वर्णन है और यह उपमेय अंग हैं, दूसरे में ऋतु के तत्वों अथवा वस्तु के
खंडों के लिए धार्मिक, नैतिक, आध्यात्मिक भाष्य है और ये उपमान अंग है तथा उत्प्रेक्षा विधि से आए हैं।14
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि तुलसी के काव्य में प्रकृति एक साधनारत
तपिस्विनी की भाँति आई है जो जीवन यात्रा में गतिमानता का उपदेश देती प्रतीत होती
है। वह कोयल की कूक में भी उतनी ही आनंदमयी है जितनी कि पपीहे की पीर में।
"हिंदी
नभ के दिनकर तुलसी
प्रभु पद पंकज मधुकर तुलसी।
मानस मंदाकिनी के उद्गम
हिमगिरी तुलसी, गिरिवर तुलसी" ॥
संदर्भ-
1 साहित्य और समाज - विजयदान देथा पृष्ठ 39
2 वाल्मीकि रामायण - वाल्मीकि पृष्ठ - 1 गीता प्रेस गोरखपुर
3 हिंदी महाकाव्यों में मनोवैज्ञानिक तत्व -
लालता प्रसाद सक्सेना पृष्ठ 10
4
पृथ्वीराज रासो - चंदबरदाई पृष्ठ - 8
5 विद्यापति - विद्यापति स. शिवप्रसाद सिंह
पृष्ठ 2
6 तुलसी का काव्य वैभव - डॉ. शिवदान सिंह पृष्ठ
- 15
7 रामचरितमानस - गोस्वामी तुलसीदास, अयोध्याकांड पृष्ठ - 221, गीता
प्रेस गोरखपुर
8 रामचरितमानस - गोस्वामी तुलसीदास, अरण्यकांड पृष्ठ - 342,
गीता
प्रेस गोरखपुर
9 कवितावली - गोस्वामी तुलसीदास, पृष्ठ - 14, गीता प्रेस गोरखपुर
10 तुलसी - प्रो.- उदयभानु सिंह, मे सुरेंद्रनाथ सिंह का लेख, पृष्ठ क्र. 103 राधाकृष्ण मूल्याकंन माला।
11 रामचरितमानस - गोस्वामी तुलसीदास, बालकाण्ड, पृष्ठ - 107 गीता प्रेस गोरखपुर
12 तुलसी - प्रो. उदयभानु सिंह में सुरेंद्रनाथ
सिंह का लेख पृष्ठ क्र. 105 राधाकृष्ण मूल्यांकन माला।
13 रामचरितमानस - गोस्वामी तुलसीदास बालकाण्ड
पृष्ठ 110, गीता प्रेस गोरखपुर।
14 तुलसी आधुनिक वातायन से - डा. रमेश कुंतल मेघ
पृष्ठ 248, राजकमल प्रकाशन।
डॉ. प्रणु शुक्ला, सह-आचार्य,राजकीय महाविद्यालय, टोंक,
मो. 8209487313 ई मिल pranu.rc55@gmail.com
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
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