तुलसीदास हमारे राष्ट्रीय संस्कृति के उन्नायक हैं
तुलसीदास जी एक कवि ही नहीं लोकनायक भी थे। लोकनायक की कल्पना अलग-अलग रूपों में की जाती है। विशुद्ध रूप में लोकनायक वह व्यक्ति होता है जो अपने युग को यह बता सके कि उसकी आकांक्षा और आवश्यकता क्या है? वह केवल कहे नहीं अपने कर्मों से इस धारणा को चरितार्थ कर दे। यह भारतीय परिकल्पना है। पश्चिम से आयातित दलगत राजनीति में रंगी हुई कल्पना यह है कि लोकनायक वह होता है जो समन्वय करे, यथास्थिति बनाए रखे और परिवर्तन से दूर रहे। इन दोनों रुपों में तुलसीदास जी का अभिनंदन हुआ। हिंदी के विद्यार्थी के रूप में मैं यह सगर्व कह सकता हूँ कि कालिदास के बाद इस देश में दूसरा कोई कवि हुआ तो तुलसीदास ही हुए। तुलसीदास पर जितना शोध हुआ है संभवतः हिंदी के किसी कवि पर नहीं हुआ है और आगे की संभावनाएँ भी समाप्त नहीं हुई हैं। अभी भी शोध चल रहे हैं। महर्षि व्यास का एक कथन है। ‘यथा यथात्मा परिमृत्यतेषु महत्वपूर्ण गाथा श्रवणा विधने, तथा तथा पश्चति वस्तु सूक्ष्मं तथ्योगतो वाग्ंमय सम्पृक्तम्’ भगवान का गुणगान करते-करते न जाने कितनी सूक्ष्म बाते दिखाई देने लग जाती हैं। जितना उसका गहन अध्ययन किया जाए, जितना उसमें गहरा उतरा जाएँ, उतनी सूक्ष्म बातें दिखाई देने लगती हैं। इसी को आधार बनाकर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा था-
यथा सुवंजन अंजि दृग पाहक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत शैल बनं भूतल पूजत ध्यान.
मित्रों काजलयी रचना कालातीत रचना भी हो जाती है। तुलसीदास ने कविता
नहीं लिखी, इस
देश का नेतृत्व करने के लिए हमें एक आचार संहिता पकड़ा दी। संस्कृति एक बहुत व्यापक
शब्द है। इतना व्यापक कि किसी देश के समाज का पूरा जीवन उसमें समा जाता है। उसमें
आर्थिक जीवन भी है, सामाजिक जीवन भी है, राजनैतिक जीवन भी है और नैतिक जीवन भी है। इसलिए संस्कृति हमारे लिए आचरण
की संहिता है जो आत्मनियंत्रण से आरम्भ होती है और समाज नियंत्रण तक जाती है।
तुलसीदास ने यही किया। प्रश्न यह है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? उन्हें ऐसी कौन सी जरूरत आ पड़ी थी, जबकि उस समय तक
अनेक रामायण लिखे जा चुके थे, बाल्मीकि का रामायण चल रहा था फिर
भी उसे लोक भाषण में करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? मुझे लगता
है इसका कारण उनका समकालीन जीवन था जिसमें राजनैतिक और आर्थिक उत्पीड़न पराकाष्ठा
पर था।
‘रामलला नहछू’ ‘जानकी मंगल’
और ‘पार्वती मंगल’ जैसी
रचनाएँ जब तुलसीदास ने लिखीं तो उन्हें लगा कि हमारे मांगलिक पर्वों में जो गान
गाँवों में गाए जाते हैं उनमें कहीं-कहीं
शृंगारिकता ज्यादा हो जाती है। वहीं से उन्होंने लोक जीवन में धर्म और
रामभक्ति को अनुस्यूत करना आरम्भ किया।
इसीलिए ‘रामलला नहछू’ ‘जानकीमंगल’
और ‘पार्वती मंगल’ में
उन्होंने मांगलिक पर्वों में श्रींगारिकता
की जगह राम का प्रेम और भक्ति धीरे –धीरे जीवन में उतार दिया। उनकी आगे की रचनाएँ जिनमें ‘विनय पत्रिका’ ‘गीतावली’, ‘बरवै’
रामायण, ‘कवितावली’ इत्यादि
आती हैं, उनके माध्यम से उन्होंने लोकजीवन और राजनैतिक जीवन
में आयी विकृतियों की चर्चा शुरू की। उनका एक चर्चित दोहा है-
हम चाकर रघुवीर के पटौ लिखौ दरबार
तुलसी हम का होइंबौ नर के मनसबदार।
आप जानते हैं कि मनसबदारी प्रथा सबसे पहले अकबर ने चलायी थी। तुलसीदास
अकबर के समकालीन थे। अकबर के दरबार के कवि चापलूसी के भाषा बाले रहे थे जनता की
पीड़ा की भाषा नहीं बोल रहे थे। एक कवि ने लिखा कि- ‘साह को साह अकबरा तोडरमल वजीर’।
अर्थात् अब तक सबसे बड़ा बादशाह जो हुआ है वह अकबर और सबसे बड़ा वजीर टोडरमल हुआ।
टोडरमल वही व्यक्ति था जिसने भूमि का बंदोबस्त पहली बार किया था। जिसने भारतीय
किसानों को उनकी भूमि से अलग कर दिया था। जिसने मनसबदारी व्यवस्था के लिए आधार
तैयार किया था। जिसके परिमणाम स्वरूप सारा देश भूखों मरने लगा क्योंकि मनसबदार
किसानों से भूमिकर के रूप में अनाज अनिवार्यतः लेने लगे, चाहे
देश में सूखा हो, बाढ़ हो या अकाल हो। ऐसे में अनेक बार भूमिका
न चुका पाने की स्थिति से पूरा का पूरा गाँव खाली हो जाता था। तुलसीदास उस पीड़ा के
गायक हैं-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी
जीवन विहीन लोग सिद्ध मान सोच बस
कहै एक एकन सो कहाँ जाय का करीं।
तुलसी की रचनाओं में यह भुखमरी बड़ी व्यापकता से व्याप्त है वे
कवितावली में कहते हैं-‘भूमिचोर भूप भए’ अर्थात् उस समय के राजा भूमिचोर हो गए थे। जब किसान के पास खेत नहीं हैं तो
आखिर ये खेत गए कहाँ? दरअसल, यह बेदखली की समस्या थी जो टोडरमल के द्वारा
भूमि के बंदोबस्त किए जाने से आरम्भ हुई थी। तुलसीदास मध्यकाल के एकमात्र कवि हैं
जो भूमि की एक व्यवस्था से उपजी भुखमरी और उत्पीड़न को अपनी कविता में बयाँ करते
हैं। इसीलिए वे लोकनायक है। वे लोक की पीड़ा के गायक हैं। उस समय की समस्या सामाजिक
समस्या भी थी। सामाजिक संस्कृति टूट रही थीं। सामाजिक संस्कृति में सबसे बड़ी
समस्या जाति की समस्या थी। उस जाति को तुलसी दास किस प्रकार लेते हैं? कागभुसुन्डी जो रामकथा के प्रवाह को बढ़ाने वाले, ट्टषि-मुनियों
की कोटि में आने वाले काग हैं वे आरम्भ में दलित थे अयोध्या नगरी में जाकर रहते थे,
वहाँ से बचा हुआ अन्न खाते थे। राम से छीन कर खाते थे। पहली बार
कागभुसुण्डी को एक दलित से ऋषि बनाने वाले तुलसीदास थे। तुलसीदास कवितावली में
स्पष्ट रूप से कहते हैं-
धूत कहो अवधूत कहो रजपूत कहो जुलाहा कहो कोऊ
काहू की बेटी से बेटा न व्याहब
काहू की जाति बिगारि न सोउब
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को जाको रूचै सो कहौ कछु सोऊ
माँगि के खाइबो मसीत में सोइबो
लेइबै को एक न देइबै को दो।
तत्कालीन समाज के ताने बाने और जाति व्यवस्था की विकृति को तुलसीदस ने
हमारे सामने रखा। जबकि उसी दौर के अन्य कवि नवरत्नों के रूप में अकबर के दरबार में
बैठकर उसकी झूठी-प्रशंसा कर रहे थे। भारतीय समाज की उपेक्षा कर रहे थे। उस झूठी
प्रशंसा को देखकर के तुलसीदास ने ‘विनय पत्रिका’ का प्रणयन किया,
तुलसीदास भी एक दरबार में पहुँचते हैं लेकिन वह दरबार अकबर का नहीं हैं। किसी मुगल
सम्राट का नहीं है। किसी पार्थिव राजा का नहीं है। वे कहते हैं-
‘इन्हें प्राकृत जन गुन गाना सिर सुन धुनि राग पछताना’
अर्थात अगर किसी पार्थिक मनुष्य के लिए इस वाणी का उपयोग किया जाए
तो यह वाणी का अपमान है। इसलिए वे ‘विनय पत्रिका’ में वही पद्धति अपनाते हैं जो अकबर के दरबार में जाने के लिए अपनायी जाती
थी और वे प्रार्थना करते हैं कि कलियुग से मुक्ति मिले जबकि इनके दौर के अन्य कवि
वैभव की लालसा में अकबरी दरबार में जाते थे। कहना न होगा कि चारण संस्कृति के खिलाफ
तुलसी राम भक्ति की संस्कृति लाते हैं और कहते है कि चारण संस्कृति इस देश में
नहीं चाहिए।
तुलसीदास ने संस्कृति का उन्नयन किया- मनुष्य की संस्कृति का, परिवार की संस्कृति का,
समाज की संस्कृति का और देश की संस्कृति का। मध्यकाल में पहली बार
कोई कवि अपने देश का नाम लेता है-
भली भारत भूमि भलो कुल जन्म, समाज शरीर भलो लगते।
यह अपनी जन्मभूमि और देश के प्रति-गर्व का भाव है। ‘धन्य देश जहँ सुरसी धरा’
कह कर वे अपने देश का बखान करते हैं। यह आत्म गौरव जगाने का
आत्मजागरण का और लोक जागरण का अद्भुत प्रयास है।
महर्षि व्यास ने महाभारत में लिखा था कि मनुष्य को त्यागशील होना
चाहिए। उन्होंने कहा कि ‘त्यजेत एकं कुलस्यार्थे’। अर्थात पूरे कुल के लाभ के
लिए एक के लाभ को छोड़ देना चाहिए।
ग्रामस्यार्थे कुलम त्यजेत ;गाँव के हित के लिए कुल के हित का त्याग कर दो ‘ग्रामन्तु जनपदस्यार्थे’ अर्थात् पूरे जनपद के हित
के लिए अगर गाँव का हित बलिदान करना है तो कर दो। यह आज के नेताओं के लिए बड़ा सबक
है। ध्यातव्य है कि बेद व्यास के सामने जनपद से बड़ी इकाई नहीं थी लेकिन तुलसी के
सामने जनपद से बड़ा देश था देश की चर्चा करने वाला मध्यकाल में एकमात्रा कवि
तुलसीदास थे। इसलिए तुलसीदास हमारे राष्ट्रीय संस्कृति के उन्नायक हैं।
कागभुसुंडि केवल दलित से रामभक्त ऋषि ही नहीं हुए वे देश में नैतिकता
को प्रसारित करने वाले आचार्य भी हुए। गरूण जो स्वयं विष्णु के साथ रहते हैं, वे भी आकर कागभुसुंडि से
ज्ञान प्राप्त करते हैं और उनके सामने कई प्रश्न रखते हैं। रामचरित मानस के उत्तर
काण्ड के दो प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। पहला प्रश्न जब गरूण कागभुसुंडि से पूछते हैं कि सबसे बड़ा सुख क्या होता
है और सबसे बड़ा दुख क्या होता है? आज पूरा विश्व सुख को तलाश में और दुख से मुक्ति हेतु चिन्तित तब यह
प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाता है। तुलसी ने लिखा है- ‘नहिं
दरीद्र सम दुख जग माही’। दरिद्रता से बड़ा कोई दुख नहीं है।
तुलसी ने दरिद्रता देखी थी। अकबर द्वारा प्रताडित गाँव देखे थे। उन्होंने पूरे देश
को भूखा देखा था-
जायो कुल मंगन बधवनो बजायो सुनि
भयो परिताप ताप जननी जनक को
वारे ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन
जानता हौं चारि फल चारहु चनक को।
चार चने के लिए व्याकुल तन की पीड़ा है यह। पूरा देश जब भूखे मर रहा हो
तब तुलसी ने उसकी पीड़ा व्यक्त की-‘नहि दरिद्र सम दुख जग माही।’ इस
दरिद्रता का कारण था अकबर को द्वारा आर्थिक-शोषण। तुलसी ने सुख की व्याख्या में कहा कि सत्संगति से बड़ा कोई सुख नहीं
है। संत को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं-
'निज परिताप द्रवै नवनीता, परहित द्रवै सो संतु पुनीता'
संतो तो वह है जो दूसरों
के दुख से द्रवित होता है। गरूण का दूसरा प्रश्न था कि- मानस रोग क्या होता है? उत्तर काण्ड के कई कडवकों
में मानस रोग को समझाया गया है जैसे- लोभ, मद, मोह आदि। उन्होंने कहा- मोह सभी कष्टों का कारण है। अपनापन- और परायापन ही मोह
है। आज का समाज इससे गंभीर रूप से ग्रस्त है।
तुलसी की संस्कृति इस देश की संस्कृति है। इस देश के सम्मान की
संस्कृति है। चाहे बाल्मीकि का रामायण हो, वेदव्यास का महाभारत हो या तुलसी का रामचरित मानस ये
रचनाएँ स्त्री के सम्मान को केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं। सीता का सम्मान रामायण
और रामचरित मानस के केन्द्र में है, तथा द्रोपदी का अपमान
महाभारत के केन्द्र में है। इस देश ने कभी स्त्री का अपमान बर्दाश्त नहीं किया। आज
कल के बलात्कारियों और भोगवादियों के लिए यह बहुत बड़ा संदेश है कि यह देश स्त्री
का सम्मान देखना चाहता है और यह स्त्री का
अपमान कभी बर्दाश्त नहीं करता। यह युग-युग से चली-आती हुई संस्कृति है। अंत में
मैं मानस का यह दोहा पढूँगा-
कामिहि नरि पियारि जिमि लोभी प्रिय जिमि दाम
तिमि रघुनाथ निरन्तर ही- प्रिय लागहु मोहे राम
चारों पुरूषार्थों में गिराने वाले, अपसंस्कृति पैदा करने वाले दो ही तत्त्व हैं- काम और
दाम। आज के समाज की तमाम विकृतियाँ इन्हीं कारणों से हैं। लेकिन तुलसीदास का
साहित्य जिस संस्कृति को लेकर चला है उसमें काम और दाम के लिए बहुत कम स्थान है।
यह निवृत्ति के साथ-साथ प्रवृत्ति संस्कृति है जो राम के साथ धनुष-बाण लेकर चलती
है।
तुलसी की सांस्कृतिक चिन्ता तब तक अधूरी है जब तक आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सभी
परिप्रेक्ष्यों को समेंट न लिया जाए। दण्डी ने अपने ग्रंथ दस कुमार चरित में अनुभव
को महत्व देते हुए कहा कि-
यौवन, धन-सम्पत्ति, प्रभुता और अविवेक ये चार कारण होते
हैं, किसी, सांस्कृतिक पतन के लिए।
इनमें से एक कारण भी किसी सांस्कृतिक पतन के लिए काफी होता है। अंत में मैं यही
कहूँगा- विदित वेदतव्यस्तवम् अर्थात् जो जानना चाहिए वो आप सब जानते हैं।
प्रो. जय प्रकाश शर्मा, पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय
प्रस्तुति -डॉ. सत्यप्रकाश, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,अदिति महाविद्यालय
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
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