जनमानस को आलोकित करता ‘मानस’
भारतीय जनमानस को हिंदी साहित्य ने बहुत गहरे
से प्रभावित किया है। हिंदी साहित्य का पूर्व मध्यकालीन साहित्य तो पूरी तरह
जनमानस का साहित्य कहा जा सकता है। यह युग हिंदी के कई बडे़ रचनाकारों से आलोक
ग्रहण करता युग था। इस युग में कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की आराधना के साथ-साथ
तत्कालीन सामाजिक जीवन का दिशाबोध किया। जायसी आदि प्रेम कवियों ने अपने ब्रह्म की
आराधना का मार्ग भी भारतीय लोकजीवन व कथाओं के माध्यम से ढूँढा।
राम व कृष्ण भक्ति की भारत में अविरल परम्परा
रही है। कृष्ण और सूर प्रत्येक भारतीय के जनमन में बसे हैं। आज के भारतीय जीवन में
राम की जो छवि बनी है वह बहुत कुछ तुलसी और उनके काव्य द्वारा निर्मित छवि है।
कृष्ण की बाललीलाओं पर भारतीयजन भावविभोर होकर झूम उठता है, वह भी सूर की लेखनी का ही
प्रभाव है। राम व कृष्ण प्रत्येक भारतीय के घट-घट में बसे हैं। राम और रामराज्य की
कल्पना तुलसी की विशिष्ट निधि हैं। तुलसी ने राम के माध्यम से भारतीय पारिवारिक व
सामाजिक जीवन की सुदृढ़ नींव डाली हैं। उन्होंने लोकमंगल की बात करते हुए राजा व
प्रजा सभी को अपने दायित्वों का बोध कराया है। वास्तव में तुलसी व उनका ‘मानस’
भारतीय जनमानस के आलोक की गाथा है।
साहित्य जगत में राम काव्यधारा अति प्राचीन
है। इसका मूल उद्गम वाल्मीकि रामायण से माना जाता है। इसके पश्चात् रामकथा का
उल्लेख हमें महाभारत के वनपर्व,
शान्तिपर्व
आदि में मिलता है। तत्पश्चात बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में भी रामकथा का वर्णन मिलता
है। कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंशम्’ रामकाव्यधारा का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
हिन्दी साहित्य में गोस्वामी तुलसीदास ही इस काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं।
हिन्दी साहित्य जगत में रामकाव्य को आधार मानकर आचार्य केशवदास ने ‘रामचंद्रिका’, सेनापति ने ‘कवित्तरत्नाकर’, हृदयराम ने ‘हनुमन्नाटक’, प्राणचन्द चैहान ने ’रामायण
महानाटक’, गुरु गोविन्दसिंह ने
‘गोविन्द रामायण’, मैथिलीशरण गुप्त ने
‘साकेत’, अयोध्यासिंह
उपाध्याय ’हरिऔध’ ने ‘वैदेही-वनवास’ तथा बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने ‘उर्मिला’ नामक
ग्रंथों की रचना की।
गोस्वामी
तुलसीदास राम के अनन्य भक्त थे। उन्होंने राम-भक्ति को आधार मानकर विभिन्न ग्रंथों
की रचना की। ’रामचरितमानस’,
’विनय-पत्रिका’, ’कवितावली’ आदि उनके द्वारा
रचित विशिष्ट ग्रंथ हैं। उनके द्वारा रचित सम्पूर्ण साहित्य इतना विशिष्ट, सरस, प्रभावोत्पादक एवं गंभीर है
कि उनके अध्ययन मात्र से हम सम्पूर्ण रामकाव्यधारा से परिचित हो उठते हैं। रामचरित
मानस तो प्रत्येक भारतीय जन के हृदय में श्रेष्ठ स्थान लिए हुए हैं। तुलसी का यह
ग्रंथ भक्ति, राजनीति, धर्म, दर्शन, सामाजिक व्यवस्था, समरसता आदि के विषय में मत
प्रतिपादन करता है। उनका रामचरित मानस अपने रचनाकाल से आज तक जनमानस का मानस-मंथन
करते हुए जीवन के हर एक मोड़ पर उसका मार्गदर्शन कर रहा है। तुलसी ने जिस समाज की
कल्पना की थी, उसकी नींव भक्ति, सत्य, धर्म, न्याय, त्याग, बलिदान, सहिष्णुता एवं समरसता जैसे
गुणों पर आधारित थी। लोकमंगल उनका मूल ध्येय था, जिसे उनके सम्पूर्ण साहित्य में अभिव्यक्ति मिली है।
उनका कविता विषयक दृष्टिकोण बडा़ व्यापक था-
‘‘कीरति भनिति भूति भली सोई।
सुरसरि सम सब कह हित सोई।।’’
तुलसी
के हृदय में अपने आराध्य राम एवं उनकी जन्म भूमि अयोध्या के प्रति विशेष प्रेम एवं
श्रद्धाभाव विद्यमान हैं। वे लिखते हैं-
‘‘जद्यपि सब बैकुण्ठ
बखाना।
वेद पुरान विदित जगु नाना।।
वेद पुरान विदित जगु नाना।।
अवधपुरी सम प्रिय नहि सोउ।
यह प्रसंग जानहि कोऊ-कोऊ।।’’
यह प्रसंग जानहि कोऊ-कोऊ।।’’
‘रामचिरत मानस’ में तुलसीदास जी ने समरसता के भावों को विशिष्ट अभिव्यक्ति प्रदान की। उनका मत है कि समरसता की स्थापना में राजा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः जिस प्रकार शरीर में मुख भोजन ग्रहण करता है तथा विवेकानुसार शरीर के समस्त अंगों को उनका देय प्रदान करता है, ठीक उसी प्रकार राजा को भी निष्पक्ष भाव से समाज के सभी अंगों सवर्ण-अवर्ण, धनी-निर्धन आदि को समुचित संरक्षण एवं सम्मान प्रदान करना चाहिए।
‘‘राजा मुख सो चाहिए, खान पान को एक।
पालहि पोसहि सकल अंग,
तुलसी
सहित विवेक।।’’
और ठीक ऐसी ही व्यवस्था हमें रामराज्य में
दृष्टिगोचर होती है-
‘‘वयरू न कर काहू सन
कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।
राम प्रताप विषमता खोई।।
रामराज्य में समाज में समरसता विद्यमान थी। स्वयं राम इस बात हेतु सावधान रहते थे कि समाज के आमजन को भी उनके राज्य में वही प्रेम, सम्मान एवं अधिकार मिलना चाहिए जो किसी उच्च पदाशीन एवं उच्च कुलोत्पन्न व्यक्ति को मिलता हैं। अतः रामराज्य में समाज के हर वर्ग के प्रत्येक प्राणी का जीवन सुखमय था। किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं था-
‘‘दैहिक, दैविक भौतिक तापा।
राम राज काहुहि नहि व्यापा।
सब पर करहिं परस्पर
प्रीति।
चलहि स्वधर्म निरतश्रुति नीति।।’’
चलहि स्वधर्म निरतश्रुति नीति।।’’
जिस समाज में विषमता नहीं है, वहाँ सभी प्रकार के सुख, शान्ति, प्रेम, सद्भाव एवं सामाजिक समरसता सहज ही विद्यमान होती है।
‘बनराश्रम निज निज धरम, निरत वेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिभय
सोक न रोग।।
रामराज राजत सकल, धरम निरत नर नारि।
राग न रोष न दोष दुख, सुलभ पदारथ चारि।।
रामराज्य
की कल्पना करने वाले तुलसी के संबंध में ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए कि वे राजा के
समर्थक एवं प्रजा के उपेक्षक थे। तुलसी प्रजा के सच्चे पक्षधर थे। तुलसी ने हर कदम
पर प्रजा का समर्थन किया है। कुछ ऐसे ही भाव उनके राम प्रजा के सम्मुख प्रस्तुत
करते हैं। वे कहते हैं -
‘‘नहिं
अनीति नहिं कछु प्रभुताई।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सुहाई।।
जो अनीति कुछ भाखउँ।
तौ मोहि बरजेउ भय
बिसराई।।’’
रामराज्य की कल्पना करते हुए तुलसी ने उसकी
विशेषताओं का वर्णन किया। उन्होंने बताया कि प्रजा में पारस्परिक ऐक्य को भी
रामराज्य के वैशिष्ट्य के रूप में देख सकते हैं। ऐक्य के अभाव में सामाजिक समरसता
संभव नहीं है। रामराज्य में हमें सर्वत्र समरसता दिखाई पड़ती है। ‘‘वयरू न कर काहू
सन कोई, राम प्रताप विषमता
खोई।’’ और जहाँ समाज में विषमता नहीं होती है वहाँ सुख और शान्ति का सहज ही विकास
होता है। उस समाज में किसी प्रकार का भय रोग शोक आदि नहीं होते है। तुलसी
का मानना है कि जिस समाज में भय और आतंक नहीं होता है। वह समाज धर्म में रत रहता
हुआ नित नवीन तरक्की करता है। राजा के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए तुलसी कहते
हैं कि राजा कर संग्रह इस प्रकार करना चाहिए कि कर संग्रह भी हो जाए और जनता को
पता भी न चले। जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से जल सींचता है पर कोई यह लक्षित
नहीं कर पाता कि जल आकाश में कैसे गया। तुलसी कहते हैं कि-
‘‘बरखत हरषत लोग सब, करबत लखै न कोय।
तुलसी प्रजा सुभाग तें भूप भानु सो होय।।’’
राम सहज हृदय समपन्न, उदारमना एवं पतितपावन हंै।
उन्होंने अपने जीवन में समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को गले लगाया है। वे
मानव मात्र से सहज प्रेम करते हैं। कोल-किरातों के प्रति भी उनका स्नेह उसी प्रकार
का था जिस प्रकार का मित्रजनों एवं परिवारजनों के प्रति था। उनके सहज प्रेम के
कारण कोल-किरात भी उनके प्रति अगाध स्नेह रखते हैं। जब राम के चित्रकूट पहॅंँुचने
का समाचार उन्हें मिलता है तो वे हर्षित हो उनसे मिलने जाते हैं-
‘‘यह सुधि कोल
किरातन्ह पाई।
हरषे जनु नव निधि घर आई।
कंद मूल फल भरि-भरि दोना।
चले रंक जनु लूटन
सोना।।’’
अपने वनवास काल में जब राम की भेंट शबरी से
होती है तो उसे मातृसम आदर सम्मान देते हंै। जिस काल में शूद्र लोगों की छाया का
स्पर्श भी बुरा माना जाता था,
उस समय
राम उस शबरी के झूठे बेर खाने में भी नहीं हिचकिचाते हैं। शबरी का प्रेम एवं
निश्छल भक्ति भाव देखकर राम उसे सद्गति प्रदान करते हैं-
‘‘सोई अतिशय भामिनी
मोरे।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।
जोगि वृंद
दुर्लभ गति जोई।
तो कहुँ आज सुलभ भई सोई।।’’
वनवासी
निषादराज को राम ने भ्राता कहकर सम्बोधित किया। राम जब वनवास के पश्चात् अयोध्या
लौटते हैं तो निषादराज को विदा करते समय वे उससे कहते हैं कि -
‘‘तुम मम सखा भरत सम
भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।।
वचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ
चरन भरि लोचन बारी।।’’
एक
वनवासी को किसी राजपुत्र द्वारा गले लगाकर उसे अपने सहोदर के समान सम्मान एवं
प्यार देना सामाजिक उत्थान एवं समरसता की दिशा में श्रेष्ठ कदम साबित होता है।
कैकेयी एवं मंथरा जिनके कारण राम को वनवास भोगना पड़ा, उनके प्रति भी राम के मन में
किसी भी प्रकार की दुर्भावना नहीं आई विद्या अध्ययन एवं ईश्वर स्तुति में बाधा
देने वाले राक्षसों को नष्ट करने की शपथ लेकर उन्होंने समाज में शान्ति स्थापना
एवं शिक्षा को बढ़ावा देने का कार्य किया।
‘‘निशिचर हीन करो मही
भुज उठाई प्रण कीन्ह।’’
भरत जब चित्रकूट में राम से मिलने के लिए जाते हैं तो मार्ग में वे कोल-किरातों, वनवासियों एवं ग्रामीण जनों से राम के विषय में पूछते हुए आगे जाते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि राम कितने सहृदय हैं तथा समाज के उपेक्षित एवं निम्न समझे जाने वाले लोगों के प्रति भी उनके हृदय में कितना आदर है।
‘मिलहि किरात कोल
वनवासी। बैखानस बटु जती उदासी।।
करि प्रणाम पूछहिं जेही तेही।
केहि वन लखन राम वैदेही।।’’
‘‘भेंटत
भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिंहाहिं प्रेम कै रीति।।
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि
बरिसहि फूला।।
लोक वेद सब भाँति ही नीचा। जासु छाँह छुई लेइअ
सींचा।।
तेहि भरि अंक राम लघुभ्राता। मिलत पुलक
परिपूरित गाता।।’’
तुलसी
ने नारी जाति की पीड़ा, दुख, दर्द, वेदना को भी जाना था। पुरुष
प्रधान समाज में वे नारी को पूरा अधिकार दिलाने के पक्षधर थे। यद्यपि नारी को भी
उन्होंने अपनी मान-मर्यादा एवं कर्तव्य पथ का ज्ञान कराया है। उसके दुख-दर्द को भी
अनुभूत करते हुए लिखा है-
‘‘कत विधि सृजी नारी
जग माहीं।
पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं।।’’
विनय-पत्रिका
में वे उसे मातृस्वरूपा मानते हुए अपने उद्धार हेतु निवेदन भी करते हैं-
‘‘कबहुक अम्ब अवसर
पाई।
मेरी औ सुधी द्याइबी कछु करुण
कथा चलाई।।
तुलसी
के राम सम्पूर्ण मानव जाति के प्रति तो समरसता का भाव रखते ही है साथ ही वे
पशु-पक्षियों एवं वानरों आदि के प्रति भी वैसा ही सहज भाव रखते है। मानव जाति को
गले लगाने के साथ-साथ राम ने वानर राज सुग्रीव को भी अपना मित्र बनाया। विभीषण जो
उनके शत्रु का भाई था उसे भी अपना मित्र बनाने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं
किया। यह देख ही तुलसी का भक्त हृदय बोल पड़ा-
‘‘ऐसो को उदार
जगमाँही।
बिनु सेवा जो द्रवे दीन पर, राम सरिस कोऊ नाहीं।।’’
उन्होंने
माँसाहारी अधम पक्षी गिद्ध को भी वह दुर्लभ गति प्रदान की जैसी दुर्लभ एवं विशिष्ट
गति की चाह सिद्ध योगीजन करते हैं।
‘‘कोमल चित्त अति
दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला।।
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति
दीन्हीं जो जाचत जोगी।।’’
अतः हम कह सकते हैं कि तुलसी कृत रचितमानस एवं
उनके सम्पूर्ण साहित्य में सामाजिक समरसता का स्वर विद्यमान है। आचार्य शुक्ल
लिखते हैं कि- ‘‘यदि कोई पूछे कि जनता के हृदय पर सबसे अधिक विस्तृत अधिकार रखने
वाला हिन्दी का सबसे बड़ा कवि कौन है तो उसका एक मात्र यही उत्तर ठीक हो सकता है कि
भारत हृदय, भारत कंठ, भक्त चूड़ामणि गोस्वामी
तुलसीदास।’’ वास्तव में तुलसी का ‘मानस’ जन हृदय में मानवता के बीज अंकुरित कर
जनमानस की भावभूमि को उर्वर बनाता है। ‘मानस’ में वर्णित विचारों को जीवन में
अपनाकर हम आज के जीवन व समाज की समस्याओं का सही समाधान पा सकते हैं।
सहायक ग्रंथ-
1.
रामचन्द्र
शुक्ल, गोस्वामी तुलसीदास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012
2.
रामचन्द्र
शुक्ल, हिन्दी साहित्य का
इतिहास, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, 2004
3.
तुलसीदास:
एक पुनर्मूल्यांकन - सं. अजय तिवारी
4.
उदयभानु
सिंह, संपादक: तुलसी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014
5.
डॉ.
नगेन्द्र, संपादक, हिन्दी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा, 2000
6.
गोस्वामी
तुलसीदास, रामचरित मानस, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2012
7.
गोस्वामी
तुलसीदास, कवितावली, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2012
8.
गोस्वामी
तुलसीदास, विनय पत्रिका, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2013
9. डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना, हिन्दी के प्राचीन
प्रतिनिधि कवि, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा, 2006
10.
रमेश
कुंतल मेघ, तुलसी आधुनिक वातायन
से, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015
डॉ. नवीन नन्दवाना
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग
मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
संपर्क: 09828351618, 09462751618
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
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