कविताएं/ सुबोध श्रीवास्तव
चुका नहीं है आदमी..!
--------------------------
बस,
थोड़ा थका हुआ है
अभी
चुका नहीं है
आदमी!
इत्मिनान रहे
वो उठेगा
कुछ देर बाद ही
नई ऊर्जा के साथ,
बुनेगा नए सिरे से
सपनों को,
गति देगा
निर्जीव से पड़े हल को
फिर, जल्दी ही
खेतों से फूटेंगे
किल्ले
और/चल निकलेगी
ज़िन्दगी
दूने उत्साह से|
हां, सचमुच
जीवन के लिए
जितना ज़रूरी है
पृथ्वी/जल/नभ
अग्नि और वायु
उतनी ही ज़रूरी है
गतिमयता,
जड़ता-
बिलकुल गैरज़रूरी है
सृष्टि के लिए..!
----
----
शायद
------
सच में
दूर कहां जा पाता है
किसी से
एकाएक हाथ छुड़ाके
नज़रों से ओझल हो जाने वाला..!
याद है मुझे
आंगन में-
खुशी से चहचहाती
गौरैया
नन्हें बच्चों के संग
सब कुछ भूल जाती थी
शायद!
बच्चों ने जीभर कर
दाना चुगा उससे,
नीले आकाश में
पीगें भरना भी सीखा
फिर, एक रोज
न जाने क्यों
देर शाम तक
नहीं लौटे वे।
गौरैया-
अब कहीं नहीं जाती
और
आंगन को भरोसा है कि
बच्चे
फिर आएंगे/लौटकर
चहकेंगे चिड़िया के संग!
----
----
शब्द को बना रहने दो..!
----------------------------
सुनो!
दुनिया को
निःशब्द मत होने देना
कभी..
सृष्टि के अस्तित्व के लिए
शब्दों का
बना रहना बहुत ज़रूरी है।
--
--
उसकी चुप
-------------
(मदर टेरेसा का शव देखने की स्मृति)
शहर की
ह्रदय विदारक चीखों से
ज्यादा असहनीय थी
उसकी चुप|
सबकी तरह
उस पार्थिव की
चुप
न रोई/न दहकी
न छटपटाई
विदा के क्षण
लेकिन-
सबसे अलविदा की मुद्रा
भेद गई छाती
अर्जुन के बाणों से छलनी होते
गंगापुत्र के/आशीर्वचनों की तरह।
अदृश्य काया-
तुम्हारा न होना
बहुत सालता है मुझे
ठीक उसी तरह
जैसे-
तुमसे/कभी देखा न गया
धरती की संतानों का
अभावों के बीच सिसकना।
----
सुबोध श्रीवास्तव,
'माडर्न विला', 10/518,
खलासी लाइन्स,कानपुर (उप्र)-208001.
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
एक टिप्पणी भेजें