भारतीय मनीषियों ने पुराकाल से ही काव्य के उद्देश्यों में जन-कल्याण और सत्य-शिवम्-सुन्दरम् के आदर्श की प्रतिष्ठा द्वारा साहित्य के सामाजिक सरोकार को एक सुदृढ़ पीठिका पर स्थापित किया है। आदि आचार्य भरत ने नाटक को दुःख शोक और श्रम के द्वारा पीड़ित जनों के लोक-संताप को, विभ्रान्ति देने वाला कहा तो, आचार्य मम्मट ने ‘शिवतेरक्षतये’ अर्थात् त्रिविध् ताप संताप का निवारण करने वाला कहकर इसी तथ्य को पुष्ट किया। महाकवि तुलसी जब अपनी रामकथा को ‘मंगल-करनि कलि-मल हरनि’ कहकर उसे सुरसरि के समान सभी का कल्याण करने वाली कहते हैं, तब साहित्य के सामाजिक-सरोकार को स्वीकार कर, वहीं परंपरा एक व्यापक आधार ग्रहण करती है।
जिस युग परिवेश में गोस्वामी तुलसी ने पूर्व प्रतिष्ठित और जन प्रचलित रामकथा के माध्यम से लोकमंगलकारी सत्य धर्म की प्रतिष्ठा का संकल्प आरम्भ किया, उसकी स्थिति बड़ी विलक्षण थी। एक ओर राजनैतिक और आर्थिक पराभव से विकल जनता निराश थी। दूसरी ओर भोले-भाले लोकमानस को यह जताया जा रहा था कि उनकी सभी विपदाओं का कारण वेद, पुराण और शास्त्र ग्रन्थों में प्रतिष्ठित मान्यताएं है। तीसरी ओर विद्वत वर्ग द्वारा हजारों साल पुरानी संस्कृत शास्त्र रचना की परिपाटी से निकलकर लोकभाषा में प्रणयन करना निंदनीय ठहराना था। ऐसी परिस्थिति में तुलसी जैसे लोकचेता कवि ने इस सच्चाई को रेखांकित किया कि आम जनता को चाहिए- सत्य धर्म और मर्यादावादी आचरण।
तुलसी ही पहले कवि थे जिन्होंने मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए समाज में लोकमंगल की स्थापना की। उनकी दृष्टि अत्यन्त व्यापक थी। वे व्यक्तिगत साधना को जितना महत्व देते हैं उतना ही लोक धर्म को भी देते हैं। इसलिए उन्होंने अपनी काव्य रचना का मूल उद्देश्य ‘लोकमंगल’ का विधन करना स्वीकार किया है।
कीरति भनिति भूति भल सोई।
सुरसरि सम सब कहं हित होई।।
अर्थात् कीर्ति, कविता और ऐश्वर्य वही अच्छा होता है। जो गंगा के समान सबका हित करने वाला हो। जो कविता लोकमंगल का विधान नहीं करती, जिसे पढ़ने के बाद मन में सद्वृत्तियाँ जागृत नहीं होती। वह भला किस काम की। तुलसी ने यहां यहीं व्यंजना की है।
आचार्य रामनन्द्र शुक्ल ने लोकमंगल की दो अवस्थाएँ स्वीकार की हैः-
1लोकमंगल की सिद्धावस्था: उपभोग पक्ष
2लोकमंगल की साधनावस्था: प्रयत्न पक्ष
लोकमंगल की सिद्धावस्था को लेकर चलने वाले कवि प्रेम को ही काम का बीज भाव मानते है। प्रेम द्वारा ‘पालन’ और ‘रंजन’ दोनों संभव है। वात्सल्य भाव द्वारा ‘पालन’ तथा दाम्पत्य भाव द्वारा ‘रजंन’ का विद्यमान होता है। महाकवि कालिदास, रवीन्द्रनाथ टैगोर और जयशंकर प्रसाद आदि कवि इसी परम्परा का निर्वाह करते हैं।
लोकमंगल की साधनावस्था को लेकर चलने वाले कवि ‘करूणा’ को ही काव्य का बीज भाव मानते है। शायद इसीलिए भवभूति ने करूण रस को ही एकमात्र रस मानते हुए घोषणा की है - एको रसः करूणः। महर्षि बाल्मीकि की रामायण का प्रथम श्लोक ही करूणा से निष्णात है। करूणा की गति ‘रक्षा’ की ओर होती है और प्रेम की ‘रंजन’ की ओर अगर देखें तो लोक में प्रमुखता रक्षा को ही दी जाती है। ‘रंजन’ का अवसर बाद में आता है। अतः महाकवि तुलसीदास भी लोकमंगल की इसी साधनावस्था को लेकर चलने वाले कवि हैं इसलिए उनके काव्य का बीज भाव करूणा ही ठहरता है। करूणा भी निजी ‘करूणा’ नहीं। ‘करूणा’- ऐसी जिसकी गति रक्षा की ओर जाती है। अगर श्री राम केवल अपनी पत्नी की प्राप्ति के लिए असुर रावण के साथ युद्ध करते तो वह समाज के लिए कोई प्रेरणादायक घटना न होती और न ही उससे समाज का कोई कल्याण था। लेकिन हम देखते हैं कि पूरी राम कथा दाम्पत्य-प्रेम की प्रेरणा से प्रकट होकर विशाल मंगलोन्मुखी गति में समाहित हो जाती है। व्यक्ति विशेष की ‘करूणा’ लोक के प्रति ‘करूणा’ में बदल जाती है और राम अपनी पीड़ा नहीं लोक की पीड़ा और विध्न दूर करते हैं।
सीता के वियोग में राम जंगल-जंगल भटक रहे हैं, विलाप कर रहे हैं तो वह निजी वियोग भर नहीं है, बल्कि उसके पीछे उद्देश्य लोकमंगल ही है। वह जहाँ-जहाँ वन में गये, किसी न किसी का उद्धार किया है या किसी के कष्टों का निवारण किया है। रावण से युद्ध उन्होंने केवल अपनी पत्नी सीता को प्राप्त करने के लिए ही नहीं किया बल्कि उनके समस्त कर्म मंगलोन्मुखी गति में समहित हो जाते हैं। तभी उनकी करूणा लोक की रक्षा के लिए करूणा में बदल जाती है। राम अपनी पीड़ा नहीं, लोक की पीड़ा दूर करते हैं। तभी वह मंगलदायक है और आनंद दायक है।
आनंद को मंगल की सिद्धि माना गया है। अर्थात् सुख प्राप्त होना ही मंगल है। माधुर्य, सुन्दरता, उल्लास और खुशी यह सब आनंद के उपादान है। अनेक कवि इन उपादानों को ही अपने काव्य का विषय बनाते हैं। लेकिन जो शुद्ध कवि होता है। वह आनंद के साथ-साथ उन पीड़ाओं और बधाओं का भी उल्लेख करता है। जो आनंद प्राप्ति से पहले उनके जीवन में आये हैं इन बाधाओं को पार कर जो खुशी मिलती है।, वही वास्तव में मंगलकारी है। जीवन की विपरीत परिस्थितियों, संघर्ष के क्षणों का जो कवि अपने काव्य में चित्रण करता है, वही सच्चा कवि है। सही मायने में लोकधर्मी कवि वह है जो संसार के क्लेश, अमंगल और अनाचार को भी सामने रखता है।
श्री राम का जीवन पल-पल संघर्ष में बीता। इन्तजार था राजतिलक का, मिल गया बनवास। बनवास में चाह सीता का संयोग, मिल गया वियोग। युद्ध समाप्ति के बाद सीता बननी थी महारानी। हाय ही विंडबना! वह बन गई निर्वासिनी। राम के जीवन के संघर्ष कम नहीं हुए, लेकिन वह न थके, न रूके। हृदय को मजबूत किए कर्म करते रहे।
मनुष्य के हृदय के दो पक्ष होते हैं – मधुर और कठोर। काव्य की सार्थकता इसमें है कि जब दोनो पक्षों के समन्वय के बीच मंगल या सौन्दर्य का विकास करे। अगर कथानक की प्रकृति मंगल की ओर है तो उससे प्रेरित अनेक भाव कठोर होने पर भी सुन्दर प्रतीत होते हैं। क्योंकि श्रीराम की मूल प्रवृति है- मंगल की ओर इसलिए वह रावण का भी वध् करते हैं, तो उसमें है- मंगल का विधान। क्योंकि रावण का वध असत्य पर सत्य की ओर बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है।राम के सेवक हनुमान रावण की सोने की लंका ध्वस्त कर देते हैं। हर तरफ हाहाकार मचा है। रानियों को अपने वस्त्रों तक की सुध नहीं है। देखिए ‘कवितावली’ से एक चित्र:-
जहाँ तहाँ बुबुक बिलोकी बुबुकारी देत।
जरत निकेतु, धवौ धवौ लागि आगि रे।
कहाँ तातु मातु, भ्रात-भगिनी, भमिनि-भाभी
ढ़ोटा छोटे छाहेरा अभागे मोडे भागि रे ।।
हाथी छोरौ, घोरा छोरौ, महिष-भूषन छोरौ ।
छेरी छोटौ, सौवे सो जगावो, जागि-जागि रे ।
तुलसी बिलोक अकुलानि जातुघानी कहैं,
बार-बार कहयौ पिय। कपि सौ न लागि रे।
प्रसंग रहित इस पद को हम पढ़ेंगे, तो हमारी सहानुभूति महारानियों, उनके पुत्रों और राजमहल वासियों के साथ होगी। लेकिन जब रावण और उसके भाईयों द्वारा ऋषियों, मुनियों, देवताओं और लंकावासियों पर किए गए अत्याचार, सीता अपहरण, दूत हनुमान का अनादर आदि प्रसंग सामने आने पर पाठक या श्रोता वर्ग सोने की लंका के ध्वस्त होने में ही मंगल देखता है। यह है तुलसी के काव्य का लोकमंगलकारी विधान जहाँ अमंगल भी अमंगल नहीं, मंगलकारी है। स्पष्ट है कि काव्य उत्कर्ष केवल प्रेम की व्यंजना नहीं हो सकता। क्रोध् आदि उग्र और प्रचण्ड भावों में भी सौन्दर्य का विधान होता है।
तुलसी दास ने केवल कठोर और कोमल हृदय पक्ष का ही समन्वय नहीं किया बल्कि अपने समय में व्याप्त धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवम् दार्शनिक क्षेत्रों में व्याप्त विषमताओं को दूर करते हुए प्रत्येक क्षेत्र में समन्वय का अनूठा प्रयास किया। ‘रामचरितमानस’ में तुलसी ने शैव और वैष्णव मतों का समर्थन करते हुए शंकर जी द्वारा राम की स्तुति कारवाई हैः-
तुलसी दास ने केवल कठोर और कोमल हृदय पक्ष का ही समन्वय नहीं किया बल्कि अपने समय में व्याप्त धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवम् दार्शनिक क्षेत्रों में व्याप्त विषमताओं को दूर करते हुए प्रत्येक क्षेत्र में समन्वय का अनूठा प्रयास किया। ‘रामचरितमानस’ में तुलसी ने शैव और वैष्णव मतों का समर्थन करते हुए शंकर जी द्वारा राम की स्तुति कारवाई हैः-
जय राम रमा रमनं समनं।
भवताप भजाकुल पाहिजनं ।।
भवताप भजाकुल पाहिजनं ।।
अवधेश सुरेस रमेश विभो।
सरनागत मागत पाहि प्रभो।।
सरनागत मागत पाहि प्रभो।।
श्री राम भी शंकर का गुणगान करते हुए कहते हैं-
और एक गुपुत मत, सबसि कहउं कर जोति ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि।।
यहाँ श्रीराम कहते हैं कि शिव की भक्ति के बिना कोई मेरी भक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
इसी प्रकार वे निर्गुण और सगुण का भेद समाप्त करते हुए कहते हैं जो परमात्मा निर्गुण, निराकार है, वहीं भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर सगुन हो साकार हो जाता हैः-
अगुन अरूप अलख आज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई।
ज्ञान और भक्ति का भेद मिटाते हुए उनका कथन हैः-
भगतिहिं ग्यानहिं नहि कुछ भेदा।
उभय हरहिं भव संभव खेदा।
उभय हरहिं भव संभव खेदा।
उनकी इसी समन्वयवादी भावना को दृष्टिगत रखते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं ‘‘लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके। तुलसी का सम्पूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।’ दरअसल तुलसी की कविता में लोकमंगल का जो विधान है, वह उसकी सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से उद्भुत है। तुलसी ने जिस युग में काव्य रचना की वह मुगलों का शासन-काल था। समाज में धर्म लुप्त हो रहा था, अधर्म का बोलबाला था। तुलसीदास ने निम्नलिखित पद में कलियुग के लोगों के आचरण का बखान किया है। वह कहते हैं कि कलियुग में सभी लोग अधर्मी हो जाते हैं, दूसरे का धन हरण करने वाले बुद्धिमान कहे जाते हैं। यहां पर अशुभ वेष धारण करने वाले, अमंगल भूषण पहनने वाले भक्ष्य और अभक्ष्य अर्थात् मांस मदिरा का सेवन करने वाले ही योगी कहलाते हैं। वे ही सिद्ध पुरूष समझे जाते हैं। और ऐसे ही लोगों की कलियुग में पूजा होती है।
असुभ भेष भूषण ध्रें, भच्छाभच्छ जे खांहि।
तेई जोगी तेई सिद्ध नर पूज्य कलियुग माँहि।।
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेई ।
मन क्रम वचन लबार तेइ बकता कलिकाल मंहु।।
‘उत्तर काण्ड’ में वर्णित यह कलियुग का वर्णन वास्तव में तुलसी के अपने समय का वर्णन है। धर्म से विमुख होकर लोग सुख की आकांक्षा करे यह तो असंभव है। इसलिए उन्होंने धर्म पालन पर विशेष बल दिया। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करता हुआ। समाज में सदाचार को बढ़ावा देता हुआ जीवन यापन करे तो निश्चय ही लोकमंगल का विधान होता है। उन्होंने व्यक्ति धर्म , नारी धर्म , पति धर्म और मानव धर्म आदि का उल्लेख भी ‘रामचरित मानस’ में किया है।
संसार में लोक व्यवहार सम्बन्धी उपदेश देने वालों का उतना महत्व नहीं है, जितना उन कार्यों को किसी चरित्र के रूप में प्रस्तुत करके मन को उसकी ओर प्रवृत्त करने वाले कवियों का है। तुलसी ने अपने उपदेशों को महान चरित्र नायक राम के द्वारा व्यवहार में उपस्थित किया इसलिए उनके अधिकांश काव्य के नायक श्री राम ही रहे। तुलसी ने अपने काव्य में ‘राम’ के एक ऐसे स्वरूप की व्यंजना की है कि उनके द्वारा किए गए शुभ कर्मों से पाठक का पूर्ण तादात्म्य हो जाता है। परिणामतः वे शुभ कार्यों की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं।
श्री राम भारतीय संस्कृति एवम् सभ्यता की आदर्श एवम् जीवन्त प्रतिमा हैं। ये धर्म एवम् नैतिकता के मानदण्ड हैं। उनमें त्याग, विराग, लोकहित और मानवता का चरम उत्कर्ष देखा जा सकता है। वे सर्वगुण सम्पन्न, सर्वशक्तिमान एवं शीलवान नायक के रूप में प्रतिष्ठित है। वे मानवता के पोषक एवं उच्च आदर्शों के प्रतीक हैं। तुलसी दास कहते है कि संसार के समस्त श्रेष्ठ गुण राम में विद्यमान है सच तो यह है कि वे निरूपम है। अमिट गुणों के भण्डार है, करूणा के भण्डार है। इसलिए व्यक्ति को सदा उनका भजन करना चाहिए -
निरूपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि कहत अति लघुता लहै।।
रामु अमित गुन सागर, थाह कि पावइ कोई ।
संतन्ह सन जस किछु, सुनेहु तुम्हहिं सुनायउं सोइ ।।
भाव वस्य भगवान सुख, निधन करूना भवन ।
तजि ममता मद मान, भजिउ सदा सीता रवन।।
कविता केवल मनोरंजन के लिए नहीं होती। अपितु वह उदारता, वीरता, त्याग, एवम् दया आदि कर्मों एवं मनोवृत्तियों का उल्लेख भी करती है। प्रभु श्री राम स्वयं भरत को परोपकार के विषय में कहते हैं:-
परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
परपीड़ा सम नहीं अधिमाई।
परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
परपीड़ा सम नहीं अधिमाई।
श्रीराम अपने राज्य, यहां के निवासियों से बेहद प्यार करते हैं। यह अयोध्या नगरी के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करते हुए कहते हैं:-
1 अवधपुरी सम प्रिय नहीं सोऊ।
यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।’’
यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।’’
2 ‘‘अति प्रिय मोहि इहाँ के वासी,
मम धमदा पुरी सुख रासी।
मम धमदा पुरी सुख रासी।
इस संसार में तीन गुण विद्यमान है। सत्व, रजस, और तमस । लोक में मंगल का विधान तभी हो सकता है जब तमोगुण और रजोगुण सत्वगुण के अधीन होकर उसके इशारे पर चले। तुलसी के काव्य में कथा नायक श्री राम ही नहीं अन्य अधिकांश पात्र भी सत्वगुण से प्रेरित हैं। राम आदर्श पुत्र हैं जो पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करना अपना परम कर्तव्य मानते हैं। सीता आदर्श पत्नी है। हनुमान सेवक धर्म की जीती जागती प्रतिमूर्ति है। वे राम के सच्चे सेवक और भक्त हैं तथा निष्काम भाव से प्रभु की आज्ञा पालन को तत्पर रहते हैं। भरत ने अपनी स्वार्थिनी माता को त्यागकर राम को लोकधर्म का प्रतिनिधि मानते हुए जिस प्रकार का आचरण किया वह युगों-युगों तक भातृप्रेम का आदर्श स्थापित करता रहेगा। राम और सुग्रीव ने एक दूसरे की मित्रता को बखूबी निभाया। इस सन्दर्भ में तुलसी ने लिखा है-
जे न मित्र दुख होहि दुखारी,
तिनहिं विलोकत पातक भारी।
तिनहिं विलोकत पातक भारी।
अर्थात् आदर्श मित्र वही है, जो अपने मित्रा का दुख अपना दुख मानकर उसके निवारण का प्रयास करता है। साफ है कि सभी पात्र सत्वगुण से प्रेरित है। प्रत्येक पात्र के चरित्र के माध्यम से लोक को शिक्षा दी गई है। अगर कुछ बुरे पात्र है भी तो वह संसार में लोकमंगल की स्थापना में ही सहायक होते हैं । जैसे माता कैकेयी और दसानन रावण, उसके पुत्र तथा भाई ।
निश्चय ही तुलसी के राम ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ हैं और उनका काव्य जन कल्याणकारी हैं। मंगल का विनाश करने वाला एवं मंगल का विधान करने वाला है,तुलसीदास ने कहा है:-
एहि कलिकाल न साधन दूजा।
जोग जग्य जप तप व्रत पूजा।
जोग जग्य जप तप व्रत पूजा।
रामहिं सुमिरिउ गाइऊ रामहिं।
संतत सुनिऊ राम गुन ग्रामहिं।।
संतत सुनिऊ राम गुन ग्रामहिं।।
अर्थात् इस कलियुग में कोई अन्य साधन नहीं है। योग, यज्ञ, तप, व्रत, पूजा, के स्थान पर रामकथा कहने सुनने से ही व्यक्ति को उत्तम फल की प्राप्ति होती है। तुलसीदास की बात से सहमत होते हुए प्रत्येक कलियुग वासी को चाहिए कि वह राम कथा कहे और सुने तथा सुख पूर्वक आनन्दमय जीवन व्यतीत करें ।
(डा. कमलेश शर्मा, रोहिणी, दिल्ली-85)
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
एक टिप्पणी भेजें