तुलसी की काव्य-कला
तुलसीदास द्वारा ग्रहण किये गये विषय अत्यंत ही व्यापक हैं। उन्होंने जीवन
के किसी एक अंग विशेष को ग्रहण न कर उसके समचे रूप का चित्रण किया। उनकी पहुंच
मानव-जीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्म दशाओं और वृत्तियों तक थी। उन्होंने राम जीवन के
व्यापक आदर्श से वृत्तियां तक थी। उन्होंने राम जीवन के व्यापक आदर्श से समस्त
उत्तरी भारत के जीवन को राममय बना दिया। उनके काव्य में एकान्तिक रूप से भक्ति ही
नहीं, सामाजिक पक्ष भी
निरन्तर चलता रहता है। उन्हें लोक-धर्म और लोक मर्यादा का हमेशा ही ध्यान रहा है।
उनके काव्य में प्रबंध सौष्ठव, चरित्र-चित्रण और कलात्मक सौन्दर्य पूर्ण परिपाक को पहुंचे हुए हैं। यह
साहित्य जगत की एक महत्वपूर्ण घटना है तथा एक अद्भुत चमत्कार है। तुलसी दास जी
स्वयं महान है उनका काव्य सम्बन्धी आदर्श स्वान्तः सुखाय एवं कीरति भनिति मति भलि
सोई, सुरसरि सम सब कहूँ हि होय महान हैं अतः उनके काव्य भी
महान है। उनमें हिन्दी काव्य की सम्पूर्ण शक्ति साकार हो उठी है। उनमें व्यक्तिगत
साधना के साथ-साथ लोक-धर्म भी बराबर चलता रहा है।
तुलसीदास जी के मुख्य ग्रंथ रामचरितमानस, बरवै रामायण, राल लला नहछु, जानकी मंगल, पार्वती मंगल आदि है। जिनकी रचना इन्होंने अवधी भाषा में की। इनके अलावा
विनय पत्रिका, गीतावली, कविहावली की रचना ब्रज भाषा में की।
कला का अर्थ एवं स्वरूप
पूर्वी और पश्चिमी साहित्य में कला के सम्बन्ध में अनेक प्रकार से
विचार-विमर्श किया गया है। पूर्व की अपेक्षा पश्चिमी साहित्य में इसकी विवेचना
अधिक हुई है। कामसूत्र में 64 कलाओं का उल्लेख किया गया है, जिनमें गीत, वाद्य, नृत्य, नाट्य, काव्य, आशु कविता, प्रहेलिका आदि का उल्लेख मिलता है। पूर्वी विद्वानों ने कला का स्वरूप
अत्यन्त व्यापक धरातल पर प्रतिष्ठित करके व्यावहारिक संसार में प्रत्येक कार्य को
कला की संज्ञा दी है साथ ही विचार और वाणी को भी उन्होंने कला का मुख्य विषय
प्रतिपादित किया है। मनुष्य द्वारा निर्मित प्रत्येक वस्तु का सम्बन्ध कला से है।
एक प्रसिद्ध विद्वान समस्त विश्व को कला मानता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि
मनुष्य के वे सभी कार्य जिसमें कुछ चतुराई या कौशल हो, कला है।
संस्कृत साहित्य में ज्ञान को दो भागों में विभाजित किया गया है- 1. विद्या, 2. उपविद्या विद्या के अन्तर्गत काव्य को रखा गया है और उपविद्या के अन्तर्गत
अन्य सभी कलाएं आती हैं।शब्द और अर्थ में सहभाव को बताने वाला साहित्य विद्या कहलाता है। विद्या और
उपविद्या का विभाजन, ज्ञान और विज्ञान के
धरातल पर किया गया है। क्योंकि विद्या का सम्बन्ध ज्ञान से और उपविद्या का सम्बन्ध
विज्ञान से होता है। भारतीय काव्यशास्त्र में क्रियायें कलात्मक होती हैं। इसलिए
भारतीय कला का जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है और यह जातीय जीवन के अनुभवों का एक चित्र
मात्र होती है।
भारतीय कला में सत्यं, शिवं, सुन्दरं, की भावना किसी न किसी रूप में अवश्य ही विद्यमान रही
है। यही कला का सत्य है। जिसको दृष्टि में रखकर एक भारतीय विचार ने कहा है कि कला
सत्यं, शिवं, सुन्दरं से सजी हुई कामिनी के समान है। वह सृष्टि है, सौन्दर्य का साकार स्वरूप भी है।
पाश्चात्य दार्शनिक अनुकरण की प्रवृत्ति से कला का उदय मानते हैं। प्रत्येक
मनुष्य अपने चारों ओर प्राकृतिक सौन्दर्य को देखता है। जिससे कला का विकास होता
है। वास्तव में कला सृजन अनुकरण की ही एक प्रक्रिया है। और कला सौन्दर्य प्राकृतिक
सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब है।
कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने कला को, बाह्य जगत में अव्यक्त रूप से निहित बुद्धि अथवा
अध्याय तत्व को व्यक्त करने की क्रिया भी कहा है। पाश्चात्य कला में कल्पना और
भावना का संयोग अधिक दिखलाई पड़ता है। किसी भी कला में अभिव्यक्ति को सदैव उसकी
प्रक्रिया तथा कार्य में एक प्रमुख तत्व माना जाता है। इस प्रकार कला समाज और जीवन
का प्रतिबिम्ब है। ‘‘पाश्चात्य विद्वानों
की यह भी मान्यता रही है कि जिस कला में मूर्त आधार जितना ही कम होगा वह कला उतनी
ही उच्च कोटि की होगी। तात्पर्य यह है कि साहित्य को सर्वोत्कृष्ट कला के रूप में
स्वीकार किया गया है। साहित्य में मूर्त आधार नहीं होता, अर्थ की रमणीयता ही इसका प्रधान गुण माना जाता है।''1[1]
भारतीय कला और पाश्चात्य कला में कुछ असमानता भी
दिखलाई पड़ती है। भारतीय कला की मुख्य विशेषता आनन्द की उपलब्धि है जबकि पाश्चात्य
कला सुख कला की मुख्य विशेषता मानते हैं। भारत में आत्मा ही रूप को वहन करती है
जबकि अधिकांश पश्चिमी कला में रूप ही आत्मा के उस अंश को वहन करता है जो कुछ वहां
विद्यमान रहता है।
पाश्चात्य कला बाह्य रूप पर बल देती है, उसके द्वारा यह एक कलात्मक दृष्टि से युक्त
अन्तःप्रेरणा की ओर ध्यान आकर्षित करती है जिनका लक्ष्य सौन्दर्य की किसी दिव्य
शक्ति को प्रकट करना होता है और इसलिए वह हमें एक ऐसी चीज प्रदान करती है जो
सौन्दर्य-बोधात्मक निरे इन्द्रिय सुख से कहीं अधिक होती है। वह भौतिक रूप को उस
वस्तु के मुकाबले गौण स्थान प्रदान करती है। भारतीय कला यदि एक पक्ष पर संसार में
अपना गौरव रखती है। तो पाश्चात्य कला दूसरे पक्ष पर। कला के वास्तविक रूप तक
पहुंचने के लिए हम कला के अंगों पर भी एक दृष्टिपात करते हैं।
भारतीय दृष्टिकोण
‘वाचस्पत्यम्' में लिखा है कि कला स्त्रीलिंग ‘‘कलपति कलते वा कर्तरिअन् कल्पते ज्ञायते कर्मणि अच
वा।''[2]
संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर में कला शब्द का अर्थ कार्य कौशल से लिया गया
है। ‘‘कला-किसी कार्य को भली-भांति करने का कौशल, फन-हुनर।''[3]
भारतीय ग्रंथों में कला शब्द का प्रयोग अति प्राचीन काल से ही मिलता है।
चौसठ कलाएं एवं सौलह कलाएं विविध चातुरी का ही निर्देश करती है। अमर कोशादर्श में
भी कला को शिल्प या कारीगरी के अर्थों में प्रयुक्त किया गया है।[4]
‘हिन्दी विश्वकोश' में भारतीय परम्परा के अनुसार कला का अर्थ कौशल से
लिया गया है और यूरोपीय परम्परा में भी कौशल महत्वपूर्ण है। भारतीय परम्परा के
अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपीय
शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्वपूर्ण माना है।[5]
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कला का अर्थ रचना
अर्थात् वह कृत्रिम है, कला उस कार्य में जो मनुष्य करता है, कौशलपूर्ण मानवीय कार्य को कला की ही संज्ञा दी जाती
है। कौशलहीन या भद्दे ढंग से किये गये कार्यों को कला में स्थान नहीं दे सकते। इस
प्रकार कला के स्वरूप पर विचार करने के बाद हम कह सकते हैं कि जिस कार्य में थोड़ी
सी कुशलता उपेक्षित हो उसकी को कला कह सकते हैं। कला में कौशल का स्थान शरीर में
मुख मण्डल के समान है। कला का अर्थ रचना कौशल से लेने पर सभी विचार स्पष्ट हो जाते
हैं।
डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय का मत है कि ‘‘संस्कृत भाषा में कला की सिद्धि ‘कल' धातु से हुई है जिसका अर्थ संख्यान है। संख्यान शब्द की सिद्धि ‘ख्या' धातु से न होकर जिसका अर्थ ‘कथन’ (कहना) घोषणा करना या
सम्वादन होता है। चक्षिङ व्यक्ता या वाच्य से है जिसका अर्थ स्पष्ट वाणी में प्रकट
होता है। चक्षिङ् के स्थान पर ‘ख्या' आदेश से हो जाता है।
इसका अर्थ अवधानपूर्वक देखना भी है। इस प्रकार कला शब्द का अर्थ वह मानवीय क्रिया
है जिसका विशेष लक्ष्य ध्यान दृष्टि से देखना, गणना अथवा संकलन करना, मनन करना एवं स्पष्ट रूप से प्रकट करना है।
कुछ प्रसंगों में 'कला' शब्द का अर्थ कलाकृति भी होता है। इस प्रकार इन परिभाषाओं के आधार पर हम कह
सकते हैं कि
1. कला कर्म करने का कौशल होता है।
2. कला द्वारा रमणीयता का समावेश होता है।
3. कला कर्म में अवधानपूर्वक देखना, संकलन करना और अभिव्यक्त | करना अनिवार्य होता है।
चित्रकला में रंग और रेखाओं को काव्य में शब्द, अलंकार, वक्रोति आदि को यथास्थान नियोजित करना कलाकार का कर्तव्य है।
महाकवि दण्डों ने दृत्य गीत आदि को कला माना है।
नृत्य गीत, प्रभृतयः कला कामार्थ
संश्रयाः ।।
अभिनव गुप्त ने कला को गाना बजाना आदि अर्थों में
प्रयुक्त किया है। “कला गीत वाद्यादिका’’8
भर्तृहरि ने भी काव्य को भिन्न-भिन्न मानकर कला की सार्थकता और उपयोगिता के
विषय में लिखा है
साहित्य संगीत कला विहीनः । साक्षात्पशुः पुच्छ विषाण हीनः।
6 डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय-स्वतंत्र कला शास्त्र, पृ. 5
7 दण्डी-काव्यादर्श, पृ. 67 ।
8 अभिनव गुप्त-ध्वन्यालोक, पृ. 70
जीवन के समुचित और सम्पूर्ण विका में कला का योगदान और महत्व अमूल्य है।
कला, शिष्ट, संयत, सुन्दर और कल्याणमयी
विधि का विस्तार करती है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कला और कुछ नहीं मात्र
अभिव्यक्ति कौशल है। कलाकार की विचारधारा, अनुभूतियां भाव आदि किसी न किसी रूप में तो व्यक्त
होते हैं लेकिन, इन्हीं भाव, विचार और अनुभूतियों को व्यक्त करने की कुशलता का ही
दूसरा नाम कला है।
वास्तव में कला का अर्थ कारीगरी से है। जिस स्थल पर
सौन्दर्य के समस्त उपकरण स्वभावतया नहीं रहते वहां उन्हें उपस्थित करना या ले आना
ही कारीगरी या कला है। सौन्दय कला की सृष्टि है, सौन्दर्य कला का सार है। कला शब्द का अर्थ
आत्म-अभिव्यक्ति से है। किसी कवि की कला उनके सम्पूर्ण आत्म की अभिव्यक्ति का
परिचायक है। अनेकों प्रकार की अनुभूतियों से रूपायित उसका आत्म स्वाभिव्यक्ति हेतु
प्रयत्न करता हुआ सहज रूप में रंग, रेखा, शब्द आदि में
अभिव्यक्त होकर जो रूप ग्रहण कर लेता है वही उसका कला है। इस प्रकार कला
अनुभूतियों को रेखा, रंग, शब्द आदि में बांधने का प्रयास है। कला में भावनाओं
की सुन्दरता अनिवार्य है।
कला के मूल में आनन्द को रखकर भी कला के स्वरूप को
आँका गया है। कला के प्रत्येक व्यापार का अन्तिम छोर आनन्द ही रहा है। श्रेष्ठ कला
वही है जो आत्मा को परमानन्द में लीन कर दे। सुख या आनन्द के लिए लालयित मानव इसी
कला की खोज जन्म जन्मान्तर से करता चला आ रहा है। इस प्रकार सत्यं, शिवं, सुन्दरं की अभिव्यक्ति ही कला है। तुलसीदास जी की काव्य कला के अन्तर्गत हम
भाषाशैली को भी दृष्टिगोचर कर सकते हैं।
संस्कृत की भाषा धातु से निर्मित भाषा शब्द का
अभिधार्थ है कहना, व्यक्त करना, चमकना या प्रकाशित करना आदि। सामान्यतः भाषा हृदयगत
भाषों की अभिव्यक्ति को समझाने का सर्वाधिक सबल साधन है। एक प्राचीन नवयौवना के
अनुसार काव्य एक सुन्दर नवयौवना है उसका शरीर शब्दार्थ (भाषा) है। आभूषण अलंकार
अवयव गठन रीति, स्वभाव, गुण तथा आत्मा रस अथवा उसका मूल भाव है। यदि हम गहराई
से सोचे तो काव्य भाषा का नहीं, भाषा में होता है। इसका कारण है कि कवि की भावानुभूतियां इसी के माध्यम से अपना
आकार प्राप्त करती है। यही नहीं काव्य के माध्यम से प्रसंग स्वभाव, भावना, विचार, अन्तर्द्वन्द्व आदि
भाषा में द्योतित होते हैं। इसलिए भाषा काव्य काव्य का व्यवहार पक्ष होता है। एक
आलोचक के अनुसार कविता वही है। जिसमें सर्वोत्तम शब्दों का ही चुनाव हो। वास्तव
में शब्दों को सुन्दर क्रम में रखना ही कविता है। भाषा के साथ भावों का सम्मिश्रण
भी बहुत ही आवश्यक है। भावहीन कविता को कविता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
उत्तम कवि वही कहलाता है जो सुन्दर शब्दों को आवश्यकतानुसार प्रयोग करना जानता है
प्रत्येक शब्द के अनेक पर्यायवाची होते हैं पर किस शब्द का किस स्थान पर प्रयोग
किया जाये वह बात एक कुशल शिल्पी ही जानता है। इसलिए श्रेष्ठ काव्य में प्रत्येक
वर्ण जुड़ा हुआ सा लगता है।
तुलसीदास जी अपने युग के ही नहीं अपितु हिन्दी
साहित्य के श्रेष्ठ कवि थे। उन्होंने अपनी असाधारण काव्य प्रतिभा का उपयोग कर
रामचरितमानस जैसे ग्रन्थ की रचना अवधी भाषा में की। उनको अवधी बोली को साहित्यिक
भाषा बनाने के लिए अथक प्रयास किया। उनके अथक प्रयास और परिश्रम को अवधी भाषा का
परिमार्जन किया और माधुर्य और लालित्य की सृष्टि की।
रामचरितमानस के अतिरिक्त वरवै रामायण, राम लला नहतू, जानकी मंगल, पार्वती मंगल आदि ग्रन्थों की रचना उन्होंने अवधी भाषा में की। उन्होंने उस
समय की अति प्रचलित ब्रजभाषा में विनय पात्रिका, गीतावली तथा कवितावली की भी रचना की। इनकी भाषा की
सबसे बड़ी विशेषता है उनमें संस्कृत की कोमल कांत पदावली की सुमधुर झंकार तथा
विदेशी भाषा के शब्दों का हिन्दी की प्रकृति के अनुसार प्रयोग नहीं। एक विद्वान
आलोचक के शब्दों में “भाषा की दृष्टि से
तुलसी की तुलना हिन्दी के किसी अन्य कवि से नहीं हो सकती। उनकी भाषा में एक समन्वय
की चेष्टा है। तुलसी की भाषा जितनी लौकिक है उतनी ही शास्त्रीय। उन्होंने अपनी
भाषा में संस्कृत का मिश्रण बड़ी ही चतुराई से किया है। जहाँ जैसा विषय होता है
भाषा अपने आप उसके अनुकूल हो जाती है। तुलसीदास से पूर्व किसी ने इतनी परिमार्जित
भाषा का प्रयोग नहीं किया।
शैलियाँ
तुलसी के समय में काव्याभिव्यक्ति के लिए अनेक शैलियाँ प्रचलित थी, जिनमें प्रमुख पाँच शैलियाँ सामने आती है। इन्होंने
पाँचों शैलियों का प्रयोग बड़े ही उत्तम ढंग से किया है। |
1. वीरगाथा काल की छप्पय शैली- इस रचना शैली पर उन्होंने अधिक नहीं लिखा पर जो कुछ भी लिखा उसी में उनकी
निपुणता की झलक दिखलाई पड़ती है। राम-जीवन के ओजस्वी चरित्रों तथा युद्ध वर्णनों
में उनकी कुछ पंक्तियां दिखलाई पड़ती हैं
कतहुँ विटप भूधर, उपारिं पर सेन वरबख्ता कतहुँ वाजि सो वाजि मर्दि गजराज
करबख्त।
2. विद्यापति और सूरदास की गीति शैली- गोस्वामी जी के गीत कोमल कान्त पदावली होते हुये भी माधुर्य से ओतप्रोत है।
इनके गेय पदों में प्रसंगानुकूल कोमलता और कर्कशता दोनों ही मिलती है। गेयता की
दृष्टि से इनकी विनय-पत्रिका बहुत ही उत्तम बन पड़ी है। गीतावली के मधुर पदों में
हृदय के विभिन्न भावों की अभिव्यंजना अतीव मर्मस्पर्शिनी है। भारत की आत्मग्लानि
का एक चित्र इस प्रकार है
जो पै हौं भावु मते है हौं।
तो जननी! जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वैहो ॥
3. गंग आदि भाटों की
कवित्त सवैया शैली- इनकी कवितावली की इस पद्धति पर हुई है। उन्होंने इस
पुस्तक में सारी राम कथा को बड़ी ही रसात्मकता से कह डाला है इसमें अनेकों रसों का
समावेश है। शब्द योजना एकदम रसानुकूल है
राम का रूप निहारति जानकि, कंकन के नग की पहरहाही।
यातै सबै सुधि भूल गई, कर टेकि रही, पल टारति नाहीं ॥
4. नीति के उपदेश की सूक्ति शैली- काव्य की यह शैली भारतीय साहित्य की पुरानी परम्परा के अनुकूल अप्रभंश
साहित्य में प्रचलित थी।
तुलसीदास जी ने इस शैली का प्रयोग अपने रामचरितमानस, तथा दोहावली में बड़ी ही सफलता के साथ किया है
लोगन भलो मनवा जो, भलो होन की आस।
करत गगन के गेरुआ, सो सठ तुलसीदास ॥
5. दोहा चौपाई की प्रबंध शैली- मलिक मोहम्मद जायसी जैसे कवि इस पद्धति को पहले ही अपना चुके थे। किन्तु
गोस्वामी जी ने अपने रामचरितमानस में इसे चरम उत्कर्ष तक पहुँचा दिया। जायसी और
तुलसी दोनों की भाषा अवधी है पर दोनों में पद् विन्यास में अन्तर है। गोस्वामी जी
में अवधी का माधुर्य और संस्कृत का लालित्य दोनों ही देखने को मिलते हैं। तुलसीदास
जी शास्त्र पारगत विद्वान थे। इसलिए उनकी शब्द योजना भी साहित्यिक ही है
जन मन मंजु मुकुर भल हरनी।
किय तिलक गुन गन बस करनी॥
अलंकार
काव्य के आभूषण अलंकार माने जाते हैं उनके प्रयोग से
काव्य में भावों की रसानुभूति तथा अर्थों का माधुर्य बढ़ जाता है। अलंकार दो
प्रकार के होते हैं1. शब्दालंकार, 2. अर्थालंकार। तुलसीदास जी ने अपने काव्य में दोनों ही
प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है। |
1. छोनी मे के छोनी पति छाजै जिन्है छत्र छाया,
छोनी छोनी छाय छिति आए निमि राज के।
2. प्रबल प्रचंड बरिबंड कर बेष बपु,
बरिबे को बोले वैदेही वर काज के।
3. बोले बंदी बिरुद बजाइ बर बाजनेऊ,
बाजे बाजे बीर बाहु धुनत समाज के।
इन दोहों में छ, प्र, ब वर्गों की बार-बार
आवृत्ति हुई है। इसमें अनुप्रास अलंकार के साथ यमक अलंकार भी सहज रूप में प्रयुक्त
हुआ है। छोहनी,
छोनी पति में एक का अर्थ अक्षयहरिणी तथा दूसरे का पृथ्वी है। इसलिए यहाँ
यमक अलंकार है।
तुलसीदास केशव दास जी की भाँति चमत्कारवादी नहीं थे।
उन्होंने अपने काव्य में अलंकारों का अधिक प्रयोग न किया, किन्तु जब कभी भी उन्हें अवसर मिला वे चुके नहीं।
हनुमान की पूँछ में लगी आग का उन्होंने बड़ा अलंकारिक प्रयोग किया है।
बालधी बिसाल विकराल ज्वालपाल मानो,
लंक लीलिबे को काल रसना पसारि है।
कैधौं व्योम वीथिका भरे हैं भूरि धूम केतु,
वीर रस वीर तरवारि ही उधारी है।
तुलसी सुरेस चाप कैधौं दामिनी कलाप,
कैधौं चली मेरुते कृपानु सरि भारि है।
देखे जातुधान जातुधानी अकुलानी कहैं,
कानन उजारयौ अब नगर प्रजारी है।
इस छंद में हनुमान की आग लगी पूँछ का अनुप्रास, उत्प्रेक्षा और संदेह अलंकारों के माध्यम से बड़ा
सुन्दर वर्णन किया गया है।
गुण
शब्द और अर्थ का चमत्कार गुण का आधार तत्व है। ध्वनिवादी आचार्यों ने गुण
को रस का धर्म स्वीकार कर लिया तो इसका रूप स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म हो गया। गुण
चित्त की अवस्था का नाम है। माधुर्य चित्त की दुवित अवस्था है तो ओज दीप्ति और
प्रसाद व्यापक है। कहने का अर्थ है कि श्रृंगार रस की अनुभूति से चित्त में
आर्द्रता का संचार होता है। वीर रस के प्रसंगों को पढ़ने में मन उत्साह बढ़ता है
और उसका प्रभाव भी व्यापक होता है। गुणहीन काव्य अलंकार युक्त होते हुए भी प्रिय
नहीं होता। इस दृष्टि से काव्य में गुणों की स्थिति को अनिवार्य माना गया है।
साहित्यदर्पणकार ने काव्य के तीन गुण माने है।
गुणमाधुर्ययोजजाऽर्थ प्रसाद इति ते त्रिधा। अर्थात् माधुर्य, ओज और प्रसाद तीन गुण होते हैं।
माधुर्य गुण
माधुर्य का अर्थ होता है सौम्यता । सौम्यता से चित्त द्रवीभूत हो जाता है।
जिस रचना के पढ़ने से मन द्रवीभूत हो जाता है वह रचना माधुर्य गुण से युक्त होती
है। यह गुण संयोग श्रृंगार, करुण एवं शान्त रस में अधिक होता है। जैसे-
तुलसी मनरंजन रंजित नैन सुखंजन जातक से
सजीन ससि में समशील उभै नवनील सरोरुह से विक से ॥
ओज गुण
ओजोदीप्ति के अनुसार ओज का अर्थ दीप्ति है। दीप्ति
युक्त चीज जैसे सूर्य आदि से मन तेजयुक्त होता है अर्थात् जिस गुण से मन तेज युक्त
हो उसे काव्य में ओज गुण कहते हैं। जैसे-
प्रबल प्रचंड बारिबंड बाहदंड वीर
धारा जातुधन हनुमान लियो घेरि है।
महाबल पुंज कुंजरारि ज्यों गरजि भट
जहां तहां पटकै लंगूर फेरि फेरि है।
प्रसाद गुण
प्रसादों नैर्मत्य के अनुसार प्रसाद का पर्यायवाची शब्द निर्मलता है। काव्य
के भाव में बुद्धि को शीघ्र प्रवेश करने की निर्मलता प्रसाद गुण में ही होती है।
इसमें क्लिष्टत्व का दोष नहीं होता। इसलिए प्रसाद गुण सब जगह प्रशंसनीय होता है।
जैसे–कवितावली की कुछ
पंक्तियों में प्रसाद गुण इस प्रकार से है
लागि लागि आगि भागि भागि चले जहाँ तहाँ
धीम को न माय बाप पूत न सँभारी ही।
छूटे बार बसन उधारे, धूम धुंध अंध
कहै बारे बूढ़े वारि वारि बार बरही॥
शब्द समूह
तुलसीदास जी ने सर्वाधिक मात्रा में तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है। उनकी
भाषा की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि कवि ने जहाँ कहीं स्तुति के लिए भाषा का
प्रयोग किया है वह शुद्ध संस्कृत है। इनकी भाषा ब्रज और अवधी है। इन्होंने अवधी
भाषा के घरेलु शब्दों का प्रयोग भी किया है। जैसे–अछत (रहते) खपुआ (भगोड़े) पंवारी (कीर्ति) धारि
(सेना) आदि।
कहीं-कहीं उकारान्त की प्रवृत्ति भी पर्याप्त मात्रा
में मिलती है जैसे कसकतु, जहानु, अचेतु, सोचु आदि। अवधी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के भी शब्द
मिलते हैं।
अरबी- गुलाम, हराम आदि
तुर्की- वैरूख
बंगला- सकारे, संयोग
फारसी- कागर, नेवाज, दगाबाज
बुंदेलखंडी- भांड जाना
शब्द निर्माण
प्रत्येक समर्थ कवि भाव के अनुरूप शब्दों का निर्माण करते है। तथापि कवि की
अरबों की अभिव्यक्ति के लिए अन्य साधनों का प्रयोग करना पड़ता है। जैसे- गर्बु
(गर्व), पुन (प्रण), उजाड़ (उजारि) आदि।
लाक्षणिकता
लाक्षणिकता भाषा की वह शक्ति है जो काव्य को एक विशेष अर्थ से मंडित कर
उसमें एक विशेष प्रकार की सौन्दर्य भर देती है। जहाँ शब्द की अमिद्या शक्ति बाधित
होती है। वहाँ लाक्षणिकता का जन्म होता है। इस प्रकार उक्ति वैचित्र्य का सारा
व्यापार ही लाक्षणिकता का अंग होता है।
उक्ति वैचित्र्य में उक्ति नये परिवेश में नई विचित्रता से सम्पन्न होती
है। इसमें कवि अपनी सूझ-बूझ से एक साधारण सी बात को कुछ शिष्ट व्यंग्य की सृष्टि
कर देता है। जिसको पढ़कर सभी जन वाह-वाह कर उठते हैं—जैसे
विंध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि
दुखारे
गौतमतीय तरी तुलसी सी कथा सुनि भे मुनि वृंद सुखारे
है है सिला सब चंद्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे
कान्हीं भली रघुनायक जू करूना करि कानन सो पगुधारे।
शब्द मैत्री
तुलसीदास जी की भाषा की एक अन्य विशेषता शब्द मैत्री है। अनुप्रास शब्द
संगत तथा उनको मैत्री का एक प्रमुख साधन होता है। इसी अनुप्रास के साथ-साथ अनेक
अनुकूल ध्वनियाँ भी शब्दों का स्थान निर्धारित करती है।
बसन बटोरि बोरि बोरि तेल तमोचर ।
खोरि खोरि धाई आई बाँधत लँगूर है।
मुहावरे और लोकोक्तियाँ
मुहावरे भाषा की लक्षणाशक्ति का रूढ़ रूप है। मुहावरों के प्रयोग के कारण
अभिधार्थ निश्शेष हो जाता है। इसके बाद लक्षण की बच जाती है। किसी भी भाषा को सजीव
बनाये रखने के लिए मुहावरों तथा लोकोक्तियों का स्थान बनाये रखना अनिवार्य है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि तुलसी की भाषा लोक
प्रचलित भाषा था। उन्होंने अपने काव्य में अवधी एवं ब्रज भाषा का सटीक प्रयोग किया
है। तुलसी की काव्य कला संसार में आज भी अमर है।
कविता करके तुलसी न लसै।
पै कविता लसी पा तुलसी की कला।
डॉ. कुसुम नेहरा, प्रवक्ता, डॉ. भीमराव अम्बेड़कर, दिल्ली विश्वविद्यालय कॉलेज
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
एक टिप्पणी भेजें