तुलसीदास के काव्य में लोक
वर्तमान युग आधुनिकीकरण एवं वैज्ञानिकता का युग है। आज मानव आधुनिकता की होड़ में अपनी परम्परा, मूल्यों एवं संवेदनाओं से पिछड़ता जा रहा है। आधुनिक मूल्यों के कारण पारंपरिक मूल्यों की अनदेखी कर रहा है। ऐसे समय में आवश्यकता है कि मानव पुनः अपनी लोक परम्पराओं से जुड़कर अपनी अस्मिता की खोज करे तथा लोक परम्परा से अपना सान्निध्य स्थापित करें। मध्यकालीन कवियों ने साहित्य की अपेक्षा समाज को अधिक महत्व दिया या कहें कि शास्त्र की अपेक्षा लोक को अधिक प्रश्रय दिया जिसके उपरान्त ही लोकमंगल की भावना प्रबल हो उठी।
मध्यकालीन साहित्य में भक्तिकाल से
लेकर रीतिकाल तक लोकमंगल की भावना अधिक बलवती रही। इसी भावना के अन्तर्गत
मध्यकालीन हिन्दी कवियों ने अपनी रचनाओं में लोक परम्परा को व्यापक अभिव्यक्ति
प्रदान कर, नई दृष्टि दी है। भक्तिकाल में
रामकाव्य परम्परा, कृष्णकाव्य
परम्परा, ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी हो या फिर
रीतिकाल में रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध
और रीतिमुक्त आदि मध्यकालीन कवियों ने लोकमंगल में विशेष रूचि दिखाई है। मध्यकालीन
साहित्य में केवल ब्राहृयाचार, आडम्बर, अभाव, श्रृंगार एवं विलासिता का ही वर्णन नहीं है अपितु इनकी रचनाओं में
लौकिक अनुभूति को भी महत्व प्रदान किया गया है। इन्होंने अपने तत्कालीन समाज के
यथार्थ को पूर्णतः व्यक्त किया है। इस युग में नैतिकता का पतन एवं विलासिता अपने
चरम पर थी किन्तु बावजूद इसके मध्यकालीन कवि अपने लोक से गहरे जुड़े प्रतीत होते
है। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में लोक के विविध आयामों को प्रस्तुत किया है। जब हम
मध्यकालीन साहित्य की बात करते हैं तो मध्यकाल का तात्पर्य सम्पूर्ण भक्तिकाल और
रीतिकाल से होता है किन्तु आज के समय में भी केवल भक्तिकाल ही केन्द्रिय बिन्दु बन
कर रह गया है रीतिकाल कहीं विलुप्त होता नजर आ रहा है जो की चर्चा का विषय है जिस
पर विचार करना आवश्यक है। बहरहाल, मध्यकालीन
समाज सामन्ती व्यवस्था से घिरा हुआ था, तत्कालीन समाज में अनेक गुण एवं दोष व्याप्त थे, जो तत्कालीन काव्य में देखा जा सकता है। जब हम
भक्तिकाल की बात करते है तब उसके पांच मुख्य स्त्रोत सूरदास, तुलसीदास, कबीर, जायसी और मीरा से मुँह नही फेर पाते क्योंकि भले ही इन कवियों में
विचारों का मतभेद हो किन्तु आशय सबका एक ही है वह है भक्ति। भक्ति की भी दो धाराऐं
विशेष रूप से देखी गई है सगुण धारा और निर्गुण धारा। तुलसीदास मूलतः सगुण धारा के
भक्त कवि थे। तुलसीदास के विषय का केन्द्र बिन्दु राम एवं राम का गुण-गान ही रहा।
भक्तिकालीन कवियों की मुख्य विशेषता है ’चरित्र निर्माण‘ और
इसी चरित्र निर्माण से उन्होंने अपने समाज को एक आदर्श प्रस्तुत किया है। तुलसीदास
का पूरा साहित्य लोकोन्मुख है। लोकमंगल की अभिव्यक्ति इनके काव्य का मूल उद्देश्य
रहा है। तुलसीदास ने राम को अपना आदर्श माना तथा सम्पूर्ण जीवन राम के आदर्शों से
समस्त संसार को प्रेरित किया। साथ ही राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में राम के सभी
आदर्शों का प्रतिपादन किया। उन्होंने लोक में रहकर लोकभाषा को अपने काव्य का आधार
बनाया तथा उनकी काव्य रचना में लोक-मंगल की भावना निहित है।
कीरति भनिति भूति भलि सोई,
सुरसरि सम सब कहँ हित होई।
अर्थात कीर्ति, कविता और ऐश्वर्य वही अच्छा होता है जो गंगा के
समान सबका हित करने वाला हो।
तुलसीदास लोकदर्शी कवि थे। जीवन के
विभिन्न पक्षों को उन्होंने सूक्ष्मता से देखा और परखा था। उनकी भावना जन-कल्याण
से प्रेरित थी। तुलसीदास का समय सामाजिक उतार-चढ़ाव का समय था। समाज आन्तरिक
संघर्षो से जर्जर हो रहा था। व्याभिचार का बोलबाला था। सहयोग और प्रेम के स्थान पर
असहयोग और घृणा का प्रबल्य था। तुलसीदास ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों को देखा
और परखा था। जिसके उपरान्त ही वह समाज में समन्वय की भावना को स्थापित कर लोकमंगल
का विधान रचना चाह रहे थे।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
तुलसीयुगीन सांस्कृतिक स्थिति देख कहते है -’’जिस युग में उनका जन्म हुआ था उस युग में समाज
के सामने कोई ऊँचा आदर्श नहीं था। समाज के उच्च स्तर के लोग विलासिता के पंक में
उसी तरह मग्न थे जिस प्रकार कुछ वर्ष पूर्व सूरदास ने देखा था।‘‘
इससे यह तो स्पष्ट होता है कि तत्कालीन
समाज में तनाव और विषमता का प्रधान्य था। सामाजिक आदर्शों का प्रायः ह्रास हो रहा
था। तुलसीदास ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समन्वय और लोकमंगल की स्थापना की।
इन्होंने अपनी रचनाओं में लौकिक और पारलौकिक दोनों आदर्शों की चर्चा की है। इस
सम्बन्ध में भागीरथ मिश्र ने कहा है- ’तुलसी के सामाजिक आदर्शों की समस्त कल्पना चाहें हमें आज की
परिस्थिति से पुर्ण रीति से मान्य न हों किन्तु इतना हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा
कि उनके आदर्शों में आधुनिक ‘समाजवाद’ के बीज तत्व विद्यमान है और भारतीय प्रकति के
अनुकूल उसके संकेत और तत्व आज भी हमारे समाज में अत्यधिक सहायक हो सकते हैं।‘
तुलसीदास का जिस समय आविर्भाव हुआ, उस समय धर्म अपने चरम पर था किन्तु धर्म का
स्थान भी पाखण्ड ने ले रखा था। तुलसीदास लोक में धार्मिक भावना जाग्रत करना चाहते
थे। जिसके कारण उन्होंने राम को आदर्श बनाकर जनता के सम्मुख रखा। तुलसीदास ने धर्म
को भक्ति के क्षेत्र से जोड़ दिया औैर इसी भक्ति को आज घर-घर में रामचरितमानस के
रूप में देखा जा सकता है। उन्होंने पारिवारिक आदर्शो की भी स्थापना की है।’’तुलसीदास रामभक्ति का जैसा सांस्कृतिक समारोह
खड़ा करना चाहते थे वह सचमुच खड़ा हो गया। मुगलों के राज्यकाल में सामाजिक नाटक उनके
कट्टर धार्मिक नियमों के कारण नहीं हो सकते थे। धर्म की ओट में तुलसीदास ने ऐसे महानाटक
का संभार कर दिया जिससे अनेक दृष्टियों से मनोरंजन के साथ ही जनता का कल्याण होने
लगा।‘‘
तुलसीदास के युग में निगुर्ण और सगुण
का विवाद प्रमुख रूप में देखा जा सकता है। विद्वानों ने तुलसी को सगुण भक्त कवि के
रूप में स्थापित किया है किन्तु स्वयं तुलसीदास निगुर्ण और सगुण का खड़न करते हुए
कहते है-
सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा,
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।
विश्वनाथ त्रिपाठी कहते है -’’तुलसी की विशेषता यह है कि उन्होंने राम को
सामाजिक जागतिक और समकालीन नैतिक मूल्यों के आदर्शों का जीवन्त प्रतीक बना दिया।
तुलसी के राम उन समस्त गुणों के योग और प्रतीक हैं जो समाज को तब तक ज्ञात और मान्य
थे। उनके यहाँ निर्गुण ब्रह्म की सत्ता की अस्वीकृति नहीं है, रामचरितमानस में और अन्य कृतियों में उसका
भूरिशः उल्लेख है, विवेचना
है, किन्तु चित्रण तुलसी सगुण और
लोकमंगल-विधायक राम का ही करते हैं।‘‘
तुलसीदास ने राम की लीलाओं की व्याख्या
नहीं की अपितु उन्हें उनके आदर्शो द्वारा सर्वशक्ति सम्पन्न घोषित किया है। तुलसी
ने राम का गुणगान कर उनके मार्मिक चित्र खीचें जिससे वह जन-जन के आदर्श बन गये।
तुलसीदास ने राम का चित्र एक मानव के रूप में खींचा है।
सुमिरू सनेह सों तू नाम राम राय को।
सबंल निसबंल को, सखा असहाय को।।
भाग है अभागेहू को, गुन गुनहीन को।
गाहक गरीब को, दयालु दानि दीन को।।
कुल अकुलीन को, सुन्यो है बेद साखि है।
पाँगुरे को हाथ-पाँव आँधेर को आँखि
है।।
माय-बाप भूखे को, अधार निराधार को।
सेतु भवसागर को, हेतु सुख सागर को।।
पतित पावन राम-नाम सो न दूसरो।
सुमिरि सुभूमि भयो तुलसी सो ऊसरो।।
रामधारी सिंह दिनकर अपने निबंध ’तुलसीदासः कुछ स्फुट चिन्तन‘ में लिखते है ’’कहने को तुलसीदास ने कह दिया कि रामायण का गान
मैं स्वान्त सुखाय कर रहा हूँ किन्तु उनका संपूर्ण साहित्य परम सत्ता के साथ
मनुष्य के सम्पर्क का साहित्य है। उसकी दूसरी विशेषता यह है कि वह लोक-समाहार और
लोक मंगल का भी साहित्य है।‘‘
तुलसीदास अपने काव्य की रचना स्वान्त
सुखाय के उद्देश्य से कर रहे थे। उनकी रचना जनकल्याण को ध्यान में रखकर लिखी हुई
है। तुलसी ने स्वयं को वर्ण व्यवस्था से बचाया है वह अपने काव्यों में किसी
जाति-पाति पर टिप्पणी करने से बचते है फिर चाहे वह शूद्र शम्बूक हो या फिर कुछ ओर
जिसकी ओर भवभूति और वाल्मीकि स्पष्टः इंगित करते है और यदि वह टिप्पणी करते भी है
तो वह स्वयं उससे कितने सहमत है या उन पर कोई पारंपरिक दबाव है यह देखने की
आवश्यकता है।
वारान्निकोव ’तुलसी की वैचारिकता‘ लेख में लिखते है - ’’तुलसी ने ब्राह्मण, शूद्र, नारी आदि की स्थिति, समाज के संघटन, नेता तथा राजा (और गुरू) के कर्तव्य, पिता तथा पति के अधिकार, उत्तराधिकार की व्यवस्था और सामाजिक शिष्टाचार
तथा मर्यादा के सम्बन्ध में जो कुछ कहा है, उसमें उनका विश्वास होते हुए भी ये सब कथन उनके
अपने नहीं है। इनमें से अधिकांश कवि को परंपरा-रूप में प्राप्त हुए हैं और कवि के
सामाजिक एवं नैतिक कथनों पर मध्ययुगीन भावना की स्पष्ट छाप है। यहां पर यह भी कह
देना चाहिए कि इनमें से अधिकांश आज भी समाज में पूर्ववत् हैं।‘‘
लोक मंगल से अपना मंगल अनुभव करना
सच्चे साधक का प्रतीक है और यह हमे तुलसीदास में देखने को मिलता है। अपनी रचना के
माध्यम से तुलसीदास ने गृहस्थ जीवन के आदर्शों को भी उकेरने का सफल प्रयास किया।
तुलसीदास ने आदर्श चरित्रों के द्वारा एक भावी समाज की कल्पना की है। तुलसीदास ने
अपने रचना द्वारा मानव मूल्यों का मार्ग प्रशस्त किया है तथा समाज का मार्गदर्शन
भी किया है।
तुलसीदास ने स्वयं को किसी सम्प्रदाय
से नहीं बांधा और न ही उसका समर्थन किया। उन्होंने केवल भक्ति का राजमार्ग प्रशस्त
किया था। वह केवल लोक मंगल और लोकोद्धार के प्रति समर्पित थे। तुलसीदास ने ज्ञान, भक्ति, दर्शन आदि को एकत्र कर अपनी समन्वित दृष्टि को
स्थिर किया तथा अन्धविश्वास, पाखण्ड, विद्वेष, शोषण आदि का निषेध किया। तुलसीदास ने अपने
काव्य में सामान्य जन से जुड़ी सभी तथ्यों को स्थापित किया है। इनकी रचना में समाज
के सभी वर्गों से जुडे़ प्रश्नों के हल खोजे जा सकते है।
’’गोस्वामी जी मानते हैं कि रामचरित्र प्रकृत्या
मंगलमय है। वह प्राणीमात्र के लिए मंगल का विधायक है। जहाँ कहीं भी रामचरित्र या
रामकथा की उपस्थिति होगी उसके प्रभाव से मंगल का ही विधान होगा। यह दूसरी बात है
कि इस प्रभाव की मात्रा ग्रहीता की प्रवृति और क्षमता के अनुसार भिन्न होगी।
गोस्वामी जी स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं-
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित विसेषि बड़
लाहु।।
गोस्वामी जी का रामकथा गायन वैश्विक
स्तर पर लोकमंगल के विधान का उपक्रम है।‘‘
तुलसीदास की रचना में भक्ति, प्रेम, समन्वय, लोकमंगल आदि सभी लक्षण विद्यमान है। कवि ने
अपने काव्य के माध्यम से लोक को एकत्रित करने का भरपूर प्रयास भी किया है।
रामचरितमानस में भक्ति, दर्शन
विविध विचारधाराओं के समन्वय पर आधारित है। इनकी व्यापकता का प्रमाण है इनकी
लोकमंगल विचारधारा। तुलसीदास ने लोक और शास्त्र दोनों को ध्यान में रखकर इस
महाकाव्य की सर्जना की। यह लोक में उसी तरह पठनीय है जिस प्रकार शास्त्र में
पूजनीय। यह पंडित से लेकर अपढ़ व्यक्ति तक सामान्य है। आज के समय में यह शास्त्र और
साहित्य दोनों ही स्तरों पर उल्लेखनीय है। इनकी यह रचना मानव-मूल्यों, समरसता आदि को प्रतिष्ठित करता है।
तुलसीदास ने अपने काव्य में सामाजिक, धार्मिक एवं पारिवारिक सामंजस्य का अनूठा
उदाहरण प्रस्तुत किया। कवि ने राजा, प्रजा, परिवार के सभी सदस्य भाई, माता, पिता, सेवक
आदि में अनूठा सम्बन्ध बरकरार रखा है। इन्होंने मानवीय मूल्यों एवं सामाजिक
मर्यादा के संरक्षण की पूरी कोशिश की है। समाज में व्याप्त अत्याचार, नैतिक पतन, विलासिता, सांस्कृतिक विघटन आदि को उन्होंने प्रभावित
किया। ’रामचरितमानस‘ के माध्यम से तुलसीदास ने अनेक समस्याओं का
समाधान किया है। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से एक ऐसे समाज की कल्पना की है जो
सुशिक्षित, सुसंस्कृत समाज है। यह उनके राम राज की
परिकल्पना है। जिसमें एक तरफ ईश्वर के प्रति अथाह आस्था और मानव के प्रति श्रृद्धा
दोंनो का सामंजस्य देखने को मिलता है।
इस प्रकार हम तुलसीदास को एक सफल
विचारक, भक्त एवं कवि इन तीनों भूमिकाओं में
देख सकते है। उनका काव्य उनकी सफलता का परिचायक है। जिसमें उन्होंने विभिन्न
आदर्शों की स्थापना की। जिससे वह हर तरह जन-जीवन से जुड़ा हुआ है।
(रेखा कुमारी, पीएच.डी शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली)
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