शिशिर अग्रवाल की कुछ
कविताएं
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
(1)
घर से दूर हूँ
मैं
अच्छा सुनो कुछ
कह रहा हूँ।
माँ तेरी यादों
में सिसक-सिसक कर रो रहा हूँ।
मुश्किलों से हार
कर जब भी
मैं माँ से लिपट
कर रोने लग जाता हूँ।
माँ आँचल फैलाती
है,मैं सो जाता हूं।
सभी चोर लगते हैं
यहाँ, दुनियाँ ये कितनी बेईमान
है।
मक्कारी धोखा और
झूठ, यही यहाँ ईमान है।
इसलिए दुनिया के
सारे छल करने को माँ मैं राज़ी हो गया हूँ।
वर्ना दुनिया
कहेगी मैं बाग़ी हो गया हूँ।
लोग हँसेंगे
मुझपर इस लिए किसी से नही कहता हूँ।
घर से दूर हूँ औ
हर वक़्त रोता रहता हूँ।
देखना किसी को कह
ना देना
मैं आज भी यादों
के घरों में रहता हूँ।
क्या ख़ता थी कि
मुझसे दूर हो गई हो।
मेरे किराये के
मकान को भूल गई हो
या कि फिर मजबूर
हो गई हो।
शहर अजनबी लोग
अजनबी,कोई सीने से लगाता नही
है।
डाकिया रोज़ आता
है घर मेरे, मगर माँ तेरा ख़त
ही आता नही है
माँ आँचल फैलाओ
मैं सोना चाहता हूं
कि तेरी बाहों
में लिपटकर फिर से रोना चाहता हूँ।
सुबह भी जल्दी हो
जाती है यहाँ
शहर भी सोता नही
है।
अकेला है तेरा
बच्चा शायद इसलिए खोता नही है।
मुसीबत को रोज़
बतलाता हूँ घर का पता,
वो मुँह बना हर
रोज़ कहती है।
कैसे आऊँ तेरे घर,
माँ की तस्वीर
तेरे घर मे रहती है।
पापा तुम समझा
देना कि थोड़ा व्यस्त हूँ मैं।
भाग दौड़ बहुत है,थोड़ा त्रस्त हूँ मैं।
दीदी तुम माँ से
कहना रोएगी नही,
घर जल्द आऊँगा,धैर्य अपना खोएगी नही।
(2)
मैं मौन हूँ
जी हाँ मैं मौन
हूँ।
सत्ता और सरदार
नही जानते कि मैं कौन हूँ।
निर्बलों को रोज़
पिटते और लुटते देखता हूँ।
महिलाओं को हर
रात सड़क पर खड़े औ बिकते देखता हूँ।
सब कुछ जानता और
समझता हूँ।
मगर मैं मौन रहता
हूँ।
सत्ता हर रोज़
मुझे छलती है।
"लाचार हो
तुम" हर रोज़ आ के मेरे कानों में कहती है।
यूँ तो मैं युवा
भारत का नागरिक कहलाता हूँ।
15 अगस्त को 'दिनकर' को भी गुनगुनाता हूँ।
हाँ मगर कॉलेज
जाते ही पुनः 'घनानंद' हो जाता हूँ।
हर पांच बरस में
नई सत्ता चुनना चाहता हूँ।
मगर क्या करूँ हर
बार अपने मित्र को ही वोट दे आता हूँ।
रैली में पैसा
लेकर नारे लगाता हूँ।
उन पैसों से फिर
अपनी 'मित्र' को घुमाता हूँ।
मॉल जाके कपड़े
खरीदता हूँ,और उसे पिज़्ज़ा भी खिलाता
हूँ।
मगर 26 जनवरी के दिन फिर से राष्ट्र का शुभ चिंतक बन
जाता हूँ।
फरारी काट के आने
वाले विधायक बन जाते है।
मेरे नेता महिला
को 'टंच माल' कह जाते है।
गुस्सा तो बहुत आता
है मुझे,
मन में उनको
कोसता हूँ,चिल्लाता हूँ।
मगर मैं मुँह नही
खोलता,मैं मौन ही रह जाता हूँ।
पापा तो
पाकिस्तान को बड़ा मज़ा चखाना चाहते हैं।
मगर मुझे फौजी
नही बनाना चाहते,
इंजीनियरिंग
कराना चाहते है।
दीवाली में हमने
लाइट नही लगाई थी,
चीन को अच्छा मज़ा
चखाया था।
एक बात बताऊँ,
धनतेरस में भाई अच्छा सा मोबाइल लेके आया था।
'दिल्ली वाली
गर्लफ्रेंड्' से सिग्नल तोड़ के
मिलने जाता हूँ।
सुबह अखबार में
सड़क हादसे की खबर पढ़के हर बार दुख जताता हूँ।
मैं फिल्में देख
अपनी देशभक्ति तय करता हूँ।
ज़्यादा समय गाने
सुनने औ महिलाओं के पीछे डोलने में व्यय करता हूँ।
अस्पताल में
वृद्धों को पीछे कर पंक्ति में घुस जाता हूँ।
कोई मरे, मरता रहे मगर मैं अपना इलाज पहले करवाता हूँ।
किसी की इज़्ज़त
लुटती है, मैं देखता रह जाता हूँ।
हाँ अगले दिन
इंडिया गेट पे,मोमबत्ती लेके
चिल्लाता हूँ।
सब देखता हूँ और
बर्दाश्त कर लेता हूँ।
मगर मैं मौन ही
रहता हूँ।
शिशिर अग्रवाल, छात्र बी.ए. (मास
मिडिया) द्वितीय वर्ष
जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
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