तुलसी के मानस में कलियुग-प्रसंग : प्रासंगिकता और सामयिक संदर्भ/ डॉ. राहुल मिश्र
प्रथम जनम के चरित अब
कहउँ सुनहु बिहगेस ।
सुनि प्रभु पद रति
उपजइ जातें मिटइ
कलेस ।।
पूरुब कल्प एक
प्रभु जुग कलिजुग
मल मूल ।
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ।।1
गोस्वामी तुलसीदास की कीर्ति का अक्षय स्रोत
श्रीरामचरितमानस काल और देश की परिधि को लाँघकर यदि श्रेष्ठतम बिंदु पर स्थापित
हुआ है, तो इसके पीछे बड़ा कारण लोकमंगल के उस भाव का भी है, जिसे तुलसीदास ने स्थापित किया है और जिसके कारण
राम का यह चरित-काव्य व्यक्ति-जीवन से लगाकर समाज-जीवन तक का पथ-प्रदर्शक बना है।
श्रीरामचरितमानस के सप्तम सोपान में, उत्तरकांड में रामराज्य के प्रसंग के उपरांत कलियुग का प्रसंग इस तथ्य की
श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट होता है।
उत्तरकांड में कवि काकभुशुंडि गरुड़ जी से कहते हैं कि, “हे गरुड़! सुनिए, अब मैं अपने प्रथम जन्म के चरित्र को कहता हूँ। उसे
सुनकर प्रभु श्रीराम के चरणों में आसक्ति उत्पन्न होती है, जिससे क्लेश मिट जाते हैं।” वे कहते हैं कि, “पूर्व के कल्प में मलों का मूल स्वरूप एक कलियुग
था। इस युग में सभी नर-नारी अधर्म में रत थे और वे वेद आदि
धर्मग्रंथों-नीति-ग्रंथों के विपरीत कार्य करने में लगे रहते थे।” काकभुशुंडि जी अपने पूर्वजन्म की कथा के माध्यम से
कलिकाल की प्रवृत्तियों का वर्णन करते हैं। अयोध्या में रहते हुए भी वे अयोध्या के
प्रभाव को जान नहीं पाते, क्योंकि
धन का घमंड, बुद्धि की उग्रता और मन-वाणी-कर्म की मलिनता हावी
हो जाती है। कलि के पाप सभी धर्मों को अपने चंगुल में बाँध लेते हैं और इस कारण
सभी धर्मग्रंथ लुप्त हो जाते हैं। अपनी-अपनी बुद्धि से कल्पना करके अनेक दंभी और
चतुर लोग अनेक पंथों और विचारों को जन्म देते हैं, उन्हें प्रचारित और प्रसारित करते हैं। इस कारण
युगधर्म का कुप्रभाव अयोध्या नगरी को ही नहीं, बल्कि लोगों के मन, कर्म और विचारों को भी दूषित किए हुए है।
बाबा तुलसी के द्वारा राम के चरितगान की पूर्णता मानस के
सप्तम सोपान में होती है और वह भी कलिकाल की विभीषिका के वर्णन के साथ। वे ‘कवितावली’ और ‘विनयपत्रिका’ में भी कलियुग की विभीषिका का वर्णन करते हैं।
तुलसी की लेखनी से निःसृत कलिकाल के वर्णन को इसी कारण सामान्य नहीं कहा जा सकता
है। इसे विश्लेषित करते हुए रमेश कुंतल मेघ लिखते हैं-‘रामचरितमानस’ तथा ‘कवितावली’
में अपने समय के डरावने
यथार्थ को उन्होंने परिपाटी के हाशियों के साथ जोड़कर ‘कलियुग’ का वर्णन किया है तथा ‘विनयपत्रिका’ में उसकी भय और आतंक, गरीबी और अशिक्षा की बर्बर दशाओं को भयानक
पशु-पक्षी के उपमानों द्वारा तिबारा व्यंजित किया है।
अतएव उनमें सामंतवाद की कलियुगी यातना के सभी आयामों को
लाँघकर आत्मोत्तीर्ण होने का आत्मसंघर्ष है, वह उनकी भविष्यवाणी (फ्यूचरोलिकल) यूतोपिया ‘रामराज्य’ में साकार हुआ है। अतएव यदि ‘कलियुग’ तथा ‘रामराज्य’
के अक्षों को पाठ्य
समकालीनता तथा पाठ्य-क्लासिकता के भी दृष्टांत माना जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। इस
भाँति से सामाजिक यथार्थता के समावेशन के लिए सिद्धांतों एवं उपमानों (एप्रोच) की
निर्मिति होती रहती है।2
इस तरह गोस्वामी तुलसीदास सामाजिक यथार्थ के तत्कालीन
स्वरूप को कलियुग के प्रसंग के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। वे तत्कालीन
परिस्थितियों की विकरालता को प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं-
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा।
पंडित सोइ जो गाल बजावा ।।
पंडित सोइ जो गाल बजावा ।।
मिथ्यारंभ
दंभ रत जोई।
ता कहुँ संत कहइ सब कोई ।।3
ता कहुँ संत कहइ सब कोई ।।3
बहु धाम सँवारहिं धाम जती।
बिषया हरि लीन्हि रही बिरती।।
बिषया हरि लीन्हि रही बिरती।।
तपसी धनवंत दरिद्र
गृही।
कलि कौतुक तात न जात कही ।।4
कलि कौतुक तात न जात कही ।।4
लघु जीवन संबत
पंच दसा ।
कलपांत न नास गुमानु असा।।
कलपांत न नास गुमानु असा।।
कलिकाल बिहाल किए मनुजा।
नहिं मानत कोउ अनुजा तनुजा।।5
नहिं मानत कोउ अनुजा तनुजा।।5
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाखंड।
मान मोह मायादि
मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड।।6
श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड में (दोहा 97 से 104 तक) तुलसीदास इतना विशद-व्यापक वर्णन कलिकाल का करते हैं, कि मानव-व्यवहार से लगाकर समाज-जीवन तक के समस्त
विकृत पक्ष पूरी सत्यता के साथ उभरकर सामने आ जाते हैं। समाज को रास्ता दिखाने
वाले ज्ञानी और संतजन भी पथभ्रष्ट हो चुके हैं। स्वयं को सुखद और लाभकारी लगने
वाला विचार ही व्यक्ति के लिए नीति का पथ बना जाता है। आचरणहीन, अपकारी और दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों का समाज में
सम्मान होता है। नीति, नैतिकता
और धर्म का पालन करने वाले लोग समाज में तिरस्कृत और बहिष्कृत होते हैं। पुरुष ही
नहीं, महिलाएँ भी अपने पथ से विचलित हो जाती हैं। स्वार्थ, मोह, लोभ
और लालच के कारण संबंधों में शुचिता नहीं रह जाती। समाज में श्रेष्ठ माने जाने
वाले संबंध भी कलंकित हो जाते हैं। गुरु और शिष्य क्रमशः बहरे और अंधे के सदृश
हैं। पुरुष भी स्त्रियों के वश में होकर मदारी के बंदर की भाँति नाचते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास की लेखनी इतने पर ही नहीं रुकती। वे
बताते हैं कि साधु-संन्यासी बहुत-सा धन लगाकर घर को सजाते हैं। उन्हें विषय-वासना
ने अपने कब्जे में ले लिया है। गृहस्थ लोग दरिद्रता का जीवन जीते हैं। इस प्रकार
यह कलियुग का कौतुक ही कहा जाएगा, जहाँ
संन्यासी के अंदर विरक्ति के बजाय आसक्ति का भाव जाग उठता है और जिसे आसक्त होना
चाहिए, वह गृहस्थ दरिद्रता का जीवन जीता है। इस कारण समाज
का संतुलन बिगड़ गया है। समाज को रास्ता दिखाने वाले कवि झुंड के झुंड में हैं, मगर उनके आश्रयदाता दिखाई नहीं पड़ते हैं। संभवतः
अपने कविकर्म को ईमानदारी से नहीं निभाने के कारण उन्हें इस दशा को प्राप्त होना
पड़ रहा है। समाज में ऐसे लोग, जो
पथ-प्रदर्शक बनकर समाज को नीति-नैतिकता और मर्यादा-संयम का जीवन जीने की प्रेरणा
दे सकते थे, वे सभी भ्रष्ट और पतित हो गए हैं। कष्ट, हठ, दंभ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह, काम
आदि दुर्गुणों की व्यापकता कलियुग में इतनी हो गई है, कि वे समूचे ब्रह्मांड छा गए हैं। सामाजिक अनाचार
अपनी पराकाष्ठा में पहुँच गया है। कलियुग के इस वर्णन में मनोविकृतियाँ, पथभ्रष्टता, अनाचार और दुर्गुण समग्रता के साथ प्रकट हो जाते
हैं।
तुलसीदास द्वारा कलियुग का वर्णन किया जाना अप्रत्याशित
नहीं है। उन्होंने अपने जीवन में इस प्रकार की अनेक स्थितियों को देखा और भोगा। एक
अनाथ बालक के रूप में दर-दर की ठोकरें खाते हुए और फिर लोकमंगल की साधना हेतु
कर्मकांडों और धार्मिक पाखंडों की जटिलता से टकराते हुए आम बोलचाल की भाषा में-
नानापुराणनिगमागमसम्मत रघुनाथगाथा को स्वांतः सुखाय के लिए सृजित किया।7
यह उस वर्ग के वर्चस्व के लिए बड़ी चुनौती भी थी, जो धर्मशास्त्रों को अपनी पकड़ से बाहर सामान्य
लोगों के लिए सुलभ नहीं होने देना चाहता था। इसी कारण रामकथा के सृजन के दौरान
बाबा तुलसी को अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। कई बार उन्हें अपने जीवन के संकट
की स्थितियों का भी सामना करना पड़ा। दूसरी ओर तुलसी के जीवन-काल में राजनीतिक
परिस्थितियाँ इतनी जटिल हो चुकी थीं, कि उन्हें देख-समझकर मौन रह जाना तुलसी जैसे व्यक्तित्व के लिए संभव नहीं था।
गोस्वामी तुलसीदासजी का प्रादुर्भाव-काल पंद्रहवीं शताब्दी ईसवी का अंत अथवा
सोलहवीं शताब्दी ईसवी का प्रारंभ था। भारतीय इतिहास के अनुसार उस समय पठानों (लोदी
वंश) का शासन-काल समाप्त हो रहा था और मुगलों का भारतीय शासन-क्षेत्र में पदार्पण।
1526 ईसवी में बाबर ने इब्राहीम लोदी को परास्त किया और
सन् 1526 से 1530 ईसवी तक दिल्ली का राजशासन किया। उसके बाद हुमायूँ का और सन् 1556 से 1605 तक अकबर का राज्यकाल रहा। पठानों और मुगलों के शासनकाल के महत्त्वपूर्ण अंश
को अपनी आँखों देखा अथवा श्रुत अनुभव प्राप्त किया। बड़े-बड़े राजकीय परिवर्तन
उनके समय में हुए। शासन को प्राप्त करने के लिए परस्पर लड़ाई-झगड़े उस युग की
विशेषता थी। क्या राजा, क्या
प्रजा, सभी का जीवन स्थिरता और सुरक्षा से हीन था। उस समय
कुछ भी स्थायी न था।8
राजनीतिक अस्थिरता और धार्मिक अशांति एवं अस्त-व्यस्तता के बीच दिशाहीनता और
संकटग्रस्त समय की विकरालता को तुलसी जैसा युगदृष्टा-क्रांतिदर्शी कवि देख रहा था।
इन विषम और विपरीत परिस्थितियों ने तुलसीदास को प्रायः विवश कर दिया होगा, कि जिस रामकथा का प्रणयन उन्होंने ‘स्वांतः सुखाय’ के लिए किया है, उसकी परिणति और पूर्णता ‘लोकहिताय’ के रूप में करें।
लोकोन्मुख और लोककल्याणोन्मुख सृजन की अपनी यह विशेषता होती
है, कि वह समाज को भावी विषमताओं और विपरीत स्थितियों
के प्रति सचेत करे। संभवतः इसी कारण भागवत में कलिकाल का वर्णन मिलता है। ‘भागवत’ में भी कलियुग-वर्णन है, जिसमें
आगे वाले कलियुग के धर्मों के रूप में इस प्रकार की बातें कही गई हैं, जैसे कलियुग में विपरीत धर्म का आचरण होगा, कुटुंब के भरण-पोषण में ही दक्षता और चतुराई होगी।
यश और धन के लिए ही धर्म-सेवन होगा। पांडित्य के नाम पर वाक्-चपलता होगी। चारों ओर
दुष्टजन फैलेंगे। चोर एवं दुष्ट बढ़ेंगे। वेद-ज्ञान पाखंड से ढक जाएगा। राजा प्रजा
के भक्षक होंगे। ब्राह्मण लोभ और भोगप्रिय होंगे। भृत्य द्रव्यहीन स्वामी को छोड़
देंगे और स्वामी आपत्तिग्रस्त भृत्य को। धर्म को न जानेन वाले धर्म की दुहाई
देंगे। दुर्भिक्ष और कर से क्षीण जनता सदैव चिंताग्रस्त रहेगी। कौड़ी के लिए अपने
प्रियजनों तक की हत्याएँ होंगी।9
लगभग ऐसा ही वर्णन तुलसी के मानस में मिलता है। अंतर इतना ही है, कि भागवत में बताया गया है, कि- ऐसा होगा; जबकि तुलसी ने कहा है, कि- कलियुग में ऐसा है। संभव है कि भागवत का प्रभाव
तुलसी के मानस में वर्णित कलियुग-प्रसंग में पड़ा हो, मगर जितनी तीक्ष्णता तुलसी के मानस में दिखती है, उतनी भागवत में प्रतीत नहीं होती। भागवत का
पूर्वानुमान तुलसी के मानस में आँखों देखे या भोगे हुए यथार्थ के रूप में उपस्थित
होता है। आधुनिकताबोध लगभग इसी दृष्टि से कलियुग-प्रसंग को देखता है।
इसी दृष्टि से बाबा तुलसी के द्वारा वर्णित कलियुग-प्रसंग
महत्त्वपूर्ण है। लोकमंगल की भावना के पोषण और साहित्य-सर्जना के माध्यम से राम के
अद्भुत-अनुकरणीय व्यक्तित्व को स्थापित करने में कलियुग-प्रसंग अपनी सार्थकता को
सिद्ध कर देता है। इसी संदर्भ में आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि-
उत्तरकांड के विधान में एक कुशल आयोजना है रामराज्य और कलि-वर्णन को आमने-सामने
रखने में। सामना करने के कई परिणाम देखे जा सकते हैं। दोनों परिदृश्य का विरोध
दरसाना तो अपनी जगह है ही। तब इसी से निकलता है, क्या करणीय है और क्या अकरणीय! इस अनुक्रम में पहले
आता है रामराज्य का वर्णन (20-31) प्रायः बारह दोहों के विस्तार में, और फिर है कलि-वर्णन (96-104) इससे कुछ कम, नौ दोहों
में। लक्षित करने की बात यह है कि रामराज्य तो रचना के अपने वर्तमान में
प्रतिष्ठित है,
जबकि कलियुग, वर्णनकर्त्ता काकभुशुंडि के अनुसार, पूर्व के किसी एक कल्प में था- ‘पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल’। रामराज्य के वर्णन का व्याकरण वर्तमान काल में
चलता है, कलियुग का भूतकाल में। यों, कवि ने इस अतीत के कलियुग में अपने समय को
प्रक्षिप्त किया है, और
वास्तविक रामराज्य की कामना की है।10
इस तरह बाबा तुलसी रामराज्य की अवधारणा को स्थापित करते हुए
कलिकाल की विषमताओं के बीच सुखपूर्वक जीवन जीने की दिशा दिखा देते हैं। राम के
गुणों को; नीति, नैतिकता, मर्यादा, त्याग, समर्पण और समता-समरसता के भावों को अपने जीवन में
उतारकर; इन गुणों को जीवन का गान बनाकर कलिकाल की विषमताओं
परास्त किया जा सकता है। कलियुग में किसी भी भाव से दिया गया दान, अर्थात किसी भी प्रकार की आसक्ति को त्याग देने का
भाव कलिकाल में कल्याणकारी बन जाता है। कलिकाल की विकराल और विभीषक स्थितियों के
बीच सुखद-सुंदर जीवन जीने के लिए बाबा तुलसी की यह सीख हर युग में, प्रत्येक स्थिति में व्यक्ति और समाज के जीवन हेतु
उपयोगी है।
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास ।
गाइ राम गुन
गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास ।।
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान ।
जेन केन बिधि
दीन्हे दान करइ
कल्यान ।।11
संदर्भ-
1. गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्र प्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999,
7/96, पृ. 917,
2. रमेश कुंतल मेघ, मध्यकालीन क्लासिक ‘रामचरितमानस’ की समाजशास्त्रीय परिकल्पना भी नित-नवीन है, तुलसी : आधुनिक वातायन से, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2007, पृ. 334,
3. गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्र प्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999,
7/3-4/98, पृ. 918,
4. गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्र प्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999,
7/1-2/101, पृ. 921,
5. गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्र प्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999,
7/4-5/102, पृ. 922,
6. गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्र प्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999,
7/101, पृ. 921,
7. गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्र प्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999,
1/श्लोक, पृ. 55,
8. भगीरथ मिश्र, जीवनी और युग, तुलसी, संपा. उदयभानु सिंह, राधाकृष्ण
प्रकाशन, सं. प्रथम 1976, पृ. 25,
9. वही, पृ.
28,
10. रामस्वरूप चतुर्वेदी, रामचितमानस का स्थापत्य, हिंदी काव्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2007,
पृ. 94
11. गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्र प्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999,
7/103, पृ. 923 ।
डॉ. राहुल मिश्र
प्राध्यापक, हिंदी
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(मानद विश्वविद्यालय)
लेह-लदाख- 194104 (जम्मू व कश्मीर)
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अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
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