शोध आलेख:तुलसीकाव्य में सूक्तियाँ-डॉ. पूनम राठी

तुलसीकाव्य में सूक्तियाँ
(विशेष - राचरित मानस के संदर्भ में)
तुलसीदास मूल्यों को स्वीकार्य मान इनके माध्यम से पथ-प्रदर्शन करने वाले युग दृष्टा और संवेदनशील कवि थे। उन्होंने भारतीय नब्ज को पकड़कर उसके अनुरूप साहित्य सृजन किया, जो आज भी सबका प्रिय बना हुआ है। इसकी व्यापक ख्याति का प्रमुख कारण उनके द्वारा लोक-जीवन की समस्त परिस्थितियों एवम् दशाओं का सुन्दर चित्रण है इसलिए डॉ. गियर्सन ने तुलसीदास को सबसे बडे लोक नायकके रूप मे देखा एवम् रामचरित मानसको हिन्दुओं के सबसे बडे ग्रन्थ के रूप में।
भारतीय जनता के बीच रामचरित मानसका जितना अधिक प्रसार है उतना अन्य ग्रन्थ का नहीं। यह ऐसा ग्रन्थ है जो कठिन से कठिन परिस्थिति में भी मनुष्य की जिजिविषा को बनाए रख उसे कर्म प्रधानता की ओर अग्रसर करता है। कर्म-प्रधानता का यह श्रेय तुलसीदास प्रयुक्त अवसरानुकूल सुन्दर-सुन्दर सुक्तियों को जाता है। सुक्तियों से जीवन को एक सम्बल प्राम्त हाते है। इनसे बालक, यवुा, वद्धृ , विद्वान, ज्ञानी, अज्ञानी आदि सभी को उपदशों सतकर्म की प्रेरणा, दुख में धैर्य, निराशा में आशा की किरण एवम् कठिन से कठिन स्थितियों को पार करने का बल प्राप्त होता है।
सुक्तिका शाब्दिक अर्थ है-‘सूक्तिअर्थात् सुन्दर कथन। किसी चिन्तक, लेखक, मनीषी आदि द्वारा कही गयी ज्ञान युक्त उक्ति ‘सूक्तिकहलाती है।1 संस्कृत साहित्य के शब्द कल्पद्रुम’ - में सूक्ति के लिए-सुष्ठु उक्तम्। शोभनोक्ति विशिष्टम् कहा गया।2
सुक्ति के सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का विचार है-ऐसी उक्ति जिसे सुनते ही मन किसी भाव या मार्मिक भावना (जैसे - प्रस्तुत वस्तु का सौन्दर्य आदि) में लीन होकर एक बारगी कथन के अनूठे दंग, वर्ण-विन्यास या पद प्रयोग की विशेषता, दरू की सझू , कवि की चातुरी या निपूणता इत्यदि का विचार करने लगे वह ‘सूक्तिहै।3
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की मान्यता है कि ‘‘सूक्ति में नीति के वचन थोडे शब्दों में गागर में सागर की भांति बड़ी सुन्दरता से व्यक्त होते हैं, इनमें उपदेश देने की छटा निराली होती है। ये भावों को सजा-सँवारकर सजीव बनाने एवं वक्तव्य कला को चमकाने में बड़ी सहायक होती है’’4
वास्तव में देखा जाए तो विविध अनुभवों संक्षिप्त प्रचालित चुटीली उक्ति को ‘सूक्तिकहते हैं या फिर अनुभूति की सुन्दर अभिव्यक्ति को सूक्ति कहा जाता हैं। सूक्तियाँ  वस्तुतः वह सुन्दर नीति कथन है जो कवि के जीवन के अनुभवों का सार होता है। अनुभव जब शाब्दिक रूप में व्यक्त हो जाता है तब वह सूक्ति बन जाता है। सूक्तियाँ  उन शुभचिन्तकों की भाँति होती है जो समय-समय पर मार्गदर्शन कर उन्हें सत् मार्ग की ओर प्रेरित करती हैं।
सूक्तियाँ  ऐसी नीतिपूर्ण उक्तियाँ हैं जो समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। उनका प्रवेश समाज सापेक्ष एवम् परिस्थितिनुसार होता हैइनके द्वारा कत्र्तव्य भावना का यथोचित निर्वाह, सहानुभूति, परोपकार, करूणा, सत्यभाव, लोक कल्याण की भावना, जीवन के प्रति आस्थावादी दृष्टिकोण का विकास तथा समता की भावना का अभ्युदय होता है।
गोस्वामी तुलसीदास एक ऐसे युगदृष्टा महान कवि थे जिन्होने समाज को विनाश के पंक से निकालकर उच्च आदर्श की भूमि पर प्रतिष्ठित किया। इन्होंने अपने महत्वपूर्ण सांस्कृतिक एवम् भक्तिपरक साहित्य में छोटी-छोटी सुक्तियों के माध्यम से तत्कालीन समाज को नैतिकता, मर्यादा एवं आदर्श से परिपूर्ण एक नवीन दृष्टि प्रदान की, जो ज्ञान, भक्ति और कर्म के मणिकांचन संयोग से परिपुष्ट थी। जीवन के हर क्षेत्र में हम तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त सुक्तियों को देख सकते हैं-चाहे वह पारिवारिक संबंधों से जुडा हुआ हो, चाहे राजनीति से, चाहे गुरू-शिष्य संबंधो से और चाहे जीवन के विविध मनोभावों जैसे-क्रोध, दया, संयम, काम, शत्रुता, मित्रता, राग, द्वेष , परोपकार ,स्वार्थ आदि से। गुरू-शिष्य संबंधी सूक्तियाँ :-
भारतीय संस्कृति में गुरू को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। तुलसीदास ने भी गुरू-शिष्य सम्बन्ध को श्रद्धा एवं आत्मीयता पर आधारित बताया है। गुरू-शिष्य संबंध केवल गुरूकुल तक सीमित नहीं है जीवनपर्यन्त है। गुरू केवल शिक्षा देने वाला शिक्षक ही नहीं होता अपितु वह शिष्य को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रेरणा देने वाला पथ प्रदर्शक भी होता है। इसीलिए शिष्य का दायित्व है कि उसे गुरू की आज्ञा का अनुगामी होना चाहिए। तुलसीदास जी की दृष्टि में गुरू के आशीर्वाद के बिना कुछ भी संभव नही है-
                श्री गुरू चरन सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि।5
उनके अनुसार वही मनुष्य भाग्यवान है जो गुरू-चरणों में प्रीति रखता है-जे गुरू पदे अंबुज अनुरागी। ते लोकहु वेदहु बड भागी।।
जो व्यक्ति गुरू का सम्मान करता है उनकी चरण-रज को सिर पर धारण करता है। वह समस्त संसार को अपने वश में कर सकता है-जे गुरू चरन रेनू सिर धरही। ते तनु सकल विभव बस करही।।6
जिन व्यक्तियों के मन में गुरू के वचनों पर अविश्वास तथा गुरू का सम्मान भाव नहीं है उन्हें सपने में भी सुख की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती-
गुरू वचन प्रतीति न जेही। सपनेहु सुगम न सुख सिद्धि तेही।।7 गोस्वामी जी का मानना है कि गुरू के बिना हमें कोई भी इस भव सागर से पार नहीं करा सकता गुरू बिनु भवनिधि तरइ न कोई।8
गुरू से दुराव-छिपाव रखने पर हमें कभी भी शुद्ध व विमल बुद्धि प्राप्त नहीं हो सकती-होई न बिमल विवेक उर। गुरू सन किए दुराव।।9
तुलसीदास एकांकी दृष्टि वाले नहीं थे वे दरू दृष्टा थे उन्‍होंने ये सभी धर्म कवे ल पवित्र व सदगुरूओं के विषय में कहें है ढोंगी, पाखंडी तथा स्वार्थी गुरूओं के विषय में नहीं जिनमें पवित्रता व ज्ञान नहीं है और जिन्हें ज्ञान से बढ़कर उदर भरण की चिन्ता अधिक रहती है, सांसारिक आकर्षण को जो त्याग नहीं सकते, ऐसे गुरूओं के प्रति तुलसीदास खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं कि-

             हरइ शिष्य धन, सोक न हरई। सो गुरू घोर नरक महुँ परइ।10
गोस्वामी जी ने सर्वत्र गुरू-शिष्य संबंधो की आत्मीयता एवं मधुरता को देखा उनके अनुसार गुरू एवम् शिष्य के अनुशासन युक्त सम्बन्ध ही समाज का कल्याण कर उसे उन्नति की ओर अग्रसर कर सकते हैं। सन्त-असन्त (खल-सज्जन) संबंधी सूक्तियाँ -
सन्तका संबंध सज्जनअर्थात् सद चरित वाले व्यक्तियों से है और असन्तया खलका संबंध दुष्ट प्रवृक्तियों वाले व्यक्ति से है। वैसे तो स्वभाव के अनुसार मनुष्य की अगणित कोटियाँ हैं किन्तु तुलसीदास ने इन्हें मुख्य रूप से दो कोटियों में विभक्त किया है जैसे- 1. ‘सन्तया सज्जनतथा 2. ‘असन्त’, ‘खलया असज्जन। असन्तों में दुर्गुण प्रभाव की अधिकता होती है तथा सन्तों पर यह प्रभाव शुन्य प्राय होता है। कवि ने इन दोनों वर्गो का प्रत्यक्षीकरण अनेक स्थानों पर किया है।
1. सन्त संबंधीः-
तुलसीदास ने समाज को शिक्षा देने के लिए इन विरोधमूलक चरित्रों का निर्माण किया। सन्त स्व एव स्वार्थ हिताय कोई कार्य नहीं करता उसका प्रत्येक कार्य परहिताय, कल्याणकारी, शुभ एवम् समाज के मंगल के लिए होता है। वह भेदभाव की नीति का पालन न कर, सबके लिए एक सा कार्य करता है। उसका हृदय तो निर्मल जल की भांति होता है-
संत हृदय जस निर्मलवारी।11
सन्तों का स्वभाव चंदन के सदृश्य होता है जो कुल्हाडी रूपी खल व्यक्ति को भी अपनी सुगंध से सुवासित कर देना चाहता है-संत अंसतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।। काटई परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देई सुगन्ध बसाई।।12
तुलसीदास सन्त व खल पुरूषों की तुलना करते हुए कहते है कि-सुधा सुरा सम साधु-असाधु
अपनी सूक्ति के माध्यम से तुलसीदास व्यक्ति से कहते है कि उसे विकार युक्त समाज से सन्त रूपी हंस की भाँति गुणों को ही ग्रहण करना चाहिए, अवगुणों का त्याग कर देना चाहिए-
                    संत हंस गुन गहहि पय परिहरि बारि विकार।।13
तुलसीदास बताते है कि असली सन्त वही है जो सत, रज, तम तीनों प्रकार के गुणों से परे हो-
अति सीतल अति ही अमल, सकल कामना हीन। तुलसी ताहि अतीत गनि, वृति सान्ति लय लीन।।14
अहंकार के विषय में बताते हुए तुलसीदास कहते है कि अहंकार ही सब अवगुणों का स्त्रोत है गुणातीत वही हो सकता है जिसने अहंकार को भस्म कर दिया है वही सन्त है’-अहंकार की अग्नि में दहत सकल संसार। तुलसी बाचे सन्त जन, केवल सान्ति आधार।।15
तुलसीदास ने संत के माध्यम से शील का आदर्श प्रस्तुत किया है जिसके द्वारा संसार में, जन मानस में सदाचरण एवं विश्व मैत्री का भाव उत्पन्न हो सके। शील के अन्तर्गत समस्त सदगुण और सदाचारों का समावेश होता है। सदगुणका अर्थ है-क्षमा, मैत्री, दया, अहिंसा, सन्तोष, प्रेम, करूणा आदि एवम् सदाचारका अर्थ है-परोपकार, दान, सेवा, त्याग, अपरिग्रह आदि। तुलसीदास ने संतो के गुणों और आचरण की चर्चा अनेक स्थानों पर की है। संस्कृताचार्य भतृहरि ने परोपकारी व्यक्ति को संतकहा है’ (संत स्वय परहिते विहिताभियोग)। अतः संत वही है जो अपनी चिन्तवृत्तियों को शुद्ध रखकर लोक कल्याण में लगा रहता है।
2. असन्त (खल) संबंधीः-
तुलसीदास जी ने जिस प्रकार से संतो के आचरण एवं गुणों के विषय में लिखा है उसी प्रकार से उन्होने खल अर्थात् दुष्ट, असज्जन व्यक्तियों के विषय में भी अपनी कलम को गति दी है। उनका कहना है कि दुष्ट मनुष्यों का मन ईष्या, द्वेष से परिपूर्ण होता है। वे सदैव पराइ्र सम्पदा देखकर जलते हैं। जहाँ कहीं दूसरों की बुराई सुनते हैं वहाँ ऐसे प्रसन्न हो जाते है मानो पड़ी हुई सम्पति पा गए हों-
खलन्ह हृदय अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी।। 
जहाँ कहुँ निंदा सुनहि पराई। हरषहि मनहुँ परी निधि पाई।।16
दुष्ट व्यक्ति काम, क्रोध मद और लोभ में लिप्त रहते हैं वे निर्दयी कपटी, खोटे और मन के मैले होते हैं-
काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन।।17
तुलसीदास ने खल व्यक्तियों को राक्षस के समान माना है। वे कहते हैं-
ते नर पांवर पापमय, देह धरे गनुजाद।
तुलसीदास असाधु (खल) व्यक्ति को सुरा के समान विनाशक मानते हैं एवं उनके आचरण को कुठार के समान पीडा देने व नष्ट करने वाला मानते हैं। तुलसीदास ने जहाँ एक ओर सन्तों के गुणों की महिमा का बखान किया है वहीं दूसरी ओर दुर्जनों के स्वभाव और उनकी कुसंगति के परिणामों को भी अपनी सुक्तियों के माध्यम से जन-साधारण के सामने रखा हैः-
-     खलन हृदय अति हरष विसेषी।
-     जरहि सदा पर संपति देखो।।18
-     खल सन कलह न भल नहि प्रीति।19
-     खल परिहरिअ स्वान की नाई।20
-     भयदायक खल कै प्रिय बानी।21
-     जय थोरेहुँ धन खल इतराई।22
-     सह सन विनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपन सन सुन्दर नीति।।23
      खलों के विषय में डॉ. बलदेव प्रसाद जी का मत है कि-‘‘ये खल लोग अपनी खलता (दुष्ट प्रवृति) में इतने मंजे हुए होते है कि इनका उद्धार प्रायः असंभव होता है।’’24 डॉ. रमेश कुन्तक मेघ ने भी विचार व्यक्त करते हुए कहा है-‘‘चतुरता तथा पाखंड आर्थिक और पारिवारिक संस्थाओं की रक्षा के वे साधन है जिन्हें उच्च वर्ग तथा विघटनकारी समाज जन साधारण पर थोपता है। फलस्वरूप सारे समाज का कुमानवीकरण हो जाता है’’25

त्संग संबंधी सूक्तियाँ :-
व्यक्ति के चरित्र निर्माण में सर्वाधिक प्रभाव उसकी संगति का पडता है जैसी संगति कीजिए, तासे होए विचार। तुलसीदास ने भी अपने साहित्य के माध्यम से सत्संगति अर्थात् सज्जन व्यक्तियों के साथ पर बल दिया है। तुलसीदास कहते है कि व्यक्ति सत्संग के प्रभाव से ही बुद्धि, यश, ऐश्वर्य, भलाई आदि गुणों को प्राप्त करता है। और वे कहते है-
                      बिनु सत्संग विवेक न होई।26
कवि सतसंगति को सभी प्रकार के कल्याणकारी कार्यो का मूलाधार मानते है-
             सत्संगति मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला।27
कवि सत्संगति के प्रभाव के विषय में बताते हुए कहते है कि सत्संगति आनन्द मंगल की जड है, सिद्धि उसका फूल है और सब प्रकार के साधन उसके फल है इसलिए इसके प्रभाव से सठ (दुष्ट) व्यक्ति भी सुधर जाते है-
                 सठ सुधरहि सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई। 
             बिधि बस सुजन सुसंगत परही। फनि मनिसम निजगुन अनुसरही।28
अर्थात् दुष्ट भी अच्छी संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस को छूकर लोहा कंचन हो जाता है। दैवयोग से यदि सज्जन कुसंगति में पड़ जाते है तो सर्प की मणि के समान गुणों के अनुसार ही रहते हैं। सज्जन व्यक्तियों के सनिध्य से हमें सुपथ का अनुसरण करने की प्रेरणा मिलती है। वैसे तो समाज में सत् और असत् दोनों ही पक्ष विधमान है किन्तु यह समाज भले के लिए भला और बुरे के लिए बुरा है-
                        जुग भले भलेहि, पोच कहुं पोचू।29
सत्संगति मनुष्य को सदैव सतपथ पर अग्रसर करती है वह व्यक्ति में मानवता का भाव उत्पन्न करती है।
तुलसीदास सत्संग की महिमा बताते हुए कहते है-
सात स्वर्ग उपवर्ग सुख धरिए तुला एक अंग तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।30
जिस प्रकार सुसंगति व्यक्ति को बडाई का अधिकारी बनाती है उसी प्रकार कुसंगति व्यक्ति को विनष्ट कर देती है इसलिए सदैव कुसंगति से बचने की सलाह दी जाती है।

मित्र-शत्रु संबंधी सूक्तियाँ :-
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहकर अनेक व्यक्तियों से संबंधो का निर्वाह करता है। संबंधों के इस कत्र्तव्य पालन में इसका सामना मित्र और शत्रु दोनों से होता है। तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में सुक्तियों के द्वारा मित्र और शत्रु दोनो के गुण-दोषों का प्रतिपादन बडे ही व्यवहारिक ढ़ग से सरल वाणी में किया है। तुलसीदास ने रामचरित मानसके किष्किन्धा काण्डएवम् उत्तर-काण्डमें मित्र तथा शत्रु के विषय में विस्तार से चर्चा की है।

मित्र संबंधी:-
सामाजिक परिवेश में मित्र का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। मित्र की संगत में व्यक्ति अच्छा भी बन सकता है और बुरा भी। अच्छे मित्र के साथ रहने से व्यक्ति के जीवन में श्रेष्ठ मूल्यों का विकास होता है, वह सत्पथ पर बढ़ता है और कल्याणकारी कार्यो की ओर अग्रसर होता है वही दूसरी ओर अमित्र के साथ रहने से व्यक्ति निरन्तर विनाश की ओर उन्मुख होता है उसके चारित्रिक गुणों में रूकावट पैदा होती है। तुलसीदास ने अपने काव्य में मित्र और शत्रु के लक्षणों की लम्बी सूची दी है। वे कहते हैं सच्चा-मित्र वही होता है जो अपने मित्र के दुख को अपना दुख समझकर दुखी होता है और उसकी हर संभव सहायता करता है, इसके विपरित व्यवहार करने वाला अमित्र है और तुलसीदास ऐसे व्यक्ति को देखना भी पाप समझते है-
               जे न मित्र दुख होहि दुखारी। तिन्हहि विलोकत पातक भारी।31
सच्चा मित्र सदैव अपने पर्वत समान दुख को तुच्छ एवम् मित्र के छाटे से दुख कों भी मरू के समान कष्टकारी समझता है-निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरू समाना।।32
तुलसीदास जी कहते है कि मित्रो में कभी भी (दो) का भाव नहीं होता अर्थात् उनमें दुराव या छिपाव के लिए कोई स्थान नहीं होता वह सदैव अपने मित्र को कुपथ से सुपथ की ओर ले जाता है-
              कुपथ निवारि सुपथ चलाना। गुन प्रगटे अवगुनहि दुरावा।।33
एवम्
                   देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करही।। 
                 विपत्ति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह सन्तमित्र गुन ऐहा।।34
अर्थात् जो लेने देने में शंका नहीं करता और अपनी शक्ति, ताकत, एवम् बल के अनुसार सदा भलाई करता है तथा विपत्ति के समय सौ गुना प्रेम करे। वेद कहते है कि सज्जन (सच्चे) मित्र के यही लक्षण है। तुलसीदास सच्चे मित्र के विपरित दोहरे चरित्र वाले व्यक्ति के विषय में भी बताते है जो सामने-सामने मीठे वचन बोलते है, पीठ पीछे बुराई करते है, ऐसे व्यक्ति का मन सांप की चाल के समान टेढा होता है अतः ऐसे कपटी-मित्र को छोडने में ही भलाई है-
                 आगे कह मृदु बचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई।। 
             जाकर चित अहि गति सम भाई। उस कुमित्र परिहरे हि भलाई।।,35
शत्रु संबंधी:-
गोस्वामी तुलसीदास जी ने जिस प्रकार मित्र एवं मित्रता के विषय में अपने विचारों का प्रतिपादनसूक्तिरूप में किया है उसी प्रकार शत्रु के संबंध सुक्तियों के माध्यम से जन-जीवन को सतर्क भी करते है। वे कहते है कि समय के विपरित होने पर प्रिय जन भी शत्रु बन जाते है-
                          समय फिरे रिपु होहि पिरीते।36
तुलसीदास व्यक्ति को शत्रु से सतर्क करते हुए कहते हैं कि-शत्रु को अकेला होने पर भी, उसे कभी कमजोर या छोटा नहीं समझना चाहिए-

                    रिपु तेजसी अकेल अपि। लघु करि गनिअ न ताहु।।37
इसी प्रकार शत्रु, रोग, पावक, पाप, तथा सर्प को भी छोटा नहीं समझना चाहिए-

                                रिपु रूज पावक पाप।
                            प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।।38
तुलसीदास कहते हैं कि जो शत्रु मधु देने से मर जाए उसे विष देने की आवश्यकता नहीं होती अर्थात् मित्रता और शत्रुता दोनों का निर्वाह बुद्धि कौशल से करना चाहिए।

कर्म संबंधी सूक्तियाँ :-
भारतीय विचारधारा में कर्म को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। कर्म के बिना संसार की गति असंभव है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का एक ध्येय होता है और वह ध्येय कर्म द्वारा ही पूर्ण होता है। श्रीमद भागवत गीता में भी कर्मण्येवाधिकारऽते मा फलेषु कदाचन। कहकर कर्म को महत्त्वपूर्ण माना गया है। तुलसीदास भी अपनी सुक्तियों के माध्यम से जन-मन में कर्म के महत्त्व को स्थापित कर उसे अकर्मण्य से कर्म की ओर ले जाना चाहते हैं। वे कहते हैं-
            करम प्रधान विस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फल चाखा।।39
प्रत्येक जीव को अपने कर्मो के अनुसार सुख दुख का भोग करना पडता है- जीव करम बस सुख दुख भागी। गोस्वामी जी कर्म के विषय में कहते हैं-
                               नाना कर्म धर्म व्रत दाना। 
                           संयम दम जप तप मख नाना।।40
                      -     जप तप नियम जोग निज धर्मा।
                      श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा।।41
व्यक्ति की पहचार उसके कर्मो से होती है कथनी से नही।

   सूर समर करनी-करहि, कहि न जनावहि आपु। विद्यमान रन पाइ रिपु, कायर कथहि प्रतापु।।42
कर्म वही महत्त्वपूर्ण है जो उचित समय पर किया जाए अन्यथा समय निकल जाने पर पश्चाताप करने से कोई लाभ नही होता-
           का बरषा जब कृषी सुखाने। समय चूके पुनि का पछिताने।।43

परोपकार या परहित संबंधी सूक्तियाँ :-
तुलसीदास परहित या परोपकार के भाव को लौकिक व मानवीय दृष्टि से सर्वोपरि मानते हैं। जब तक व्यक्ति के मन में पर-उपकारएवम् पर-हितायका भाव नहीं होगा तब मनुष्यता, मानवता तथा विश्व सन्धुत्व की भावना का विकास नही हो सकता है। गोस्वामी जी के अनुसार परहित अर्थात् लोक मंगल के साधन और पर पीडा के निवारण का व्रत किसी भी समाज को आदर्श बना सकता है। जहां के व्यक्तियों में लोक मंगल या परोपकार के प्रति लगाव होगा और पर पीडा से दुख का भाव होगा वहां पर स्वार्थ, ईष्या-द्वेष, मोह, कलह, शोषण जैसी कुवृत्तियों के लिए कोई स्थान न होगा और व्यक्ति उन्नति की ओर अग्रसर होगा। उनका मानना है कि हमें प्रत्येक व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए जैसा हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं। अर्थात् आज के समय की आवश्यकता है समस्त प्राणियों को अपने समान समझना तथा उसके सुख, दुख, दैन्य आदि को अपना समझकर उसके साथ समानता का भाव रखना। परोपकार एवम् परहित से संबंधित अनेक सूक्तियाँ  इनके काव्य में दृष्टव्य है जैसे:-
                पर हित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहि अधमाई।44
जिनके मन में परहित का भाव होता है उनके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है-
             परहित बस जिन्ह के जग माही। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाही।।
45
तुलसीदास कहते है कि परोपकार की महिमा इतनी अद्भूत है जो व्यक्ति परहित के लिए शरीर त्याग देते है उनकी सर्वत्रप्रशंसा होती है-
                परहित लागि तजिअ जो देही। संतत संत प्रसंसहि तेही।।46 
                   काम, क्रोध, मोह विकार आदि संबंधी सूक्तियाँ ः-

प्रत्येक व्यक्ति के मन में काम, क्रोध, माया, मोह, ईष्या, द्वेष, लोभ आदि अनेक मनोविकार व्याप्त है, जो उसके चरित्र के सबसे बडे शत्रु है ये ही मनोविकार प्रबल रूप धारण कर पाप का मूल आधार बनते हैं इसलिए तुलसीदास चरित्र की निर्मलता के लिए इन्द्रिय निग्रहपर बल देते हैं और इनसे मुक्ति को परमावश्यक समझते है। तुलसीदास काम, क्रोध और लोभ तीनों को व्यक्ति का प्रबल शत्रु मानकर इनसे बचने के लिए कहते हैं-
                    तात तीन अति प्रबल खल। काम क्रोध अरू लोभ।।47
गोस्वामी जी ने लोभ का कारण इच्छाओं और पाखण्ड को माना है तथा क्रोध का मूल कठोर वचनों को माना है। अगर लोभ और क्रोध से बचना है तो अपनी इन्द्रियों को वश में करना होगा। जो व्यक्ति इन मनोविकारों को त्याग कर, उन पर विजय प्राप्त कर लेते है वही सत्मार्ग के अनुगामी हो सकते है। इसीलिए तुलसीदास कहते है-
               काम, क्रोध, मद, मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न दोहा।।
                 जिनके कपट दम्भ नहीं माया। तिनके हृदय बसहु रघुराया।।48
तुलसीदास की सुक्तियों से हमें गुण-दोषों के संग्रह व त्याग की शिक्षा लेनी चाहिए। वे बताते है कि-क्षमा में बहुत गुण है और क्रोध में बहुत बडा दोष है अतः इनका प्रयोग बहुत सोच समझकर करना चाहिए-
                    छमा रोष के दोष गुन। सुनि मनु मानहि सीख।49
मधुर वाणी का अपना ही महत्व है, क्रोध में भी ऐसे वचन बोलने चाहिए जो सुनने में मधुर और परिणाम में हितकर हो-
                      रोष न रसना खोलिए, बरू खोलिअ तरवारि।
                     सुनत मधुर परिनाम हित, बौलिअ बचन बिचारि।50

सुमति और कुमति के विषय में भी तुलसीदास कहते है-
            जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।51
विभिन्न स्थितियों व घटनाओं में प्रयुक्त होने वाली सूक्तियाँ :-तुसीदास कहते हैं समय आने पर ही सही एवम् गलत व्यक्ति की परीक्षा होती है-
            कसे कनक मनि परिख पाएँ। पुरूष परिखिअहि समय सुभाएँ।।52
दुष्टसेवक, कृपनराजा, दुष्टस्त्री तथा कपटी मित्र शूल के समान कष्टकारी होते हैं इनसे सदैव सावधान रहना चाहिए-सेवक सठ, नृप कृपिन कुनारी।
                       कपटी मित्र सूल सम चारी।।53
प्रति और विरोध समान के साथ ही करना चाहिए-प्रीति विरोध समान सन। करिअ नीति अस आहि।।
कभी भी भय के कारण सत्य वचन का त्याग नही करना चाहिए क्योंकि भय के कारण प्रिय वचन बोलना, प्रिय के नाश का कारण होता है-
                 सचिव बैद गुरू तीनि। जो प्रिय बोलहि भय आस।। 
                  राज धर्म तन तीनि कर। होई बेगिही नास।54
नीति के बिना राज्य, धर्म के बिना धन, विद्याज्ञान के बिना विवेक शीघ्र ही नष्ट हो जाते है-
राज नीति बिनु, धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु रात कर्मा।।55
विद्या बिनु बिबेक उपजाएँ।श्रम फल पढे किए अरू पाएं।।56
गोस्वामी जी मानव शरीर को श्रेष्ठ बताते हुए कहते हैं नर तन सम नहि कवनिउ देही।
अर्थात् मानव शरीर सर्वश्रेष्ठ है। यह शरीर स्वर्ग, नरक आदि सभी का सोपान बन सकता है। ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि अध्योत्मोन्मुखी प्रवृत्तियों का विकास इसी शरीर के रहते ही हो सकता है इसलिए जितने श्रेष्ठ कार्य करने हो समय रहते कर लेने चाहिए। अन्यथा का बरखा जब कृषी सुखाने।

प्रकृति संबंधी सूक्तियाँ :-
मनुष्य प्रकृति लोक का एक अभिन्न प्राणी है। प्रकृति सदैव से मानव की सहचरी के रूप में साहित्य का अंग बन उसके सुख-दुख में उसके साथ रोती व हँसती रही है। कभी वह उसकी साथी बनती है और कभी उसका संदेश लेकर प्रेमिका के पास पहुँचती है। वास्तव में आकाश में चमकते सूर्य, तारे, चन्द्रमा, वायु, लता, वृक्ष आदि अपनी असख्ं य लहरों से कभी मानव हृदय को पुलकित करते हैं तथा कभी कम्पित करते है। धरती के हृदय पर अपना मस्तक उठाए पर्वत श्रृंख्लाएँ अपने उद्गम वेग से चलता हुआ पवन, वन, कन्दराएँ, नदियाँ, झीलें, नहरे। उछलते-कूदते मन को विभिन्न भावों की सैर कराते स्वतन्त्र पशुओं के झुण्ड और मानव के भावों को सर्वाधिक प्रभावित करती विभिन्न ऋतुएँ। मनुष्य और प्रकृति अभी भी एक दूसरे विलग नहीं हैं। प्रकृति के इन्द्रधनुषी रंग, उसका बहुरंगी रूप मानव को अपनी ओर आकर्षित करता है और वह प्रकृति भावों के रूप में कवि द्वारा काव्य के माध्यम से प्रवाहित हो उठती है।

प्राचीन कालीन काव्यों से आज तक के काव्य में सर्वाधिक मात्रा में प्रकृति का ही फैलाव दृष्टव्य है। यह प्रकृति हमें विभिन्न संदेश, उपदेश, व्यवहार की नीतियाँ सिखाती रही है। तुलसीदास एक संवेदनशील व्यक्ति होने के साथ-साथ अनुभवी कवि भी थे वे स्थिति को समझ व्यक्ति को उससे जूझने, सामंजस्य करने या उससे शिक्षा लेते हुए जीवन को जीने की प्रेरणा देते थे। उन्होंने प्रकृति को देखा, जाना, परखा, व समझा साथ ही उसे उपदेशक शक्ति के रूप में स्वीकार कर उसके माध्यम से अपने भावों व विचारों को सुक्तियों के रूप में व्यक्त किया।

तुलसीदास अपनी सुक्तियों के माध्यम से मानव मन का परिष्कार करते हंै। वे उस काव्य को श्रेष्ठ व सवोत्तम मानते है जो सुरसरिके समान मंगलकारीहो, जो व्यक्ति के लोक और परलोक दोनों को सुधार सके। तुलसीदास कही भी जबरदस्ती अपने विचार किसी पर थोपते नहीं है अपितु सीधे सामान्य सहज रूप में वे अपनी बात को व्यक्ति के समक्ष रख उसे पूरा-पूरा अवसर देते है कि व्यक्ति उसके विषय में सोचे और सही लगने पर उस मार्ग को स्वीकार करें।
रामचरित मानसमें अरण्य काण्डऔर किष्किन्धा काण्डमें जो सूक्तियाँ  मिलती है वे प्रकृति के विविध् रूपों पर आधारित है। अरण्य काण्ड में पंपा-सरोवरके तट पर पहुंच कर कवि उसके रूप को देखकर मंत्रमुग्ध् से हो जाते है। पंपा सरोवर एक उपदेशक सा लगने लगता है जैसे- सन्त हृदय जस निर्मल बारीअर्थात् पंपा-सरोवरका जल सन्तों के हृदय के समान निर्मल, स्वच्छ व पवित्र जान पड़ता है।
तुलसीदास पंपा सरोवर के आस-पास फलों से लदे होने के कारण नीचे भूमि की ओर झुके हुए वृक्षों की तुलना परोपकारी व्यक्तियों से करते हुए कहते है कि फलो के बोझ से सब वृक्ष झुककर भूमि से लग गए है जैसे परोपकारी पुरूष सम्पति पाकर और अधिक विनीत व उपकारी हो जाते हैं। तुलसीदास हमें एक बार पुनः उस अद्भूत अतुलनीय प्राकृतिक सौन्दर्य की ओर ले जाना चाहते है जहाँ प्रकृति केवल प्रकृति ही नही है अपितु वह हमारी शिक्षिका है, ज्ञानदात्री एवम् मार्गदर्शिका है जो हममें मानवता सजीव करना चाहती है। जिसके दर्शन मात्र से हृदय के बंधन खुल जाते हैं, मन सौन्दर्य के क्रोड में कुलाचे भरने लगता है, आनन्द की शीतल फुहारें हमारी आत्मा को तृप्त कर देती हैं। बादलों में चमकती हुई बिजली, बूंदो का पर्वत पर गिरना, नदियों का किनारे तोडते हुए बहना, तालाबों का जल से भरना, स्वच्छ जल का पृथ्वी पर पड़ते ही मैला होना, घास की अधिकता के कारण रास्ता दिखाई न पड़ना, खेतों से भरी हुई पृथ्वी का शोभायमान होना, शरद त्रदतु में खंजन एवम् चक्रवाक पक्षियों का वर्णन आदि। इन सभी को हम तुलसीदास जी की सुक्तियों में जन-सामान्य से जुड़ा हुआ पाते है जैसे-
-     दामिनी दमक रही घन माही, खल के प्रीति जया फिर नाही।57
-     ‘बरषहि जलद भूमि निअराएँ, जथा नवहि बुध विद्या पाएँ।58
-     ‘बूँद अघात सहहि गिरि कैसे, खल के वचन सन्त सहे जैसे।59
-     ‘छुद्र नदी भरि चली तोराई, जस थोरेहुँ धन खल इतराई।60
-     हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहि नहि पंथ।
जिमि पाखण्ड बाद ते, गुप्त होहि सद्ग्रन्थ।।61
-     नव पल्लव भए बिटप अनेका, साधक मन जस मिलें विवेका।62
-     अर्क जवास पात बिनु भयऊ, जस सुराज खल उद्यम गयऊ।63
-     ससि सम्पन्न सोह महि कैसी, उपकारी के संपत्ति जैसी।64
-     सरिता सर निर्मल जल सोहा, सन्त हृदय जस गत मद मोहा।65
-     जानि सरद रितु खंजन आए, पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।66
-     चक्रवाक मन दुख निसि पेखी, जिमि दुर्जन पर संपति देखी।67
राजनीति संबंधी सूक्तियाँ :-तुलसीदास यथार्थ की कठोर भूमि की उपज थे। उन्होने सामान्य व्यक्ति की पीडा को बहुत नजदीक से महसुस किया था। इनके समय मुस्लिम शासकों का अधिपत्य था जो साम्राज्यवादी थे। उनके शोषण और उत्मीड़न के कारण जन-साधारण पीडित था साथ ही हिन्दु शासकों पर भी मानसिक दबाव था। प्रत्येक दृष्टि से स्वतन्त्रता का अधिकारन के बराबर था, पराधीनता की पीडा से व्याकुल होकर उनका मन कह उठा था पराधीन सपेनूहू सुख नाही
यद्यपि राजनीति तुलसीदास जी का वर्णन विषय नहीं थी तथापि जनता की आन्तरिक पीडा की पहचान कर व्यावहारिक रूप से उन्होंने एक आदर्श राज्य काज व्यवस्था अर्थात् रामराज्यकी कल्पना की। साधारण रूप से उन्होंने राजनीति संबंधी विषयों जैसे- राजनीति का स्वरूप, आदर्श राजा के गुण दोष उसके कर्तव्य और अधिकार , राजधर्म, राजा प्रजा संबंध, राज्य-कर व्यवस्था, राजा का अपने शत्रु तथा मित्रों के प्रति व्यवहार युद्ध नीति, सेना-व्यवस्था आदि को सुक्तियों के द्वारा बड़ी सरलता एवम् सहजता से समझा दिया है।

शासकों के अत्याचार, उनके अन्याय पूर्ण व्यवहार एवम् उनके शोषण के विरूद्ध आवाज उठाते हुए तुलसीदास उन्हें चेतावनी देते है कि-जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।
राजधर्म-तुलसीदास जी ने एक दोहे में स्पष्ट कर दिया है कि राजा का धर्म क्या है? चित्रकूट की सभा में भगवान राम भरत को गुरू, माताओं तथा मन्त्रियों की मन्त्रणानुसार समझाते हुए कहते हैं-

मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान कहुँ एकं, पालइ पौषइ सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।।68

अर्थात् राजधर्म के गूण रहस्य का वर्णन करते हुए कहते है कि मुखिया अर्थात् प्रमुखअर्थात् शासक’, ‘राजा’  या राज प्रतिनिधि को मुख के समान होना चाहिए। जिस प्रकार मुख अकेला खाता-पीता हुआ दिखाई पड़ता है किन्तु विवेक सहित वह शरीर के सभी अंगो का संचालन एवं पालन करता है ठीक उसी प्रकार राजा का कार्य भी होना चाहिए। राजा का परम धर्म एवम् कत्र्तव्य है कि वह प्रजा का पालन करे, उसे प्रसन्न व सुखी रखें उसकी सुख सुविधाओं का ध्यान रखते हुए अपने राज्य को शक्ति सम्पन्न और समृद्धशाली बनाए। इस प्रकार प्रजा को आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध करना राजधर्म है।

माली भानु किसान सम, नीति निपुन नरपाल। प्रजा भाग बस होहिगे कबहुँ कबहुँ कलिकाल।।

राजा को माली, सूर्य और किसान के अतिरिक्त नीति निपूर्ण भी होना चाहिए। नीति युक्त राजा ही अपनी सूझ-बूझा से राज्य एवम् प्रजा का हित कर सकता है-धन्य सौ भूप नीति जो करई। साथ ही साथ तुलसीदास राजाओं को सचेत भी करते है-
              नीति न तजिअ राजपदु पाएँ पालहु प्रजहि करम मन बानी।69
रामचन्द्र जी ने भरत को चित्रकूट से विदा करते समय राजधर्म की जो शिक्षा दी वह मानो राजनीति का सार तत्व है। उनका मानना है कि शासन संचालन में अपने गुरूओं, मन्त्रियों एवं सहयोगियों से मन्त्रना करते रहना ही श्रेयकर है इससे जीवन में लोक मर्यादा की रक्षा होती है और निरंकुशता आने की संभावना कम रहती है-
            गुरू पितु-मातु स्वामि सिख पालै। चलेहुँ कुमग पग परिहि न खालै।70
गोस्वामी जी एक तरफ जहाँ राजा को श्रेष्ठ लोगों से मन्त्रणा करने की बात कहते हैं वहीं दूसरी तरफ राजा को सदैव कुनीति से बचने की सलाह देते है अन्यथा उनकी (राजा) दशा भी खजूर की उन शाखाओं के समान हो जाएगी जो छाया के स्थान पर कांटे बिखरने लगे तो समझना चाहिए कि अब वे शीघ्र ही सूखकर गिरने वाली है-
                       कंटक करि करि परत गिरि, साखा सहस खजूरि। 
                        मरहि कुनृप करि करि कुनप सो कुचालि भव भूरि।71
तुलसीदास कहते है कि एक आदर्श राजा या शासक को धर्मज्ञ, नीतिज्ञ, तेजस्वी, प्रतापी, सुशील तथा बलवान
होने के साथ-साथ प्रजा-वत्सल भी होना चाहिए-
                    धरम धुरंधर नीति विधाना। तेज प्रताप सील बलवाना।।72
कर (टैल्स) के संबंध में तुलसीदास जी का कहना है कि राजा को प्रजा से उतना ही कर लेना चाहिए जितना प्रजा को भार स्वरूप प्रतीत न हो या वह प्रजा की कमर न तोड़ दे। साथ ही उस कर का प्रयोग राज्य की समृद्धि एवम् प्रजा की आवश्यकताओं की पूर्ति के होना चहिए जैसे-

                       बरषत हरषत लोग सब करषत लगे न कोई।
                      तुलसी प्रजा सुभाग तेभूप भानु सो होई।।73
अर्थात् जिस प्रकार सूर्य जब थोड़ा-थोड़ा करके पृथ्वी से पानी सोखता है तब किसी को कुछ भी दिखाई नहीं देता लेकिन वही परिवर्तित होकर वर्षा के रूप में पृथ्वी पर बरसता है तो सभी लोग प्रसन्न तथा तृप्त हो जाते है। कहने का तात्पर्य है कि राजा को अप्रत्यक्ष कर प्रणाली को अपनाना चाहिए। उसे जनता पर इस तरह से कर लगाना चाहिए। जिसका प्रजा को ज्ञान भी न हो। लेकिन साथ ही प्रजा को यह अवश्य पता होना चाहिए कि राजकोष की पूंजी उसी के कल्याणार्थ खर्च हो रही है।

तलसीदास ने अपनी सुक्तियों में स्थान-स्थान पर प्रसंगानुकूल राजनीति के सूक्ष्म किन्तु मूल्यवान तथ्यों कोसूक्तिरूप में निरूपित किया है जिसका अनुसरण करके आज भी दूषित राजनीतिक वातावरण को स्वच्छ व निर्मल बनाया जा सकता है।

सारांशतः गोस्वामी जी की सुक्तियों का महत्त्व किसी काल विशेष की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। अपनी समग्रता के कारण उसका विस्तृत फलक सार्वकालिक और सार्वदेशिक बन गया है। उन्होंने अपनी सुक्तियों में मनुष्य के आचरण को ही उसकी उच्चता या न्यूनता का मानक माना है। आज के नेता, राजकर्मचारी, व्यवसायी, जन साध् ाारण समाज सुधारक, पारिवारिक संबंधी आदि सभी इनसे प्रेरणा ग्रहण कर सकते है। इस प्रेरणा का कारण है-गोस्वमी जी का जन सामान्य से आन्तरिक जुडाव और जीवन की समग्रता का बोध। इनका यही बोध सुक्तियों के रूप में लम्बे समय से मानव के विकास पथ में आलोक पुंज बनकर उसका मार्ग प्रशस्त कर रहा है और भविष्य में भी करता रहेगा।
सन्दर्भ सूची-
1.    साहित्यिकसूक्तिकोशः डॉ. सुधाकर उपाध्याय (आमुख से)
2.    साहित्यिकसूक्तिकोशः डॉ. सुधाकर उपाध्याय (आमुख से)
3.    साहित्यिकसूक्तिकोशः डॉ. सुधाकर उपाध्याय (आमुख से)
4.    साहित्यिकसूक्तिकोशः डॉ. सुधाकर उपाध्याय (आमुख से)
5.    रामचरित मानस, अयोध्या काण्ड/1 (दोहा)
6.    रा.च.मा., अयोध्या काण्ड/3
7.    रा.च.मा., बालकाण्ड/20
8.    रा.च.मा., उत्तरकाण्ड/93
9.    रा.च.मा., बालकाण्ड/45 (दोहा)
10.   रा.च.मा., बालकाण्ड/99
11.   रा.च.मा., अरण्यकाण्ड/39
12.   रा.च.मा., उत्तरकाण्ड/37
13.   रा.च.मा., बालकाण्ड/61
14.   वैराग्य संदीपनी-47
15.   वैराग्य संदीपनी/53
16.   रा.च.मा., उत्तरकाण्ड/39
17.   रा.च.मा., उत्तरकाण्ड/39
18.   रा.च.मा., उत्तरकाण्ड/39
19.   रा.च.मा., उत्तरकाण्ड/106
20.   रा.च.मा., उत्तरकाण्ड/106
21.   रा.च.मा., अरण्यकाण्ड/24
22.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/14
23.   रा.च.मा., सुन्दरकाण्ड/58
24.   डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र: तुलसी दर्शन, पृ. 95
25.   डॉ. रमेश कुत्तल मेघ: तुलसी आधुनिक वातावरण से, पृ. 73
26.   रा.च.मा., बालकाण्ड/3
27.   रा.च.मा., बालकाण्ड/3
28.   रा.च.मा., बालकाण्ड/3
29.   रा.च.मा., अयोध्याकाण्ड/267
30.   रा.च.मा., सुन्दरकाण्ड/4 (दोहा)
31.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/7
32.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/7
33.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/7
34.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/7
35.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/7
36.   रा.च.मा., अयोध्याकाण्ड/16
37.   रा.च.मा., बालकाण्ड/170 (दोहा)
38.   रा.च.मा., अरण्यकाण्ड/21 (क)
39.   रा.च.मा., अयोध्याकाण्ड/218
40.   रा.च.मा., बालकाण्ड/221
41.   रा.च.मा., उत्तरकाण्ड/46
42.   रा.च.मा., बालकाण्ड/274 (दोहा)
43.   रा.च.मा., बालकाण्ड/261
44.   रा.च.मा., उत्तरकाण्ड/41
45.   रा.च.मा., अरण्यकाण्ड/31
46.   रा.च.मा., बालकाण्ड/23
47.   रा.च.मा., अरण्यकाण्ड/38 (क) (दोहा)
48.   रा.च.मा., अयोध्याकाण्ड/56
49.   दोहावली/427
50.   दोहावली/435
51.   रा.च.मा., अरण्यकाण्ड/39
52.   रा.च.मा., अयोध्याकाण्ड/282
53.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/6
54.   रा.च.मा., सुन्दरकाण्ड/361
55.   रा.च.मा., अरण्यकाण्ड/21
56.   रा.च.मा., अरण्यकाण्ड/21
57.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/14 (2)
58.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/14 (3)
59.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/14 (4)
60.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/14 (5)
61.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/दोहा (14)
62.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/15 (2)
63.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/15 (3)
64.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/15 (5)
65.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/16 (4)
66.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/16 (6)
67.   रा.च.मा., किष्किन्धाकाण्ड/17 (4)
68.   रा.च.मा., अयोध्याकाण्ड/दोहा-315
69.   रा.च.मा., अयोध्याकाण्ड/151
70.   रा.च.मा., अयोध्याकाण्ड/314
71.   दोहावली - 514
72.   रा.च.मा., बालकाण्ड/152
73.   दोहावली - 508



(डॉ. पूनम राठी, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी-विभाग भगिनी निवेदिता कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली)
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

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