तुलसी काव्य में भक्ति भावना/ डॉ. ललिता मीना
मनुष्य ने सदैव ही अलौकिक ईश्वर में अपनी श्रद्धा रखी है। प्रारंभ में वह प्रकृति को अपनी श्रद्धा का केन्द्र मानता था। जैसे-जैसे मानव की बुद्धि का विकास हुआ उसने अपनी समझ के अनुसार अपनी आस्था का केन्द्र परिवर्तित करता चला गया। कालान्तर में विभिन्न विद्वानों ने पौराणिक ग्रंथों में आस्था को भक्ति का नाम दे दिया। आदिकाल से हमारे देश में धर्म साधना के तीन प्रमुख पक्ष माने जाते रहे हैं क्रिया पक्ष, बुद्धि पक्ष एवं हृदय पक्ष। इन्हीं को कर्ममार्ग, ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग के मूल में जानना चाहिए। देशकालानुसार धर्म विशेष में कोई भी एक पक्ष प्रमुख होता है और अन्य गौण हो जाते हैं। वैदिक साहित्य में तीनों का एक साथ विधान मिलता है। भारत में कर्म, ज्ञान एवं भक्ति को अलग-अलग न मानकर इन्हें एक दूसरे का पूरक समझा जाता है।
भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति ‘भज् सेवायाम्’ धातु में ‘क्त्नि’ प्रत्यय के संयोग से हुई जिसका अर्थ है
‘सेवा’। भक्ति शास्त्र के विभिन्न आचार्यों
ने इस शब्द की अनेकों व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं ‘शाण्डिल्य भक्ति सूत्र’ के अनुसार ‘सा परानुशक्तिश्वरे’ अर्थात्, ईश्वर के प्रति परम अनुराग ही भक्ति
है। ‘नारद भक्ति सूत्र’ में ईश्वर के प्रति परम प्रेम को ही
भक्ति बताया गया है जोकि अमृत स्वरूप है (सा त्वास्मिन परम प्रेमस्वरूपा
अमृतस्वरूपा च) श्रीमद् भागवत के अनुसार सांसारिक विषयों का ज्ञान देने वाली
इन्द्रियों की प्राकृतिक प्रवृत्ति निष्काम रूप से भगवान में जब लगती है तब उस
प्रवृति को भक्ति कहते हैं। रूप गोस्वामी ने ‘हरि-भक्ति-रसामृत सिन्धु’ में ज्ञान और कर्म के प्रभाव से भिन्न
होकर किसी प्रकार के फल की इच्छा किए बिना निरन्तर कृष्ण का प्रेमपूर्वक ध्यान
करने को भक्ति माना है।
मध्ययुगीन संत कवियों ने भक्ति को कर्म
से श्रेष्ठ बताया है। वहीं दूसरी और सगुण भक्ति काव्य की रचना करने वाले कवि सूर
एवं तुलसी ने भी भक्ति को श्रेष्ठ बताया है। सूर भक्ति को भगवान के बिना असंभव
मानते हैं। (रे मन समुझि सोचि विचार, भक्ति बिनु भगवन्त दुर्लभ कहत निगम
पुकारि। - सूर सागर) तो वहीं तुलसी भक्ति को सुन्दर सदैव प्रकाशित रहने वाली
चिन्तामणि मानते हैं। (राम भक्ति चिन्ता मणि सुन्दर .... परम प्रकाश रूप दिन राती
..... - रामचरित मानस) अतः भक्ति ईश्वर के प्रति हृदय में उत्पन्न परम अनुराग है
जहां कर्म एवं बुद्धि की कोई अपेक्षा नहीं रहती।
रूप गोस्वामी ने भक्ति के दो प्रकार
बताएँ हैं। एक ‘साधना रूपा’ और दूसरी ‘साध्य रूपा’। पहली भक्ति को गौणी भक्ति के नाम से
भी जाना जाता है जबकि दूसरे प्रकार की भक्ति को परा भक्ति भी कहते हैं। ईश्वर की
महिमा और दया आदि के स्मरण से साधक के हृदय में भक्ति की प्रथम अवस्था उत्पन्न
होती है जोकि गौणी भक्ति कहलाती है। इस भक्ति के दो भेद हैं वैधी भक्ति और
रागानुगा भक्ति। जिस भक्ति में केवल शास्त्रोक्त विधि का पालन होता है उसे वैधी
भक्ति कहते हैं। जिस प्रेम भाव की दशा में भक्त के हृदय में परम शान्ति का उदय
होता है उसे रागानुगा भक्ति कहते हैं। रागानुगा भक्ति के भी दो भेद बताए गए हैं
कामरूपा और सम्बन्धरूपा। गोपियों की भक्ति कामरूपा भक्ति के अन्तर्गत आती है जबकि
दास्य सख्य, वात्सल्य, दाम्पत्य का माधुर्य भक्ति के अन्तर्गत
आती है। वैधी और रागानुगा भक्ति साधन दशा की भक्ति है परा भक्ति अर्थात् साध्य
भक्ति इससे आगे की अवस्था में आती है।
श्रीमद्भागवत में भक्ति के चार भेद
बताए हैं: सात्विकी, राजसी, तामसी और निर्गुण। सगुण भक्त कवियों ने प्रथम तीन प्रकार की भक्ति को
अपने काव्य में विशेष स्थान दिया है। साधना के दृष्टिकोण से भागवत में भक्ति के नौ
भेद और गिनाए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहा जाता है। नवधा भक्ति, श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, संख्य और आत्म निवेदन के नाम से
उल्लेखित है। प्रथम छः को वैधी भक्ति के अन्तर्गत लेते हैं जबकि अन्तिम तीन
रागानुगा भक्ति के अन्तर्गत लेते हैं। प्रायः सभी सगुण भक्ति धारा के भक्त कवियों
एवं आचार्यों ने नवधा भक्ति का निरूपण किया है।
वैदिक साहित्य के अनुसार परब्रह्म
निराकार है। ब्रह्म प्रकृति और जीव के गुणों से परे हैं। निगुण होते हुए भी ब्रह्म
स्वाभाविक गुणों से युक्त होता है अतः सगुण है। सगुण का अर्थ साकार से न होकर जीव
से परे दिव्यगुणों से युक्तता से है। उपनिषदों में परम तत्व के दो रूप बताए गए
हैं: निर्गुण या परब्रह्म, सगुण या अपर ब्रह्म सगुण सविशेष साकार और
उपाधियुक्त है, जबकि निर्गुण विशेष आकार एवं उपाधि से परे है। ब्रह्म अपने वास्तविक
रूप में तो निर्गुण ही है, किन्तु उपासना के हेतु हम उसकी कल्पना
सगुण साकार रूप में करते हैं।
कुछ लोगों के अनुसार परमात्मा को साकार
मानने से उसमें एक देशीयता का दोष आ जाता है। ब्रह्म जब सर्वगुण सम्पन्न है तो रूप
सम्पत्ति का दरिद्र क्यों रहे। अतएव ब्रह्म निराकार, साकार, निर्गुण, सगुण सभी है। निराकार ब्रह्म की भक्त
उपसना के हेतु साकार रूप में कल्पना करता है। ब्रह्म जीव के गुणों से युक्त नही
है। अतः निर्गुण है। स्वगुणों से युक्त है अतः सगुण है।1
गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के गौरवशाली
कवि हैं। वे पूर्वमध्य काल की सगुण काव्य धारा से संबंध रखते हैं। उनके आराध्य देव
दशरथपुत्र राम हैं। इन्हें राम भक्ति का सबसे श्रेष्ठ कवि माना जाता है। इन्होंने
अपनी रचनाओं में राम के प्रति अनन्य भक्ति भाव को प्रकट किया है। तुलसीदास ने
विद्वानों आचार्यों द्वारा बताए गए भक्ति के आधार को स्वीकार किया किया और कहा कि
राग और क्रोध को जीतकर नीति पथ पर चलते हुए राम की प्रीति करना ही भक्ति है।
भक्ति का आलम्बन ही भक्त को ईष्ट होता
है। इसीलिए तुलसी के इष्टदेव राम ही है। राम विष्णु के अवतार हैं। कहा जाता है कि
जब पृथ्वी पर अनाचार की अति होती है तो भक्तों के कल्याण हेतु ईश्वर पृथ्वी पर
अवतार अर्थात् साकार रूप लेकर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। तुलसी के राम निर्गुण सगुण
दोनों ही रूपो में नजर आते हैं। ;जग कारन तारन भय भंजन धरनी भार। की
तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ;मानसद्ध इनके अनुसार निर्गुण भगवान ही
सगुण रूप में प्रकट होते हैं अर्थात् सगुण और निर्गुण के भेद को तुलसी नहीं मानते।
(सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहि मुनि पुरान बुध वेदा।। - मानस बालकाण्ड 115)
तुलसी ने अध्यात्म रामायण को अपना आधार
माना है इसमें विष्णु के अवतार राम के स्वरूप का विशद् वर्णन है। तुलसी ने इसे ही
मानस में स्थान दिया है जबकि वहाँ राम विष्णु के अवतार न होकर ब्रह्म के अवतार है।
तुलसी ने अध्यात्म रामायण के राम के समान ही अपने मानस में राम का स्वरूप व्यक्त
किया है।
तुलसी के राम अन्य देवी देवताओं से
सर्वोपरि है। वे अन्य देवी देवताओं की भांति प्रसन्न होकर वरदान तो देते हैं
परन्तु रूष्ट होकर श्राप नहीं देते। अतः राम को यदि कोई गलती से भी स्मरण कर लें, तो भी राम उस पर अपनी सम्पूर्ण दया
दृष्टि डालते हैं। राम की प्रवृति बिल्कुल विलक्षण है। उन्हें हमेशा दीन हीन ही
प्रिय होते हैं। वे शरणागत की रक्षा करने में तो अतुलनीय है। अन्य देव ‘बलि पूजा’ के भी भूखे होते हैं किन्तु राम केवल
प्रीति चाहते हैं अर्थात् सुमिरन से ही भला मानते हैं। राम का चरित्र समस्त सुखों
को देना और दुःखों का निवारण करना ही है। राम के समान अन्य कोई भी सुर, नर, मुनि दीन लोगों की पीरा समझने वाला
नहीं है- (दोष-दुःख-दरिद्र, दलैया दीनबन्धु राम। ‘तुलसी’ न दूसरो या दया निंधान दुनी मैं।।
-कवितावली-उत्तर छः 21) तुलसी के राम पापियों में भी श्रेष्ठ पापी की भक्ति से भी खुश होकर
उसको जन्म जमान्तर के पापों से मुक्त कर देते हैं। परम भय से युक्त व्यक्ति को
तुरन्त ही भय मुक्त कर देते हैं। यहाँ तक कि विश्वद्रोह कृत अध का भार भी सिर पर
लादे हुए यदि कोई राम की शरण में आता है तो वह भी त्याज्य नहीं होता। अतः राम की
शरणगत-वत्सलता के प्रमाण स्वरूप दोहावली, गीतावली, कवितावली, विनय पत्रिका और मानस में अनेकों
उदाहरण विद्यमान हैं। एक मां जिस प्रकार अपने शिशु का ध्यान रखती है स्वयं राम उसी
प्रकार अपने शरणागत को ध्यान रखते हैं।
राम की परमोदारता अकथनीय है। वे बिना
सेवा से भी प्रसन्न हो जाते हैं जिसके कारण राम अपने प्रिय जनों को वो पद दे देते
हैं जो बड़े-बड़े ऋषि मुनि विभिन्न योग, तप करके भी प्राप्त नहीं कर पाते। परम
स्नेही राम ने शबरी को वह पद दिया। इतना ही नहीं जो वैभव रावण ने घोर तपस्या करके
शिव की कृपा से प्राप्त किया था उसे राम सहज ही बिना संकोच के सुग्रीव को सौंप
देते हंै, अहिल्या का उद्धार किया, नीच निषाद को सखा बनाकर दोनों ही लोकों
में कीर्ति प्रदान की। वन्य प्राणी बन्दर-भालू को भी अपने परम स्नेह से नवाजा आदि
अनेकों उदाहरण हमें राम की उदारता के तुलसी के काव्य में मिलते हैं।
परम औदार्य के कारण राम कोमलता, कारूण्य, कृपा, दया, क्षमा परोपकार आदि विशिष्ट गुणों से
सम्पन्न है। स्वयं भरत और दशरथ राम के गुण रूप और शील का चिन्तन करते दिखाई देते
हैं। स्वभाव से ही क्रुद्ध होने वाले स्वयं परशुराम राम के शील पर मुग्ध होकर कहते
हैं- (‘विनय सील करूना-गुन-सागर। जयति बचन रचना अति नागर।। - मानस बाल काण्ड
- 284) अतः
राम का शील स्वभाव मन को आनंदित करने वाला तन को रोमान्चित और आंखों से प्रेमाश्रु
प्रवाहित करने वाला है।
राम का सौन्दर्य कल्पनातीत है। परम
विरागी, ब्रह्मज्ञानी, विज्ञानी व्यक्ति अपने ब्रह्मचिन्तन के
अपार आनन्द को ठुकराकर राम के रूप की स्तुति करते हैं। प्रत्यक्ष क्या यदि किसी ने
स्वपन में भी राम के दर्शन किए तो भी वह उसकी अनुभूति प्राप्त कर सकता है। राम के
प्रत्येक अंग की उष्मा अप्रतिम है भक्तजन-सुखदायी हैं। उसके शरीर की छवि पर करोड़ों
कामदेव निछावर हैं। उनके ‘विपिन बिहारी तरकशधारी’ रूप को अनेको रामोपासक ध्यान करते हैं।
स्वयं सरस्वती आदि भी राम की अपार शोभा का वर्णन करने में असमर्थ हैं। तुलसी के
राम सर्वशक्तिशाली हैं। वे अकेले ही रणभूमि में यदि अचल हो भी जाए तो भी सारे सुर
असुर एक होकर भी राम को परास्त नहीं कर सकते। राम में इतना सामथ्र्य है कि उनके ‘भृकुटी विकास’ मात्र से संसार की स्थित और प्रलय
दोनों होते हैं। वे तृण को वज्र और वज्र को तृण रूप में बदल सकते हैं। राम के
धनुष-संधान मात्र से समुद्र भी त्रस्त होकर कंपित होनेे लगता है।
अतः इस प्रकार राम के चरित्र की अनेको
गाथाएँ हैं जो राम को मनुष्य से अलग करती है और त्रिदेव (विधि-हरि-हर) उनके बार
बार समीप आते हैं और उन्हें विभिन्न वरदान देने के लिए उत्सुक होते हैं। वे तो
सर्वज्ञ प्रभु महा विष्णु या परमात्मा ब्रह्म हैं। इसी के अंश से विभिन्न
त्रिदेवों की उत्पत्ति होती है। जिस अनादि अनन्त ब्रह्म की महिमा के गान में
असमर्थ होकर, वेद केवल अनुमान के सहारे सब भांति अलौकिक करनी वाला जिसे घोषित करते
हंै वे केवल भक्त हितकारी कोमल पति राम
है। उपासना का मूल आधार श्रद्धा है। जिसके तीन भेद बताए गए हैं सात्विकी, राजसी और तामसी। सात्विक उपासना का
आलम्बन दैवीय शक्ति सम्पन्न देव होता है। राजसी उपासना का आलम्बन यक्षों की कोटि
का देव या दानव होता है। तामस उपसना का आलम्बन भूत-प्रेतगण होते हैं।
तुलसी की उपासना सात्विक उपासना है
क्योंकि इसका आलम्बन महान दैवी शक्तियों का सागर देवों का देव है। इसका लक्ष्य
निष्काम, अविचल, अटल, अनन्य प्रेम है। इस उपासना में किसी प्रकार का कोई आदान प्रदान नहीं
है। राम के प्रति अपने अनन्य प्रेम को व्यक्त करने के लिए तुलसी मीन और चातक को
प्रतीक रूप में ग्रहण करके कहते हैं कि जिस प्रकार मीन जल के बिना नहीं रह सकती और
चातक स्वाति की बूँद के सिवा अन्य कोई जल ग्रहण नहीं कर सकता। ठीक उसी प्रकार
गोस्वामी जी भी राम के प्रेम के बिना नहीं रह सकते। यही उनकी मीनता और चातकता है।
तुलसी के राम सीधे सच्चे भाव के भूखे हैं। यदि लेशमात्र भी छद्म भाव से कोई राम की
उपासना करता है, तो राम उस उपासक को नहीं चाहते। राम की उपासना के लिए निर्मल हृदय को
होना अत्यंत आवश्यक है, तभी राम के दर्शन संभव है। साधक चराचर
को राममय देखकर स्वतः ही वंदना करने लगता है, जोकि रामोपासना का चरमोत्कर्ष है।
तुलसी की रामोपासना के लिए गृह-त्याग को आवश्यक नहीं माना गया है और न ही
गृहासक्ति को आवश्यक माना गया है। साधक के लिए विशेष स्थान की अनिवार्यता नहीं है।
वह जंगल या गृह कहीं पर भी उपासना कर सकता है। जब साधक समस्त विकारों से रहित होता
है, तो
वह स्वयं प्रकाशमान हो जाता है। मन की निर्मलता ही रामोपासना का प्रधान अंग है।
गोस्वामी जी आगम निगम पुराण के साथ ही परम्परा के भी पक्के अनुयायी हैं। उपासना के
साथ साथ आचार के द्वारा भी साधक राम की ड्डपा प्राप्त कर सकता है। यहाँ तुलसी आचार
का स्वरूप वेद पुराणों में बताए गए स्वरूप को ही स्थान देते हैं। उपासक को अपने मन, वाणी और कर्म - तीनों को अनाचार के
शिकंजे से दूर रखना चाहिए। अन्यथा राम की साधना सफल नहीं होगी। यदि साधन बाह्य वेश
हसवत् और आन्तरिक भाव निम्न कोटि की होगी तो उसकी साधना अनाचारमय ही होगी इसीलिए
कवितावली में कहा है - ‘करि हंस को वेष बड़ों सब सों, तजि दे बक बायस की करनी’।।
तुलसीदास जी ने नामोपसना का भी समर्थन
किया है। उसका अत्याधिक महत्व भी बताया है। कलियुग में संसार रूपी भव सागर को पार
करने का एक ही साधन है और वह है राम का नाम। सत्य युग, त्रेता और द्वापर युगों में जो गति लोगों
को ध्यान, यज्ञ और पूजा से प्राप्त होती थी वही गति कलियुग में जो लोग राम का
नाम लेते हैं उन्हें प्राप्त हो जाती है। नाम कल्पतरू है इसे केवल कवि कल्पना नहीं
समझना चाहिए क्योंकि इसी से गोस्वामीजी ने अभिमत फलदायकत्व लक्षित किया है। तुलसी
के अनुसार निष्काम भाव, अनन्य प्रेम, श्रद्धा और विश्वास से ही नाम-जप अपना
प्रभाव दिखाता है। राम और नाम में तारतम्य की चर्चा करते हुए तुलसी नाम को राम से
प्रबल मानते हैं2 और मानस में कह देते हैं - ‘ब्रह्म राम ते नाम बड़ बरदायक बरदानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिए महस जिय जानि।।’
मध्ययुग में कथा श्रवण और कीर्तन का विशेष महत्व रहा था। इससे पहले कभी भी इन दोनों साधनों का इतना महत्व नहीं रहा। कलियुग में भक्ति के अन्य साधन प्राप्त करना अत्यन्त कठिन था। आर्थिक दृष्टि से देश की अवस्था बहुत ही दैन्य थी। बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन करना बहुत ही कठिन था। सत्ता में अन्य मत ही अधिक प्रबल था। सूफी, संतों ने दोनों ही मतों में समन्वय करने के लिए अंतः साधना पर बल दिया। इससे न तो जनता को किसी प्रकार की तृप्ति मिल रही थी, न ही सामूहिक धर्म चेतना का विकास हो पा रहा था। इस विपत्ति के समय यह बहुत आवश्यक था कि जनता संतुष्ट हो और सामूहिक धर्म का विकास हो। इसीलिए भक्त साधकों ने कथाश्रवण कीर्तन और नित्य पूजन की सामुहिक विधियां निकाली।
मानस में भगवान श्री राम के रूप
सौंदर्य का अत्यन्त सुन्दर चित्रण किया विशेषतः बालकाण्ड और अयोध्या काण्ड में।
राम ध्यान के कारण कई काण्डों में मंगलाचरण के रूप में राम के स्वरूप का वर्णन
मिलता है। ‘रूप पूजा’ पूजा का अंतिम चरण है। ईसा की दूसरी
शताब्दी में वैष्णव पुनरूत्थान के समय बौद्ध मंदिरों की होड़ में हिन्दू मंदिरों का
आविर्भाव हुआ और त्रिमूर्ति की स्थापना देश के कोने-कोने में हो गई। 5-6 शताब्दियो में मूर्ति पूजा का
उत्तरोतर विकास हुआ और कला (स्थापत्य, मूर्ति, चित्र) को उपासना के इस बाह्य रूप को
सवारने का अवसर प्राप्त हुआ इसके परिणाम स्वरूप 16वीं शताब्दी में यह रूपोपासना तुलसी
एवं सूर के काव्य में चरमोत्कर्ष रूप में मिलती है।
राम भक्ति साधना का कोई एक मार्ग
निश्चित नहीं है। तुलसी ने अनेक साधन गिनाए हैं जिसमें भक्ति योग और नवधा भक्ति
प्रधान है किन्तु उत्तर काण्ड में काग भुशुण्डि प्रसंग मंे पन्चधा साधनों का भी
उल्लेख मिलता है। वे साधन हैं - श्रद्धा, ज्ञान, मति, इंद्रीय, संयम और निष्ठा। अन्त में तुलसी ने इन
सभी साधनों का एक ही अंत बताया है ;सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय
दर्शन पावा-मानस)’ भारतीय धार्मिक परम्परा में साधना के तीन मार्ग हैं ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग। तुलसी ने
कर्म मार्ग को मानस में स्थान नहीं दिया है। तुलसी ने भक्ति को ज्ञान से ऊपर
प्रतिष्ठित किया है। ज्ञान को भक्ति की नींव मानते हैं। ज्ञान के साधनों को ही
भक्ति का साधन बना दिया है। वैराग्य, ध्यान और विवेक तथा अंतदृष्टि। वैराग्य
का अर्थ सांसारिक विषयों का त्याग, ध्यान का अर्थ साकार से है। जिसका
संबंध राम से। ध्यान में प्रेम और आत्मसमर्पण के भावों में गहरा संबंध है। विवेक
और अंतदृष्टि को तुलसी अपनी साधना पद्धति में प्रमुख स्थान देते हैं।
मानस के अन्तर्गत जिस भक्ति की
प्रतिष्ठ की गई वह वैधी भक्ति है। वह शास्त्रोक्त नवधा भक्ति ही वैधी भक्ति है। वन
में जब भगवान श्री राम बाल्मीकि से रहने का स्थान पूछते हैं तो उत्तर में महर्षि
भक्ति के नौ अंगों का ही वर्णन करते हैं - श्रवण कीर्तन स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन।
तुलसीदास ने भक्ति के इन सभी प्रकारों
का वर्णन अपने काव्य में किया है। श्रवण भक्ति का प्र धान हेतु महापुरूषों का
सत्संग होता है। जहां भी अवसर मिला तुलसीदास ने श्रवण भक्ति का महत्व बताने में
चूक नहीं की। (श्रवण - जिनके स्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारी सुभग सरि नाना।। -
मानस अयोध्या काण्ड-126।।) भगवान के किसी रमणीय स्वरूप का बाहृा सामग्री से सेवा पूजन करना
अर्चन भक्ति है इसके लिए पूजन की अनेक सामग्री है जैसे धूप, दीप, नेवैद्य आदि। (आरती करहि मुदित पुर
नारी। हरषहि निरखि कुँअर बर चारी।। - मानस बाल काण्ड - 347) कोल किरात जैसे असभ्य बनचारी लोग अर्चन
की कोई विधि नहीं जानते किन्तु दोना भर-भर कर कन्द मूल भगवान के चरणों में अर्पित
करते हैं। (कंद-मूल, भरी-भरी दोना। चले रंक जनु लूटन सोना - मानस अयोध्या काण्ड - 132 आत्म निवेदन भक्ति में भक्त अहंकार
शून्य होकर अपना तन मन धन जन सर्वस्व प्रभु के चरणों में अर्पित कर देता है। इसे
शरण भक्ति भी कह सकते हैं। सोते जागते केवल प्रभु की शरण की आकांक्षा रहती है।
(जागत सोवत सरन तुम्हारी - मानस अयोध्या - 128) इस प्रकार तुलसी ने अन्य भक्ति का भी
वर्णन अपने काव्य में किया है किन्तु इनकी भक्ति में दास्य भाव अधिक मिलता है।
इससे इन्होंने शरणागती को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। सुग्रीव और विभीषण शरणागत
भक्त ही हैं। अतः तुलसी की दास्य भावना ने राम को स्वामी के रूप में ही देखा है।
तुलसी ने जिस पारम्परिक भक्ति मार्ग का आलम्बन किया। उसे जिस प्रकार विकसित किया
उसमें कोई साम्प्रदायिक स्वरूप नहीं है। कोई किसी भी देश जाति किसी भी मत का हो वह
भक्ति कर सकता है।
सच्चा भक्त वह है जो ईश्वर के प्रति
निश्छल प्रेम रखता है भक्ति की ओर उन्मुख होने वाले भक्तों के चार प्रकार बताए हैं
- आर्त, जिज्ञास, अथार्थी और ज्ञानी। भक्त कवियों ने प्रायः सभी प्रकार के भक्तो का
किसी ना किसी रूप में वर्णन किया है। तुलसीदास ने तो चारों ही प्रकार के भक्तों के
भावों की अभिव्यक्ति की है उनके काव्य में आर्त भक्त का उदाहरण पार्वती है।
जिज्ञासु भक्त का उदाहरण तुलसी के काव्य में गरूण है। अथार्थी भक्त भी तुलसी ने
वर्णित किए हैं जो राम की कथा को निष्कपट होकर गाता है उसके जीवन की सारी
मनोकामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं। ज्ञानी भक्त का उदाहरण याज्ञवल्क्य है। उनके वर्णन
एक ज्ञानी भक्त के उद्गार को व्यक्त करने वाले हैं।
तुलसी के समय देश में विभिन्न प्रकार
की भक्ति की साधना चल रही थी। जैसे संतों की यो ग साधना, सूफियों की प्रेम साधना। किन्तु तुलसी
ने सिर्फ राम भक्ति को ही स्वीकार किया। उस समय अन्य देव देवताओं की भक्ति साधना
भी चल रही थी, किन्तु तुलसी का मन जितना राम की भक्ति में रमा उतना अन्य किसी देव
देवता की भक्ति में नहीं रमा। तुलसी के आराध्य देव राम हंै। इसका अर्थ यह कदाचित नहीं
की उन्होंने अन्य भक्ति साधना या देव देवताओं की निंदा की हो। उन्होंने सभी लोक
साधनाओं को आदर और प्रेम भाव से देखा है। साधना के सभी अंगों पर प्रकाश डालते हुए
तुलसी ने मुख्यतः नाम स्मरण को ही महत्व दिया है। हरि भक्ति साधना में श्र(ा एवं
विश्वास की अत्यन्त आवश्यकता होती है। स्वयं तुलसी की साधना दास्यभाव की भक्ति है।
जिसका मूल यंत्र शरणागति है। कवितावली इसी दास्य भाव से ओत प्रोत है। अतः भक्ति का
फल ही यही है कि इस भक्ति चिन्तामणि के पास रहने से मानस-रोग (काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर) निर्बल हो जाते हैं। अतः तुलसी
के अनुसार भक्ति से चरित्र का विकास होता है विशेषाधिकार की प्राप्ति होती है ओर
विश्राम प्राप्त होता है।3
संदर्भ:
1. रामकृष्णकाव्येतर हिन्दी सगुण भक्ति काव्य-डाॅ0 छोटे लाल दीक्षित पृष्ठ-9
2. तुलसीदास और उनका युग - डाॅ0 राजपति दीक्षित
3. तुलसी: एक अध्ययन - रामरतन भटनागर
(डॉ. ललिता मीना, असिस्टेंट प्रोफेसर, माता सुन्दरी काॅलेज)
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
Atyant Sundar vyakhya
जवाब देंहटाएंGreat explanation of bhakti
जवाब देंहटाएंtnxx mam its very helpful for me
जवाब देंहटाएंAap kuchh heading bhi daal deti ma'm.
जवाब देंहटाएंnice one...after searching a lot i found this website...currently i am student of DU.....nice content mam bas thoda heading wise hota to shi tha...btw thanks
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें