उत्तर
आधुनिक समाज में तुलसी के राम का महत्त्व
आधुनिकता की अवधारणा
की एक लंबी विचार-यात्रा रही है। अपने को आधुनिक समझने वाला व्यक्ति परंपरा को
पुरातन एवं और विकसित ढकोसला मानता है, जो उसे
प्रगति एवं कार्य कुशलता में बाधा लगती है। आधुनिक होने का एक अर्थ यह है यह भी है
'एडवांस' होना अर्थात् धनी होना,
पारिवारिक धार्मिक सत्ता के झमेलों से मुक्त होना तथा तार्किक व बुद्धिशाली होना।
वहीं उत्तर-आधुनिकता अपने में एक प्रवृत्ति है जो साहित्य, समाज-विज्ञान एवं आम जीवन के अनेक क्षेत्रों में दिखलाई पड़ती है।
उत्तर-आधुनिकता एक भूमंडलीय अवस्था है जो समाज के अति-आधुनिकता के जरायु हो उठने
की पीड़ा है, अपना बोझ न संभाल पाने की पीड़ा है, विवशता
है।
उत्तर-आधुनिकता उस
विश्ववादी आधुनिकता की प्रतिक्रिया है जो सामान्यतः प्रत्यक्षवादी, प्रौद्योगिकी प्रधान एवं तार्किक मानी जाती है। उत्तर-आधुनिकता एक
मन: स्थिति है, एक ज्ञानदशा या जीवन दशा है जिसकी
विशेषता ध्वंसात्मक प्रवृति मानी जाती है। यह विचार एक ऐसे विश्व का निर्माण करने
का प्रयास कर रही है, जिसमें स्थायी, वस्तुनिष्ठ परम आदर्श नहीं है। विचारणीय यह है कि इस विश्वव्यापी
सांस्कृतिक षड्यंत्र का वैचारिक अंधानुकरण किया जा रहा है।
''उत्तर-आधुनिकतावाद'' नवजागरण के विवेकवाद का ही शत्रु नहीं है, राष्ट्रीय जागरण के सभी आदर्शों का विरोधी है। यह नयी विश्वबाजार
व्यवस्था को एक नियति मानता है, जिसमें
मनुष्य गरिमाहीन और नगण्य है। इसके अनुसार मनुष्य की गरिमा और अर्थवत्ता का अहसास
कराने वाले सभी परंपरागत सांस्कृतिक माध्यम व्यर्थ हैं, क्योंकि संस्कृति के व्यवसायिक भूमंडलीकरण के युग में उनका कोई अर्थ
नहीं है।1 इसी भौतिकवादी जीवन का उल्लेख करते हुए कुंवर नारायण लिखते
हैं-
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण –
किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक
अब के जंगल वह जंगल नहीं
जिन में
घूमा करते थे वाल्मीक।
मूल प्रश्न यह है कि
इस उपभोक्तावादी संस्कृति के भार से बेचैन मन – 'रामचरितमानस' और 'तुलसी के राम' की
कितनी अर्थवत्ता है।
तुलसीदास लोक दर्शी
कवि थे। जीवन के विभिन्न पक्षों को उन्होंने सूक्ष्मता से देखा और परखा था। उनकी
दृष्टि विश्व कल्याणकारी भावना से अनुप्राणित होने के कारण उनकी लोकानुभूति उनकी
स्वानुभूति बन गई थी। तुलसीदास ने अपने साहित्य का सृजन करते समय जिस तरह के समाज
की कल्पना की है और उसका चित्रण किया वह आज भी उसी रूप में अनुकरणीय, अनुसरणीय और उपयोगी है। टूटते परिवार, सामाजिक व्यवस्था, जीवन
मूल्यों के विघटन, आस्थाओं की कमी और कुल मिलाकर मानवीय
मूल्यों के हास को देखकर तुलसी का संत हृदय व्याकुल हो उठता है। उनकी दृष्टि में
लोक हित सर्वोपरि महत्व का है। उनकी लोकहित और राम में कोई भेद नहीं है। राम न
केवल मर्यादा पुरुषोत्तम है बल्कि सामाजिक जागतिक और समकालीन नैतिक मूल्यों के
आदर्शों का जीवंत प्रतीक भी है। रामचरितमानस 'विवेक', 'मंगल', 'संघर्ष' और 'मर्यादा' का महाकाव्य है।
आज का युग विभ्रम
विमर्श और विवेक का युग है। तुलसी का युग भी 'मानहु कालरात्रि अधियारी' का था।
लेकिन उन्होंने शैव-शाक्तों-वैष्णवों
में एकता का मंत्र दिया, अगड़े
पिछड़े में एकता स्थापित करने की दिशा दी, नर-नारी के भेदभाव से राम समाज को मुक्त करते हैं। 'अधम ते अधम अधम अति नारी' का
प्रतिवाद करते हुए राम शबरी से कहते हैं –
नव महुँ एकौ जिन्ह कें होई। नारि पुरूष सचराचर कोई।।
सोइ
अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।।
शबरी किसी वन्य
जाति की स्त्री है। लेकिन राम इसका आतिथ्य ग्रहण करते हैं। वह अपने को अधम नारी
कहती है, राम उसे 'भामिनी', 'करिबर गामिनी' कहकर संबोधित करते हैं। राम किसी को 'पराया' नहीं रहने देते, सबको अपनाते हैं, सबके हो
जाते हैं। इसी लोकनायक शक्ति धारा से हिन्दू-मुसलमान सिख-ईसाई सभी को एक समभूमि
प्रदान की जा सकती है, शोषितों-दलितों को हृदय से लगाकर आगे
बढ़ने का अवसर दिया जा सकता है।
वर्तमान की मूल्यदृष्टियाँ वर्गाश्रित
निर्धारित हैं। मुक्तिबोध बार-बार कहते
हैं 'क्या उत्पीड़कों के वर्ग से होगी न मेरी
मुक्ति।' यह मानवता को शर्मसार और पराजय की तरफ
धकेलने वाली मूल्यदृष्टि है जो वे कहते हैं-
'बिनासंहार
के सृजन असम्भव है
मसन्वय
झूठ है।'
तुलसी के राम का
आदर्श ही समन्वय की विराट चेष्टा है। आज की राजनीति जैसे-जैसे इस चिन्तन से कट रही है उतनी ही विपत्ति के जाल में फंस रही है।
'जितना हम तुलसी की आस्थावादी परम्परा से
कट रहे हैं, तो राम से कट रहे हैं, उतने ही अकेलेपन, यन्त्रणा, पीड़ा, आत्म-निर्वासन, आत्मपरायेन, अवसाद, विद्रूपता, मोहभंग'2 में डूबते-उतरते जा रहे हैं।
वर्तमान की स्थिति
को परखते-तौलते हुए प्रतापराव कदत लिखते हैं – आना था बूढ़ों को। घाघ आये।'' और वे 'घाघ' थे इसलिए 'सत्ता' के सूत्रधार बन गए। केवल राजनैतिक सत्ता के ही नहीं, शैक्षणिक-नैतिक-धार्मिक-सांस्कृतिक
आदि-आदि सारी सत्ताओं के। केवल, वर्तमान
ही वर्तमान रह गया। कैसा वर्तमान? एक ओर यातना और पीड़ा और अत्याचार का
पर्यायवाची और दूसरी ओर - ? इसी
दूसरी ओर की व्याख्या लीलाधन मण्डलोई करते हैं-
''गुजरते
समय की देह जबकि लहूलुहान है
सुरक्षित नहीं है कुछ भी जब न जंगल न नदी न समुद्र न मनुष्य –
कितने मजे से उछलता शब्द किसी और समय के
कैसे जी
लेता है यह आदमी कविता में।''
आज समय दो हो गये
हैं – एक वास्तविक, एक अवास्तविक। एक वह जो अनुरक्षित है – जिसकी देह लहूलुहान है, जो जंगल और नदी और समुद्र और मनुष्य की तरह ही 'खतरे' में है और दूसरा वह जो बेहद सुरक्षित है।
जिसको सब कुछ उपलब्ध है – रोटी, कपड़ा
और मकान – और उसके सारे दृश्य – अदृश्य
आयाम। इसी स्वायत संसार के बढ़ते दायरे के लिए राजेश जोशी की चेतावनी है –
'कहना
मुझे सिर्फ इतना है बहनों और भाईयों।
आने वाले दिनों में ज्यादा लड़ने की जरूरत होगी
ज्यादा मरने की और ज्यादा बचाने की
अपने आप
को।'
आज पूरा युग परिवेश
उत्तर-आधुनिकता की अंधी आंधी से त्रस्त है।
उत्तर-आधुनिकता का साम्राज्यवाद धीरे-धीरे
हमारा सब-कुछ घर-परिवार,
गाँव-कस्बा, शिक्षा-संस्कृति, कविता-कहानी, दर्शन
विचार, सम्बन्ध-रिश्ते, प्रेम-श्रद्धा सबको अपने में लपेट निगल
रहा है। एकान्त श्रीवास्तव लिखते हैं –
'सिर्फ एक
हस्ताक्षर किया जाता है
और छिन जाती है हमारी आंखें
कट जाते हैं हमारे हाथ''
हस्ताक्षर करना अपना देश खो देना है-
''सिर्फ एक
हस्ताक्षर किया जाता है
और खो देते हैं हम
अपना
देश।''
क्या विडम्बना है
कि पराधीन भारत में हम पश्चिम से मुक्ति पाने का संघर्ष करते रहे और आजाद भारत में
हम न केवल पश्चिम के पीछे लग गए बल्कि पश्चिम के एक उपनिवेश बन गये। बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों के बाजारवाद में, सूचना
क्रान्ति की चहकती दुनियामें जीने मरने को बेचैन हो गये। जातिवादी अमानवीय राजनीति
ने भारतीय-चिन्तन-परम्परा-मूल्यचेतना की जड़ें
खोद डाली। ऐसे कठिन समय में तुलसी ही हमारे लिए सार्थक हैं –
''जौं करि
कष्ट जाइ पुनि कोई। जानहिं नींद जुड़ाई होई।।
जड़ता जाड़ विषम डर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा।।''
तुलसी की काव्य-दृष्टि का आधार है –
ज्ञान-नयन से जीवन के मर्म का ग्रहण,
राम-सीता के भावजल में अवगाहन, अहंकार
से रहित भक्ति-भाव में शरणगति,
प्रपत्तिवाद। तुलसी के अनुसार राममय होने के अर्थ हैं –क्षुद्रताओं- विकृतियों से
ऊपर उठकर विश्व-हृदय में अपने हृदय को मिला देना –
''भनिति
विचित्र सुकवि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ।।
भनिति भदेस वस्तु कवि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी।।''
आज हम पश्चिमी
आधुनिकता की कसौटी पर अपने को परखने की तैयारी कर रहे हैं। जबकि पश्चिम की परम्परा
मिल्टन या दाँते की परम्परा है जबकि हमारे पास एक समग्र अखण्ड परम्परा है, जिसमें वेदों से लेकर कालिदास तक, कालिदास से लेकर तुलसीदास तक, तुलसीदास से लेकर निराला और अज्ञेय तक इन अखण्ड धाराओं का कोलाहल
सुनाई देता है। हम भूल गये कि परम्परा हमारा जमा हुआ, टिका हुआ पैर है। पूरा बोझ टिका हुआ पैर संभलता है। यह पैर न हो तो
दूसरा पैर उठकर आगे बढ़ ही नहीं सकता।
उत्तर-आधुनिकतावाद एक रूप है – नव सांस्कृतिक साम्राज्यवाद। यह नव सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद 'तीसरी दुनिया' के देशों में उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रचार-प्रसार करके हमेशा
के लिए अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। इस कार्य के लिए पश्चिम 'बाजारवाद की संस्कृति' का खेल
खेल रहा है। जातीय-स्मृति के विनाश के बिना पश्चिमी संस्कृति का दबदबा कायम नहीं
हो सकता।3 इसलिए वेद-उपनिषद्-रामायण, महाभारत, कालिदास, विशेषकर तुलसीदास पर कई वादों की तर्क-बुद्धि से माध्यम से खारिज कर
भारत से छुड़ाने का प्रयास किया जाता रहा है। किसी भी सांस्कृतिक देश की बनावट
में कवियों का उतना बड़ा योगदान नहीं है जितना की भारतीय संस्कृति के निर्माण में
कवियों ने योगदान किया है। स्वाधीनता संस्कृति के पूरे आन्दोलन में या फिर व्यक्तिगत
संघर्ष में तुलसी के राम की कल्पना उर्जा भरती है – 'कारज वही सम्हारि हैं सीतापति रघुवीर'। भारतीय सामूहिक और वैयक्तिक अवचेतन मन में राम के आधार बिम्ब बसते
हैं – हमारा कोई चिन्तन राम के बिना पूरा नहीं होता, क्योंकि राम 'अपरजेय
भाव' की निष्पति है।
मनोवैज्ञानिक कारण
है कि भारतीय साहित्य में शायद फिर ही कोई अन्य पात्र हो जिसका जीवन राम जितना
संघर्ष – आकुल हो। ''राम के शोक और संघर्ष का कारण व्यक्तिगत
नहीं लोकहित है''4 शायद ही ऐसा पौराणिक ऐतिहासिक नरेश मिले जिन्होंने
माता-पिता की आज्ञा पर राज्य का त्याग किया
हो, एक पत्नीव्रत का धर्म निभाया हो, प्रजा की आलोचना के कारण अपनी प्रिय पत्नी का त्याग किया हो। उनका
संघर्षपूर्ण जीवन 'धिक् जीवन जो पाता ही आया विरोध'' जैसा रहा है। लेकिन राम 'विवेक', 'मंगल' और 'दीनबंधुत्व' के भाव
का त्याग कहीं नहीं करते। वे परमब्रह्म शक्तिवान होने के बावजूद अपने मानवीय कर्म
और करूणा के आदर्श पर अड़े रहते हैं। उच्च वर्ग के लोग जिन्हें छोटा या नीच
समझते हैं, जिनकी वे उपेक्षा करते हैं, अहल्या, ग्रामीण नर-नारी, केवट, कोल-किरात, शबरी, गिद्ध, बन्दर-भालुओं से राम आत्मीयता से भेंट करते हैं। पति द्वारा परित्यक्ता
अहल्या को राम पवित्र करते हैं। राम विवेक की मूर्ति हैं। वे सुख और दुख दोनों से
विचलित नहीं होते। कैकेयी ने राम के साथ 'कुचाल' की थी। राम को इसके लिए न तो कैकेयी के
प्रति क्रोध है, न मन में विषाद। राम मातृशक्ति का सम्मान
करते थे। आज हम बाजारवाद के कारण नारी में मौजूद 'सीता भाव' की कद्र करना ही भूल गये है। कारण, बाजार ने हमारे विवेक पर प्रहार कर हमारी सोचने की दिशा को भ्रमित कर
दिया है।
तुलसीदास एक पुष्ट
समाज के लिए विवेक का होना अनिवार्य मानते हैं और इसका अत्यधिक प्रयोग करते हैं।
''राम कथा
कलि पन्नग भरनी। पुनि विवेक पावक कहुँ अरनी''
हनुमान बुद्धि, विवेक
और विज्ञान के निधान हैं –
''पवन तनय बल पवन समाना। बुधि विवेक बिग्यान
निधाना।''
कारण, विवेक की आवश्यकता जीवन में जूझने वाले को पड़ती है, जीवन का निषेध करने वाले या समाज से अलग-थलग रहने वाले को विवेक की कोई विशेष आवश्यकता नहीं। विवेक जीवन में
संघर्ष करने की प्रेरणादायी शक्ति है, इसलिए
वे अपने काव्य और 'राम' दोनों में विवेक का इतना आग्रह करते हैं। तुलसी का विवेक कुछ मूल्यों
पर आधारित है। उन मूल्यों के प्रतीक राम हैं। राम न केवल लोकमंगल के विधायक हैं, सामाजिक मूल्यों के भी प्रतीक हैं। मूल्य और विवेक में संग्रह-त्याग
निहित होता है, वे सब-कुछ का स्वीकार या इनकार कदापि
नहीं कर सकते। विवेक अकरणीय का निर्मन त्याग कराता है।
राम के खरेपन का
सबसे विश्वसनीय प्रमाण यह है कि वे सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से निम्न वर्ग के
सहायक और मित्र हैं। वे अपने समय के सबसे शक्तिशाली, साधन-सम्पन्न अन्यायी शासक रावण से टक्कर लेते हैं, झुकते नहीं। रावण कुलीन था, परशुराम
ब्राह्मण थे, बालि भी शक्तिशाली अत्याचारी था। राम
इनका नाश करते हैं। दूसरी तरफ राम पति-परित्यक्ता
अहल्या का उद्धार करते हैं, शबरी को
स्नेह देते हैं, साधनहीन किन्तु शक्ति की सम्भावनाओं से
युक्त बन्दर-भालुओं, वन्य जनों को स्नेह देते हैं, केवट को सखा बनाते हैं। राम ऐसे साहब हैं-
'प्रभु
तरू तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी
कहुँ न राम से साहिब शील निधान।।'
ये बन्दर-भालू
अनागरिक, वन्य थे। इन्हीं को राम ने सहायक और
सखा बनाया। राम उस शक्ति के प्रतीक दिखलाई पड़ते हैं जो समाज के सबसे साधनहीन वर्ग
की सहायता से अपने युग की अन्यायी शक्ति से टक्कर लेती है। राम सोने के महलों की
मूल्यहीनता के विरोध में डटे थे। 'साकेत', 'पंचवटी', 'राम की
शक्ति-पूजा' की पूरी अवधारणा सामन्तवाद-साम्राज्यवाद-रीतिवाद के विरोध में निर्मिति पाती है – 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है' का अर्थ इसी संदर्भ में महत्व रखता है।
तुलसी ने केवल कष्ट
ही नहीं झेले, उन्होंने जीवन का अमृत भी पिया, वह अमृत जिसे संघर्षशील ही प्राप्त कर सकता है। उन्होंने प्रकृति
और मानव-जीवन की अक्षय छवियाँ शब्दों के माध्यम
से उकेरी। उनके राम का रूप इन सभी छवियों का समुच्चय है। तुलसी के राम केवल कल्प
पुरूष नहीं हैं, वे सृष्ट पुरूष भी हैं। राम के माध्यम
से तुलसी नैतिकता और आचरण का आदर्श प्रस्तुत करते है, जो आज के समय की आवश्यकता है। राम के मानव-धर्म में सीमाएँ नहीं हैं
– खुलापन है। एक ऐसा खुलापन जिसमें न किसी धर्म का विरोध है न किसी का समर्थन। राम
उस मानव-भाव का उदात्त-प्रतीक है जो भक्ति – भाव से उस विराट भाव को धारण करता है, जो सभी धर्मों से ऊपर है। भक्ति अपने को तपाने का, अपनी क्षुद्रताओं को छोड़ने का, अपने अहंकार को तोड़ने का साधन है, साध्य है – मानव प्रेम। यह प्रेम उन सभी मूल्यों को धारण करता है, जिससे मानव बड़ा होता है, शोषण
अन्याय-अत्याचार के तन्त्र का अन्त होता है।
'मानस' में राम के माध्यम से जिस स्वाधीनता की महत्व-प्रतिष्ठा की गयी है- वह राजनीतिक-सन्दर्भ वाली स्वाधीनता से बहुत
ऊँची चीज है। फ्रांसीसी राज्य – क्रान्ति में रूसों का नारा था, मानव को स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुता तीनों चाहिए। रूसों के इस सिद्धांत का 'रामचरितमानस' के
द्वारा बहुत पहले इसका व्यावहारिक रूप दिया जा चुका था। वैष्णव-परम्परा में 'स्वाधीनता' दूसरों की 'पराधीनता' पर आधारित नहीं है – सबकी स्वाधीनता के साथ ही उसकी स्वाधीनता का
अर्थ है। वैष्णव जन 'परायी पीर' से पीडि़त होता है – दूसरों का उपकार करके भी उपकार करने का दम्भ
नहीं पालता। इस चिन्तन में 'मैं' का विकास नहीं – 'हम सब' का विकास ही इसका ध्येय रहता है।
'रामराज्य' में भारतीय संस्कृति के सभी मानवीय मूल्य ध्वनित – प्रतिध्वनित
हैं। हर प्रताडि़त, निर्वासित – पीडि़त – अपमानित चित्त के
लिए 'रामराज्य' में आशा की किरण है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त बड़े उमंग के भाव
से कहते हैं – 'मृत जाति को कवि ही जिलाते रस – सुधा के
योग से।' यह लोकमंगल विश्वमंगल का पर्याय है। यह 'लोक' शब्द संकुचित अर्थ मे 'भारत' मात्र के सन्दर्भ तक सीमित नहीं है –
अपने व्यापक अर्थ में वह मानव-मात्र के कल्याण का अर्थ रखता है।
राम के रूप में
तुलसी ने ऐसे 'समग्र मानव' या 'पूर्ण मानव' की सृष्टि की है, जिसके
सामने सभी क्षूद्रताएँ पराजित हैं, जिसके
सामने सभी गुण अखण्ड होकर दिव्यता को प्राप्त करते हैं। यह राम भाव-पुरूष है, इतिहास – पुरूष नहीं। भाव-पुरूष है। इसीलिए हमारी संस्कृति के
विभाव-भाव दोनों हैं।
नैतिक-सौन्दर्य ही
सांस्कृतिक सौन्दर्य को निखारता है। सम्पूर्ण 'रामचरितमानस' नैतिक-मूल्यों की मणि माला है। नैतिक-मूल्यों से रहित-समाज बर्बर पशुता,
अनियन्त्रित भोग-विलास में गर्क होकर दिशाहीन हो जाता है। आज के समय में देश की
सबसे बड़ी समस्या – नैतिक पतन है। इसी ने अपसंस्कृति को जन्म दिया है। बलात्कार-व्यभिचार-भ्रष्टाचार आज हमारी सबसे बड़ी चिन्ताएँ हैं। मुरझाये हुए
मूल्यों के समाज में समाधान हम आज भी 'रामचरितमानस' और 'राम' में पाते है। तुलसी के राम लाभ के स्थान पर भाव-संस्कार को महत्व
प्रदान कर जीवन को 'मंगल भवन अमंगल हारी' स्वरूप प्रदान करते है।
संदर्भ:
1 कविता का यथार्थ – सं० ए० अरविन्दाक्षन; प्रकाशक
हिन्दी विभाग, कोच्चिन
विज्ञान व प्रोद्योगिकी विश्वविद्यालय, पृ० 11
2 भक्तिकाव्य से साक्षात्कार – कृष्णदत पालीवाल, भारतीय
ज्ञानपीठ-2007, पृ० 143
3 भक्तिकाव्य से साक्षात्कार – कृष्णदत पालीवाल, भारतीय
ज्ञानपीठ-2007, पृ० 165
4 लोकवादी तुलसीदास –विश्वनाथ त्रिपाठी,
राधाकृष्ण प्रकाशन प्राईवेट लिमिटेड, 2011, पृ० 16
(डॉ० ममता खांडल, सहायक आचार्य, हिंदी विभाग़, राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय )
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
समकालीन संदर्भ में राम कथा परंपरा एवं आधुनिकता पर विचार करते हुए ऐसा लगता है कि आपको उत्तर आधुनिकता के बारे में कुछ और अध्ययन की जरूरत है. जबरदस्ती इधर का उधर मिला देने से बात नहीं बनती. अभी हमारा समाज उत्तर आधुनिक समाज नहीं हुआ है जहां आप संकट देख रही हैं. उत्तर आधुनिक समाज में शौचालय का डिब्बा चैन से नहीं बांधा जाता है.
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