गोस्वामी तुलसीदास- एक समन्वय
योगी
, कविवर, साहित्यकार ‘तुलसीदास’ का जन्म भारत में उस समय हुआ जब यहाँ अकबर का शासन था। इनके
बचपन का नाम ‘‘राम बोला” था। जन्म के कुछ वर्षों बाद ही इस बालक को अपने माता-पिता के
वियोग का सामना करना पड़ा। इस प्रकार बचपन से ही तुलसीदास स्वावलंबन और ईश्वर का अवलंब
लेना सीख लेते हैं। अपनी भ्रमणशीलता के कारण उन्हें देश की देशा का ज्ञान होता है,
तथा संतों के समागम
से गुरू से भेंट हो जाती है। यही गुरू उन्हें राम कथा से परिचय कराते हैं। इस प्रकार
यह संत राम कथा का स्वाद संसार को चखाने के लिए व्याकुल हो जाता है।
हिन्दी साहित्य के शिरोमणि
हिन्दी साहित्य के शिरोमणि
तुलसीदास के समय में भक्ति मार्ग अपने चरम
पर था। कबीर दास और गुरूनानक की निर्गुण भक्ति का प्रभाव लगातार बढ़ता ही जा रहा था।
16वीं सदी में इस विचारक में कुछ परिवर्तन आया और लोग सगुण भक्तिधारा की ओर आकर्षित
होने लगे। इस विचार धारा के उपासक भी दो धाराओं में बढ़े हुए थे। विष्णु भक्त इनके विभिन्न
अवतारों को मानते थे तो दूसरी ओर शिव भक्त साधक थे। विष्णु के अवतारों में राम और कृष्ण
के रूप की प्रधानता रही। भक्ति मार्ग के निगुण और सगुण साधकों में इतना विरोध था कि
कभी-कभी इनका विवाद झगड़ों में बदल जाता था। इस प्रकार के झगड़े शैव और वैष्णव भक्तों
के मध्य भी हो जाते थे।
ऐसा माना जाता है कि जहाँ अवतारों का काम
समाप्त होता है वहाँ से संतों का कार्य आरम्भ होता है। समाज को जर्जर नियमों और रूढ़ियों
से निकालकर समय के अनुरूप समाज को उचित रास्ता दिखाना एक संत का काम होता हैं लोगों
की इस जड़ता को दूर कर उन्हें नवीन प्रकाश में लाना और उन्हें नवीन प्रकाश के साथ समन्वय
स्थापित करने की ओर प्रेरित करना ही एक संत का मुख्य काम होता है। शंकराचार्य,
चैतन्य, नानक, कबीर, रामदास तथा तुलसीदास
को भी यही सब करना पड़ा।
तुलसीदास के समय समाज में अनेक प्रकार की
समस्याये प्रचलित थी जिसके कारण लोग आदर्शहीन हो रहे थे। उनका आचरण लगातार गिरता जा
रहा था। इसके कारण पारिवारिक संबंध विकृत हो रहा था। देश में विधर्मी राज्य कर रहे
थे। जिससे स्वजाति और स्वधर्म पर अत्याचार हो रहे थे। धर्म शिथिल हो चुका था। भिन्न-भिन्न
मतों के चक्कर में लोगों को एक सरल मार्ग दिखाने वाला कोई न था। लोग नियमों को ही धर्म
समझ बैठे थे। उन्हें असली धर्म तत्व बताने की जरूरत न थी।
विधर्मियों की तलवार के सामने धर्म की मर्यादा
का पालन का ही नहीं उस धर्म तथा धर्म के पालन करने वालों का, अस्तित्व ही संदेहजनक
हो रहा था। सामयिक परिस्थिति का वर्णन करते हुए तुलसी दास ‘‘विनय पत्रिका” में कहते हैं-
‘‘दीन दयाल दुरित दरिद
दुखी दुनी सकल तिहुँ ताप नई है।
देव दुवार पुकारत भारत
सबकी सब सुख हानि भई है।“
उस समय के राज समाज का वर्णन करते हुए तुलसीदास
ने लिखा है कि राजा भूमि चोर (भूमि चोर भूप भये) तथा प्रजा का भक्षण करने वाले (भूप
प्रजाशन) हो गये थेः-
राज समाज कुसाज कोटि कटु,
कल्पत कुटिल कुसाज
नई है।
नीति प्रतीत प्रीत
परमिति पति
हेतु वाद हठ हेर दई
है।। (विनयपत्रिका)
ऐसे शासन से देश की साधारण जनता पर जो प्रभाव
पड़ सकता था वही पड़ा देश की साधारण जनता भी कितनी पतित और संगठनहीन हो गई थी वह इस गुलामी
का ही फल थाः-
प्रजा पतित पाखंड पाप
रत
अपने अपने रंग गई है।
शान्ति सत्य शुभ रीति
गई घट,
बढ़ी कुरीति कपट कलई
है।। (विनय पत्रिका)
तुलसीदास के समय में धर्म की स्थिति बहुत
खराब थी। धार्मिक नेता ब्राह्मण तथा देश के शासकों की स्वार्थपरता और उदासीनता के कारण
जिसके मन में जो आता था वही करता था। विद्वान सदाचारी ब्राह्मणों के अभाव में दंभी
पाखंडी लोग धर्माचार्य बन गए थे तथा प्राचीन वेद शास्त्रों को न जानने के कारण मनमाने
नए-नए पंथ चलाते जाते थे।
इन भिन्न-भिन्न संप्रदायों तथा पंथों के कारण
असली धर्म का तत्व लोप हो रहा था। आपसी झगड़े बढ़ गये थे तथा ऊपरी आचारों को सदाचार से
अधिक महत्व दिया जा रहा था। पापियों और पांखडियों की पूजा होने लगी थीः-
‘‘दंभ सहित कलि धरम एब,
छल समेट व्यवहार।
स्वारथ सहित सनेह सब,
रूचि अनुहरत अचार।। (दोहावली)
इस छोटे से दोहे में तुलसीदास जी ने उस समय
की धार्मिक तथा नैतिक दुर्दशा का चित्र खींच दिया है। धर्म और सदाचार में संबंध ढूढ
चुका था। धर्म की दृढ़ता न होने से लोगों का आचरण भी पतित हो गया था। प्राचीन वेद मार्ग
को छोड़कर लोग संप्रदाय और पंथों के झगड़े में पड़ गये थे।
विदेशी भाषाओं के प्रभाव से संस्कृत ज्ञान
कम हो गया था। लोगों ने विवेक से काम लेना बंद कर दिया था। केवल अंधसत्ता ही उन्हें
प्रेरित करती थी। इससे बिना किसी योग्यता के जो भी गुरू बनना चाहता था, बन जाता था। अज्ञान
का अखंड राज्य था। इसी के संदर्भ में तुलसी दास ने कवितावली में लिखा हैः-
‘‘आगम वेद पुरान वखानत
मारग कोटिन जाँहि न
जाने।
जे मुनि ते पुनि आपुहि
आपको
इस कहावत सिद्ध सयाने।।
धर्म सबै कलिकाल ग्रसे
जप योग विराग लै जीव
पुराने।
को करि सोच मेरे तुलसी
हम जानकिनाथ के हाथ
बिकाने।।
तुलसीदास के समय में कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों
मार्गो का चलन था। एक मार्ग पर चलने वाला शेष दो मार्गो की बुराई करता था। यह स्वंय
अपने अपने मार्ग पर दृढ़ न थे। केवल कर्मकांड में लिप्त रहने वाले अपनी कामनाओं की पूर्ति
करने में लगे रहते थे। वे ज्ञान के प्रभाव और भक्ति की सरलता से बहुत दूर थे। अधिकांश
ज्ञान मार्ग को अपनाने वाले ज्ञान की सच्चाई तक पहुँचने में असमर्थ थे और जो लोग ज्ञान
के सच को समझते थे वे भक्ति मार्ग के विरोधी और हृदयहीन थे।
भक्ति मार्ग भी केवल ऊपरी दिखावे को ही भक्ति
समझ रहे थे। भक्ति का हृदय और धर्म से संबंध बिलकुल ढूढ चुका था। धार्मिक क्रियाये
हृदय विहीन और दिखाने की रह गई थी। प्रेम जो धर्म का मूल है और जो धर्म की भलाई कर
सकता है, वह धर्म से बिलकुल अलग समझा जाने लगा था। दिखावे को ही धार्मिकता के लिए काफी समझा
जाता था। चाहे उसके भीतरी आचरण कितने ही पतित क्यों न हों। आडम्बर और ऊपरी बातों ने
धर्म का, दंभ ने सदाचार का, हीनता ने वैराग्य का, आलस्य ने कर्म का स्थान
ले लिया था। आचारहीनता ही वैराग्य का लक्षण मानी जाती थी, बाहरी जटा कलाप ही
तपस्या का प्रमाण माना जाता था और बकवास ही वक्ता की निशानी समझी जाती थी। इन सभी का
उल्लेख तुलसीदास जी ने मानस में करते हुए लिखा हैः-
निराचार जो श्रुतियथ त्यागी।
कलियुग सोइ ज्ञानी
बैरागी।।
पंडित सोइ जो गाल बजाव।
जाके नख अरू जटा विशाला।
सो तापस प्रसिद्ध कलिकाला।।
(रामचरितमानस)
तुलसीदास के समय में अनेक प्रकार के साधु
पाये जाते थे। एक तो कोरे ज्ञानी होते थे दूसरे प्राचीन मार्ग के कर्मकांडी तथा तीसरे
सिद्ध चाहने वाले कुयोगी थे। ये तीनों ही अपना आदर्श छोड़ चुके थे। वे अपने व्यक्तिगत
ज्ञान में ही इतना लीन थे कि उन्होंने देशदशा से बिल्कुल मुँह मोड़ रखा था। व्यक्तिगत
सिद्ध की इच्छा ने धर्म के लोक व्यापी स्वरूप को भुला दिया था। धर्म, लोक की धारणा के लिए
नहीं व्यक्तिगत साधना के लिए रह गया था। इससे जातीयता और धर्म का, व्यक्ति और राष्ट्र
का संबंध टूट सा गया था। जातीय आदर्श बिल्कुल विस्मृत हो गया था। जग से उदासीन रहने
वाले लोग अव्यक्त निर्गुण ईश्वर की खोज में रहने वाले इतने हृदय शुष्क हो गये थे कि
उसी ईश्वर की संतान को अपने दरवाजे पर भूख से मरते को देखकर भी नहीं पसीजते थे।
जिस प्रकार व्यक्ति और समाज का संबंध शिथिल
पड़ गया था उसी प्रकार व्यक्ति और परिवार तथा एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के साथ संबंध
भी शिथिल हो गया था। विवाह बंधन का धार्मिक आदर्श शिथिल होने के कारण स्त्रियाँ स्वेच्छाचारिणी
और पुरूष लंपट हो गये थे। सब प्रकार के बंधन तथा मर्यादा ही ढीली हो गयी थी। समाज संगठन
भंग हो गये थे। व्यक्तिगत तथा सामाजिक, साधारण तथा विशेष सभी धर्मो की मर्यादा भंग
हो गयी थी।
मर्यादा भंग होने के कारण सब प्रकार के पाप
ताप बढ़ गये थे। देश में महामारी जैसे रोगों का प्रताप था। दरिद्रता का बोलबाला फैल
चुका था/तुलसीदास इन सब बुराइयों का कारण पाप को मानते थे। समय पर पानी न बरसना,
खेती का ठीक समय पर
न पकना, बुआई करने पर भी उपज न होना, रोजगार तथा नौकरी का अभाव, राज्य की ओर से कृषि
तथा गोरक्षा का ठीक से प्रबंध न होना आदि का वर्णन कर तुलसीदास ने उस समय की दशा का
वर्णन करते हुए लिखा हैः-
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि,
बनिक को न बनिज,
मन चाकर को चाकरी।
जीविका विहीन लोग,
सीद्यमान सोच बस,
कहै एक एकन सौ कहाँ
जाय का करी।
वेद हू पुरान पुरान
के ही लोकहू बिलोकियत
सांकरे सबै पै राम
शबरी कृपा करी।
दारिद दसानन दबाई दूनी
दीनबंधु
दुरित दहत देख तुलसी
हहा करी। (कवितावली 390)
तुलसीदास के समय में हिन्दू समाज बहुत बिखर
गया था। उन्होंने अपने समय की अनेक जातियों का उल्लेख किया है। ब्राह्मण और क्षत्रियों
में उपजातियों का उल्लेख नहीं मिलता हैं वैश्यों में बजाजों और सरोफा का उल्लेख हमें
मानस में मिलता है। जो पहले धंधे रहे होंगे किंतु बाद में जातियों के रूप में परिणित
हो गये-
‘बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक घृष्टि कुबेर से
मानस उत्तराकांड में इन तीनों का उल्लेख तुलसीदास जी ने बड़े गौरवपूर्ण ढंग से किया
है। ब्राह्मणों को वे विशेष आदर का पात्र मानते थे-
सापत ताड़त परूष कहंता।
विप्र पूज अस गावहिं संता।। (मानस)
तुलसीदास जी को समाज में मर्यादा भंग बिल्कुल
पसंद नहीं था। एक ओर उन्होंने ब्राह्मणों और क्षत्रियों की आचरण हीनता का वर्णन किया
है-
विप्र निरच्छर लोलुप
कामी।
निराचार सठ वृषली बामी।। (मानस)
दूसरी ओर उन्होंने मर्यादा भंग करने वाले
शूद्रों को भी फटकार लगाई है-
सूद्र द्विजन अपदेसीह
ज्ञाना।
मेलि जनेऊ लेहि कुदाना।।
(मानस)
जिस प्रकार व्यक्तिगत दुराचार के तुलसीदास
विरोधी थे। उसी प्रकार सामाजिक आचारहीनता के कट्टर विरोधी थे। उनके समय में समाज में
वर्ण संकरता अधिक प्रचलित हो गई थी। जिसके कारण समाज में पाप और शरीर में रोग बढ़ गए
थे-
भए बरवसंकर सकल भिन्न
सेतु सब लोग।
करीहं पाप दुःख पावहि
भय रूज सोक वियोग।। (मानस-100)
तुलसी दास ने अपने समय के समाज का चित्र खींचा
है। सभी वर्णों और आश्रमों के चरित्र उनमें है। मनुष्य की सामाजिक उन्नति के लिए जिस
प्रकार वर्णों की उचित व्यवस्था आवश्यक है। उसी प्रकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास
के लिए उसे विभिन्न आश्रमों में से जाना जरूरी है। इसी को तुलसीदास जी ने सुख प्राप्ति
का सर्वोत्तम मार्ग बताया है। यही वेदप्रतिपादित मार्ग भी है-
वर्णाश्रम निज निज
धरम, निरत वेद पथ लोग।
चलीहं सदा पावहिं सुखहिं
नहिं भय सोक न रोग।। (मानस)
महाभारत ने राजा को समाज का रक्षक माना है।
जब रक्षक राजा ही भक्षव्य बन जाते हैं- ‘‘भूप्रजाशन’
तब प्रजा भी बिना पतित
हुए नहीं रह सकती। सुराज्य के लिए रामराज्य और कुराज्य का उदाहरण उन्होंने रावण राज्य
को माना है। उसी प्रकार आश्रमों की सुव्यवस्था के लिए चित्रकूट और दंडकारण्य
के आश्रयों का वर्णन मानस में आता है जिनमें राम गये थे-
‘सकल मुनिन्ह के आश्रमहिं जाय जाय सुख दीन।’
आश्रम हमारी संस्कृति के आधार हैं। जिनमें
राजा और प्रजा जाकर अपनी आत्मिक भूख बुझाकर संतुष्ट होते हैं। आरण्य और नगरों का सुंदर
संबंध हमारे देश में था। वनों पर वर्षा निर्भर है, और वर्षा पर खेती,
यह समझकर वनों और खेतों
का परस्पर संबंध हमारी प्राचीन सभ्यता में स्थापित किया गया था। इन्हीं आरण्यों में
हमारे उपनिषदों और अरण्यों की रचना हुई जिनसे संसार को विद्या का दिव्य संदेश मिला।
वनों में शिकार था पशुपालन के लिए घूमने वाले ‘घुमंतू’ कबीले किस प्रकार खेती के कारण स्थिर होकर ग्रामों में रहने
लगे, यह इतिहास सर्वविदित है। भारत में ग्रामों की रचना के साथ कृषि और गोरक्षा का परस्पर
संबंध स्थापित था। मनुष्यों ने शिकार का हिंसक रास्ता छोड़कर पशुपालन और अहिंसक रास्ता
स्वीकार किया और फिर पशुपालन के द्वारा कृषि की उन्नति की। पशुओं के संपर्क से दया
तथा वृक्ष वनस्पति के संपर्क से प्रेम विस्तृत हुआ इससे आर्थिक उन्नति ही नहीं हुई
बल्कि पशुता से मानवता को ओर प्रगति हुई। परिवारों की रचना से अनियंत्रित यौन संबंध
के बदले सुव्यवस्थित विवाह प्रथा का उदय हुआ। जिससे समाज में नैतिकता और प्रेम में
वृद्धि हुई। उपयोगी पशु और वृक्ष तथा पक्षी भी परिवार के अंग बन गये।
इसी को ध्यान में रखकर कृषकों को समाज की
धुरी कहा जाता है क्योंकि वे समाज का भरणपोषण करते हैं।
कच्चित् कृषिवला राजन्न
जसी दन्ति पीडित।
ये वहन्ति घुरंराज्ञाम
भरन्तीतरानऽपि। (महाभारत)
तुलसीदास जी ने भी भारतीय संस्कृति के इस
मूलाधार को पहचाना था। उन्होंने ग्राम्यजीवन की सरलता और समृद्धि के चित्र हमारे लिए
खींचे हैं।
जे पुर ग्राम बसहिं
मगमाहिं,
तिनहिं देख सुर नगर
सिहाँही। (मानस)
इसी प्रकार नगरों में राजधानी और व्यापारिक
केन्द्र रहा करता था। उनकी रचना भी बड़ी कलात्मक होती थी। अयोध्या के आसपास सरयू के
किनारे उपवन लगे हुए थे जहाँ शाम को नर-नारी सैर को जाते थे। नदी पर सुंदर घाट बने
हुए थे-
दूरि फराक रूचिर सो घाटा, जहाँ जल पियहिं बाजि
गज डाटा।
पनिघटं परम मनोहर नाना,
तहाँ न पुरूष करहि असनाना।। (मानस)
कर्मों के अनुसार वर्णों का विभाजन हुआ और
धंधों के अनुसार जातियों का। इनका वर्णन हमें मानस में मिलता है। शिक्षक, ब्राह्मण, रक्षक, क्षत्रिय, पोषक वैश्य और सेवक
शूद्र सभी की एक बराबर आवश्यकता का अनुभव उन्होंने किया था। ब्राह्मणों और क्षत्रियों
में परस्पर सहयोग की प्रशंसा महाभारत में हुई है। एक समय ऐसा भी आया जब दोनों में संघर्ष
उत्पन्न हो गया। परशुराम द्वारा क्षत्रियों का संहार तथा विश्वामित्र और वशिष्ठ का
विवाद भारतीय इतिहास में इसी युवा का प्रतीक है। तुलसीदास ने दोनों को राम का गुरू
बनाकर मानो इस विवाद के समाप्ति की सूचना दी। क्षत्रिय संहारक परशुराम को मर्यादासंस्थापक
राम के सामने परास्त कर उन्होंने हिंसा पर प्रेम की विजय दिखाई। इसीलिए गीता में स्वीकार
किया गया है।
‘‘राम शस्त्रभृतामहम्।’’ (गीता)
परशुराम को वन में भेजकर राम के युग का आरम्भ
किया जिन्होंने क्षत्रिय शक्ति को दुष्टदमन और प्रजा रक्षण के काम में लगाया तुलसीदास
जी ने समाज की विकृतियों को दूर करने का प्रयास किया है। जो ऋषि मुनि ‘ज्ञान-मान-विमत्त’ होकर भक्ति का आदर नहीं करते थे उनके मन में भक्ति की सरसता
जागृत की। जो केवल भावना में पड़कर अनेकों प्रकार के कर्म करना त्याग चुके थे उन्हें
निष्काम काम में लगाया। जो ब्रह्मचारी गुरू सेवा में उदासीन हो गये थे उन्हें गुरू
सेवा में लगाया और जो गुरू शिष्य बना मोह हरण न कर केवल र्दुव्यवहार कर रहे थे उन्हें
उचित मार्ग बताया- ‘हरह शिष्य धन मोहन हरही।’
जो स्त्रियाँ पतिवंचक
हो रही थी उन्हें पतिव्रत का मार्ग सुझाया और जो पति बहु-नारी निरत हो रहे थे उन्हें
एक पत्नी का आदर्श सुझाया। जो पुत्र पिता की आज्ञा के विरूद्ध जा रहे थे उन्हें निशाचरों
की श्रेणी में रखकर सुधारा।
सौतियाडाह करने वाली माताओं को कैकयी के उदाहरण
से आगाह किया और जो पिता स्त्रैण होकर पुत्र का अकल्याण कर बैठते थे उन्हें दशरथ के
आदर्श से सावधान किया। जो वैश्य धनवान होकर भी कृपणता धारण करे और जो सूद्र सेवा न
कर उच्च आसन पर बैठने का प्रयास करे उसे भी फटकारा। उन्होंने वैश्यों के सामने शिव
का त्यागमय आदर्श रखा-
‘‘सोचिय नचिय वयस कृपन
धनवाना।
जो न अतिथि शिव भगत
सुजाना।। (मानस)
विलासियों और युद्धप्रिय क्षत्रियों के सामने
एक ओर पशुराम और दूसरी ओर रावण की पराजय का उदाहरण दिया। रावण अभिमानी और प्रजापीड़क,
विद्वान होकर भी मूर्ख,
ब्राह्मण होते हुए
भी अधम था। ब्राह्मणों के प्रति कुछ पक्षपात करते हुए उन्होंने दुराचारी ब्राह्मणों
की पराजय और सदाचारी नम्र और साधन हीन राम की विजय का उदाहरण प्रस्तुत किया। जन जातियों
को समाज में शामिल करने में उनका दृष्टिकोण उदार था।
‘‘स्वपन खबर खस जमन जड़,
पामर कोल करात।
राम कहत पावन परम,
होत भुवन विख्यात।। (मानस)
उपरोक्त दोहे में जिन जातियों का उल्लेख है
वे जातियाँ भारत में आ चुकी थीं, इसलिए उन्हें आत्मसात् करना आवश्यक हो गया था। यहाँ तक कि उन्होंने
आर्यों की भूमि आर्यवर्त में जहाँ-तहाँ अपने राज्य स्थापित भी कर लिए थे। शृंगवेर पुर
में निषादराज गुह का राज्य कोशल जनपद से लगा हुआ था। बाल्मीकि जी ने उसे दशरथ का सखा
कहा है। तुलसीदास जी ने भीउसे राम सखा माना है-
राम सखा सुनि स्यंदन त्यागा।
चले भरत उमगत अनुरागा।।
(मानस)
इतना होने पर भी समाज में उसकी स्थिति हीन
समझी जाती थी। अतः निषादराज ने अपना नाम सुनाकर उस समय की प्रथा के अनुसार भूमि पर
सिर रखकर प्रणाम किया। इसका कारण यही था कि वह लोकवेद के अनुसार नीच समझा जाता था,
और उसकी छाया पड़ जाने
पर भी लोग स्नान करते थे-
गाँव जाति गुह नाऊ
सुनाई।
कीन्ह जुहार माथ महि
लाई।। (मानस)
लोक वेद, सब भाँतिहि नीचा।
जासु छाँह छुई लेइन
सींचा।। (मानस)
इतने पर भी भक्ति के प्रभाव से भरत ने ही
नहीं किन्तु वशिष्ठ ने भी उसे गले लगाया-
राम सखा सुन बरबस भेंटा।
जनु मति सुरत सनेह
समेवा।। (मानस)
तुलसीदास ने अन्य भक्ति मार्गी संतों की परंपरा
का भी पालन किया है। भक्ति मार्ग की यही विशेषता है कि उसने समाज के उपेक्षित वर्गों
को भी सबकों समान अधिकार प्रदान किया और उसे इतना सरल बना दिया कि वह सबके लिए सुलभ
हो सका।
द्वैताद्वैत के समन्वय के संबंध में यह कहा
जाता है कि वह कौन सी शक्ति है जिसके द्वारा निगुर्ण ब्रह्म सगुण प्रतीत होने लगता
है तथा ब्रह्म और जीव के बीच द्वैत का पर्दा डाल देती हैं? वह ईश्वर की माया या
प्रकृति है।
तुलसीदास जी ने माया के इन दोनों रूपों का
वर्णन किया है-
(1)
प्रतिभासित रूप (2) पारमार्थिक रूप। कही पहले रूप से उसका वर्णन
किया गया है और कहीं दूसरे रूप से। इसी से यह विरोधाभास उत्पन्न होता है। निर्गुण सगुण
में भ्रम होना, ब्रह्म जीवन की भिन्नता का भ्रम होना आदि सब ही प्रातिभासिक
माया के रूप हैं।
ब्रह्म में असली विकार कुछ नहीं होता,
केवल अपने भ्रम के
कारण हमें ब्रह्म में द्वैत का आभास दीखता है। इसे तुलसीदास जी ने इन उदाहरणों से समझाया
है-
‘‘रजत सीप महुँ भास जिमि,
यथा भानु कर बारि।
यदपि मृषा तिहुँ काल
महँ, भ्रम न सकै कोउ दारि।। (मानस)
‘‘चितव जो लोचन अँगुलि
लाए।
प्रगट जुगल ससि तेहि
के भाए।।
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं
गृहादी।
कहहिं परस्पर मिथ्यावादी।।
(मानस)
माया के इस स्वरूप में यथार्थता कुछ नहीं
है। यहाँ माया का यही अर्थ है वास्तव में वह कुछ नहीं है- केवल एक मिथ्यावस्तु का अध्यारोप
है जो कि हमारे बुद्धिभ्रम का खेल है। यह मिथ्या आरोप बिलकुल असत्य है। अतः ब्रह्म
माया में लिप्त नहीं है। वह उसमें रहकर भी स्वतंत्र है। केवल हम अपने अज्ञान से ब्रह्म
को मायालीन समझ बैठे हैं।
जिस तरह सांप में रजत का भ्रम तथा रस्सी में
साँप का भ्रम होता है उसी प्रकार माया एक भ्रम मात्र है। उससे असलियत कुछ भी नहीं।
यही शंकराचार्य का मायावाद है। इसी भ्रम के कारण जीव भूलकर भी बंधन में पड़ जाता है।
अपने को मायावश समझ लेने के कारण वह फंसकर जन्म मरण के चक्कर में पड़ता है। इसी को दर्शाते
हुए तुलसीदास जी लिखते हैं-
मायावस भयउ गोसाई।
बँड्यो कीर मर्कट की नाँई।। (मानस)
तुलसीदास जी ने माया का इसके विरूद्ध एक दूसरे
रूप का वर्णन किया है। वह है माया का शक्ति रूप। यहाँ तुलसीदास जी ने माया को उत्पन्न,
पालन तथा लय करने वाली
ईश्वर की एक शक्ति माना है। यहाँ उसका एक प्रधान स्थान और निश्चित अस्तित्व है।
इसमें माया को स्वतंत्र तथा जगत् सर्जिका
शक्ति कहा गया है। यह सांख्य का मत हैं किंन्तु तुलसीदास ने माया को बिलकुल स्वतंत्र
न मानकर उसे ईश्वर की एक शक्ति मानाह ै। वह राम की ही एक शकित है। और उन्हीं की आज्ञा
से संसार का उद्रभव तथा प्रलय करती है-
‘‘सुनु रावन ब्रह्मांड
निकाया। पाय जासु बल बिरचति माया।।
एक रचै जग गुन बस जाके।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके।।’’
अतः यहाँ माया राम या ब्रह्म की एक शक्ति
मानी गई है। माया यहाँ केवल भ्रममात्र नहीं है। उसका अस्तित्व सत्य है तथा उसका दर्जा
ब्रह्म की बराबरी का है। ब्रह्म ने रामरूप तथा माया ने सीता रूप से अवतार धारण किया
है।
इस प्रकार तुलसीदास जी ने माया के दो रूपों
का वर्णन किया है- एक प्रातिभासिक और दूसरा पारमार्थिक। जो भ्रामक तथा संसार में फँसाने
वाली है वह पहली माया है। उसकी शक्ति अत्यंत प्रबल है। भगवान् मायापति हैं और उन्हीं
की शरण में उसका बंधन टूट सकता है। यह भक्ति मार्ग का मत है। माया से छूटने का एक दूसरा
मार्ग ज्ञान मार्ग भी है जिसमें माया के पर्दे को भ्रामक समझकर जीव और ब्रह्मा की एकता
स्थापित की जाती है।
तुलसीदास जी न तो शंकराचार्य के समान जीव
और ब्रह्मा को एक मानते हैं और न रामानुज के समान ब्रह्म और जीव को सर्वदा अलग-अलग।
उनका सिद्धांत था कि जब तक ब्रह्म और जीव के बीच में माया है तब तक दोनों अलग अलग है।
किन्तु भक्ति से ईश्वर को प्रसन्न कर लेने अथवा ज्ञान से अपना स्वरूप पहचान लेने पर
जीव ईश्वर ही में मिल जाता है।
तुलसीदास जी ने ब्रह्म को निर्गुण रूप में
अद्वैत सगुण रूप में द्वैत माना है। वह सत् चित् आनंद रूप होने के कारण असत् भी नहीं
हो सकता। अचित् भी नहीं हो सकता और वह चिदचित विशिष्ट में भी नहीं हो सकता। वैसे चित्
(जीव) अचित् (जगत) उसके ही दो रूप हैं-
जड़ चेतन जग जीवन जत सकल राममय जानि।
बदौ सबके पद कमल कृपा
करहु जन जानि।।
तुलसीदास का उद्देश्य इन सब विवादों में संवाद
(समन्वय) स्थापित करना था। उन्होंने दोहावली में भी ऐसे ब्रह्मवादियों को इंगित किया
है-
‘‘जे मुनि ते पुनि आपहिं
आप को ईस बतावत सिद्ध सयाने (दोहावली)
ऐसे लोग व्यर्थ वाद विवाद बढ़कार अपनी और दूसरे
की छाती जलाते थे तुलसीदास उनसे दूर रहते थे।
“वाद विवाद विषाद बढ़ाई
कै छाती पराई और आपनी जौर।“ (कवितावली)
भारतीय धर्म की प्रवृति सदा से ही सर्वदेव
समन्वय की ओर रही है। पूर्व वैदिककाल के बहुदेवों को उपनिषदों ने एक ईश्वर की शक्तियाँ
बताकर एकेश्वरवाद की स्थापना की जिसे गीता ने विराट् रूप का दर्शन करा कर और भी पुष्ट
किया। स्मृतिकाल में पंचदेव पूजा के साथ विष्णु की पूजा का प्रावल्य हुआ। पुराणकाल
में एक ब्रह्म त्रिमूर्ति में विभाजित हुआ और भिन्न-भिन्न पुराणों से एक-एक को प्रधनता
मिली। साथ ही विष्णु के अवतारों की महिलमा बढ़ी और उनके अवतार राम और कृष्ण के चरित्रों
पर रामायण और भागवत आदि पुराणों को निर्माण हुआ। प्रांतीय भाषाओं के कवियों ने भी हुए,
जिन्होंने एकेश्वरवाद
का प्रतिपादन कर अवतारवाद या बहुदेववाद की निंदा की। सगुणवादियों ने सगुण रूप का प्रतिपादन
किया।
यही तुलसीदास जी के विचारों की पूर्व पीठिका
थी। इसी के समन्वय पर उन्होंने अपने विचारों की भित्ति स्थापित की। अपनी समन्वय की
प्रवृत्ति के कारण उन्होंने बहुदेव, पंचदेव तथा त्रिदेव मानते हुए भी एक राम की
उपासना प्रचलित की जिसमें सभी का समन्वय हो गया। वैदिक विष्णु और उनके अवतारों की प्रबलता
होते ही ब्रह्मा, शिव, इंद्र, वरूण आदि देवों को रामकृष्ण आदि अवतारों से नीचा दिखाने की प्रवृत्ति
पुराण काल से ही चली आ रही थी। भागवत तथा अध्यात्म रामायण में शिव, इंद्र वरूण कुबेर आदि
के द्वारा कृष्ण या राम की अनेक स्तुतियाँ कराई गई है।
तुलसीदास जी ने ईश्वर का रूप उपनिषदों के
अनुसार माना है। तथा उपनिषद के समान भिन्न-भिन्न देवताओं को उन्हीं का रूप अथवा अंश
माना है। गीता के समान राम के विश्व रूप में सभी देवताओं को प्रथित कर दिया है। सूर्य
नेत्र है, अश्विनी कुमार उसकी नासिका है, दश दिगपाल उनके बाहु, मरूत् उनकी श्वास है,
यम उसके दाँत है,
अग्नि उनका मुख है,
वरूण उनकी जिव्हा है,
शिव अहंकार है,
ब्रह्मा बुद्धि है
तथा चंद्रमा मन है। राम में इंद्र वरूण, मरूत, सूर्य, चंद्र, सरस्वती, काल, विष्णु, रूद्र, कुबेर आदि सभी वैदिक
देवताओं का समन्वय ही नहीं किया बल्कि राग को उन सबसे श्रेष्ठ बतलाया गया है-
‘‘राम काम सत कोटि सुभगतन।
दुर्गा कोटि अमित अरि
मर्दन।।
सक्र कोटि सत सरिस
विलासा।
नभ सत कोटि सरिस अवकाशा।। (बालकांड) स्तुति
‘‘मारूत कोटि सत विपुल
बल, रवि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि सुसीतल,
समन सकल भवत्रास।।
काल कोदि सत सरिस अति,
दुस्तर दुर्ग दुंरत।
धूमकेतु सत कोटि सम
दुराधर्ष भगवंत।।’’ (लंका कांड) स्तुति
‘‘सारद कोटि अमित चतुराई।
बिधि सत कोटि सृष्टि
निपुनाई।।
विष्नु कोटि सत पालन
करता।
रूद्र कोटि सत सम संहरता।।
धननद कोटि सत सम धनवाना।
माया कोटि प्रपंच निधाना।।
भार धरन सत कोटि अहीसा।
निरर्वाध निरूपम प्रभु
जगदीसा।। (उत्तर कांड) स्तुति
वैदिक देवताओं की हीनता
बताने के लिए उनके ही मुख से राम राम की स्तुतियाँ कराई गई है, इसी से सिद्ध होता
है कि ईश्वर का अंग मानते हुए भी वैदिक देवताओं के प्रति तुलसीदास जी की विशेष श्रदा
नहीं थी। किन्तु स्मृति और पुराणोंक पंच देवों की ओर उनकी श्रद्धा अवश्य भी जो कि उनकी
गणेश, सूर्य, पार्वती, शारदा, शिव ब्रह्मा आदि की स्तुतियों से प्रगट होती है।
इस प्रकार यह स्पष्ट
होता है कि इन देवताओं की स्तुति का उद्देश्य भी एक रामपदप्रेम की प्राप्ति ही था-
इस प्रकार तुलसीदास जी ने बेड कौशल से बहुदेववाद के बीच भी अपने एकेश्वरवाद को स्थिर
रखा और दोनों का सामंजस्य कर दिया।
तुलसीदास जी की ब्राह्मणों
पर बड़ी प्रगाढ़ भक्ति थी, इसी कारण ब्राह्मणों की प्रसन्नता ही उन्होंने भक्ति का सबसे
प्रधान साधन माना है। विप्र ही देवों की भक्ति का प्रथम सोपान है। उनकी प्रसन्नता से
सारे देव वशवत्ती हो जाते हैं। तथा उनकी अप्रसन्नता से सब अप्रसन्न हो जाते हैं। समस्त
मानस द्विजभक्ति से भरा हुआ है।
‘‘मन क्रम वचन कपट तजि
जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत विरंचि सुर
बस ताके सब देव।।
विद्वान ऋषि तुत्य ब्रह्म ज्ञानी ब्राह्मणों
की सेवा करने से अवश्य भक्ति में सहायता मिल सकती है किंतु अनेक स्थानों पर ब्राह्मणों
पर भी उसी प्रकार की भक्ति रखने का उपदेश दिया है।
‘‘सापत ताड़त परूष कहंता।
विप्र पूज अस गावहि संता।।
पूजिय विप्र सीलगुन
हीना। नाहिन सुद्र गुन ज्ञान प्रवीना।। (मानस)
गीता के ‘‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः
संसिद्धं लभते नरः’के अनुसार ही तुलसीदास
के ‘‘निज निज धर्म निरत’से अपने वर्ण तथा आश्रम
के अनुसार धर्म पालन करने का उद्देश्य है। वेदों में नियत की गई वर्ण व्यवस्था तथा
आश्रमव्यवस्था के अनुसार अपने धर्म का पालन करते हुए भक्ति की साधना करना आवश्यक है।
तुलसीदास जी ने चारों वर्णों और आश्रमों के
धर्म इस प्रकार कहे हैं-
‘‘सोचिय विप्र जो वेद
विहीना। तज निज धर्म विषय लव लीनां।।
सोचिय नृपत नीति नहीं
जाना। जेहि न प्रजा प्रिय पा्रन समाना।।
सोचिय वैश्य कृपन धनवान्।
जो न अतिथि सिव भक्त सुजाना।।
सोचिय सूद्र विप्र
अपमानी। मुखर मानप्रिय ज्ञान गुमानी।।
चार आश्रमों के धर्म इस प्रकार हैं-
‘‘सोचिय बटु निज ब्रत
परहरई, जो नहीं आयसु अनुसरई।।
सोचिय जो गृही मोहबस,
करै कर्म पथ त्याग।
सोचिय यती प्रपंचरत,
विगत विवेक विराग।।
वैश्वानस सोई सोचन
लागू। तप विहाय जेहि भावै भोगू।। (वि.प.)
इस प्रकार अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते
हुए धीरे-धीरे मन को विषय विरक्त कर रामचरणों में अनुराग करना चाहिए। ये दोनों बातें
एक दूसरे पर आश्रित है। जब विषयों से निराग होगा तभी रामचरणों में अनुराग होगा और जब
अनुराग दृढ़ होगा तभी विषयों से पूरा विराग हो सकता है। विषय की तुच्छता तुलसीदास जी
ने जगह-जगह पर बतलाई है। विषय-वासना-युक्त मलिन हृदय राम के निवास के योग्य नहीं है-
‘‘हरि निर्मल मलग्रसित
हृदय असमंजस मोहि जनावत।
जेहि सर कांक कंक नक
कर सूकर क्यों मराल तहँ आवत।। (वि. प.)
जब तक हममें क्षुद्र विषयों की वासना बनी
है तब तक अनंत सुख की प्राप्ति नहीं होती और जब वह अक्षय्य सुख प्राप्त हो जाता है
तब फिर मनुष्य इस क्षुद्र सुख के पीछे नहीं दौड़ता, चिंतामणि पाकर फिर
काँच बटोरने की इच्छा नहीं रह जाती-
‘‘जेहि के भवन बिमल चिंतामनि,
सो कत काँच बटोरै।’’ (वि.प.)
वसनाग्नि को बुझाने का यह उपाय नहीं है कि
उसमें विषय की आहुतियाँ डाली जायें। उससे तो वह और भी प्रज्जवलित होगी। उस अग्नि को
बुझाने का उपाय भक्ति-सुख-प्राप्ति तथा रामानुराग ही है। इसी भक्ति के निर्मल जल से
वह अग्नि सदा के लिए बुझ सकती है। हम चाहते तो सुख हैं किंतु उपाय इसके बिल्कुल विरूद्ध
करते है। हरिसंमुख होने में सुख है पर विषय संमुख और हरिविमुख होकर हम सुख का यत्न
करते हैं इसीलिए वह निष्फल होता है।
‘‘सुख साधन हरिविमुख
वृथा,
जैसे श्रमफल धृतहित
मथे पाथ।।’’ (वि.प.)
ऐसे सुख के यत्न में, विषय तृष्णा को बुझाने
के प्रयत्न में तृषा बुझती ही नहीं, केवल तालाब खोदते ही सारा जन्म चला जाता हैः-
‘‘तुलसीदास कब तृषा जाय सर खनती है जनम सिरानो।’ (वि.ष.)
जब तक यह विषय को आज्ञा बनी है तब तक कभी
सुख मिलने का नहीं है।
तुलसीदास जी के समय में विदेशी समस्या के
प्रभाव तथा स्त्री जाति की अबलता के कारण लोगों ने उन्हें स्वतंत्र रखना तथा अन्य अधिकार
देना बंद कर दिया था। किसी कवि के विचारों को ढालने में अनेक समयों में प्रचलित सामाजिक
अवस्थायें भी बहुत काम करती है।
मुसलमानों के आगमन के साथ स्त्रियों में पर्दा
आदि स्वतंत्रता हरण कारी प्रथा का प्रचार हो गया था जो पूर्व कवियों के समय में न था।
इन्हीं बातों के कारण समाज में स्त्रियों के प्रति आदर कम हो गया था। ये ही सामाजिक
विश्वास तत्सामयिक कवियों के विचारों पर प्रभाव डाले बिना न रहे। भक्ति मार्ग में निश्चित
ही स्त्रियों के प्रति समाज में प्रचलित हीनता की भावना के दूर कर उन्हें पुरूषों के
बराबर स्थान दिया गया। समाज की भावना शबरी के इस कथन से प्रगट होती है।
‘केहि विधि अस्तुति
करौं तुम्हारी।
अधम जाति मैं जड़मति
भारी।।’’
अधम ते अधम अधम अति
नारी।
तिन महँ मैं मति मंद
अधारी।। (मानस)
इसके विपरीत भक्ति मार्ग की उदार भावना श्री
राम के मुख से प्रकट होती है।
‘कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगत
कर नाता।।
जाति पाति कुल धर्म
बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगति हीन नर सोहहि
कैसा। बिन जल वारिद देखइ जैसा।। (मानस)
अन्य कवि कन्या तथा गृहिणी के मत स्वातंत्र्य
के पक्ष पाती थे परन्तु तुलसीदास की नज़र में स्त्री की कोई स्वतंत्र संमति नहीं हो
सकती। वे तो ‘न स्त्री स्वतंत्र्यमर्हति’
और ‘जिस स्वतंत्र होइ बिगरत
नारी’ के सिद्धांतों के समर्थक
थे। अपने चिरजीवन का निश्चय करने में उसे कुछ भी अधिकार न था। आर्य स्वयंवर का यही
अर्थ था कि कन्या अपनी इच्छानुसार वर चुन ले।
केवल एक दो स्थानेां पर तुलसीदास जी स्त्रियों
की स्वतंत्र संमति दिखलाई है। शंकर से पार्वती का विवाह करते समय मैना ने पति की संमति
से मतभेद प्रकट किया था-
‘जो घर बर होय अनूपा,
करिय विवाह सुता अनुरूपा।
न तु कन्या बरू दहें
कुँवारी, नाथ उमा मम प्रान पियारी।। (मानस)
उक्त वाक्यों से यह सिद्ध होता है कि कन्या
के लिए योग्य वर ढूढने की जिम्मेवारी माता-पिता पर ही थी।
नारी में परवशता के साथ दृढ़ता भी थी विवाह
के बाद पत्नी का दर्जा पति के बराबरी का रहता था। वह कार्यो में पति की सलाहकार थीं।
रानियाँ तो राजकाज जैसे गहन विषयों में भी अपनी स्वतंत्र सम्मति देती थीं। कौशल्या
का राजसभा में उपस्थित होकर भरत की राजगद्दी के विषय में अपनी राय देना, तथा मन्दोदरी को अनेक
बार रावण को राजनीति का उपदेश देकर युद्ध से विमुख करने का प्रयत्न करना इस बात के
प्रबल प्रमाण हैं।
सामाजिक दृष्टि से गृहस्थ आश्रम का सबसे अधिक
महत्व है। अतः उसका संचालन करने वाली स्त्रियों का महत्व भी बढ़ जाता है। तुलसीदास जी
ने जहाँ समाज में छल, कपट तथा दुराचार फैलाने वाली स्त्रियों की निंदा की है वहाँ
सदाचार की आधार भूमि पतिव्रताओं की प्रशंसा भी की है। क्या व्यक्तिगत, क्या पारिवारिक और
क्या सामाजिक सभी क्षेत्रों में संतुलन एवं समन्वय तुलसीदास जी का आदर्श रहा है। मनुष्य
जीवन की संपूर्णता के लिए उन्होंने अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों
पुरूषार्थों का समन्वय का आदर्श हमारे सामने रखा हैं व्यक्तिगत जीवन में काम मनुष्य
की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। किंतु उसमें धर्म का शासन आवश्यक है। जीवन निर्वाह के लिए
अर्थ ही आवश्यक है किंतु उसे भी धर्म का शासन नियंत्रित करता है।
तुलसीदास जी का आदर्श रामराज्य स्थापित करने
का था। इसके लिए उन्होंने अपने काव्य के लिए एक ऐसे उपजीव्य को चुना जो कि युग-युग
से भारतीय जीवन का आदर्श रहा हो। उन्होंने राम को अपने काव्य का आधार बनाया जो भारतीय
जनजीवन की नस-नस में रम रहा था। यह रामकृष्ण की परंपरा भारतीय आदर्शों को पोषित और
रक्षित करती आई है। इसका हमारे देश के लिए एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व है। यदि
इस परंपरा का तार टूट जाता तो हम अपनी प्राचीन संस्कृति से विच्छिन्न होकर निराधार
हो जाते।
तुलसीदास जी ने राम को ‘निरूपाधि गुन निरूपम
पुरूष’ के रूप में अवतरित
किया है जो कि ईश्वर होते हुए भी मानव के समान वर्ताव करते हैं। वह तुच्छ समझी जाने
वाली जातियों को भी शक्तिशाली आसुरी शक्तियों के सामने खड़ा कर देते है। ‘नर या वानर’ को घृणा से देखने वाली, सारे संसार पर विजय
प्राप्त करने वाली शक्तियों की पराजय उन्हीं नर एवं वानरों से होती हैं उनकी विजय के
साधन आसुरी अस्त्रशस्त्र न होकर प्राकृतिक वृक्ष एवं पत्थर थे। उनके सामने सोने की
लंका भी ध्वस्त हो जाती है।
राम केवल बलराशि, सौन्दर्य-निधि और शील
सिन्धु ही नहीं थे, वे सुकृतपुंज, स्नेहागार और सुखसागर भी थे। इसलिए उनकी राज्यप्रणाली
जनमन के लिए अत्यंत सुखावह थी।
प्रजातंत्र राज्य में जो दल प्रबल होता है
उसी की चलती है और यदि ऐसा एक दल स्वार्थी और प्रबल हो उठा जो देशवासियों के लिए हानिकारक
हो तो वह प्रजातंत्र राज्य अन्यायी राजा के एक तंत्र से भी बदतर सिद्ध होता है।
प्राचीन काल में अधिकांश ऐसे ही राज्य थे
जिनका शासन प्रजा के लिए हर प्रकार से सुख वर्धक और संतोषजनक होता था। उस समय एततंत्र
सुराज्य ही अधिक थे यद्यपि प्रजातंत्र राज्यों का बिल्कुल आभाव नहीं था। बौद्ध आर्यकाल
में प्रजातंत्र और गणतंत्र राज्यों की प्रबलता अधिक थी पर बाद में एकतंत्र राज्यों
का ही प्रबल्य रह गया था। अतः तुलसीदास जी ने भी राजा के कर्तव्यों में प्रजा पालन
पर बहुत जोर दिया है।
‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।
‘सोचिय नृपति जो नीति न जाना, जेहि न प्रजा प्रिय
प्रान समाना।।
‘पालेहु पहुमि प्रजा रजधानी, पालेहु प्रजहि करम
मन बानी।।’’
‘प्रजहिं पाल परिजन दुख हरहु।’’ (मानस)
तुलसीदास जी ने रामराज्य में मूल्यों के विसर्जन
पर जोर देकर लिखा है-
‘वस्तु बिनु गथ पाइये’- (मानस)
गथ का अर्थ है मूल्य राम राज्य में सभी वस्तुएँ
बिना मूल्य मिलती थी। मूल्य ही सारी अर्थ व्यवस्था के बिगढ़ने का कारण हैं मूल्य व्यापारी
अथवा सरकार निश्चित करती है, जिन्होंने उसके उत्पादन में कोई श्रम नहीं लगाया। जिसने उत्पादन
में श्रम लगाया उसे मूल्य निर्धारण का कोई अधिकार नहीं। मूल्य के कारण ही वस्तुएँ हम
तक नहीं पहुँच पाती। उत्पादन का उद्देश्य लाभ उठाना नहीं बल्कि उपभोग होना चाहिए। जिसको
आवश्यकता हो उसे वस्तु दे दो और बदले में उससे श्रम करा लो। यही विनिमय का सिद्धांत
काम में आता है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था में से नकली मूल्य को निकालकर वस्तु का असली
मूल्य जानना चाहिए। यही सिद्धांत राम राज्य में लागू था जिससे सभी प्रजाजन सुखी थे।
‘नहिं दरिद्र कोउ दुखी
न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन
हीना।।’
‘दैहिक, दैविक भौतिक तापा।
राम राज काहुहिं नहि
व्यापा।।’
‘सब नर करहिं परस्पर
प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत
श्रुति नीती।।’ (मानस)
तुलसीदास ने रामराज्य को एक आदर्श राज्य माना
है। क्योंकि राम राज्य में सभी स्वतंत्र और खुश थे दूसरी और उन्होंने रावण राज्य को
इसके विपरीत दर्शाया है जिसमें दुराचार परतंत्र आदि का बोलबाला था। रावण ने सतीा जी
का हरण करके दुराचार का परिचय दिया तथा मामा मारीच को सीता के हरण के लिए विवश करना
परतंत्रता को दर्शाता है।
तुलसीदास के इस समन्वय कार्य का यह फल हुआ
कि भारतीय सभ्यता की रक्षा हो गई। वेद शास्त्र डूबने से बच गये। संस्कृत साहित्य तथा
भाषा साहित्य दोनेां का प्रचार हुआ। समाज एक सूत्र में बँध गया। जाति पाँति की कड़ाई
कम हो गई। समाज के प्रत्येक अंग प्रेम बढ़ा। बड़ों का आदर तथा छोटों पर प्रेम फैल गया।
धर्म की मर्यादा स्थापित हुई। सबको अपने-अपने वर्ण में रह कर साधना में पूरा अधिकार
मिल गया। इस प्रेम धर्म की दृष्टि में सब स्त्री-पुरूष, ऊँच नीच को बराबर स्थान
मिला। आश्रमों की मर्यादा फिर से कायम हुई। झूठे सन्यासियों की पोल खुली। त्याग के
सच्चे तत्व फैले। गृहस्थ धर्म का महत्व कायम हुआ। धर्म का असली तत्व सरलता से लोगों
को मिल गया। राजनीति का आश्रय धर्म को बना देने से पराधीन भारत को फिर से आशा बँधी
और उससे छुटकारा पाने के लिए वे संसारी राजाओं की ओर न देख रामराज्य का स्वप्न देखने
लगे। समाज में फैली हुई उदासीनता घटी। अत्याचार के अंत होने का उन्हें विश्वास हो गया।
‘‘रामराज भयो काज सगुन
सुभ, राजा राम जगत बिजई है।
समरथ बड़ों सुजान सुसाहिब,
सुकृत सेन हारत जितई है।।
सुजन सुभाव सराहत सादर
अनायस साँसति बितई है।
तुलसी प्रभु आरत-आरति
हर, अभय बाँह केहि केहि न दई है।।’’
(विनय पत्रिका)
संदर्भ ग्रंथ-
1. रामचरितमानस, गीताप्रेस गोरखपुर
2. कवितावली, गीताप्रेस गोरखपुर
3. विनय पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर
(डॉ. मन्जू रानी, असिस्टेंट प्रोफेसर, अदिति महाविद्यालय)
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
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