हिन्दी साहित्य के मध्य युग में ‘रामभक्ति’ की पूर्ण प्रतिष्ठा
रामानंद के हाथो हुई। ये रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैतवाद) की चौथी पीढ़ी में आने
वाले राघवानन्द के शिष्य थे। रामानुजाचार्य द्वारा स्थापित श्री-सम्प्रदाय में
विष्णु और लक्ष्मी की पूजा प्रचलित थी। रामानन्द ने सर्वप्रथम विष्णु और लक्ष्मी
के स्थान पर राम की उपासना का प्रचलन किया और ‘रामावत’
सम्प्रदाय की स्थापना की।
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
रामानन्द की शिष्य
परम्परा में आने वाले गोस्वामी तुलसीदास के हाथों हिन्दी में रामभक्ति पूर्ण
प्रतिष्ठा को प्राप्त हुई। रामानंद के शिष्य नर्हर्यानन्द के शिष्य थे। तुलसी के
अभिराम काव्य-भवन में रामभक्ति की प्राचीन से लेकर उनके समय तक की सभी मान्यताएँ
अमर होकर प्रतिष्ठित हो गयीं। हिन्दी रामभक्ति काव्य-धारा में तुलसी के महत्व का
प्रतिपादन करते हुए डॉ. माताप्रसाद गुप्त कहते हैं- “हिन्दी रामभक्ति
काव्य-धारा में अनेक कवि हुए, किन्तु रामभक्ति काव्य-धारा का
साहित्यिक महत्व अकेले तुलसी के कारण है। धारा के अन्य कवियों और तुलसीदास में
अंतर तारागण और चन्द्रमा का नहीं, तारागण और सूर्य का है। तुलसी
की अपूर्व आभा के सामने वे साहित्याकाश में रहते हुए भी न चमक सके। इसलिए इस धारा
का अध्ययन मुख्यतः तुलसीदास में ही केन्द्रित करना होगा।.... तुलसीदास ने अपने समय में प्रचलित हिन्दी की प्राय:समस्त साहित्यिक और
लोकगीत की पद्धतियों में अपनी अपूर्व प्रतिभा का चमत्कार दिखाया, और हमारे मध्ययुग के साहित्य के इतिहास में प्रबन्ध-काव्य का वह आदर्श
उपस्थित किया जो अब भी उच्चतम है। किन्तु तुलसीदास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि
उन्होंने भारतीय संस्कृति का एक ऐसा सर्वमान्य रूप सब के सामने रक्खा जैसा बहुत कम
हुआ है। वे भारतीय संस्कृति के सबसे अधिक सच्चे प्रतिनिधियों में से हैं, और यही कारण है कि उनका स्थान भारतीय साहित्य में नहीं विश्व-साहित्य में
भी महत्वपूर्ण है।” 1
तुलसी के पूर्व का जो
भी रामभक्ति साहित्य है, प्राय: अप्रकाशित है। जिन रचनाओं का उल्लेख मिलता भी है वे प्राय: संदिग्ध
ही हैं। हिन्दी में रामभक्ति-साहित्य से सम्बंधित प्रथम काव्य-रचना रामानन्द कृत ‘रामरक्षास्तोत्र’ है। इसके बाद रामानंद के कुछ
शिष्यों- अनन्तानन्द, सुखानन्द, सुरसुरानन्द,
भावानन्द सुरानन्द आदि की रचनाओं का उल्लेख नाभादास ने भक्तमाल नामक
काव्य संग्रह में किया है। परन्तु इन पदों का रामभक्ति-साहित्य की दृष्टि से कोई
विशेष महत्व नहीं है।
रामानन्द के
शिष्यों की रचनाओं के बाद ‘विष्णुदास’ का नाम आता है। इन्होंने वाल्मीकि रामायण
का भाषानुवाद किया था। इनके बाद इस परम्परा में सबसे बड़े कवि का नाम ईश्वरदास का
है। इनकी दो रचनाएँ ‘भरतमिलाप’ और ‘अंगद-पैज’ तुलसी के रामचरितमानस के पूर्वाभास रूप
में देखी जा सकती हैं। ईश्वरदास के के ‘भरतमिलाप’की कथावस्तु और रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड की कथावस्तु में पर्याप्त
साम्य है। इसमें पूरी कथा दोहा-चौपाई पद्धति में वर्णित है। इसके साथ ही भरत की
आदर्श दास्यभक्ति भी द्रष्टव्य है। इश्वरदस की एक रचना ‘रामजन्म’
भी मिली है। इन सबको देखकर ऐसा लगता है, जैसे
ये किसी एक ही मूल ग्रन्थ के अंश मात्र हों।
तुलसी-पूर्व
रामकथासाहित्य से संबद्ध कुछ जैन कवियों की रचनाएँ भी उल्लेखनीय है। इनमें
मुनिलावरायकृत ‘रावणमन्दोदरी-संवाद’
तथा ब्रह्मजिनदासकृत ‘रामचरित या रामरस तथा
हनुमन्तरास विशेष उल्लेखनीय हैं। जैनियों से अलग इसी काल की, ब्रह्मरायल्ल की ‘हनुमन्तगामी कथा’ तथा सुन्दरदासकृत ‘हनुमानचारित’ भी रामकथा-परम्परा की कृतियाँ हैं।
रामभक्ति-काव्य
परम्परा का पूर्णपरिपाक तुलसीदास की कृतियों में मिलता है। इनकी उपलब्ध बारह
रचनाएँ- रामलला नहछू (जनेऊ संस्कार से सम्बन्धित); जानकी मंगल (216 छंदों में
राम-जानकी विवाह का प्रसंग); रामाज्ञा प्रश्नावली (सात-सात
दोहों के सात सप्तकों वाले सात सर्ग है, सगुन विचारने के
उद्देश्य से लिखा गया है); वैराग्यसंदीपिनी (संत-महिमा,संत स्वाभाव और शांति का वर्णन करने वाली दोहा-चौपाईयों में लिखी छोटी सी
पुस्तिका); रामचरितमानस, पार्वती
मंगल(एक सौ चौसठ छंदों में शिव-पार्वती विवाह); कृष्णगीतावली,
बरवै रामायण (जिसमे केवल 69 बरवै छंदों का
संग्रह); विनयपत्रिका (विनय संबंधी गेय पदों का संग्रह);
गीतावली (लीला-विषयक गीतों का संग्रह); दोहावली
(भक्ति, नीति, और वैराग्य विषयक 573 दोहों का संग्रह); कवितावली (कवित्त, सवैया, छप्पय, आदि छंदों का
संग्रह, जिसमें छंद रामायणी कथा के कांडों के अनुसार संग्रह
कर दिए गए हैं, पर कथा क्रमबद्ध नहीं है)- सभी रामकथा संबंधी
कृतियाँ हैं। इनमें रामचरितमानस (रचनाकाल स. 1631) सर्वप्रमुख
है।
तुलसीदास के महत्व
को रेखांकित करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं- “तुलसीदास को जो अभूतपूर्व
सफलता मिली, उसका कारण यह था कि वे समन्वय की विशाल बुद्धि
लेकर उत्पन्न हुए थे। भारतवर्ष का लोक नायक वही हो सकता है, जो
समन्वय का अपार धैर्य लेकर आया हो... उन्हें लोक और शास्त्र दोनों का बहुत व्यापक
ज्ञान प्राप्त था।...लोक और शास्त्र के इस व्यापक ज्ञान ने
उन्हें अभूतपूर्व सफलता दी। उसमें केवल लोक और शास्त्र का ही समन्वय नहीं है,
वैराग्य और गार्हस्थ का, भक्ति और ज्ञान का,
भाषा और संस्कृत का, निर्गुण और सगुण का,
पुराण और काव्य का, भावावेग और अनासक्त चिन्तन
का, ब्राह्मण और चांडाल का, पंडित और
अपंडित का समन्वय, रामचरितमानस के आदि और अंत दो छोरों पर
जाने वाली पराकोटियों को मिलाने का प्रयास है। इस महान समन्वय का आधार उन्होंने
रामचरित को चुना है। इससे अच्छा चुनाव हो भी नहीं सकता था।” 2
मार्क्सवादी आलोचक
शिवकुमार मिश्र इस सन्दर्भ में कहते हैं- “गोस्वामी जी पंडित थे, कला
विदग्ध थे किन्तु भीतर कहीं एक नितांत गँवई मन के भी स्वामी थे। उनके गँवई संस्कार,
उनकी भाषा का गँवई लहजा, उसमें रची-पगी लोक रस
की मिठास, उनकी लोकप्रियता का राज हैं। सुख अथवा दुःख के
अवसरों पर जैसी उक्तियाँ साधारण जनों के मुँह से सहज ही फूटती हैं। गोस्वामी जी
उनकी अंतरंगता से वाकिफ थे। उनके रामचरितमानस तथा दूसरी कृतियों में ढेरों
उक्तियाँ ऐसी हैं जिन्हें अपढ़ से अपढ़ जन सुख-दुःख के क्षणों में बरबस दुहरा देते
हैं। उनके मन-मस्तिष्क वे जैसे सदा-सदा के लिए नक्श हो गयी हैं-
‘खेती ना किसान को, भिखारी को न
भीख,
बलि, बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी
जीविका विहीन लोग सीद्यमान, सोच बस
कहैं एक-एकन सो, कहाँ जाइं, का करी
? ‘
विपत्ति तथा दुःख के
क्षणों में साधारण ग्रामीण जनों के मुख से ‘कहाँ जाइं, का करी’ की यह विवशता तथा निराशा गर्भित उक्ति आसानी से सुनी जा सकती हैं।”
3
तुलसीदास जनता के
दुःख-दर्द, भूख
और गरीबी का इतना यथार्थ और मार्मिक चित्रण इसीलिए कर पाये हैं कि वे स्वयं उसके
भीतर से गुजरे थे। अपने समय में वे काफी कुछ भोगे तथा सहे थे। यह सच है कि वे
वर्ण-धर्म की चहारदीवारी नहीं लाँघ पायें परन्तु इस वर्ण-धर्म के ठेकेदारों से उन्हें
कम दुःख और अपमान नहीं मिला था। बड़ी निडरता से उन्होंने वर्ण-धर्म के तथाकथित
रखवालों को खरी-खरी सुनाई हैं-
“धूत कहो अवधूत कहौ, रजपूत कहौ,
जुलहा कहौ कोऊ,
काहू की बेटी सों बेटा न व्याहब, काहू की जाति बिगारि न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचै सो कहौ कछु कोऊ।
मांगि कै खइबौ, मसीत को सोइबो, लेबे को एक न देबे को दोऊ।।”
4
वे केवल जग की चिंता में
डूबे सदैव गुरु-गंभीर, धर्म और नीति के उपदेशक, भक्ति और अध्यात्म के रूप
में ही वे केवल सामने आये हो, वे अत्यंत कोमल और मृदुल
संवेदनाओं के साथ भी हमसे अपनी लगभग प्रत्येक कृति में मुखातिब हुए है। ‘बरवै रामायण’ में सखियों का हास-परिहास का दृश्य
अनुपमेय हो जाता है-
“का घूंघट मुँह मूँदहु नवला नारि।
चाँद सरग पर सोहत यह अनुहारि।।
गरब करहु रघुनंदनि जन मन माहिं।।
देखहु आपनि मूरत सिय के छाहिं।।
उठी सखी हँसि मिस करि कहि मृदुबैन।
सिय-रघुवर के भए उनींदे नैन।।” 5
समीक्षक शिवकुमार मिश्र
पुन: लिखते हैं- “समग्रत: तुलसी लोक-जीवन की मधुर-तिक्त अनभूतियों के मुग्ध और सजग गायक हैं।
लोक-जीवन की नाना छवियों को उनकी रचनाओं में उनकी जीवंतता में देखा जा सकता है।”
6
भाषा की दृष्टि से वे
अतुलनीय है। समन्वय की चेष्टा के साथ वह जितनी लौकिक है उतनी शास्त्रीय भी। भाषा
प्रभुत्व के सन्दर्भ में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन द्रष्टव्य है- “तुलसीदास के पहले किसी
हिन्दी-कवि ने इतनी मार्जित भाषा का प्रयोग नहीं किया था। कव्योपयोगी भाषा लिखने
में तो वे कमाल करते हैं। उनकी विनय-पत्रिका में भाषा का जैसा जोरदार प्रवाह है,
वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। जहाँ भाषा साधारण और लौकिक होती है,
वहाँ तुलसीदास की उक्तियाँ तीर की तरह चुभ जाती हैं और जहाँ
शास्त्रीय और गम्भीर होती है, वहाँ पाठक का मन चील की तरह
मंडरा कर प्रतिपादित सिद्धान्त को ग्रहण कर लेता है।” 7
तुलसीदास के कुछ
समकालीन कवियों ने भी रामकथा पर आधारित काव्य ग्रंथों की रचना की है। स्वामी
अग्रदास की तीन कृतियों- पदावली, ध्यानमंजरी तथा अष्टयाम और इनके शिष्य नाभादास की दो कृतियों, रामचरित के पद तथा अष्टयाम- में, मंजी हुई भाषा में
भक्ति के भक्ति के पद मिलते हैं। मुनिलालकृत रामप्रकाश, केशवदासकृत
रामचन्द्रिका, सोढ़ीमेहरबानकृत आदिरामायण, हृदयरामकृत हनुमान्नाटक, रामानन्दकृत लक्ष्मणायन,
माधोदासकृत रामरासो तथा सूरदासकृत रामभक्ति संबंधी-पद तुलसी की
समकालीन रचनाएँ हैं। परन्तु इन रचनाओं की गरिमा तुलसी के रामभक्ति संबंधी काव्यों
की गरिमा के नीचे दबकर रह गयी है।
तुलसीदास ने
अपने काव्य-ग्रन्थों में राम की जिस मर्यादित भक्ति का प्रतिपादन किया था, उसकी रक्षा आगे के
काव्यों न हो सकी। तुलसी के समय में ही अग्रदास और उनके शिष्य नाभादास ने अष्टयाम
की रचना कर, रामचरित को कृष्णचरित बनाने की चेष्टा करनी शुरू
कर दी। इस ग्रन्थ में कृष्ण की भांति राम की विविध लीलाओं, संयोग-वियोग
तथा मधुर रति का वर्णन किया गया था। मर्यादित भक्ति पर माधुर्य से ओत प्रोत कृष्ण
भक्ति का प्रभाव था। तुलसी की मृत्यु के 100 वर्षों के
अनन्तर ही राम की माधुर्यभक्ति ने जोर पकड़ा, और इसके कई
सम्प्रदाय स्थापित हुए, जिनमे तत्सुखी सम्प्रदाय, रामयत सखी सम्प्रदाय, सखी या स्वसुखी सम्प्रदाय
विशेषतया उल्लेखनीय हैं। इनमें रामयत सखी-सम्प्रदाय के भक्त अपने को जनकनन्दिनी
सीता की सखियाँ समझ राम के प्रति वही भाव रखने लगे जो गोपियाँ कृष्ण के प्रति रखती
थीं। यह सम्प्रदाय जनकपुर में स्थापित हुआ, इन्हीं की
देखा-देखी अयोध्या के एक साधु राधाचरणदास ने सखी या स्वसुखी सम्प्रदाय की स्थापना
की। इस सम्प्रदाय के भक्त अपने को राम की सहचरी सखियाँ मानकर उनके प्रति मादक भाव
की भक्ति करने लगे। इस सम्प्रदाय में राम, आदर्श पुरुष
लीला-विहारी परम रसिक नायक के रूप में प्रस्तुत किये गये। ये कई पुस्तकों के लेखक
बताए जाते हैं। रामायण पर इनकी टीका विशेष रूप से प्रसिद्ध है इसके अतरिक्त पाँच
और पुस्तकें इनके नाम पर मिलती हैं: दृष्टान्त बोधिका, कवितावली
रामायण, पदावली, रामचरित्र और रसमालिका
है। संक्षेप में तुलसी के बाद रामभक्ति एक प्रकार से कृष्णभक्ति का अनुकरण बनकर रह
गयी। तुलसी द्वारा प्रतिपादित राम का मर्यादा पुरुषोत्तम रूप, बाद के रसिक भक्ति-कवियों के हाथ में पड़कर रसिक पुरुषोत्तम रूप में परिणित
हो गया। रामभक्ति के इन रसिक सम्प्रदायों से संबंधित कवियों में प्राणचन्द चौहान,
हृदयराम, केशव, प्रियदास
कलानिधि, महाराज विश्वनाथ आदि उल्लेखनीय हैं।
इन रसिक कवियों के
अतरिक्त तुलसी के बाद के कवियों में रामलल्ल पाण्डेय (हनुमच्चारित); लालदास (अवध विलास),
सेनापति (कवित्त रत्नाकर-4 थी, 5 वी तरंग) नरहरिदास (अवतार चरित्र) विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं।
रामभक्ति साहित्य की
परम्परा का विस्तार हिंदी के मध्ययुग से लेकर आधुनिक युग तक फैला है। आधुनिक युग
में साकेत, राम
की शक्ति-पूजा, तुलसीदास सद्य: प्रकाशित आंजनेय आदि कृतियाँ
रामकथा को आधार लेकर लिखी गयी हैं। परन्तु रामचरित की वह महत्ता जो तुलसी के
काव्यों में प्रतिपादित हुई है, अन्य किसी रामकथा काव्य में
प्रतिपादित न हो सकी।
सन्दर्भ :
1. हिंदी
पुस्तक-साहित्य (भूमिका से) : माताप्रसाद गुप्त, पृष्ठ- 5,
संस्करण- 1974, हिंदुस्तानी एकेडेमी, यू. पी. इलाहाबाद
2. हिंदी
साहित्य : उद्भव और विकास- हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ- 130-131, संस्करण- 1990, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002
3. भक्ति-आन्दोलन
और भक्तिकाव्य- शिवकुमार मिश्र, पृष्ठ- 165, परिवर्द्धित संस्करण- 2005, अभिव्यक्ति प्रकाशन बी-31,
गोविन्दपुर कालोनी, इलाहाबाद- 211004
4. भक्ति-आन्दोलन
और भक्तिकाव्य- शिवकुमार मिश्र, पृष्ठ- 169 , परिवर्द्धित संस्करण- 2005, अभिव्यक्ति प्रकाशन बी-31,
गोविन्दपुर कालोनी, इलाहाबाद- 211004
5.भक्ति-आन्दोलन
और भक्तिकाव्य- शिवकुमार मिश्र, पृष्ठ- 170, परिवर्द्धित संस्करण- 2005, अभिव्यक्ति प्रकाशन बी-31,
गोविन्दपुर कालोनी, इलाहाबाद- 211004
6.भक्ति-आन्दोलन
और भक्तिकाव्य- शिवकुमार मिश्र, पृष्ठ- 170, परिवर्द्धित संस्करण- 2005, अभिव्यक्ति प्रकाशन बी-31,
गोविन्दपुर कालोनी, इलाहाबाद- 211004
7.हिंदी
साहित्य : उद्भव और विकास- हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ- 133
-134, संस्करण- 1990, राजकमल प्रकाशन प्रा.
लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002
(डॉ. योगेश राव, लखनऊ, उत्तरप्रदेश
)
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