आधुनिक सन्दर्भों के
परिप्रेक्ष्य में रामचरितमानस
विश्व राजनीति में 1789 में हुई फ्रांसीसी राज्य क्रांति के ‘स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व’ के उद्घोष के साथ आधुनिक युग का आरम्भ होता है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ के साथ स्वतन्त्रता व समानता के सिद्धान्त ने और जोर पकड़ा तथा 1917 की रूसी क्रांति से प्रेरित होकर साम्राज्यवादी एवं सामन्ती शक्तियों के विरुद्ध संघर्षरत होकर समस्त विभेदों से परे एक खुशहाल समाज का स्वप्न संजोया गया। विश्व के लगभग सभी देशों में आधुनिकता के पदार्पण के साथ-साथ प्रत्येक राष्ट की स्वतन्त्रता, प्रत्येक व्यक्ति की स्वतन्त्रता, स्त्री-पुरुष में समानता, व्यक्ति-व्यक्ति में समानता, अन्याय व शोषण से मुक्त समाज की स्थापना, धर्म, जाति, लिंग, धन आदि के आधार पर होने वाले विभेदों की समाप्ति सरीखे नवीन जीवन मूल्य स्वीकृत हुए।
तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि उनका यह
महाकाव्य इन शाश्वत जीवन मूल्यों का आकाशदीप है तथा ‘मानस’ में इनका क्षेत्र सीमित नहीं है अपितु उनमें वैश्विक दृष्टि है, तथा इनके माध्यम से मानव मात्र के कल्याण की
कामना है। रामचतिमानस युगवाणी है जो आधुनिक काल में भी उध्र्वगामी जीवनदृष्टि एवं
व्यवहार धर्म तथा विश्वधर्म का संदेश देती है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार बालकाण्ड से लंकाकाण्ड तक रामचरितमानस
लोकमंगल की साधनावस्था का काव्य है और उत्तरकाण्ड सिद्धावस्था का। श्रीराम का वनवास काल
में सामान्य जनों के सम्पर्क में आकर उनके सुख-दुख का सहभागी बनना, धरती को अन्यायकारी आसुरी शक्तियों से मुक्त
करने का संकल्प व संघर्ष, निजी
स्वार्थ से परे सबके प्रति सम्यक् आचरण का निर्वाह तथा राजमद से रहित शौर्य, शील, समता, धैर्य, विवके, क्षमा, दया, परोपकार, जैसे
मानवीय सद्गुणों का निरन्तर विकास-यह है बालकाण्ड से लेकर लंकाकाण्ड तक राम के
शासकीय चरित्र निर्माण की दीर्घकालीन प्रक्रिया-लोकमंगल की साधनावस्था का प्रदीर्घ
प्रशिक्षण।
आज सारे विश्व में लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को प्रश्रय दिया जा रहा है
कथित रूप से लोकतांत्रिक न होते हुए भी गो0 तुलसीदास राजतंत्रीय ढांचे को ही अधिकाधिक
जनोन्मुखी और सर्वकल्याणकारी बनाने का प्रयत्न करते हुए ‘जनोन्मुखी राजसत्ता की पक्षधरता’ सिद्ध करते हैं। एक आदर्श राजा के रूप में राम
तथा एक आदर्श राज्य के रूप में रामराज्य की उनकी परिकल्पना की परिधि में व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य और विश्व का कल्याण समाविष्ट है जहां, धर्म की संकुचित अवधारणा नहीं, वरन सत्य ही धर्म है-
‘धरम न दूसर सत्य समाना।‘
परहित और अहिंसा इस धर्म के महत्वपूर्ण
तत्व हैं। विश्व में कदाचित् ही कोई ऐसा देश हो जहां स्वार्थ और हिंसा को प्रश्रय
देकर मानवीयता के विकास के चरम लक्ष्य को पाया जा सके अतः परदुखकातरता एवं अहिंसा
ही काम्य हैं-
‘परहित सरस धरम नहिं भाई,
परपीड़ा सम नहिं अधमाई।’
शिक्षा जो मनुष्य के विकास हेतु उसकी
अप्रकट संभावनाओं को उत्तरोत्तर दिशा प्रदान कर उसे अपने चरम लक्ष्य तक पहुंचाती
है, उस पर सभी वर्णों, वर्गों, जातियों व समुदायों का समान अधिकार होना चाहिए
अतः रामराज्य में सबके लिए शिक्षा का प्रावधान है। सभी गुणी, विद्वान तथा ज्ञानी हैं-
सब गुनग्य पंडित सब ज्ञानी।
यद्यपि गो0 तुलसी मानस में वर्णाश्रम व्यवस्था को चित्रित
करते दिखाई देते हैं किन्तु प्रकारान्तर से उनकी यह वर्णव्यवस्था जन्म नहीं अपितु
कर्म सिद्धान्त पर आधारित है। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था के रूप में जिस कार्मिक
व्यवस्था को प्रतिपादित किया है वह उध्र्वाधर नहीं अपितु क्षैतिज या समस्तरीय
स्वरूप की है,
जहां ‘श्रम की गरिमा’ है। यह छुआछूत और परस्पर भेदभाव का पूर्णतः
निषेध कर, सभी वर्गों व वर्णों के मध्य समतापरक, समरस व्यवहार को अंगीकार करने वाली है।
अपराधमुक्त, वर्ग और वर्ण-भेदभावना रहित, शत्रुरहित, समाज का वह स्वप्न जो विश्व कल्याण के सन्दर्भ
में आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है, रामराज्य की परिकल्पना में दिखता है-
दंड जतिन्ह कर भेद जहं नर्तक नृत्य
समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र के राज।।
तुलसीदास की समतापरक दृष्टि ही ऐसे
राजघाट की परिकल्पना करती है जहां सभी वर्णों और श्रेणियों के लोगों को स्नान करने
का समान अधिकार है-
राजघाट सब बिधि सुंदर बर।
मज्जहिं तहां बरन चारिहु नर।।
अमेरिका के राष्टपति फ्रैंकलिन डी0 रूजवेल्ट ने सन् 1941 में आधुनिक मानव समाज के लिए चार प्रकार की
स्वतन्त्रताओं का प्रतिपादन किया था-भाषा व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, अपने ढंग से ईश्वर को पूजने की स्वतन्त्रता, भयमुक्त होने की स्वतन्त्रता एवं अभाव मुक्ति
की स्वतन्त्रता। तुलसीदास रामचरितमानस में इन सभी प्रकार की स्वतन्त्रताओं को
राजतन्त्रीय शासन व्यवस्था में भी सम्यक प्रकार से विन्यस्त दिखलाते हैं। किसी
व्यक्ति की वैचारिक स्वतन्त्रता एक महान लोकतान्त्रिक मूल्य तथा मानव जाति की
प्रगति की आधारशिला है, जिस
पर राजसत्ता मदान्ध होकर अंकुश लगाने का यत्न कर सकती है किन्तु ‘चित्रकूट सभा’ की प्रसंगोद्भावना के माध्यम से व्यक्ति के इस
विचार स्वातन्त्र्य का पूर्ण निर्वाह किया है। इस प्रसंग का वैशिष्ट्य निरूपित
करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं- ‘‘धर्म के इतने स्वरूपों की एक साथ योजना, हदय की इतनी उदात्त वृत्तियों की एक साथ उद्भावना
तुलसी के विशाल मानस में ही संभव थी। यह संभावना उस समाज के भीतर बहुत से
भिन्न-भिन्न वर्गाें के समावेश द्वारा संघटित की गई है। राजा और प्रजा, गुरू और शिष्य, भाई-भाई, माता और पुत्र, पिता और पुत्री, श्वसुर और जमाता, सास और बहू, क्षत्रिय और ब्राहमण, ब्राहमण और शूद्र, सभ्य और असभ्य के परस्पर व्यवहारों के धर्म
गांभीर्य और भावोत्कर्ष के कारण अत्यन्त मनोहर रूप प्रस्फुटित हुआ है।’’
इस आदर्श राज्य रामराज्य में दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों के आतंक से प्रजा सर्वथा
भयमुक्त है व सभी मनुष्य इच्छानुसार स्वधर्म का पालन करते हैं-
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं
स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
तुलसीदास के बहुआयामी, समग्र जीवन चिंतन का एक महत्वपूर्ण पक्ष, सामाजिक पक्ष और समाज का अर्द्ध भाग नारी है।
मध्ययुग के तुलसी पराधीन नारी जाति की चीख को व्यक्त कर आधुनिक युग के महिला
मुक्ति आन्दोलन की आहट का संकेत दे चुके थे किन्तु खुदगर्ज पुरुष समाज हमेशा तुलसी
की नारी हीनता वाली पंक्तियों का, बिना
विचार किए कि वे कुपात्रों के उद्गार हैं, नारी को सताने के लिए इस्तेमाल करता रहा और
तुलसी की मुल संवेदना पर अपनी मनमानी व्याख्या का कचरा उलीचता रहा। जबकि मानस में
वे महत्वपूर्ण स्त्री प्रश्नों के प्रस्तोता के रूप में सामने आते हैं।
पुत्री पार्वती की विदाई के समय माता
मैना के मार्मिक उद्गार पितृसत्तात्मक समाज में नारी की पराधीन स्थिति को व्यक्त
करते हैं-
कत बिधि सृजी नारी जग माहीं।
पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।।
इस उक्ति की महत्ता पर प्रकाश डालते
हुए प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डाॅ0
राम मनोहर लोहिया कहते हैं- ‘‘नारी
स्वतन्त्रता और समानता की जितनी जानदार कविता मैंने तुलसी की पढ़ी और सुनी उतनी और
कहीं नहीं......।’
सीता-राम के विवाह से पूर्व
पुष्प-वाटिका की पूर्वानुराग की प्रसंगोद्भावना कर उन्होंने सामन्ती मान्यता पर
प्रहार किया है। इस सन्दर्भ में डाॅ0 रामविलास शर्मा का कथन दृष्टव्य है-‘‘सामंती समाज में विवाह पहले हो जाता है, प्रेम बाद में शुरू होता है। तुलसीदास ने राम
सीता के विवाह में यह दिखलाया है कि विवाह प्रेम की परिणति है। यद्यपि सीता की
प्रीति पुरातन है, फिर
भी लोक व्यवहार की दृष्टि से कंकन किंकिन नूपुर में राम का मदन ध्वनि सुनना, सियमुख की तरफ नयन-चकोरों का देखना और सीता
द्वारा राम को हदय में बिठाकर पलक कपाट लगा लेना आदि क्रियाओं का वर्णन तुलसी के
मर्मी कवि हदय का परिचय ही नहीे देता, उनक रूढ़ियों को तोड़ने वाले साहस का भी परिचय देता है।’’
सीता के चरित्र का सर्वाधिक तेजस्वी
एवं विद्रोही पक्ष पति राम के साथ वन-गमन के समय दिखाई देता है जहां वह एक विवाहिता
स्त्री के सबसे बड़े अधिकार- अपने पति के साथ प्रत्येक परिस्थिति में रहने केे
अधिकार का सशक्त रूप से समर्थन करती हैं-
मैं पुनि समुझि देखि मन माहीं।
पिय वियोग सम दुखु जग नाहीं\।।
़ मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
तुम्हहि उचित तप मों कहुं भोगू ?
बालि की पत्नी तारा एवं रावण की पत्नी
मंदोदरी के चरित्र के माध्यम से ‘मानस’ में तुलसीदास इस सामंती विचारधारा पर प्रहार
करते हैं कि मात्र पुरुष ही विवेकपूर्ण सोंच रखते हैं। अपनी पत्नी के उचित
परामर्शों का सदैव तिरस्कार तथा अवहेलना उन्हें मृत्यु के कगार पर ला खड़ा करता है।
मानस में जो स्त्री विरोधी उक्तियां हैं वे तुलसीदास के प्रवक्ता पात्रों की नहीं, बालि और रावण जैसे कुपात्रों की हैं। राम स्वयं
बालि को फटकारते हुए कहते हैं-
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना।
नारि सिखावन करसि न काना।।
औद्योगीकरण की अंधी दौड़, नगरीकरण के अबाध विस्तार, अति मशीनीकरण के अभिशाप व वैज्ञानिक संसाधनों
के दुरुपयोग के कारण आज सम्पूर्ण विश्व की प्राकृतिक सम्पदाओं, पर्यावरण तथा मानवेतर प्राणियों का अस्तित्व
संकट में है। मनुष्य समाज अपनी अतिरिक्त अधिकार भावना, प्राकृतिक सम्पदा संदोहन की अबाध व विनाशी
प्रेरणा और मानवेतर प्राणी समाज के प्रति अपनी जघन्य हिंस्र भावना के कारण मनुष्य
अपने परिवेष को दूषित करता हुआ सामूहिक आत्मघात की राह पर अग्रसर है। तुलसीदास
मध्ययुग में ही मनुष्य की इस आत्मविनाशी वृत्ति का पूर्वानुमान कर चुके थे इसीलिए
रामराज्य प्रसंग में मानव समाज के स्वस्थ आचरण द्वारा मनुष्य, प्रकृति तथा मानवेतर प्राणियों के मध्य समरस
तथा संतुलित संबंध की उपादेयता को चित्रित करते हैं-
ससि सम्पन्न सदा रह धरनी। त्रेता भइ
कृतजुग कै करनी।।
प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी।
जगदातमा भूप जग जानी।।
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल
स्वाद सुखकारी।।
सागर निज मरजादा रहहीं। डारहिं रत्न
तटहिं नर लहहीं।।
बिधु महि पूर मयूरवन्हि रबि तप जितनेहि
काज ।।
मांगें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें
राज।।
रामचरितमानस में सर्वत्र विश्वजनीन
अनुभवों, सार्वभौमिक सत्यों एवं सार्वकालिक
मानवीय संवेदनाओं की विशद अभिव्यक्ति प्राप्त होती है। इस महाकाव्य के उपसंहार तक
आते-आते उन्होंने निश्चय ही सम्पूर्ण विश्व, सम्पूर्ण मानव जाति को अपनी चिन्ता एवं विचारण
का विषय बनाया है। उत्तरकाण्ड में वे उन मानसिक रोगों-मोह, लोभ, क्रोध, असीमित
कामनाएं, ममता, ईष्र्या, परसंताप, अहंकार, दम्भ, कपट, तृष्णा, अविवेक आदि की चर्चा करते हैं जो आज समस्त
विश्व को आक्रान्त किए हुए हैं। इन रोगों की पीडा़ से मानव समुदाय की मुक्ति व
विश्व कल्याण की कामना यहां स्पष्ट झलकती है-
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु
ब्याधि।
पीड़हि संतत जीव कहुं सो किमि लहै
समाधि।।
इस प्रकार रामचरितमानस में श्री
राम-चरित गान के साथ-साथ विश्वमंगल के निमित्त आधुनिक मानव से सम्बन्धित प्रश्नों, समस्याओं एवं मूल्यों की चिन्ता का अति विशाल
परिप्रेक्ष्य भी संयुक्त है।
संदर्भ-
1. श्रीरामचरितमानस-गो0 तुलसीदास, टीकाकार-हनुमानदास पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर।
2. त्रिवेणी-आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल, लोकभारती
प्रकाशन, इलाहाबाद सं0-2013
3. आधुनिकता
और तुलसीदास- श्री भगवान सिंह, भारती
प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र0 सं0-2001
4. भारतमाता-धरतीमाता-सं0-ओंकार शरद, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
5. परम्परा
का मूल्यांकन-डाॅ0
रामविलास शर्मा,
राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, सं0-1981
6. सनातन
रामवृत्त और गोस्वामी तुलसीदास-डाॅ0
लक्ष्मीनारायण,
चिन्ता प्रकाशन, पिलानी, प्र0 सं0-1987
डॉ. प्रीति अग्रवाल, पोस्ट डाक्टोरल रिसर्च फेलो, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
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