तुलसी काव्य में राम का माहात्म्य और कलियुग
वर्णन की प्रासंगिकता
तुलसीदास की कविता के चार प्रमुख बिंदु हैं:- पहला राम दूसरा राम की भक्ति या उनका माहात्म्य तीसरा-रामराज्य और चौथा -कलियुग वर्णन। कलियुग के प्रभावों को कम करने वाले प्रारम्भ के तीन बिंदु हैं। ये कलियुग वर्णन के सापेक्ष आए हैं। वैसे तुलसीदास की कविता के केंद्र में राम ही हैं। तुलसीदास के लिए राम ‘ब्रह्म परमार्थरूपा’ हैं। वे ‘सच्चिदानंदस्वरूप’ हैं ‘परमतत्व’ हैं। तुलसीदास की कविता ‘राम नाम’ के बिना अपूर्ण है। तुलसीदास की दृष्टि में सच्ची कविता वही है जिसमें राम नाम है। वे लिखते हैं:-
भनिति बिचित्र
सुकबि कृत जोऊ।
राम नाम बिनु सोह न सोऊ।।
राम नाम बिनु सोह न सोऊ।।
बिधुबदनी सब भाँति
सँवारी।
सोह न बसन बिना बर नारी।।
सोह न बसन बिना बर नारी।।
सब गुन रहित
कुकबि कृत बानी।
राम नाम जस अंकित जानी।
राम नाम जस अंकित जानी।
सादर कहहिं
सुनहिं बुध ताही।
मधुकर सरिस संत गुनग्राही।।
मधुकर सरिस संत गुनग्राही।।
जदपि कबित रस एकउ
नाहीं।
राम प्रताप प्रगट एहि माहीं।
राम प्रताप प्रगट एहि माहीं।
सोहू भरोस मोरे
मन आवा।
केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा।।
केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा।।
तुलसीदास के लिए
राम मात्र एक नाम नहीं भक्ति के आधार हैं। तुलसी स्वीकार करते हैं कि उनकी कविता
में रामकथा का गान है इसलिए तुलसी के अनुसार ‘भद्दी सी लगने वाली कविता’ भी रामनाम के
प्रभाव से उत्तम हो जाती है। जैसे धुआँ अगर के सम्पर्क में आते ही अपना स्वाभाविक कड़वापन
भूलकर सुगंधित हो उठता है वैसे ही रामकथा के मंगल गान से ही तुलसीदास की कविता
श्रेष्ठ हो जाती है:-
धूमउ तजइ सहज
करुआई।
अगरू प्रसंग सुगंध बसाई।
अगरू प्रसंग सुगंध बसाई।
भनिति भदेस वस्तु
भलि बरनी।
राम कथा जग मंगल करनी।
राम कथा जग मंगल करनी।
राम के नाम का
माहात्म्य ही है कि स्वर्ग से उतरकर आने वाली ज्ञान की देवी सरस्वती भी ‘राम नाम’ के सरोवर में
स्नान कर अपनी थकान मिटाती हैं। रामनाम का माहात्म्य केवल इतना ही नहीं है बल्कि
कलियुग के नकारात्मक प्रभावों को दूर करने का बड़ा आधार है। यह वह दीपक है जो मन
रूपी द्वार पर रखने से आंतरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार का अंधकार नष्ट हो जाता है:-
राम नाम मनिदीप
धरू जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर
बहिरेहूँ जौं चाहसि उजिआर।।
तुलसीदास के राम
सगुण-निर्गुण दोनों रूपों में विद्यमान हैं। तुलसीदास के अनुसार ये दोनों ब्रह्म
के ही रूप हैं। लेकिन नाम इन दोनों से बड़ा और नाम ही दोनों रूपों को साधने वाला
है:-
अगुन सगुन दुह
ब्रह्म सरूपा।
अकथ अगाध अनादि अनूपा।
अकथ अगाध अनादि अनूपा।
मोरे मत बड़ नामू
दुहुते।
किए जेहिं निज बस निज बूतें।।
तुलसीदास की संपूर्ण कविता रामनाम एवं उनके माहात्म्य वर्णन पर टिकी है। तुलसीदास भक्तकवि हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्त के दो वर्ग बताएं हैं। पहला जो भक्ति के प्राचीन स्वरूप को लेकर चला अर्थात् जो प्राचीन भागवत संप्रदाय के जीवन विकास का ही अनुयायी था और दूसरा विदेशी परम्परा का अनुयायी। निःसंदेह तुलसीदास प्रथम श्रेणी के भक्त हैं। भक्तिरस उनका अभिप्राय है। यह भक्ति सैव्य-सेवक भाव की भक्ति है। भक्ति रस का स्थायी भाव है-प्रेयान्। प्रेयान् के दो आधार हैं - एक दास्य भाव दूसरा सख्य भाव। भक्ति के विविध रूपों को मानते हुए भी तुलसीदास मूलतः दास कवि हैं। राम के माहात्म्य के लिए यह आवश्यक है कि राम के परम मित्र एवं सखा भी उनके प्रति भक्ति या दास्य भाव रखें। यहां तक शिव राम भी स्वयं को एक-दूसरे का दास ही मानते हैं। दास्यता का यह अभाव ही मनुष्य को सर्वग्राह्य बनाता है। कुटिल व्यक्ति भी राम का अनुभव का सरल हो जाता है।
किए जेहिं निज बस निज बूतें।।
तुलसीदास की संपूर्ण कविता रामनाम एवं उनके माहात्म्य वर्णन पर टिकी है। तुलसीदास भक्तकवि हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्त के दो वर्ग बताएं हैं। पहला जो भक्ति के प्राचीन स्वरूप को लेकर चला अर्थात् जो प्राचीन भागवत संप्रदाय के जीवन विकास का ही अनुयायी था और दूसरा विदेशी परम्परा का अनुयायी। निःसंदेह तुलसीदास प्रथम श्रेणी के भक्त हैं। भक्तिरस उनका अभिप्राय है। यह भक्ति सैव्य-सेवक भाव की भक्ति है। भक्ति रस का स्थायी भाव है-प्रेयान्। प्रेयान् के दो आधार हैं - एक दास्य भाव दूसरा सख्य भाव। भक्ति के विविध रूपों को मानते हुए भी तुलसीदास मूलतः दास कवि हैं। राम के माहात्म्य के लिए यह आवश्यक है कि राम के परम मित्र एवं सखा भी उनके प्रति भक्ति या दास्य भाव रखें। यहां तक शिव राम भी स्वयं को एक-दूसरे का दास ही मानते हैं। दास्यता का यह अभाव ही मनुष्य को सर्वग्राह्य बनाता है। कुटिल व्यक्ति भी राम का अनुभव का सरल हो जाता है।
कहत कठिन, समुझत कठिन, साधत कठिन विवेक।
होइ घुनाच्छर
न्याय जो पुनि प्रत्यूह अनेक।।
तुलसीदास के यहां
राम की महिमा दो रूपों में मिलती है, एक ईश्वरत्व रूप में और दूसरा उनके मनुष्यलीला
के रूप में। तुलसीदास अपने काव्य में स्पष्ट घोषित करते हैं कि राम अवतारी हैं, परमब्रह्म हैं।
जिनका नाम मात्र जपने से भारी से भारी संकट दूर हो जाते हैं:-
जपहिं नामु जन
आरत भारी।
मिहिं कुसंकर होंहि सुखारी।
मिहिं कुसंकर होंहि सुखारी।
तुलसी के राम की
महिमा का ही परिणाम है कि एक तपस्वी की स्त्री अहल्या उनके स्पर्श मात्र से तर
गई। जैसे सूर्य रात्रि के अंधकार को दूर
कर देता है वैसे ही राम-नाम मात्र के उच्चारण से ही भक्तों के दुख, क्लेश, दुराशायें दूर हो
जाती है। वे संपूर्ण भय के नाशक हैं।
दण्डक वन को सुहावन बनाने वाले राम ही सुग्रीव, विभीषण के शरणदाता हैं। शबरी, जटायु के उद्धारक
हैं। वे ‘गरीबनेवाज’ हैं। वे रावण के संहारक हैं और अयोध्या के कुशल प्रशासक
हैं। राम के ये रूप ईश्वरीय रूप में आते हैं। वहीं मनुष्य लीला कर रहे राम के
मनोभाव किसी साधारण मनुष्य के से लगते हैं। पुष्पवाटिका में सीता से प्रथम मिलन और
उससे उत्पन्न अनुराग-प्रेम, सीता के वियोग से व्याकुल, जटायु और लक्ष्मण
की मूर्छा से दुखी, समुद्र पर क्रोध, बाली के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया, यह सब अवतारी राम
को साधारण मनुष्य बनाते है। उन्हें मनुष्यत्व से जोड़ते हैं। यही राम की महिमा है
और यही तुलसीदास की कविता की विशेषता और उपलब्धि है। वे राम को शील, शक्ति एवं
सौंदर्य के समन्वित रूप में प्रस्तुत करते हैं। कलियुग में इन तीनों के समन्वित
रूप की ही आवश्यकता है। यह रूप ‘राम नाम’ ही कल्याण करने वाला है -
नामु राम को
कलपतरू कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो
भाँग तें तुलसी तुलसीदासु।।
कलियुग में न तो
कर्म है, न भक्ति और न ही ज्ञान
नहिं कलि करम न
भगति बिवेकू। राम नाम अवलंबन एकू।
तुलसीदास ने
कलियुग और ‘राम नाम’ की उपमा निम्नलिखित दोहे में बड़ी कुशलता से की
है -
रामनाम नरकेसरी
कनककसिपु कलिकाल
जापक जन प्रहलाद
जिमि पालहिं दलि सुरसाल।।
रामनाम नृसिंह
भगवान है। कलियुग हिरण्यकश्यपु है। जपने वाला व्यक्ति प्रहलाद है जिनकी रक्षा ‘रामनाम’ ही करता है।
तुलसीदास ने
कलियुग का वर्णन बड़े विस्तार एवं यथार्थपरक ढंग से किया है। कलियुग वर्णन के
शुरूआती दोहे में ही धर्म एवं नैतिकता के लोप का कारण वे बहुपंथिता को मानते हैं।
वे लिखते हैं -
कलिमल ग्रसे धर्म
सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दभिन्ह निज मति
कल्पि करि प्रगट किए बहुग्रंथ।।
यह तो हुई धूर्त
धर्मावलंबियों की बात। तुलसीदास कलियुग में आमजन की स्थिति का वर्णन भी करते हैं:-
भए लोग सब मोहबस
लोभग्रसे सुभ कार्य।
नीचे कुछ
महत्वपूर्ण पंक्तियां दी गई हैं, जिनमंे कलियुग संबंधी आचरण, व्यवहार तथा
सामाजिक चरित्र का लेखा-जोखा मिलता है।
मारग सोइ जाकहुँ
जोइ भावा।
पंडित सोइ जो गाल बजावा।
पंडित सोइ जो गाल बजावा।
मिथ्यारंभ दंभ रत
जोई।
ता कहूं संत कहइ सब कोई।।
ता कहूं संत कहइ सब कोई।।
सोइ सयान जो परधन
हारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी।
जो कह झूंठ मसखरी
जाना।
कलियुग सोइ गुनवंत बखाना।
कलियुग सोइ गुनवंत बखाना।
निराधार जो
श्रुति पथ त्यागी।
कलियुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।
कलियुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।
जाकें नख अरू जटा
बिसाला।
सोई तापस प्रसिद्ध कलिकाला।
सोई तापस प्रसिद्ध कलिकाला।
दो0 असुभ भेष भूषन घरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी सिद्ध नर पूज्य ते कलियुग माहिं।
सो0 जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ।
अर्थात जिस समाज
में मिथ्याचरण, मिथ्याभाषण एवं दंभ का योग हो, वहां कलिकाल सर्वप्रथम आता है। जहां दूसरों का
धन एवं बुद्धि का हरण हो, जहां स्वयं को बडा आचारी सिद्ध करने का प्रयास
हो, झूठ एवं मसखरी का बोलबाला हो, कलिकाल वही आता है। वेदमार्ग का त्याग, आचरणहीनता ही
कलियुग में प्रशंसनीय है। आचरण से अधिक पहनावा जहां महत्वपूर्ण हो, वहां कलिकाल
अवश्य है। ढोंगी, पाखंडी तथा दिन-रात भक्ष्य, अभक्ष्य का ध्यान न रखने वाले महात्मा ही
कलिकाल में पूजे जाते हैं। मन, वचन एवं कर्म से झूठे लोग कलियुग में सबसे बडे
वक्ता माने जाते हैं।
तुलसीदास ने
कलियुग में नर-नारी, गुरु-शिष्य एवं पारिवारिक संबंधों की
वास्तविकता को चिन्हित किया है। अपने वास्तविक दायित्वों से भटके नर-नारी को
तुलसीदास कुछ इस ढंग से देखते हैं:-
सब नर काम लोभ
रतमेधी।
देव विप्र श्रुति संत विरोधी।
देव विप्र श्रुति संत विरोधी।
गुन मंदिर सुंदर
पति त्यागी।
भजहिं नारि पर पुरुष अभागी।
भजहिं नारि पर पुरुष अभागी।
गुरु-शिष्य का
संबंध कलियुग में कुछ इस ढंग का है -
हरइ शिष्य धन सोक
न करई।
सो गुर घोर नरक महुं परई।
सो गुर घोर नरक महुं परई।
जो माता-पिता
अपनी संतान को सामाजिक दायित्व से अधिक उदर-भरण की शिक्षा देते हैं, तुलसीदास ने उन
पर कटाक्ष करते हुए लिखा -
मातु पिता
बालकन्हि बोलावहिं।
उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।
उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।
ऐसे पुत्र भी
माता-पिता की सेवा एक सीमित अवधि तक कर पाते हैं। तुलसीदास ने उसका कारण भी बताया
-
सुत मानहिं
मातु-पिता तब लौं।
अबलानन दीख नहीं जब लौं।।
अबलानन दीख नहीं जब लौं।।
अर्थात ऐसा पुत्र
विवाह पश्चात अवश्य बदलेगा जिसे शिक्षा उदर-भरण की दी गई हो। वहीं ऐसे पुरुष भी
कलियुग में हैं जो कुलवंती एवं सती स्त्री के स्थान पर दासियों को महत्व देते हैं।
संबंधों की गहराई समाप्त हो गई है। तुलसीदास लिखते हैं -
कलिकाल बिहाल किए
मनुजा।
नहिं मानत क्वौ अनुजा-तनुजा।
नहिं मानत क्वौ अनुजा-तनुजा।
तुलसीदास, जब कलियुग का
वर्णन करते हैं तो वे अपने युग की विषमताओं को ध्यान में रखते हैं। उनकी कविता का
क्षेत्र हिंदी भाषी क्षेत्र है और समय है 16-17 वीं शताब्दी। मानस के शुरुआती तथा अंतिम अंशों
के साथ-साथ ‘कवितावली’ में भी कलियुग का वर्णन मिलता है। इन दोनों
रचनाओं में कलियुग का प्रभाव एवं उनसे दूर रखने वाले राम नाम के माहात्म्य वर्णन
एक साथ चलता है। तुलसीदास कलियुग को कुपंथ, कुतर्क, कपट, कुचाल, दंभ तथा पाखंड का स्त्रोत मानते हैं और रामनाम
का गुण इन बुराइयों को जलाने वाला ईंधन है।
कलियुग रूपी घास-पात को राम नाम रूपी नदी समूल उखाड़ फेंकती है। रामनाम ही
कलियुग के समस्त पापों तथा उससे उत्पन्न ग्लानि को दूर करता है। दुख दरिद्र तथा
दोषों का नाश करने वाला है-रामनाम।
हतुलसीदास कलियुग
की बुराई उसकी कथनी और करनी में आए अंतर के कारण करते हैं। गुरु-शिष्य, माता-पिता-पुत्र, व्यक्ति, समाज, सम्बंध के
साथ-साथ धर्म, समाज एवं व्यवहार के दोमुंहेपन का विरोध तुलसीदास के कलिकाल
वर्णन में मिलता है। जिसकी प्रासंगिकता आज भी है।
तुलसीदास के
अनुसार कलिकाल की बुराइयों का एक बड़ा आधार हिंदू-पुराणों की बुराइयां तथा
वर्णाश्रम धर्म का त्याग है। तुलसीदास हिंदू-पुराणों को सामाजिक अनुशासन तथा
वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक मूल्य का प्रतीक मानते हैं। अपना कर्म न करने वाला
चाहे शूद्र हो या ब्राह्मण उनके लिए निंदनीय है। तुलसीदास लिखते हैं -
सूद्र द्विजन्ह
उपदेसहिं ग्याना।
मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना।
मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना।
बिप्र निरच्छर
लोलुप कामी।
निराचार सठ वृषली स्वामी।
निराचार सठ वृषली स्वामी।
शूद्र इसलिए
निंदा का पात्र है क्योंकि वह स्त्री के मर जाने और संपति के नष्ट होने पर अपने
मूल कर्म श्रम का त्यागकर सिर मुंडाकर संन्यासी हो जाता है, जनेऊ धारण कर
लेता है। वहीं वह ब्राह्मण निंदनीय है जो अपढ़, कामी, दुराचारी, दुष्ट एवं परस्त्रीगामी हो।
तुलसीदास के
कलियुग वर्णन की प्रासंगिकता ‘कवितावली’ में और प्रखर होकर आती है। जहां वे भूख, अकाल, महामारी एवं उसके
कारण फैली आर्थिक अव्यवस्था का सटीक वर्णन करते हैं -
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी,
जीविका-विहीन लोग
सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सौं, कहां जाई का करी।
दारिद-दसानन दबाई
दुनी, दीनबंधु।
दूरित दहन देखि
तुलसी हहा करी।
भयानक महामारी
में भूख एवं दरिद्रता की आग को मिटाने वाले बादल श्रीराम ही हैं
किसबी, किसानकुल, बनिक भिखारी भाट,
चाकर-चपलनत, चोर, चार, चेटकी।
‘तुलसी’ बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें
आगि बड़वागितें
बड़ी ही आगि पेट की।
यह यथार्थ केवल
तुलसीदास के समय के समाज का ही नहीं, स्वयं तुलसीदास का भी है काशी निवास के दौरान
तुलसीदास ने भयानक भूखमरी एवं महामारी देखी थी। उसी का वर्णन वे कलिकाल में करते
हैं। जाति-पाति, ऊँच-नीच का दंश स्वयं तुलसीदास को भी झेलना पड़ा।
परिणामस्वरूप वे कहते हैं -
धूत कंहौ अवधूत
कहौ रजपूत कहौ जोलहा कहौ सोऊ
तुलसी सरनाम
गुलामु है रामु को, जाकौ रूचै सौ कहै कछु ओऊ
माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो एकु न दैबे
को दोऊ
तुलसीदास कलियुग
का वर्णन एक विशेष उद्देश्य के अंतर्गत करते हैं। वह उद्देश्य है - राम के
माहात्म्य का वर्णन और वह माहात्म्य स्थापित होता है - रामराज्य से। रामराज्य में, ‘पल्लवत फूलत नवल
नित संसार बिटप नमामहे’, अर्थात् फल-फूल फसल भरपूर होती है। जिस
रामराज्य में ‘बेटि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाज मुद मंगल मूला’ हैं। वहां भला
महामारी, भूख, दरिद्रता, ऊँच-नीच का प्रभाव कहां व्याप्त होगा। इसका सबसे बड़ा कारण
राम ही हैं। उनका नाम ही है। तुलसीदास मानते हैं कि राम का नाम लेकर उनके गुणों का
गानकर मनुष्य कलियुग को श्रेष्ठ बना सकता है।
कलियुग सम जुग आन
नहिं जौ नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गान
बिमल, भव तर बिनहिं प्रयास।
इस प्रकार
तुलसीदास राम के माहात्म्य, रामराज्य की स्थापना तथा राम की भक्ति के
सापेक्ष कलियुग का वर्णन कर किसी भी युग को श्रेष्ठ बनाने का उपाय बताते हैं। यही
उनके कलियुग वर्णन की प्रासंगिकता है।
(डॉ. संध्या
वात्स्यायन, असोसिएट प्रोफेसर ,अदिति
महाविद्यालय,दिल्ली विश्वविद्यालय)
अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018) चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी
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