नारीवादी आन्दोलन
पृष्ठभूमि एवं विकास: वैश्विक संदर्भ
(गूगल से साभार) |
नारीवादी आन्दोलन एक जटिल परिघटना है, जिसकी कोई एक व्याख्या या परिभाषा रेखांकित नहीं की जा सकती है। नारीवादी
आन्दोलन के केन्द्र में है नारी और उससे जुड़े विविध मुद्दे जो समय-समय पर विविध
विचारों या सिद्धान्तों के रूप में सामने आते रहे और इसी आधार पर नारीवाद के कई
रूप भी प्रकट हुए, जैसे - उदारवादी
नारीवाद, मार्क्सवादी या समाजवादी
नारीवाद, रेडिकल नारीवाद, मनोविश्लेषिक नारीवाद समतामूलक नारीवाद,
वैयक्तिक नारीवाद, सांस्कृतिक नारीवाद, पर्यावरणीय नारीवाद आदि। जब ‘नारीवाद’ की चर्चा की जाती
है तो ये सभी विचार उसमें समाहित होते हैं इसीलिए नारीवादी आन्दोलन भी कभी-कभी एक
विचार या कभी एकाधिक विचारों पर केन्द्रित रहते हैं।
धर्म, समाज और साहित्य में स्त्री विभिन्न रूपों में परिभाषित की
गयी है। कभी वह पुरुषों की अनुगामिनी और अबला एवं त्याग की मूर्ति बताई गयी है,
तो कभी आवेगमयी चंचल जो तर्क के बन्धन को नहीं
मानती है। यह सभी परिभाषाएं उसके लिंग विशेष से जोड़ दी गयी हैं। इसके विपरीत
पुरुषों को सदा शौर्य एवं वीर्य का प्रतीक माना जाता रहा है। यह लैंगिक परिभाषा ही
नारीवाद का परमशत्रु है, और इस परिभाषा को
बदलना ही उसका परम लक्ष्य है। पारिभाषिक दृष्टि से देखें तो नारीवाद एक विशिष्ट
मतवाद है, जो इस सिद्धान्त पर
आधारित है कि स्त्रियों को इस पुरुष शासित समाज में निम्न स्थान दिया गया है। उसको
भी पुरुषों के समान अधिकार और प्रतिष्ठा मिलनी चाहिये। नारीवाद उस प्रवृत्ति का
द्योतक है, जो लिंग पर आधारित
पारम्परिक शक्ति का पुनर्विन्यास चाहती है। वह उन सभी अन्यायों के खिलाफ संघर्ष के
लिए एकमत है जो स्त्री पर उसकी भिन्न जैविकी के कारण हमेशा से थोपे जाते रहे हैं।
नारीवादियों की चिन्ता का घेरा
बलात्कार, पत्नी प्रताड़ना, परिवार नियोजन, समान श्रम, समान वेतन,
समान मताधिकार के साथ-साथ संसार के हर उस
मुद्दे से सम्बन्धित स्त्रियों से है, जो हर बात, हर घटना में
उन्हें प्रभावित करती है। वस्तुतः स्त्री, स्त्री होने के साथ-साथ मनुष्य भी है, वह संसार की आधी आबादी है, अतः हर विषय में
स्त्री का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नारीवाद सभी प्रकार की असमानता, दबाव, दमन हटाकर अन्तरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय रूप से समतामूलक न्यायिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व्यवस्था
से युक्त समाज की स्थापना करना चाहता है। अतः सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक मुद्दे
उनके अपने हो जाते हैं।विभिन्न पारम्परिक कट्टरताओं स्त्री विरोधी रुढ़ियों,
अत्याचारों और पुरुषों की मनमानियों के खिलाफ
लम्बी प्रक्रिया चलाते हुए इस विचार के समर्थकों ने दुनिया के सामने एक प्रबल
आन्दोलन खड़ा किया। पश्चिमी राष्ट्रों में नारीवादी आन्दोलन के इस प्रचंड उभार ने
स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक स्थिति उसकी भूमिका और नेतृत्व के प्रश्नों को
सामने रखा। इससे उस प्रभुत्ववर्चस्व को चुनौती मिली। हालांकि विकसित राष्ट्रों की
पितृसत्ताओं ने भी यदा-कदा स्त्रियों के विचारों को दबाने, घटाने और कुचलने की कोशिश की है। लेकिन नारीवादी चेतना,
संगठनात्मक आन्दोलनों की सक्रियता ने इनकी
कोशिशों को अवश्य ही कमजोर किया।
पश्चिम में मध्ययुगीन और ‘रिनेसॉकालीन’
लेखकों ने स्त्री की सामाजिक पहचान से
सम्बन्धित विषयों को स्पर्श किया था। ‘‘क्रिस्टीन डि पिसाँ’ की रचना ‘बुक ऑफ द सिटी ऑफ लेडीज’ (1405) एक ऐसी कृति थी। उन्नीसवीं सदी में काल्पनिक
समाजवादी चिंतक चार्ल्स फू़रिए ने पहली बार फ्रांसीसी शब्द ‘फेमिनिज्म़े’ का प्रयोग किया था। ‘फेमिनिज्म़े’
का प्रयोग शुरु में पुरुष की देह में
स्त्री-गुणों के होने अथवा स्त्री के पुरुषोचित व्यवहार के संदर्भ में किया जाता
था।’’1पुरुषों के समक्ष
स्त्रियों का राजनीतिक, सामाजिक और
शैक्षिक आन्दोलन, जिसके लिए
अंग्रेजी में फेमिनिज़्म शब्द प्रचलित है, जो हिन्दी में ‘नारीवाद’ नाम से जाना जाता है।
1792 में ब्रिटेन में मेरी वोल्स्टोनकॉफ्ट की पुस्तक‘ए विंडिकेशन ऑफ द राइट ऑफ वूमेन छपी, जो आने वाली सदी के लिए मील का पत्थर साबित
हुई। इस पुस्तक ने नारीवाद को एक आधुनिक रूप प्रदान किया। इसके बाद 1857 में संयुक्त राज्य अमेरिका में स्त्रियों और
पुरुषों के समान वेतन को लेकर हड़ताल हुई थी, इसी दिन को बाद में ‘अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाया गया। इसी के साथ यद्यपि विश्वभर में
नारीवादी आन्दोलन की शुरुआत हुई, किन्तु अमेरिका
को इसका केन्द्र माना जाता है। इसके पश्चात् 1859 में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में अगला आन्दोलन हुआ। जो
नारी-मुक्ति पर केन्द्रित था। कुछ समय बाद 1873 में जॉन स्टुअर्ट मिल की पुस्तक ‘सब्जेक्शन ऑफ विमेन’ और 1884 में फ्रेडरिक
एंगेल्स की पुस्तक ‘दि ऑरिजन ऑफ दि
फैमिली, प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड
दी स्टेट’ (परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति) एक अलग ही
नजरिए को लेकर लिखी गयी, ये कार्ल मार्क्स
के विचारों पर आधारित पुस्तकें थीं। इसके पश्चात् 1903 में स्थापित‘द सब्जेक्शन ऑफ वूमेन्स एण्ड सोशल एण्ड पॉलिटक्ल यूनियन’ जैसे संगठनों ने स्त्रियों को वोट देने का
अधिकार दिलाने के लिए प्रयास किया। 1908 में ‘वीमेन फ्रीडम लीग’
की स्थापना ब्रिटेन में हुई। जापान में
नारीवादी आन्दोलन की शुरुआत 1911 में हुई। 1946 में स्त्री की दशा पर संयुक्त राष्ट्र ने एक
आयोग गठित किया, जिसका दायित्व
विश्वभर की स्त्रियों के लिए सम्मान, राजनीति में अधिकार, समान आर्थिक
अधिकार और शैक्षिक अवसर का अधिकार दिलाना था।
1963 में बेट्टी फ्रीडन की पुस्तक ‘द फेमिनिन मिस्टीक’ के प्रकाशन के साथ नारीवादी आन्दोलन संयुक्त राज्य अमेरिका में नए रूप में
सामने आया। इस पुस्तक ने राष्ट्रीय महिला संगठन की नींव डाली और उसके माध्यम से
नारीवादी आन्दोलन का स्वर मुखरित किया। बेट्टी फ्रीडन ने आन्दोलन को नए-नए नारे
देकर विश्वभर की स्त्रियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। ‘‘26 अगस्त 1970 के दिन जो कि अमेरिकन स्त्रियों का मताधिकार-प्राप्ति का
स्वर्णजयंती का दिन था- उन्होंने देश भर की स्त्रियों से अपील की कि इस दिन वे
अपने-अपने कार्यालयों में काम छोड़कर निष्क्रिय बैठ जाएं और तब तक काम शुरु न करें,
जब तक कि मालिक अपनी कम्पनी में उन्हें पुरुषों
के समान काम करने के लिए समान वेतन और सभी पदों पर नियुक्तियों के लिए समान अवसर
देने का आश्वासन न दे दें।’’2 महत्त्वपूर्ण है
कि इस समय नारीवादी आन्दोलन का नारा केवल समान काम व समान वेतन ही नहीं था,
बल्कि अपने शरीर पर अधिकार तथा पुरुषों के लिए
सजने-संवरने, विवाह और
गर्भधारण की अनिवार्यता से मुक्ति भी था।
1966 में राष्ट्रीय महिला संगठन का गठन किया गया। 1970 के दशक के आरम्भ तक इसकी 400 से अधिक स्थानीय शाखाएँ खुल गयी। राष्ट्रीय
महिला संगठन ने गर्भपात रोकने, संघीय राज्य
द्वारा अनुपोषित शिशु देखभाल केन्द्र, स्त्रियों के लिए समान वेतन, स्त्रियों की
व्यवसाय में उन्नति और स्त्रियों के लिए शिक्षा, राजनीतिक प्रभाव तथा आर्थिक सत्ता हासिल करने की दिशा में
सभी कानूनी और सामाजिक बाधाओं को समाप्त करने के लिए दबाव डाला। लिंग के आधार पर होने वाले शोषण के विरोध में
ग्लोरिया स्टीनेम, रानी इजाबेला,
लुईसी ओटटो, सुसान, एलिजावेद,
कैडी स्टोन आदि का सबसे बड़ा अवदान है। इन लोगों
ने राजनीतिक समानता (वोट देने व चुनाव में खड़े होने) तथा सम्पत्ति के अधिकार के
लिए लम्बा संघर्ष किया। स्टेनेल ने यू0 एस0 सीनेट के अपने भाषण में ‘वीमेन सफरेज़’ पर बोलते हुए स्पष्ट कहा था कि ‘‘शिक्षा, सम्पत्ति और वोट
देने के अधिकार व्यक्तित्व के समुचित विकास की प्राथमिक शर्तें हैं।’’3 शार्ली किसोम, बेट्टी फ्रीडन, ग्लोरिया स्टीनेम आदि के नेतृत्व में आन्दोलन ने कांग्रेस पर इतना प्रभाव डाला
कि उसे 1972 में समान अधिकार संशोधन
विधेयक पास करना पड़ा।
पूरे विश्व में 8 मार्च 1975 का दिन अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में
मनाया गया। तभी से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नारीवादी आन्दोलन का प्रारम्भ माना
जाता है, जिसके परिणामस्वरूप
कोपनहेगन में पहला महिला सम्मेलन हुआ।‘‘1980 में कोपनहेगन में हुए विश्व महिला सम्मेलन में शिक्षा,
स्वास्थ्य व रोजगार-केन्द्रित कुल 48 प्रस्ताव पास हुए और गैर-सरकारी व सरकारी संगठन
और एजेंसियां को मिलाकर 145 देशों ने भाग
लिया था। इसमें इन प्रस्तावों को अमल में लाने के लिए सभी राष्ट्रों को निर्देश
दिये गए थे कि वे सरकारी, अर्द्ध सरकारी,
संस्थागत, सभी स्तरों पर सहयोग प्राप्त कर इन्हें क्रियान्वित करें।’’4इन प्रस्तावों के अतिरिक्त सामाजिक, आर्थिक कार्यक्रमों व सांस्कृतिक मामलों में
गरीबी अशिक्षा, ग्रामीण
स्त्रियाँ और रोजगार, परिवार नियोजन,
प्रवासी महिलाएँ, शरणार्थी महिलाएँ वृद्ध महिलाएं, शोषण की शिकार सताई गई स्त्रियाँ, परिवारों में हिंसा आदि सभी विषय भी शामिल थे।1980 के आसपास नारीवादी आन्दोलन की एक ठोस पहचान
उभरी। समय के साथ-साथ नारीवाद के भी कई प्रकार हो गए और नारीवादी कई खेमों में बंट
गए। नारीवाद आन्दोलन को प्रायः तीन लहरों में विभाजित किया जा सकता है। नारीवादी
आन्दोलन की प्रथम लहर 19वीं सदी के आरम्भ
से, प्रायः 1920 ई. तक मानी गयी है। 1960 के दशक में दूसरी लहर को अपना शिखर मिला। बीसवीं सदी के
आठवें दशक के बाद (1980-90) से नारीवादी
आन्दोलन की तीसरी लहर की शुरुआत हुई।
नारीवादी आन्दोलन की प्रथम लहर 1850 से 1920 के बीच मानी
जाती है। इस लहर के तहत स्त्रियों ने निजी और सार्वजनिक दायरों में पितृसत्ता के
वर्चस्व को चुनौती दी। उन्होंने वोट के अधिकार, समान वेतन और समान शिक्षा एवं सम्पत्ति पर कानूनी अधिकार
प्राप्त करने के लिए संघर्ष किया।19वीं सदी की प्रथम लहर की मुख्य बात यह है कि यह एक विश्वव्यापी लहर थी। स्त्री
अधिकारों की माँग केवल यूरोप और उत्तरी अमरीका के देशों-उपनिवेशी देशों में ही
नहीं बल्कि पश्चिमी जगत के बाहर दक्षिण अमरीका और एशिया में भी उभर रही थी। इसमें
उच्च शिक्षा, सभी व्यापारों
में महिलाओं का प्रवेश, विवाहिता स्त्री
की सम्पत्ति व अन्य अधिकारों की मांग उठायी गई तथा वोट देने के अधिकार को प्रमुखता
से शामिल किया गया।
नारीवादी आन्दोलन को आधुनिक रूप देने में 1792 में प्रकाशित मेरी वोल्स्टोनकॉफ्ट’ की रचनाएंविंडीकेशन ऑफ द राइट ऑफ वूमेन’ का विशेष योगदान रहा है। इस पुस्तक में स्त्री
समाज के अधिकारों और जीवन निर्वाह के क्षेत्र में उनके स्वतन्त्र निर्णय लेने के
विषय में वैयक्तिक विचारों का प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् समाज में
स्त्रियों की निम्नस्थिति, असमानता और अन्य
समस्याओं को लेकर अनेक आन्दोलन चलते ही रहे हैं।
प्रथम लहर के नारीवाद को बढ़ावा औद्योगीकरण से हुए विस्तृत सामाजिक और आर्थिक
परिवर्तनों से मिला। नारीवादी आन्दोलन की प्रथम लहर की सुप्रसिद्ध सफलता पुरुषों
के समान स्त्रियों को मताधिकार दिलाना रही है। मताधिकार या वोट डालने के अधिकार का
मुद्दा, मुख्य रूप से जॉन
स्टुअर्ट मिल द्वारा 1861 के सुधार एक्ट
में स्त्रियों को भी शामिल करने के प्रयास से आरम्भ हुआ था। जॉन स्टुअर्ट मिल
नारीवादी आन्दोलन के प्रबल समर्थक थे।‘‘1867 में प्रसिद्ध अंग्रेज दार्शनिक और चिन्तक जॉन स्टुअर्ट मिल
द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट में स्त्री के वयस्क मताधिकार के लिए प्रस्ताव रखा
जाना जिसने कालान्तर में स्त्री-पुरुष के बीच स्वीकारी जाने वाली अनिवार्य कानूनी
और संवैधानिक समानता की अवधारणा को बल दिया।’’5इन्होंने नारीवादी आन्दोलन में पत्नी की प्रताड़ना और
स्त्रियों से सम्बन्धित हिंसा की घटनाओं को कम करने का सुझाव भी दिया और इस तरह
स्त्रियों के विरोध को प्रोत्साहित भी किया।
उन्नीसवीं सदी में नारीवादी आन्दोलन ने स्त्रियों को समान मताधिकार दिलाने में
सफलता तो प्राप्त की, लेकिन यह सफलता
एक लम्बे राजनैतिक संघर्ष के बाद ही प्राप्त हो सकी।संयुक्त राज्य अमेरिका की संसद
ने 1919 में स्त्रियों को
मताधिकार देने के लिए संविधान में संशोधन किया। ब्रिटेन में स्त्रियों को मताधिकार
1927 में मिला, लेकिन फ्रांस की स्त्रियों को मताधिकार के लिए 1944 तक इंतजार करना पड़ा। ‘‘अमेरिका में जब सन् 1920 में महिलाओं को वोट देने का अधिकार पहली बार प्राप्त हुआ
यानि कि महिलाएँ भी नागरिक बनी तो वह नारीवाद की पहली लहर थी और उसके बाद वह चार
दशकों तक हाशिए पर रहा।’’6 संयुक्त राज्य
अमेरिका में जब 1920 में स्त्री
मताधिकार की जीत हासिल कर ली गयी, तब स्त्रियों में
पुरुषों के समकक्ष बराबरी के प्रश्न को लेकर दो समूह बन गए, एक तरफ राष्ट्रीय महिला पार्टी का समूह था- जो पुरुषों के
समकक्ष स्त्रियों की बराबरी की वकालत करता था तो दूसरे समूह का मानना था कि कुछ
संरक्षात्मक कानून बनाए जाएं।
उन्नीसवीं सदी से ही स्त्रियाँ कई मोर्चों पर सक्रिय थीं और उन्होंने अपनी
लड़ाई में राजनीतिक, सामाजिक दोनों ही
तरह के मुद्दों को उठाया। 19वीं सदी में
संरक्षात्मक कानून के विविध रूप व्यवहार में लाए जा चुके थे। जिसमें स्त्रियों के
लिए सम्भव साप्ताहिक कार्य घंटों को सीमित करना और उन्हें बहुत खतरनाक पेशों से
दूर रखना शामिल था। सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के बदलाव के कारण स्त्रियों को
घरेलू काम-काज के स्थान पर बाहर काम करने का अवसर मिला और स्त्री-स्वातन्त्र्य के
विचारों में अभूतपूर्व गतिशीलता आयी।
नारीवादी आन्दोलन की सही मायने में शुरुआत फ्रेंच लेखिका, ‘सिमोन द बोउवार’ की महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ और बेट्टी फ्रीडन की 1963 में प्रकाशित
पुस्तक ‘दि फेमिनिन मिसटीक’
से होती है।फ्रांस की बुद्धिजीवी एवं सक्रिय
राजनैतिक कार्यकर्ता ‘सिमोन द बोउवार’
की पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’1919 में प्रकाशित हुई। इसका हिन्दी अनुवाद प्रभा खेतान ने ‘स्त्री उपेक्षिता’शीर्षक से किया है। इस पुस्तक ने स्त्री मुक्ति की चेतना को एक विश्वव्यापी
आन्दोलन के रूप में उभार दिया। कालान्तर में इसी आन्दोलन ने सामाजिक क्षेत्र में
तथा सौन्दर्यशास्त्र के क्षेत्र में भी एक महत्त्वपूर्ण क्रान्ति का सूत्रपात किया
‘‘सिमोन द बोउवार’’ नए महिला आन्दोलन की बहुचर्चित नारीवादी समर्थक
बनीं। उनका प्रभाव उनके अपने देश फ्रांस तक ही सीमित नहीं था। उनकी पुस्तक सिर्फ
पश्चिमी देशों में ही नहीं बल्कि सारे विश्व में पढ़ी गई। ‘दि सेकेंड सेक्स’ ने दर्शनशास़्त्र, इतिहास, मनोविज्ञान और मानवशास्त्र का सहारा लेते हुए
यह स्थापित किया कि स्त्रियों का दमन इतिहास और संस्कृति की उपज है, और इसे एक प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं समझा जा
सकता। उनका कहना था कि ‘औरत पैदा नहीं
होती, बल्कि बना दी जाती है।’’7 इससे स्त्री-पुरुष बराबरी व अन्य सामाजिक
समानताओं के लिए प्रतिबद्ध समाजवादी जनकल्याण राज्य को विस्तृत तथा समृद्ध बनाने
का अवसर मिला। यह पुस्तक उस समय छपी, जब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्त्रियों को लेकर कोई सफलता नहीं दिख रही थी।
यद्यपि पितृसत्तात्मकता के पैरोकारों ने मुख्य धारा के प्रचार के माध्यमों से इस
पुस्तक का मजाक उड़़ाया किन्तु पुस्तक की लोकप्रियता विश्वव्यापी रही। फ्रांस तथा
अन्य देशों में इसे प्रसिद्धि देर से मिली लेकिन बाद में यह पुस्तक अगले चरण की
आधारशिला बनी।
नारीवाद की द्वितीय लहर साठ के दशक में उभरी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप
एवं उत्तरी अमेरीका में एक नया आत्मविश्वास और भविष्योन्मुख आशावाद उभर रहा था। इस
आत्मविश्वास का कारण तकनीकी, आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में औद्योगिक
क्रान्ति था। इसने मानव इतिहास का एक नया ही अध्याय रचा। 1950 और 1960 के दशकों में यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका के देशों में हुए
आर्थिक विकास ने वैश्विक स्तर पर श्रम के महत्त्व और माँग को बढ़ावा दिया।
स्त्रियाँ जैसे-जैसे रोजगार और कामकाज की दुनिया में शामिल हुई, उनकी स्थिति और विचार में भी परिवर्तन आए जो
काम के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहे। स्त्रियों की आजादी की दृष्टि से साठ के दशक
के महत्त्व को कम नहीं आंका जा सकता है क्योंकि ‘‘बीसवीं सदी को महिला जागरण का युग कहा जाता है। महिलाओं के
संगठित आन्दोलन हर दिशा में हो रहे हैं। अपने नागरिक अधिकारों के लिए वे लड़ रही
हैं। समाज और परिवार में नारी की सुरक्षित स्थिति के लिए तथा महिला कर्मचारियों की
सुरक्षा के लिए कानून पास करवाये जा रहे हैं।’’8
बीसवीं सदी की शुरुआत से ही घर के बाहर काम करने वाली स्त्रियों की संख्या
धीरे-धीरे किन्तु लगातार बढ़ी। घर के बाहर काम पर बिताया गया समय भी बढ़़ गया।
स्त्रियाँ श्रमिकों के रूप में काम करने लगीं। यहाँ तक कि उन्हें पुरुष वर्चस्व
वाले निर्माण और भारी उद्योगों में भी काम पर रखा जाने लगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध जैसे ही समाप्त हुआ स्त्रियों को काम से हटा दिया गया।
स्त्रियों से यह उम्मीद की गई कि वह चुपचाप गृहिणी की भूमिका में वापस लौट जाए
क्योंकि ‘‘औद्योगिक क्रान्ति ने औरत
को सार्वजनिक उत्पादन के क्षेत्र में स्थान दिलाया तथा उसे आर्थिक शक्ति बनने का
आधार प्रदान किया। इससे विरोधी दुनिया, पुरुषों की दुनिया में हाहाकार मच गया। औरत अब उसकी प्रतिद्वंद्वी बन गई,
पुरुष की आंखों की किरकरी बन गई। पुरुषों के
लिए खतरा और भी हो गया क्योंकि औरत कम पैसे पर भी काम करने के लिए तैयार हो गई। इस
प्रक्रिया ने पुरुषों के आर्थिक, सामाजिक, अस्तित्व को चुनौती दी।’’9 पर इस तरह काम छोड़ देना स्त्रियों के लिए
सम्भव नहीं था। इनमें कई स्त्रियाँ अविवाहित थीं या विधवा थीं। इन्हीं की कमाई से
इनके घर का गुजर बसर चलता था। ऐसी स्त्रियाँ काम के क्षेत्र में टिकी रहीं और इन
स्त्रियों ने वयस्क बनी युवा पीढ़ी की लड़कियों के समक्ष एक नवीन आदर्श प्रस्तुत
किया।
1950 और 1960 के दशकों में
स्त्रियों के व्यावसायिक एवं शैक्षिक विकल्पों का दायरा भी धीरे-धीरे बढ़ रहा था।
यद्यपि इसके साथ ही काम के क्षेत्र में स्त्रियों के प्रति भेदभावपूर्ण बर्ताव भी
बढ़ रहे थें क्योंकि यह पहले से ही मान लिया गया था कि स्त्रियाँ काम के क्षेत्र
में गम्भीर हो ही नहीं सकती हैं। ऐसा लगता था कि समाज अतीत के आरम्भ से पूर्व
प्रचलित सामाजिक मूल्यों को दोबारा अपना रहा है। पुरुष प्रधान समाज के इस सामन्तशाही रवैये से ऐसा लगने लगा था कि
नारी आन्दोलन के प्रथम चरण की उपलब्धियाँ भी इतिहास के पन्नों से मिटा दी गई हों।
ऐसे समय में 1963 में प्रकाशित ‘बेट्टी फ्रीडन’ की पुस्तक ‘दि फेमिनिन
मिस्टीक’ ने पुरुषवादी विचारधारा
को झकझोरा। फ्रीडन के विचारों ने स्त्रियों की चेतना-जागृति में महत्त्वपूर्ण
योगदान दिया। पारिवारिक जीवन में असंतुष्ट मध्यवर्गीय गृहिणियों द्वारा मुख्य रूप
से इनके विचारों को स्वीकारा गया।
बेट्टी फ्रीडन ने अपनी पुस्तक ‘दि फेमिनिन
मिस्टीक’ में स्त्रियों की घर
परिवार, बच्चों के लालन-पालन,
मातृत्व और पत्नी की भूमिका को स्पष्ट किया।
हीगेल ने स्त्री को परिवार, प्रजनन और
मातृत्व के साथ जोड़कर एक संकुचित दायरे में बांध दिया था। इन्होंने प्राइवेट
स्फियर और पब्लिक स्फियर का अलग-अलग निर्धारण करते हुए प्राइवेट स्फियर लाँघ कर
पब्लिक स्फियर में जा सकने की क्षमता ही स्त्री से छीन ली थी। हीगेल द्वारा
प्रतिपादित पब्लिक और प्राइवेट वुमेन जैसे सिद्धान्त के विपक्ष में जेम्स स्टर्बा
ने पब्लिक और प्राइवेट दोनों जगह स्त्री-पुरुष के सह-अस्तित्व पर बल दिया। जिससे
हीगेल द्वारा प्रतिपादित प्राइवेट वुमेन की छवि को ठेंस पहुँची।
वास्तव में परिवार में स्त्रियों को जन्म से ही बोझ समझा जाता है। बचपन से ही
उन्हें मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखा जाता है। जिससे स्त्री को स्वास्थ्य, पोषण तथा उच्च शिक्षा अवसरों के लाभ पुरुषों के
समान प्राप्त नहीं होते हैं। स्त्री का पिता या पति की सम्पत्ति पर पूर्ण
स्वामित्व नहीं माना जाता हैं। प्रायः पुरुष ही घर के मालिक व कर्त्ताधर्ता होते
हैं। अगर कहीं स्त्रियाँ परिवार के भरण-पोषण में आर्थिक रूप से योगदान देती हैं,
वहाँ भी उनका स्वामित्व परिवार पर नहीं होता
है। पुरुष प्रायः गृहकार्यों से दूर ही रहते हैं। इस प्रकार कामकाजी स्त्रियों को
बच्चों की देखभाल पर अधिक बल देना पड़ता है। जिसका परिणाम यह होता है कि स्त्री घर
और बाहर दोनों जगहों के कामों में बुरी तरह से फंस जाती है। ‘‘कौन कितना उपयोगी कार्य कर रहा है या परिवार
में किसका कितना योगदान है- इन अनुभूतियों पर अक्सर बात होती है। पर ‘उपयोगी कार्य’ और ‘योगदान’ का स्पष्ट शब्दों में निरुपण कभी नहीं किया
जाता।’’10 अतः स्त्रियों को उनके
श्रम का उचित मूल्य नहीं प्राप्त हो पाता है। इसके विरोध में नारीवादी लेखिकाओं ने
महत्त्वपूर्ण लेखन किया है।
नारीवादी आन्दोलन में बोउवार, फ्रीडन, ल्युइस इरीगिरी, केट मिलेट, क्रिस्टिविया,
फायरस्टोन ने इस बात पर विशेष बल दिया कि कोई
भी कलाकृति, रचना, लिंग राजनीति, लिंग भेद के अन्तर्विरोधों से निरपेक्ष नहीं हो सकती है।
उनमें पैतृक राजनीति का होना आवश्यक है। कैथरीन एन0 रोजे़ज की पुस्तक सेक्सुअल पॉलिटिक्स,1971 ने यह अन्तर्दृष्टि प्रदान की कि किस प्रकार
पितृसत्ता में लिंग प्रभुत्व द्वारा साहित्य, संस्कृति, कला चिंतन और
जीवन में लिंग भेद, लिंग राजनीति को
बढ़ावा दिया गया। इसी प्रकार केट मिलेट की सर्वोपरि उपलब्धि यह हैकि उन्होंने पहली
बार ‘बोउवार’ से प्रेरणा लेकर नारीवादी आन्दोलन को
सिद्धान्तबद्ध तथा शास्त्रबद्ध किया। उन्होंने नारीवादी आन्दोलन को एक अनुशासन के
रूप में विकसित किया। इन पुस्तकों के प्रकाश में आने से पितृसत्तात्मक समाज में
जबरदस्त चिंता की लहर दौड़ पड़ी।
बेट्टी फ्रीडन की पुस्तक ‘दि फेमिनिन मिस्टीक’ ने समाज को यह स्वीकारने पर मजबूर किया कि जो स्त्रियाँ
साधन-सम्पन्न हैं, वह बाहरी तौर पर
भले ही सुख चैन की जिन्दगी जीती हैं, पर वह भी निराशाग्रस्त और कुण्ठित हैं। इस पुस्तक ने खाते-पीते श्वेत परिवार
की शिक्षित स्त्रियों के एक समूह को नारी आन्दोलन की राजनीति में उतारा, जिन्हें राजनीतिक सक्रियता का कोई पूर्व अनुभव
नहीं था। ‘‘दूसरी लहर में उदारतावादी
और मार्क्सवादी नारीवादियों ने हर तरह की स्त्रियों के लिए अपने दरवाजे खोले।
लेस्बियन, अश्वेत और मजदूर वर्ग की
स्त्रियाँ नारीवाद के परचम तले गोलबन्द की जाने लगीं।’’11 इसने कई युवा श्वेत छात्र-छात्राओं को आकर्षित किया। इन
छात्र-छात्राओं ने श्वेत श्रेष्ठता का दावा करने वालों की मतांधता और राजकीय
अधिकारियों द्वारा आन्दोलन के निर्मम दमन को बहुत करीब से देखा। इस अनुभव ने उनकी
राजनैतिक चेतना को जगा दिया। श्वेत स्त्रियाँ ब्लैक स्त्रियों की शक्ति और
स्वाभिमान से बहुत प्रभावित हुईं, क्योंकि वे अपने
जीवन में इसका अभाव अनुभव करती थीं, किन्तु साथ ही विस्तृत समाज में फैले नस्लवाद और लिंगवाद के मिले-जुले प्रभाव
के परिणामस्वरूप नागरिक अधिकार आन्दोलन में उद्भूत आन्तरिक तनाव एवं टकराव ने विषम
स्थितियाँ उत्पन्न कीं। ‘‘समूचे अमेरिकी
इतिहास में श्वेत पुरुषों ने जान-बूझकर श्वेत और अश्वेत महिलाओं के बीच शत्रुता और
विभाजन पैदा किया। श्वेत पितृसत्तात्मक शक्ति संरचना दोनों समूहों को एक-दूसरे के
विरुद्ध लड़ा देती है। जिससे दोनों का मेल नहीं हो पाता और ऐसे में महिला की
निम्नतर स्थिति बरकरार रहती थी।’’12 लैंगिक न्याय के
मुद्दे पर ‘नागरिक अधिकार आन्दोलन’
से जुड़ी श्वेत तथा अश्वेत स्त्रियों में आपसी
बहनचारे की जगह असंतुष्टि बढ़ गयी थी। इस
बढ़ती हुई असंतुष्टि का प्रमुख कारण उनमें व्याप्त यह अहसास था कि आन्दोलन में उनको
दरकिनार किया जा रहा है, जबकि अश्वेत
नेताओं ने यह तय किया, कि नागरिक अधिकार
आन्दोलन’ में सिर्फ अश्वेत लोगों
को ही भाग लेना चाहिये। इससे अमेरिका के नारीवादी आन्दोलन में दरारें तो आ रही थीं
लेकिन नारीवादी आन्दोलन ने दम तोड़ा और नारीवादी आन्दोलन से जुड़ी श्वेत स्त्रियाँ
अलग हो गईं। वे उत्तरी अमेरिका में चल रहे अन्य आन्दोलनों में शामिल हुईं तथा अपने
नए संगठन बनाने में स्वयं लग गईं।
अमेरिका में साठ के दशक में अनेक
संघर्ष एवं आन्दोलन चल रहे थें, जिनमें वियतनाम
युद्ध-विरोधी आन्दोलन, ‘नागरिक अधिकार
आन्दोलन’ और ‘छात्र आन्दोलन’ प्रमुख थे। ‘‘इन नव सामाजिक आन्दोलनों की पड़ताल करते हुए जूलियट मिचेल ने अपनी पुस्तक ‘वुमंस एस्टेट’ में लिखा कि स्त्रियों ने इन आन्दोलनों में शोषित समूह के
भीतर भी एक शोषण दिमाग पनपते हुए महसूस किया।’’13 यद्यपि स्त्रियाँ धीरे-धीरे नव सामाजिक आन्दोलनों से असहमत
होने लगी थीं और वे स्वयं नए संगठन बनाने लगीं थीं। 1961 में राष्ट्रपति ‘कैनेडी’ द्वारा स्थापित ‘कमीशन ऑन द स्वेट्स ऑफ वीमेन’ से इन्हें एकजुटता मिली। कालान्तर में 1964 में ‘सिविल राइट्स एक्ट’ के तहत अश्वेतों
और स्त्रियों को रोजगार के समान अवसर की गारण्टी भी मिल गयी।
1960 के दशक में केवल
अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व
में आन्दोलन ने तीव्र रूप धारण किया। ब्रिटेन, इटली, फ्रांस और जर्मनी
में छात्र आन्दोलन, श्रमिक वर्ग के
आन्दोलन विशेष रूप से प्रभावशाली रहे हैं। 1963 में इन आन्दोलनों द्वारा अमेरिका में सौन्दर्य
प्रतियोगिताओं का विरोध किया गया क्योंकि ये प्रतियोगिताएँ समाज में स्त्री की
भूमिका को अत्यन्त सीमित करती हैं। इन्हीं स्त्रियों का अनुसरण करती हुई ब्रिटेन
की स्त्रियों ने भी 1970 में लंदन में
सौन्दर्य प्रतियोगिता के विरोध में धरना प्रदर्शन किया। इसी क्रम में डेगहेम में
एक सिलाई मशीन कारखाने में काम करने वाली स्त्रियों ने समान वेतन के अधिकार की
माँग पर हड़ताल की। ‘‘ब्रिटेन में
ग्रीन हैम कॉमन नाम का एक अमरीकी वायु सैनिक अड्डा है। इस अड्डे पर 96 क्रूज प्रक्षेपास्त्र रखे हुए थे। उस अड्डे पर
250 नारीवादी आन्दोलनकारियों
ने कब्जा कर लिया। वे सर्ववादी सैन्यवाद का विरोध कर रही थीं। यह मार्च 1982 की बात है।’’14
इन सभी आन्दोलनों में अन्तर्राष्ट्रीयता की ओर प्रबल रुझान था और इन्होंने
क्यूबा, अल्जीरिया एवं चीन में चल
रहे संघर्षों को समर्थन देते हुए पूँजीवाद की कड़ी
आलोचना की। स्त्रियाँ इन आन्दोलनों की ओर कई कारणों से आकर्षित हुईं।
स्त्रियों, विशेषकर छात्राओं के लिए आन्दोलन
के मुद्दे अनुभूति की समान भूमि से उद्भूत थे। मूलभूत परिवर्तन की आशा और समानता
पर आधारित नयी व्यवस्था के स्वप्न ने भी उनको प्रेरित किया। ‘‘दूसरे दौर के नारीवादी हिंसक खेल, पारिवारिक हिंसा, अश्लील साहित्य एवं फिल्म तथा बलात्कार को स्त्री के
विरुद्ध मर्दवादी हिंसा का परिणाम माना जाता था।’’15
द्वितीय लहर के नारीवाद ने स्त्री को एक शोषित और सामाजिक समूह और यौनिक गुलाम
के रूप में देखा। पुरुष आन्दोलनकारियों ने स्त्री आन्दोलनकारियों द्वारा स्त्री से
सम्बन्धित मुद्दों को अधिक मांग देने का समर्थन नहीं किया और कई बार उनके विचारों
का खुलेआम उपहास बनाया। कुछ ऐसे प्रश्न उठाये गए कि ‘‘क्या पितृसत्ता सिर्फ एक जैविक धारणा है जैसे कि पुरुष के
बगैर स्त्री प्रजनन नहीं कर सकती। कुछ समाजशास्त्री पितृसत्ता को परिवार तक सीमित
रखते थे, कुछ इसे समाज तक फैलाते
थें।’’16इस तरह के नकारात्मक
अनुभवों ने स्त्रियों को एक अलग स्वायत्त आन्दोलन की परिकल्पना तैयार करने को
प्रोत्साहित किया। जो सिर्फ स्त्रियों द्वारा संचालित हो उन्हीं की मुक्ति,
संघर्ष के लिए पूर्णतया समर्पित हो। जिसमें
पुरुष वर्चस्व, लिंगवाद, पितृसत्ता और स्त्रियों के दमन, जैसे मुद्दों पर गहनता से विचार किया जाए।
नारीवादी आन्दोलन की तृतीय लहर का आरम्भ नब्बे के दशक से माना जाता है। इस लहर पर उत्तरसंरचनावादी और
उत्तरआधुनिकतावादी चिन्तन का गहरा असर पड़ा। नारीवाद की तृतीय लहर को आरम्भ करने का
श्रेय ‘बेटी रेबेका वाकर’,
एवं ‘शैनन लिस’ को दिया जाता है।
नारीवाद की प्रथम एवं द्वितीय लहर के विचार तृतीय लहर की स्त्रियों को स्वतः ही
प्राप्त हुए।
नारीवादी आन्दोलन की तृतीय लहर का उदय
उस समय हुआ। जब समस्त परिस्थितियाँ बदल चुकी थीं। प्रत्येक देश में स्त्री
अधिकारों के लिए संगठन बन गए थे। इस लहर में वे ही स्त्रियाँ प्रमुख रूप से शामिल
थीं, जो उच्च शिक्षा और शोध
संस्थानों में अध्ययन कर रही थीं। इन स्त्रियों ने उत्तरसंरचनावादी तथा
आधुनिकतावादी सिद्धान्तों को भी चुनौती दी ‘‘विश्व चिंतन में समग्रतावादी वर्चस्ववादी पुल्लिंगी विमर्श
के केन्द्रवाद, प्रभुत्व को
चुनौती देते हुए उन महावृत्तांतो को ध्वस्त किया है जो आज तक साहित्यशास्त्र में
छाये हुए थे। अब तक हाशिए पर धकेले गए हाशिएकृत लोग अश्वेत, दलित स्त्रियां, अपने नये विमर्श को बनाते हुए वर्चस्ववाद का विखण्डन कर रहे हैं।’’17आधुनिकता, अश्वेत विमर्श अब उत्तरसंरचनावाद के ऐसे मुद्दे है
जिन्होंने विश्व चिंतन में नई बहस, बातचीत और विमर्श
को जन्म दिया। जिससे नवीन व्याख्याओं का मार्ग प्रशस्त हुआ।
इस दौर में उभरे दलित और अश्वेत नारीवाद के वैचारिक हस्तक्षेप को तृतीय लहर के
दायरे में रखकर देखा जाता है, क्योंकि नारीवादी
सिद्धान्तकारों को एहसास हुआ, कि परम्परागत
नारीवाद, अमेरिका, कनाडा और पश्चिमी यूरोप की मध्यवर्गीय श्वेत
स्त्रियों के नजरिए को ही सामने रखता हो। इसलिए तृतीय लहर के नारीवाद ने समग्र
नारीवाद की जगह स्थानीयता और नारीवाद के विभिन्न प्रकारों पर बल देना शुरु किया।
नारीवादियों को लगा कि स्त्री-उत्पीड़न के पारम्परिक रूप अभी भी विभिन्न समाजों में
मौजूद हैं। इस लहर में जातीय, नस्ली और जातिगत
संदर्भों में देखे जाने की पैरवी की गयी। ‘‘इसके साथ ही कई तरह की नारीवादी और सबाल्टर्न सिद्धान्तों,
अवधारणाओं और आन्दोलनकारी गतिविधियों का जुड़ाव
रहा है। 2006 में प्रकाशित
अपनी कृति ‘राइटिंग कास्ट/राइटिंग
जेंडर, नैरेटिंग दलित वुमन
टेस्टीकोनियल्स’ में दलित नारीवाद
की प्रथम सिद्धान्तकार ‘शर्मिला रेगे’
इस पर विस्तारपूर्वक चर्चा की है। नारीवाद की
तीसरी लहर की प्रतिभाशाली भारतीय प्रतिनिधि रेगे की एक अन्य रचना ‘अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ मनु : बी0 आर0 अम्बेडकर्स राइटिंग आन ब्राह्नि‘ीकल पैट्रियार्की’ ने नारीवादी
हलकों में जाति के प्रश्न पर होने वाली बहस को गहराई से प्रभावित किया।’’18 इससे नारीवादी आन्दोलन में जाति के प्रश्न को
भी तीसरी लहर का अंग माना गया।
1947 के बाद का दशक
स्त्रियों के लिए विशेष महत्त्व रखता है। नए-नए संगठन संघर्ष व मुद्दों का उदय
हुआ। ‘‘1990 का दशक महिला और आन्दोलन
के दृढ़ीकरण का काल है। इसमें 70 और 80 के दशक का सहज बहाव व जोश देखने में नहीं आता।
90 के दशक में काफी
नेटवर्किंग व गठबंधन बनें। इसमें1995 में बीजिंग में हुआ, महिलाओं पर
अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन विशेष उल्लेखनीय हैं।’’19 पश्चिमी नारीवादी आन्दोलन के लिए 1990 तक का दशक सबसे महत्त्वपूर्ण रहा हैं। इस
आन्दोलन का आरम्भ 1960 के दशक में हुआ
और तब से अब तक बहुत कुछ बदल चुका है। रेडिकल, उदारवादी और समाजवादी की संज्ञाएं, जो शुरुआती दशकों में काफी प्रचलित थी, इस समय सुनने में नहीं आती हैं, जैसे कि ‘नारीवाद’ कोई बीती हुई बात
हो। ‘‘इस लहर को समझने के लिए ‘‘नोआमी वुल्फ की ‘द ब्यूटी मिथ’, एन0 शोडोरोव की ‘फेमिनिज़्म एण्ड साइकोएनैलिटिकल थ्योरी’,
‘सी गिलिगन’ की ‘इन ए डिफरेंट
व्वायस, सी वोडन’ की ‘फेमिनिस्ट प्रैक्टिस एण्ड पोस्ट-स्ट्रक्चरल थ्योरी’,‘बी-हुक्स’ की ‘फेमिनिस्ट थ्योरी’ जैसे पुस्तकें उपयोगी हैं।20 ‘नोआमी वुल्फ’ की 1993 में प्रकाशित कष्ति ‘फायर विद फायर’ को तीसरी लहर के नारीवादियों के समक्ष बहुत विरोध का सामना
करना पड़ा। लेकिन ‘नोआमी वुल्फ’
को अपनी कृति ‘द ब्यूटी मिथ’ के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। नोआमी वुल्फ भी ब्यूटी मिथ में सुन्दरता के
नए मानकों को स्त्री के खिलाफ पाती हैं। ‘ब्यूटी मिथ’ स्त्री को केवल
देह में केन्द्रित करता है। देह के सौन्दर्य का मानक ऐसे सामने लाया जाता हैं जैसे
इसी से स्त्री को स्वतन्त्रता मिलेगी लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ होता नहीं है। ‘‘नोआमी वुल्फ का मानना है, कि ‘‘ब्यूटी मिथ एक नया नियन्त्रण है। घर से बाहर निकली स्त्री ‘ब्यूटी मिथ’ में फंस जाती हैं। यह एक सामाजिक नियन्त्रण है, जो उन स्त्रियों को बांधता है जो परिवार के
बंधन से बाहर जाना चाहती हैं, सौन्दर्य का यह
मिथ स्त्री के खिलाफ और पूँजीवादी उद्योग को टिकाऊ और आकर्षक बनाता है।’’21 शुरुआत में इनकी कृति ‘फायर विद फायर’ में इनके विचार बदले हुए नजर आए। अपनी इस कृति में वुल्फ ने उत्पीड़ित मानस की
शिकार रहने वाली नारीवादी विचारधारा को अस्वीकार किया, और पुराने ढाँचे को तोड़कर प्रतिरोध की नयी संस्कृति गढ़ने की
हिमायत की। अन्तिम दशक तक आते-आते आन्दोलनकारियों की दृष्टि में व्यापक परिवर्तन
आया। अब आन्दोलनकारियों ने स्त्री के रूप में अपनी लड़ाई को व्यक्तिगत लड़ाई के रूप
में समझा। आन्दोलन की दिशा को पुरुष के स्थान पर पुरुष श्रेष्ठता ग्रन्थि पर
आधारित व्यवस्था की ओर मोड़ा है। नारीवादियों ने स्त्री के शक्ति सम्पन्न होने की
दिशा में सत्ता और सम्पत्ति में उसकी भागीदारी को महत्त्वपूर्ण माना हैं। ‘‘तीसरी लहर के समय में नारीवाद पर उठी
आलोचनात्मक वैचारिकी से उत्तर-नारीवाद की संकल्पना हमारे सामने आती है। यह नारीवाद
पर उठे वाद-विवाद एवं पक्ष विपक्ष की चर्चाओं के बाद उभरी धारणा है। इसके समर्थक
बताते हैं कि अब हम स्त्री या पुरुष में नहीं, जन या लोक में रुचि रखते हैं। अतः इनका कहना है कि मनुष्य
समस्याओं को इस तरह स्त्रीपक्षीय या पुरुष विरोधी बनाना ठीक नहीं है।’’22 नारीवादियों को स्त्री होने के नाते स्त्री के
साथ किए जाने वाले भेदभाव से ऐतराज है। वे ‘अच्छी स्त्री’ की छवि से मुक्त होकर व्यक्तिगत स्त्री बनना चाहती है, जिसमें अच्छे-बुरे का समन्वय है। समाज ने स्त्री के ‘मत’ और ‘पद’ के महत्त्व को अब समझा है। उनकी उपस्थिति को अब
आसानी से नकारा नहीं जा सकता है।
सन्दर्भ सूची-
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शिवानी कन्नौजिया
शोधार्थी, हिन्दी तथा
आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
सम्पर्क shivanilu87@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
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