सुमित चौधरी की
कविताएं
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
"धूप, छाव, हवा, पहाड़"
शिलाओं
से पिघलती हुई बर्फ़
हमारे
जीवन में आ पहुँचती है रिसते हुए
कर
जाती है हमें शीतल बिना द्वेष के
हम
सबके हक़ में
आती
है एक-एक बूँद
हवा
और धूप की जैसी
दूर
खड़ा पेड़
नहीं
कहता किसी को
दूर
चले जाओ मुझसे
तुम
मेरे लायक नहीं
इंसानों
की बस्ती
कुछ
कम नहीं होती अपने करामातों से
भले
ही वे सब कुछ ईजाद कर दें
लेकिन
नहीं हो सकते
पर्वत, हवा, धूप और पेड़
(2)
"हमारे हिस्से का पत्थर"
वे
लोग
बड़े
तिलिस्मी होते हैं
जो
पूजते हैं उन पत्थरों को
जिसको
उन्होंने बनाया है देवता
वे
लोग
उन
पत्थरों को नहीं पूजते
जिसका
पीसा हुआ
खाता
है संसार
वे
लोग
पत्थरों
में भी मानते हैं अछूत
और
मान लेते हैं
कुछ
ख़ास पत्थरों को देवता
वे
लोग
यह
भूल जाते हैं
कि
सिंदूर, तिलक वाले पत्थर
होते
हैं उन्मादी
जबकि
घर की चाकी
जिसे
नहीं पूजा जाता
वे
उन्मादी नहीं होते
वे
होते हैं केवल अछूत
जो
होते हैं
'हमारे हिस्से का पत्थर'
(3)
"बरगद के साये में फूल नहीं खिलते"
बरगद
के साये में फूल नहीं खिलते
जैसे
नहीं खिला करते मन में प्रेम
कड़वाहट
लिए हुए
यह
सत्य हो सकता है
कि
जहाँ प्रेम है
वहाँ
कड़वाहट भी है
लेकिन
कब तक ?
दुनिया
में पहली बार प्रेम तब हुआ होगा
जब
हम दूर हुए होंगे बरगद के साये से
और
सीने से लगाकर सोये होंगे बंजर धरती को
रोये
होंगे फफक-फफक कर
तब
तक, जब तक आँखों की पुतलियाँ
नदी
में बहती हुई लाश की तरह फूल न गई हो
और
तब हम समाये होंगे किसी के आँखों के कोर में
(4)
"मृत्यु धीरे-धीरे नहीं आती"
मृत्यु
धीरे-धीरे नहीं आती
जैसे
धीरे-धीरे रिसता है पानी
उगते
हैं धीरे-धीरे बीज
और
बढ़ते हैं धीरे-धीरे बच्चें
मृत्यु
आती है एकाएक
जिसमें
हम किसी से मिल नहीं पाते
क्षण
भर!
बावजूद
इसके हम नहीं चेतते
कि
जो हो रहा है
वह
नहीं होना चाहिए
जिसमें
किसी की चाह न हो
दूर-दूर
तक फैला हुआ आँगन पड़ जाता है सूना
दूर-दूर
तक लोग भरते हैं आहें
कुछ
समय के लिए
हम
भूल जाते हैं मन में लिए मलाल
हो
जाते हैं एक रस
दुख
भरी घड़ी में
उस
समय हम भिगो लेते हैं अपनी पलकें
यह
सोचकर कि निकल जाना है
इसी
यात्रा पर एक दिन सबको
फिर
भी हम नहीं होते सहज किसी के प्रति
माया
महा ठगनी का यह देश
नहीं
होने देता हमें मित्रवत
कर
जाती है प्रवेश हमारी काया में विरक्ति
जिसका
कोई मोल नहीं
यह
जानते हुए कि
मृत्यु
धीरे-धीरे नहीं आती
वह
आती है एकाएक
(5)
"पिता
का होना ही ईश्वर होना है"
मैंने
ईश्वर को नहीं देखा
पुल
बनाते हुए
नहीं
देखा है हल चलाते हुए
काटते
हुए धान नहीं देखा है
देखा
है केवल अपने पिता को
हर
समय दुनिया को बेहतर बनाते हुए
मेरे
पिता भोरे-भोरे
मत्था
टेक देते हैं फावड़े को
और
निकल जाते हैं दूर तलक
फावड़े
के साथ
खेतों
में बीज सृजने
मैंने
ईश्वर से कोई आस नहीं रखी
मैंने
ईश्वर से कभी कुछ मांगा नहीं
क्योंकि
ईश्वर के पास कुछ नहीं होता
वह
होता है श्रमहीन
इसलिए
वह नहीं कर सकता
किसी
पर उपकार
जबकि
मैंने
जो
भी कुछ पाया है
अपने
पिता से पाया है
उनके
श्रम से पाया है
क्योंकि
मैंने ईश्वर को नहीं देखा
इसलिए
पिता का होना ही ईश्वर होना है
सुमित
चौधरी
शोधार्थी,जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110076, सम्पर्क 9654829861
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
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