जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ में नारी चेतना
अनुराधा एवं डॉ. दर्शन पाण्डेय
जयशंकर प्रसाद हिन्दी जगत में एक चमकते हुए सितारे की तरह हैं जिसको किसी परिचय की जरूरत नहीं। वे छायावाद युग के आधार स्तम्भ माने जाते हैं। हिन्दी काव्य जगत में छायावाद युग की स्थापना एक तरह से उन्होंने ही की। वह विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं। साहित्य में उन्होंने नाटक ,कहानी, निबंध तथा काव्य को असीम ऊँचाइयों तक पहुँचाया। प्रसाद जी को हिन्दी क्षेत्र में लगभग हर क्षेत्र में यश प्राप्त है। प्रसाद जी हिन्दी जगत में उच्चतम पद पर आसीन हैं। उनका व्यक्तित्व इतना विशाल व विराट है कि हिन्दी जगत में उनकी तुलना तुलसीदास जी से की जाती है। उनकी लेखनी को पारस कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि हिन्दी जगत में उन्होंने गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में रचनाएँ की हैं। प्रसाद जी नाट्य जगत व कथा साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। प्रसाद जी मुख्य रूप से कवि हैं परंतु नाटक व कहानी जगत में भी उन्होंने साहित्य को महत्वपूर्ण योगदान दिया। उपन्यास जगत में उन्होंने विशेषकर आलोचनात्मक उपन्यासों की रचना की। कहानी जगत मे उनकी कहानी भावना प्रधान कहानी है। उनके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह ज़्यादातर इतिहास से प्रेरित है। प्रसादजी एक कुशल नाटककार भी हैं क्योंकि अपनी नाट्यकृतियों द्वारा उन्होंने नाट्य जगत को समृद्ध किया। प्रसाद जी ने कई नाटक लिखे जिनमें सज्जन, चन्द्रगुप्त, विशाख, राज्यश्री, अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी प्रमुख हैं। इनमें चन्द्रगुप्त ,अजातशत्रु ,स्कंदगुप्त व ध्रुवस्वामिनी नाटकों में ऐतिहासिक तत्वों का समावेश देखने को मिलता है।
‘ध्रुवस्वामिनी’
नाटक प्रसाद जी द्वारा लिखा एक ऐतिहासिक –
पौराणिक नाटक है। यह प्रसाद जी की अंतिम व
श्रेष्ठ कृति है। इसका कथानक ‘गुप्तकाल’
से संबंधित है। इस नाटक में समस्या नवीन है
परंतु उसे इतिहास की प्राचीनता के द्वारा उजागर किया गया है। वास्तव में यह कहा जा
सकता है कि ‘ध्रुवस्वामिनी’
नाटक नाट्य शिल्प की दृष्टि से पूर्ण रूप से
सुनियोजित है। इसमें नारी समस्या को प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार प्रसाद जी ने
इस नाटक में नारी के सभी सद्गुणों –दया, त्याग –क्षमा, सहनशीलता, एकनिष्ठता, विश्वास को इस नाटक में दृश्यांत किया है। भले ही प्रसाद जी
परंपरावादी तथा संस्कृतवादी लेखक रहें हैं परंतु समय के साथ वह गतिमान भी हुए हैं। अतः यह नाटक राजनीति तथा
सामाजिक समस्या को लिए हुये है।
इस नाटक में रामगुप्त तथा
ध्रुवस्वामिनी के अन्तर्मन का द्वन्द्व भी सहज ही देखने को मिलताहै। रामगुप्त
अत्यंत कुटिल, अविश्वासी तथा
धूर्त राजा है वह अपनी पत्नी अर्थात ध्रुवस्वामिनी पर शक करता है। वह जनता था कि
ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त को चाहती है फिर भी उसने उससे जबरन विवाह किया और अब वह उस पर नज़र रखने के लिए स्त्री गुप्तचर को
अंगरक्षक नियुक्त करता है और कहता है –
“शिखर - स्वामी:
मैं क्या कहूँ ? शत्रु - पक्ष का
यही संधि –संदेश है। यदि स्वीकार न
हो तो युद्ध कीजिए। शिविर दोनों और से घिर गया है। उसकी बातें मानिए , या मरकर भी अपनी कुल – मर्यादा की रक्षा कीजिए। दूसरा कोई उपाए नहीं”।(5)
रामगुप्त व शिखर - स्वामी दोनों ही छल-प्रपंच से भरे हुए हैं। दोनों ही क्रूर,
क्लीव, असमर्थ तथा विलास से घिरे हुए कापुरूष हैं जो अपने स्वार्थ हेतु नारी को पर
पुरुष को सौंपने से परहेज नहीं करते।
“चन्द्रगुप्त :
(आवेश से) यह नहीं हो सकता। महादेवि ! जिस मर्यादा के लिए, जिस महत्त्व को स्थिर रखने के लिए, मैंने राजदंड ग्रहण न करके अपना मिला हुआ अधिकार छोड़ दिया,
उसका यह अपमान !मेरे जीवित रहते आर्य
समुद्रगुप्त के स्वर्गीय गर्व को इस तरह पद –दलित होना न पड़ेगा। (ठहरकर) और भी एक बात है। मेरे हृदय के
अंधकार में प्रथम किरण – सी आकर जिसने
अज्ञातभाव से अपना मधुर आलोक ढाल दिया था, उसको भी मैंने केवल इसलिए भूलने का प्रयत्न किया कि .... (सहसा चुप हो जाता है)। (8)
(वह दुखी होकर
जाना चाहती है कि दूसरी ओर से मिहिरदेव का प्रवेश ) “ (9)
वह अत्यंत ही साहसी तथा विचारशील
नारी है। वह हमेशा सत्य का साथ देती है। नाटक के अंत में जब ध्रुवस्वामिनी
अपने आपको असहाय सा अनुभव करती है तो वह उसमें जान फूँकने का काम करती है। वह
सामाजिक रूढ़ियों व परम्पराओं का विरोध करते हुए
अमात्य को धर्म - ग्रंथ में से
ध्रुवस्वामिनी के पुनर्विवाह का कोई उपाय ढूँढने को कहती है। वह कहती है -
इस नाटक में नारी के पुनर्विवाह की
समस्या को भी उठाया गया है तभी तो डॉ ॰ ओझा कहते हैं – “ इसका उद्देश्य स्त्री के पुनर्विवाह की समस्या पर प्रकाश
डालना है। “ (13)
ध्रुवस्वामिनी नाटक भले ही पौराणिक
कथा पर आधारित है परंतु इसकी कथावस्तु नवीन है। प्रसाद जी ने अपने इस नाटक में
नारी को बहुत ही सशक्त दिखाया है। नाटक में कोमा, ध्रुवस्वामिनी और मंदाकिनी मुख्य नारी पात्र हैं और सभी को
विवेकशील, संघर्षशील बताया है। नाटक
में मंदाकिनी, ध्रुवस्वामिनी के
पुनर्विवाह का समर्थन करती है और राजपुरोहित से रामगुप्त व ध्रुवस्वामिनी के
संबंध-विच्छेद के लिए शास्त्र देखने को कहती है। अतः वह चन्द्रगुप्त व
ध्रुवस्वामिनी के विवाह का समर्थन करती है।
जयशंकर प्रसाद हिन्दी जगत में एक चमकते हुए सितारे की तरह हैं जिसको किसी परिचय की जरूरत नहीं। वे छायावाद युग के आधार स्तम्भ माने जाते हैं। हिन्दी काव्य जगत में छायावाद युग की स्थापना एक तरह से उन्होंने ही की। वह विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं। साहित्य में उन्होंने नाटक ,कहानी, निबंध तथा काव्य को असीम ऊँचाइयों तक पहुँचाया। प्रसाद जी को हिन्दी क्षेत्र में लगभग हर क्षेत्र में यश प्राप्त है। प्रसाद जी हिन्दी जगत में उच्चतम पद पर आसीन हैं। उनका व्यक्तित्व इतना विशाल व विराट है कि हिन्दी जगत में उनकी तुलना तुलसीदास जी से की जाती है। उनकी लेखनी को पारस कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि हिन्दी जगत में उन्होंने गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में रचनाएँ की हैं। प्रसाद जी नाट्य जगत व कथा साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। प्रसाद जी मुख्य रूप से कवि हैं परंतु नाटक व कहानी जगत में भी उन्होंने साहित्य को महत्वपूर्ण योगदान दिया। उपन्यास जगत में उन्होंने विशेषकर आलोचनात्मक उपन्यासों की रचना की। कहानी जगत मे उनकी कहानी भावना प्रधान कहानी है। उनके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह ज़्यादातर इतिहास से प्रेरित है। प्रसादजी एक कुशल नाटककार भी हैं क्योंकि अपनी नाट्यकृतियों द्वारा उन्होंने नाट्य जगत को समृद्ध किया। प्रसाद जी ने कई नाटक लिखे जिनमें सज्जन, चन्द्रगुप्त, विशाख, राज्यश्री, अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी प्रमुख हैं। इनमें चन्द्रगुप्त ,अजातशत्रु ,स्कंदगुप्त व ध्रुवस्वामिनी नाटकों में ऐतिहासिक तत्वों का समावेश देखने को मिलता है।
प्रसाद जी की शुरुआती रचनाओं में ब्रज भाषा का प्रचूर प्रयोग देखने को मिलता है परंतु बाद में
उन्होंने खड़ी बोली की तरफ अपना रुख किया।
उनके कोमल स्पर्श से साहित्य की सभी विधाएँ जगमगा उठीं। कुछ सीमित शब्दों व पन्नों
पर उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व तथा साहित्य का अंकन कर पाना असंभव है। भले ही प्रसाद
जी ने कई नाटक,कहानी ,उपन्यास तथा
निबंध लिखे पर मूल रूप से वह कवि ही हैं क्योंकि उनका कवि
रूप हर जगह झलकता है।‘कामायनी ‘
प्रसाद जी की एक ऐसी रचना है जिसे आधुनिक
साहित्य का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य कहा जाता है।
“इस पृष्ठभूमि में
देखें तो ध्रुवस्वामिनी नाटक छायावाद और यथार्थवाद के गहरे रिश्ते को स्थापित करता
है। जिस यथार्थवाद का आरंभ स्वयं प्रसाद ने भारतेन्दु से माना है उसी यथार्थवाद की
स्वस्थ और तीव्र, तेजस्वी लहर का
वह प्रमाण है। ध्रुवस्वामिनी सम्पूर्ण भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के बीच प्रगतिशील
मूल्यों को संघर्ष –चेतना को
रेखांकित करता है और धर्म, समाज, राजनीति, इतिहास, युगबोध सबको चुनौती देते उस जनविद्रोह और नारी –अस्मिता के संकट और उस संकट से मोक्ष को रेखांकित करता है जो आज प्रगतिवादी
विचारधारा का मुख्य आधार है”।1
ध्रुस्वामिनी का कथानक इतिहास प्रसिद्ध है। कथावस्तु अत्यंत
सीमित है अतः नाटक को रंगमंच पर अभिनीत करना मुश्किल नहीं है। नाटक को तीन अंकों
में बाँटा गया है। नाटक में कहीं - कहीं
कल्पना शक्ति से भी काम लिया गया है। नाटक की कथावस्तु का विकास पात्रों के
आपसी वार्तालाप द्वारा बहुत ही सुनियोजित ढंग से होता है। ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक का नारी -आदर्श प्रसाद जी के अन्य नाटकों से भिन्न है। इस नाटक
में नारी के सामने भिन्न प्रकार की चुनौतियाँ हैं। एक तरफ उसका क्लीव ,कायर ,कापुरूष पति है जो खुद को तथा अपनी सत्ता को बचाने के लिए अपनी अर्धांगिनी को
शक कुमार को सौंपने को तैयार है तो दूसरी और ध्रुवस्वामिनी अपने अस्तित्व की रक्षा
हेतु आत्महत्या करने को तैयार हो जाती है। वह अपने पति से अपनी रक्षा को प्रार्थना
करती है। जब रामगुप्त उसकी मदद हेतु उत्तर नहीं देता तो वह कहती है -
“ध्रुवस्वामिनी –
( खड़ी होकर रोष से ) निर्लज्ज ! मद्धप !! क्लीव
!!! ओह तो मेरा कोई रक्षक नहीं? (ठहरकर ) नहीं,
मैं अपनी रक्षा स्वयं करूँगी ! मैं उपहार में
देने की वस्तु, शीतलमणि नहीं
हूँ। मुझमें रक्त की तरल लालिमा है। मेरा हृदय
उष्ण है और उसमें आत्मसम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा में ही करूँगी।
(रसना से कृपाणी निकाल लेती है) 2
इन पंक्तियों में ध्रुवस्वामिनी का
विद्रोह आज की नारी को दर्शाता है कि नारी कभी भी दबी और कुचली नहीं जा सकती। चाहे
वह आज की नारी हो जा प्राचीन वह अपने सम्मान को आहत नहीं होने दे सकती। नारी केवल
नियति पर ही आश्रित नहीं है। उसके अंदर स्वाभिमान है जो उसे स्वयं की रक्षा करना
सिखाता है। नाटक में ध्रुवस्वामिनी को आधुनिक युग की नारी की तरह स्वतंत्र ,विकासशील और अपने अधिकारों के प्रति सजग व सचेत
बताया गया है। वह अपने सम्मान की रक्षा हेतु परिस्थितियों को बदलना जानती है। नाटक
में ध्रुवस्वामिनी के अन्तर्मन की पीड़ा को प्रतीकात्मक ढंग से व्यक्त किया गया है।
‘ध्रुवस्वामिनी’ के संदर्भ में प्रायः सभी आलोचकों ने यह बात
स्वीकार की है कि “प्रसाद जी ने अपनी इस रचना में ऐतिहासिक पृष्टभूमि में
आधुनिक नारी के जीवन की एक समस्या का बौद्धिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इस
प्रकार यह एक समस्या नाटक है और इसके स्वरूप के पीछे पशचिम के इसी कोटि के नाटक
बुद्धिवादी नाटकों की प्रेरणा स्पष्ट होती प्रतीत होती है”। (3)
“जगत की अनुपम सुंदरी
मुझसे स्नेह नहीं करती और मैं हूँ इस देश
का राजधिराज”। (4)
अतः वह ध्रुवस्वामिनी से जबरन विवाह
तो कर लेता है परंतु उसके मन में कभी भी अपने लिए स्थान नहीं बना पाता। तभी
रामगुप्त को पता चलता है कि शकराज उस पर हमला कर राष्ट्र को हथियाना चाहता है पर
वह कायर युद्ध के डर से ध्रुवस्वामिनी को उपहार के रूप में देकर युद्ध से बचना
चाहता है। वह दूसरे सामंतों को भी इस काम के लिए राजी करने की कोशिश करता है।
शिखरस्वामी के साथ मिलकर वह निश्चित करता है कि उसे युद्ध न करना पड़े –
डॉ. मिश्र का मानना है –“रामगुप्त में शेक्सपियर के खलनायक की वृत्ति पाई जाती है”।(6)प्रसाद जी के
नाटकों मे नारी के विभिन्न रूपों का चित्रण बहुत ही सजीव ढंग से किया है। उनके
नाटकों में नारी का विश्लेषण यथार्थमय होते हुये भी आदर्शपरक है। ध्रुवस्वामिनी
नाटक ऐतिहासिक होते हुए भी समाजपरक मूल्यों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। नाटक
में ऐसे पात्र भी हैं जो अपने स्वार्थहित गलत कार्य हेतु भी रामगुप्त का साथ देते
हैं और मौन रहते हैं। डॉ॰ स्वरूप चतुर्वेदी जी के अनुसार - “आधुनिक युग की जटिल, अर्द्ध-अनुभूत और अनुभूत संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए
नाटक जैसा उपयुक्त साहित्य रूप नहीं है”। (7)
नाटक मुख्य रूप से ध्रुवस्वामिनी के
इर्द – गिर्द ही घूमता है हम कह
सकते हैं कि मुख्य पात्र ध्रुवस्वामिनी ही है। जब रामगुप्त उसकी रक्षा हेतु कोई
उपाय नहीं करता तो हताश ध्रुवस्वामिनी अत्महत्या करने के लिए तैयार हो जाती है।
जब सारा वृतांत चन्द्रगुप्त को पता चलता
है तो चन्द्रगुप्त रामगुप्त के इस जघन्य –कृत्य से विचलित हो जाता है और सोचता है -
प्रसाद जी ने अपने साहित्य में नारी
को अबला नहीं बल्कि पुरुष के समान ही शक्तिशाली, ऊर्जावान, गरिमामयी तथा
आदर्श नारी के रूप में चित्रित किया है। उनके नाटकों मे नारी सशक्त नारी है।
ध्रुवस्वामिनी नाटक में शकराज की पत्नी कोमा एक भावनाशील नारी है। वह अपने पति से
अत्यंत प्रेम करती है और पति के पथ भ्रष्ट होने पर उसका मार्ग दर्शन करने का भरसक
प्रयास करती है परंतु असफल रहती –
“कोमा : वही जो आज
होने जा रही है! मेरे राजा! आज तुम एक स्त्री को अपने पति से विच्छिन्न कराकर अपने
गर्व की तृप्ति के लिए कैसा अनर्थ कर रहे हो?
शकराज : (बात उड़ाते हुए हँसकर) पागल
कोमा ! वह मेरी राजनीति का प्रतिशोध है।
कोमा : (दृढ़ता से) किन्तु, राजनीति का
प्रतिशोध क्या एक नारी को कुचले बिना नहीं हो सकता?
शकरज : जो विषय न समझ में आवे, उस पर विवाद न
करो।
कोमा : (खिन्न होकर ) मैं क्यों न करूँ ? (ठहरकर) किन्तु नहीं, मुझे विवाद करने का अधिकार नहीं। यह मैं समझ गई।
इस वार्तालाप से पता चलता है कि कोमा
एक स्त्री होने के नाते दूसरी स्त्री की रक्षा करना चाहती है। वह एक दार्शनिक ,करुणा की मूर्ति व भावुक नारी है। वह प्रणय का
मर्म जानती है और अपने पति से अत्यंत प्रेम करती है। उसमें नारी मन की कोमलता भरी
है। वह अपने पति की ध्रुवस्वामिनी को पाने की मंशा को जानती है और चाहती है कि
उसका पति यह अनर्थ न करे परंतु असफल रहती है। इन पंक्तियों में वह कहती है –
“कोमा : ( खिन्न
होकर ) प्रेम का नाम न लो ! वह एक पीड़ा थी जो छूट गई। उसकी कसक भी धीरे – धीरे दूर हो जाएगी। राजा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करती। मैं तो दर्प से
दीप्त तुम्हारी महत्त्वमयी पुरुष की पुजारिन थी, जिसमें पृथ्वी पर अपने पैरों से खड़े रहने की दृढ़ता थी।“
(10)
अतः प्रसाद जी ने अपने इस नाटक में
कोमा के माध्यम से स्त्री के कोमल मन की पीड़ा तथा उसकी त्रासदी का चित्रण बड़े ही
मार्मिक ढंग से किया है। अंत में जब वह अपने पति की मृत्यु के बाद उसका शव
ध्रुवस्वामिनी से मांगने जाती है और वापसी में रामगुप्त के सैनिकों द्वारा मारी
जाती है। अतः कोमा का अंत अत्यंत ही मार्मिक है।
प्रसाद जी के इस नाटक में मंदाकिनी भी
एक बहुत ही सात्विक, संवेदनशील ,साहसी व न्यायप्रिय पात्र है वह चन्द्रगुप्त की
बहन व ध्रुवस्वामिनी की ननद है। वह रामगुप्त द्वारा भेजे गए संधि पत्र व रामगुप्त
द्वारा उसे मानने के लिए उसे फटकारती है –
“मंदाकिनी : (
प्रवेश करके ) राजा अपने राष्ट्र की रक्षा करने में असमर्थ है, तब भी उस राजा की रक्षा होनी चाहिए। अमात्य,
यह कैसी विवशता है ! तुम मृत्युदंड के लिए
उत्सुक !महादेवी अत्महत्या के लिए प्रस्तुत !फिर यह हिचक क्यों? एक बार अंतिम बल से परीक्षा कर देखो। बचोगे तो
राष्ट्र और सम्मान भी बचेगा, नहीं तो सर्वनाश
!” (11)
“ मंदाकिनी : राजा का भय, मंदा का गला नहीं
घोंट सकता। तुम लोगों को यदि कुछ भी बुद्धि होती, तो इस अपनी कुल – मर्यादा, नारी को, शत्रु के दुर्ग में यों न भेजते। भगवान ने
स्त्रियों को उत्पन्न करके ही अधिकारों से वंचित नहीं किया है। किन्तु तुम लोगों
की दस्युवृति ने उन्हें लूटा है। इस परिषद से मेरी प्रार्थना है की समुद्रगुप्त का
विधान तोड़ कर जिन लोगों ने राजकिल्विष किया हो उन्हें दण्ड मिलना चाहिए। “
(12)
प्रसाद जी ने अपने इस नाटक के सभी पात्रों के साथ भरपूर न्याय किया है। सभी
पात्र बहुत ही सजीव से प्रतीत होते हैं। नाटक पढ़ते समय भी ऐसा प्रतीत होता है जैसे
सब कुछ आँखों के सामने हो रहा है। तभी तो डॉ. बनवारी हाण्डा जी कहते हैं “इस नाटक में एक महान विशेषता यह भी है कि
परिस्थितियों से चित्रण का निर्माण हुआ है और चरित्र से परिस्थितियों का “
(14)
मूल रूप से यह नाटक समस्या प्रधान नाटक है। इसमें सामाजिक व राजनीतिक समस्या है।
सामाजिक समस्या के रूप में इसकी समस्या को डॉ. रुचिरा ढींगरा जी लिखती हैं –
“सामाजिक समस्या के अंतर्गत इस नाटक में
अत्याचारी, नपुंसक ,मर्यादाहीन और सर्वथा अनाचारी पति के नियंत्रण
से सर्वगुण सम्पन्न एवं कुलीन नारी की मुक्ति (तलाक) अथवा पुनर्लग्न (पुनर्विवाह)के संबंध में विचार किया
गया है। “ (15 )
उपसंहार –‘ध्रुवस्वामिनी‘ में हमें नारी के बहुत ही सुदृढ़ रूप की
झलक देखने को मिलती है। प्रसाद जी की नारी पुरुष तुल्य है। कहीं – कहीं तो वह पुरुष से भी ज़्यादा शक्तिशाली व
ऊर्जावान है। वह आज की नारी है जो पुरुष
के कंधे से कंधा मिला कर चलती है। वह पुरुष से किसी भी काम में पीछे नहीं है।
प्रसाद जी नारी को महान जीवनदायिनी व अमृतस्वरूपा मानते हैं। इस प्रकार प्रसाद जी
ने अपने काव्य में नारी के उज्ज्वल पक्ष
को प्रस्तुत किया है। नारी की अस्मिता पर विशेष बल दिया है।‘ध्रुवस्वामिनी’ में कहीं न कहीं स्वतन्त्रता आंदोलन का प्रभाव देखने को मिलता है क्योंकि नाटक
में नारी का विद्रोहिनी रूप भी देखने को मिलता है। प्रसाद जी की नारी स्वाभिमानी
है। वह तिरस्कृत व अपमानित जीवन जीने की बजाए मरना पसंद करती है। ‘ध्रुवस्वामिनी’ हमें नारी की की मुक्ति का संदेश भी देता है क्योंकि नाटक
में नारी का संघर्षशील रूप दिखाया गया है। वह अपने हितों के प्रति जागरूक है और
अपनी रक्षा करना जानती है।अतः हम कह सकते है कि ‘ध्रुवस्वामिनी‘ नाटक प्रसाद जी का एक इतिहास प्रसिद्ध नाटक है परंतु इसका संदेश सर्वथा नवीन
है। नारी को बंधनों से मुक्त करने की बात की गई है। समाज में उसे उच्च स्थान प्राप्त होना चाहिए
जिसकी वह हकदार है। नारी में भी हृदय है,
उसमें भी सपने पनपते हैं, उसे भी अपने सपने पूरे करने का हक है। भारतीय
समाज में प्रारंभ से ही नारी को सम्मान प्राप्त है जो कहीं न कहीं मध्ययुग में विलीन हो गया था। इतिहास भी इस बात
की पुष्टि करता है कि जो समाज औरत का सम्मान नहीं करता उसका अवश्य ही पतन होता है।
संदर्भ सूची
1) गिरीश रस्तोगी, हिन्दी नाटक का आत्मसंघर्ष, पृ. 63
2)
प्रसाद, ध्रुवस्वामिनी, पृ. 19-20
3) डॉ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, हिन्दी नाटक का पाश्चात्य प्रभाव, पृ. 256
4)
प्रसाद ,ध्रुवस्वामिनी, पृ. 13
5) डॉ. रुचिरा ढींगरा , ध्रुवस्वामिनी ( मूल एवं समीक्षा ), पृ. 17
6) डॉ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, हिन्दी नाटक का पाश्चात्य प्रभाव, पृ. 264
7) डॉ. स्वरूप चतुर्वेदी, हिन्दी नवलेखन, पृ.- 142
8) डॉ. रुचिरा ढींगरा, ध्रुवस्वामिनी ( मूल एवं समीक्षा ), पृ. 21
9) वही, पृ. 30
10) वही, पृ. 32
11) वही, पृ. 21-22
12) वही, पृ. 44
13) डॉ. दशरथ ओझा, हिन्दी नाटक : उद्भव एवं विकास, पृ. 252
14) डॉ. बनवारी हाण्डा,
प्रसाद जी का नाट्य-शिल्प, पृ. 158
15) डॉ. रुचिरा ढींगरा,
ध्रुवस्वामिनी ( मूल एवं समीक्षा ), पृ. 46-47
अनुराधा
पीएच.
डी. शोधार्थी, मेवाड़ विश्वविद्यालय, गंगरार(चित्तौड़गढ़)
9289565005
डॉ. दर्शन पाण्डेय
शोध निर्देशक, शिवाजी कॉलेज, नई दिल्ली, दिल्ली विश्वविद्यालय
darshan.du@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 30(अप्रैल-जून 2019) चित्रांकन वंदना कुमारी
Peer Reviewed Journal
सम्पादक : माणिक एवं जितेन्द्र यादव
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